एक ख्वाब हैं, जो मुझे रोज़ सताता हैं , जितना भी याद करूँ , सर से निकल जाता हैं। दिखता हैं सब धुंदला , उस ख्वाब के साये मैं , इससे ख्वाब कहूं , या कहूँ मेख़ाब मैं। अब मेख़ाब से मेरा वो याराना नहीं , छोड़ी है वो गालिया , अब वहां जाना नहीं। वो ख्वाब जो कभी अपना सा लगता था , अब पराया सा हैं, पर कभी दिल मैं बसता था।
A dream once close to my heart now feels distant and unclear, What once felt like home has now become a forgotten path.