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Apr 2016
बैठा मैं मंदिर में भी मस्जिद में भी,
ना भगवान का अक्स दिखा,हुआ ना अल्लाह का एहसास,
आज खुद पे तरस खाकर बोल उठा मैं,
खुदा कभी हमारा भी तो तू दीदार कर,
देख कबसे बैठे हैं तेरी चाह लेकर,
तू हमसे भी तो कभी प्यार कर,
ढूँडते हुए तुझे देख बरसों बीत गये,
क्यूँ लूँ मैं अब राम नाम,
जंग तो यहाँ रावण जीत गये,
लगता है आज मेरे लफ्ज़ नहीं,मेरी पीड़ा उस तक पहुँची थी,
और वो बोल उठा,
कण-कण में हूँ मैं,षण-षण में हूँ मैं,
क्यूँ मुझे इन दीवारों से जकड़ा हुआ समझा जाने लगा,
वो नदी भी हूँ मैं,वो पर्वत भी हूँ मैं,
सोच छोटी हुई तुम्हारी,और मैं भी बाँटा जाने लगा,
नेकी करने भेजा तुझे,यह ज़िंदगी तूने यूँ ही गवाँ दी,
आँकी नहीं इस जीवन की कीमत तूने,
और सारी की सारी मंदिर-मस्जिद में बिता दी.
karan aatre
Written by
karan aatre
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   Purab, Skaidrum, Viral and Sanjukta Nag
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