अंदेशा तेरे आने का हमें इस क़दर था,
पलकें ख़ामोश ही रहीं ,पर सो ना पाई।
हाल-ए-दिल भी कुछ ऐसा रहा,
आँखें नम तो रहीं पर रो ना पाई।
दाग-ए-सितम तेरे दिल इस कदर थे,
पाक कौसर भी जिसे धो ना पाई।
होना हम भी चाहते थे तेरा,
मिटाना चाहते थे ज़ीस्त-ए-तन्हाई,
किस्मत ही शायद हक़ में न थी ,
वरना यूँ ना मिलती बेबाक जुदाई।
ज़िन्दगी के इस चौसर में ,
न जीते हम ही, न जीते वो ही,
बस बिखरा फ़लसफ़ा मोहब्बत का,
फकत दिल-ए-एतबार ने मात खाई।