भीड़ में ऐसी खोई हूं खुद कि पहचान खोती जा रही हूं रातों को जागना राहत देता है अकेलापन कुछ ज्यादा ही करीब आ रहा है शायद"अकेले रहना है मुझे" मेरी इस ज़िद ने अकेला रखा है मुझे फिर भी बहुत कुछ अधूरा सा लगता है अभी बहुत से सपने है इस दिल मै उन्हें पूरा करने के हीमत हर बार जुटाती हूं फिर न जाने जवाने की या अपनी ही ठोकर से उस हिम्मत के पहाड़ को गिरा देती हूं दिखाती हूं सबको की बहुत हिम्मत है मुझमें न जाने किस्से ये झूठ कहती हूं सब से,दूसरो से या फिर सब मै शामिल खुद से न जाने क्या चाहती हूं खुद से ही खुद को खोती जा रही हूं अपने आप को खुद ही नई समझ रही हूं ऑरो से फिर कैसी उम्मीद रखू जब खुद मेरा मन ही नई जनता क्या चाहता है वो थक चुकी हूं दुनिया से पर अब शायद खुद से हार रही हूं मै फिर भी हर रोज़ उठती हूं सबसे पहले खुद से मुक़ाबला करने की हिम्मत लाती हूं फिर बस अपने बिस्तर को छोरकर दुनिया का रोज़ सामना करती हूं पर जिस दिन खुद से हारू न उस दिन हार जाती हूं सब से तो हर रोज़ अपने आप को हराने मै वक्त बिताती हूं इसलिए भी शायद खुद को कहीं खोती जा रही हूं।