Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
कहीं गहरे तक
उदास हूँ ,
भीतर अंधेरा
पसरा है।
तुम चुपके से
एक दिया
देह देहरी पर
रख ही दो।
मन भीतर
उजास भरो ।
मैल धोकर
निर्मल करो।
कभी कभार
दो सहला।
जीवन को
दो सजा।
जीवंतता का
दो अहसास।
अब बस सब
तुम्हें रहे देख।
कनखी से देखो,
बेशक रहो चुप।
तुम बस सबब बनो,
नाराज़ ज़रा न हो।
मुक्त नदी सी बहो,
भीतरी उदासी हरो।
यह सब मन कहे,
अब अन्याय कौन सहे?
जो जीवन तुम्हारे अंदर,
मुक्त नदी बनने को कहे।

२५/११/२०२४.
बेटियों का श्राप
कोई बाप
अपनी नवजात बेटी को मार कर,
उसे गंदे नाले में फैंककर
चल दे बगैर किसी डर के
और बगैर शर्मोहया के करें दुर्गा पूजन ।
तो फिर क्यों न मिले ?
उसे श्राप
उस नन्ही मृतक बिटिया का ?
कोई पिता
ठंड के मौसम में
छोड़ जाएं अपनी बिटिया को,
मरने के लिए ,
यह सोचकर
कि कोई सहृदय
उसे उठाकर
कर देगा सुपुर्द ,
किसी के सुरक्षित हाथों में !
और वह
कर ही लेगा
गुज़र बसर ।
ताउम्र गुज़ार लेगा
ग़रीबी में ,
चुप रहकर
प्रायश्चित करता हुआ।
पर
दुर्भाग्यवश
वह बेचारी
'पालना घर' पहुंचने से पहले ही
सदा सदा की नींद जाए सो
तो क्यों न !
ऐसे पिता को भी
मिले
नन्ही बिटिया का श्राप?

सोचता हूं ,
ऐसे पत्थर दिल बाप को
समय दे ,दे
यकायक अधरंग होने की सज़ा।
वह पिता
खुद को समझने लगे
एक पत्थर भर!

चाहता हूं,
यह श्राप
हर उस ‌' नपुंसक ' पिता को भी मिले
जो कि बनता है  पाषाण हृदय ,
अपनी बिटिया के भरण पोषण से गया डर ।
उसे अपनी गरीबी पहाड़ सी दुष्कर लगे।

कुछ बाप
अपनी संकीर्ण मानसिकता की वज़ह से
अपनी बिटिया के इर्द गिर्द
आसपास की रूढ़िवादिता से डरकर
नहीं देते हैं
बिटिया की समुचित परवरिश पर ध्यान,
उनको भी सन्मति दे भगवान्।

बल्कि
पिता कैसा भी हो?
ग़रीब हो या अमीर,
कोई भी रहे , चाहे हो धर्म का पिता,
उन्हें चाहिए कि
वे अपनी गुड़ियाओं के भीतर
जीवन के प्रति
सकारात्मक सोच भरें
नाकि
वे सारी उम्र
अपने अपने  डरों से डरें ,
कम से कम
वे समाज में व्याप्त
मानसिक प्रदूषण से
स्वयं और बेटियों को
अपाहिज तो न करें।


चाहता हूं,
अब तो बस
बेटियां
सहृदय बाप की ही
गोद में खिलें
न कि
भ्रूण हत्या,
दहेज बलि,
हत्या, बलात्कार
जैसी अमानुषिक घटनाओं का
हों शिकार ।
आज समय की मांग है कि
वे अपने भीतरी आत्मबल से करें,
अपने अधिकारों की रक्षा।

अपने भीतर रानी लक्ष्मीबाई,
माता जीजाबाई,
इंदिरा,
मदर टैरेसा,
ज्योति बाई फुले प्रभृति
प्रेरक व्यक्तित्वों से प्रेरणा लेकर
अपने व्यक्तित्व को निखारने के लिए
अथक परिश्रम और प्रयास करें
ताकि उनके भीतर
मनुष्योचित पुरुषार्थ दृष्टिगोचर हो,
इसके साथ साथ
वे अपने लक्ष्य
भीतर ममत्व की विराट संवेदना भरकर पूर्ण करें।
वे जीवन में संपूर्णता का संस्पर्श करें।
मजाक उड़ाना ,
मजे की खातिर
अच्छे भले को मज़ाक का पात्र बनाना ,
कतई नहीं है उचित।

जिसका है मज़ाक उड़ता ,
उसका मूड ठीक ही है उखड़ता।
यही नहीं,
यदि यह दिल को ठेस पहुंचाए ,
तो उमंग तरंग में डूबा आदमी तक
असमय ही बिखर जाए ,
मैं उड़ाना तक भूल जाए ।


मजाक उड़ाना,
मज़े मज़े में मुस्कुराते हुए
किसी को उकसाना ।
उकसाहट को साज़िश में बदलना,
अपनी स्वार्थ को सर्वोपरि रखना,
यह सब है अपने लिए गड्ढा खोदना।


मज़ाक में कोई मज़ा नहीं है ,
बेवजह मज़ाक के बहाने ढूंढना
कभी-कभी आपके भीतर
बौखलाहट भर सकता है ,
जब कोई जिंदा दिल आदमी
आपकी परवाह नहीं करता है
और शहर की आपको नजर अंदाज करता है,
तब आप खुद एक मज़ाक बन जाते हैं ।
लोग आपको इंगित कर ठहाके लगाते हैं !
आप भीतर तक शर्मसार हो जाते हैं

आप मज़ाक उड़ाना और मज़े लेना बिल्कुल भूल जाते हैं।


पता है दोस्त, नकाब यह दुनिया है नकाबपोश,
जहां पर तुम विचरते हो ,
वहां के लोग नितांत तमाशबीन हैं।
दोस्त, भूल कर मजाक में भी मजा न ढूंढ,
यह सब करना मति को बनाता है मूढ़!
ऐसा करने से आदमी जाने अनजाने मूढ़ मति  बनता है।
वह अपने आप में मज़ाक का पात्र बनता है।
हर कोई उस पर रह रह कर हंसता है।
ऐसा होने पर आदमी खिसिया कर रह जाता है।
अपना दुःख दर्द चाह कर भी व्यक्त नहीं कर पाता है।
आदमी हरदम अपने को एक लूटे-पीटे मोहरे सा पाता है।
०९/०२/२०१७.
हर हाल में
उम्मीद का दामन
न छोड़, मेरे दोस्त!
यह उम्मीद  ही है
जिसने साधारण को
असाधारण तो बनाया ही है ,
बल्कि
जीवन को
जीवंत बनाए रखा है ।
इसके साथ ही
बेजोड़ !
बेखोट!
एकदम कुंदन सरीखा !
अनमोल और उम्दा !
साथ ही  तिलिस्म से भरपूर ।
उम्मीद ने ही
जीवन को
नख से शिख तक ,
रहस्यमय और मायावी सा
निर्मित किया है,
जिसने मानव जीवन में
एक नया उत्साह भरा है।

उम्मीद ही
भविष्य को संरक्षित करती है,
यह चेतन की ऊर्जा  सरीखी है।
यह सबसे यही कहती है कि
अभी
जीवन में
बेहतरीन का आगाज़
होना है ,
तो फिर
क्यों न इंसान
सद्कर्म करें!
वह चिंतातुर क्यों रहे?
क्यों न वह
स्वयं के भीतर उतरकर
श्रेष्ठतम जीवन धारा में बहे !
संवेदना के
स्पंदनों को अनुभूत करे !!
Putting me at the mercy of having to believe you is not the same as trust.
Betrayal
कितने चाँद
तुम
ढूंढना
चाहते हो
जीवन के
आकाश में ?
तुम रखो याद
जीने की खातिर
एक चाँद ही काफ़ी है ,
सूरज की तरह
जो मन मन्दिर के भीतर
प्रेम जगाए,
रह रह कर झाँके
जीवन कथा को बाँचे।
और साथ ही
जीवन को
ख़ुशी के मोतियों से
जड़कर
इस हद तक
बाँधे,
कोई भी
जीवन रण से
न भागे।
१०/०१/२००९.
रचनाकार के पास एक सत्य था ।
उसका अपना ही अनूठा कथ्य था ।
उसने इसे जीवन का हिस्सा बनाया।
और अपनी जिंदगी की कहानी को ,
एक किस्सा बनाकर लिख दिया।



जब यह किस्सा, संपादक के संपर्क में आया।
तब सत्य ही , संपादक ने इसे अपनी नजरिये से देखा।
और उसने अपनी दृष्टिकोण की कैंची से, किया दुरुस्त।
फिर उसने इस किस्से को, पाठकों को दिया सौंप।


पाठक ने इसे पढ़कर, गुना और सराहा।
परंतु रचनाकार में पनप रहा था असंतोष।
उसे लगा कि संपादक ने किया है अन्याय।
रचनाकार खुद को महसूस कर रहा था असहाय।,


संपादक की जिम्मेदारी उसे एक सीमा में बांधे थी।
पाठक वर्ग  और कुछ नीति निर्देशों से संपादक बंधा था।
वह रचनाओं की कांट, छांट, सोच समझ कर करता था ।
और रचनाकार को संपादक पूर्वाग्रह से ग्रस्त लगता था।


समय चक्र बदला, अचानक रचनाकार बना एक संपादक।
अब अपने ढंग से रचना को असरकारी बनाने के निमित्त,
किया करता है, सोच और समझ की कैंची से काट छांट।
सच ही अब, उसे हो चुका है, संपादन शैली का अहसास।

अब एक रचनाकार के तौर पर, वह गया है समझ।
रचनाकार भावुक ,संवेदनशील हो ,जाता है भावों में बह।
उसके समस्त पूर्वाग्रह और दुराग्रह चुके हैं धुल अब।
जान चुका है भली भांति , संपादक की कैंची की ताकत।


बेशक रचनाकार के पास अपना सत्य और कथ्य होता है।
पर संपादक के पास एक नजरिया ,अनूठी समझ होती है।
वह रचना पर कैंची चलाने से पूर्व अच्छे से जांचता है।
तत्पश्चात वह रचना को संप्रेषणीय बनाने की सोचता है।


जब जब  संपादक ने  कैंची से एक सीमा रेखा खींची।
तब तब रचना का कथ्य और सत्य असरकारक बना।
आज रचनाकार, संपादक और पाठक की ना टूटे कड़ी।
करो प्रयास, नेह स्नेह के बंधन से सृजन की डोर रहे बंधी।
न उठे  रचनाकार के मानस में, दुःख ,बेबसी की आंधी।

२९/०८/२००५.
Next page