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Armin Dutia Motashaw
Poems
Jun 2022
बोज़
बोज़
तुम्हारे जानेसे, आज हम, सबके लिए और अपने लिएभी, एक बोज़ बन बैठे हैं;
माझी बगैर की नैया की तरह, संसार सागरकी लहरोंकी जोरदार मार खाते हुए, बैठे हैं
लोक शायद डरते है, कुछ करना न पड़े हमारे लिए, उन्हें हमारा कोई बोज़ उठाना न पड़े
मझधार में जब मांझी छोड़ देता है नाव, तो लोक देखते हैं उस नावको यू डूबते हुए; मज़ा लेते है वह, खड़े खड़े ।
कहीं कोई जिम्मेदारी उनपे नही आ जाये, यह डरसे हमें वो अब देखने है लगे;
जिंदगीने यू अचानक करवट बदली, की हम अब सबको एक पहाड़ जैसे पत्थरका बोज़ लगने लगे
रिश्ते इतने कमजोर है, यह कभी नहीं सोचा था हमने; बलकि रिश्तोपर बड़ा नाज़ था हमे
यह गलतफहमी निकल गयी है अब, आज यह बोज़ लिए जिंदा खड़े हैं; भगवान दे सहारा हमे
Written by
Armin Dutia Motashaw
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