Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
Jun 2022
बोज़

तुम्हारे जानेसे, आज हम, सबके लिए और अपने लिएभी, एक बोज़ बन बैठे हैं;

माझी बगैर की नैया की तरह, संसार सागरकी लहरोंकी जोरदार मार खाते हुए, बैठे हैं

लोक शायद डरते है, कुछ करना न पड़े हमारे लिए, उन्हें हमारा कोई बोज़ उठाना न पड़े

मझधार में जब मांझी छोड़ देता है नाव, तो लोक देखते हैं उस नावको यू  डूबते हुए; मज़ा लेते है वह, खड़े खड़े ।

कहीं कोई जिम्मेदारी उनपे नही आ जाये, यह डरसे हमें वो अब देखने है लगे;

जिंदगीने यू अचानक करवट बदली, की हम अब सबको एक पहाड़ जैसे पत्थरका  बोज़ लगने लगे

रिश्ते इतने कमजोर है, यह कभी नहीं सोचा था हमने; बलकि रिश्तोपर बड़ा नाज़ था हमे

यह गलतफहमी निकल गयी है अब, आज यह बोज़ लिए जिंदा खड़े हैं; भगवान दे सहारा हमे
  220
     --- and Khoisan
Please log in to view and add comments on poems