ऐ ठंड छोड़ दी मैंने जिद्द नहाने की डर कर तेरे प्रकोप से अब तो बरत कुछ राहत चल रही है नाक अकड़ रहे हैं हाथ जब होती है प्रभात सड़कें मिलती हैं सुनसान खामोशी हर तरफ ऐसी जैसे उजड़ गया हो गांव ना कोवों की कांव ना नलों में सांय सांय भांप कर अजीब ये नजारा मैं दुबका रहता बिस्तर सब से मुंह मोड़ जाने को आई जनवरी अब तो पिछा छोड़।।