आँखों मे आ गया पर छलका नहीं । ठहर गया दो पल पलकों पर , हूँ बस पानी पर हल्का नहीं ।
रुका में की नजर ना आये दर्द उसका भीड़ को । पर भीतर आये सेलाब ने सब्र को झंजोड दिया । कई मर्तबा जुंझा में उसकी इस कशमकश में... कई दफा उसने मुझे मुस्कुरा कर पी लिया ।
अबके जो पलकों पे आया तो रुका भी , सोच कर दुनिया का ये अश्क थोड़ा सूखा भी । ना कुसूर ना आदत उसकी तकदीर में था सहना । करता भी क्या मामूली अश्क हूँ , मेरी नियति है फकत बहना ......