जब कान्हा के होठों पे मुरली गैया मुस्काती थीं, गोपी सारी लाज वाज तज कर दौड़े आ जाती थीं। किया प्रेम इतना राधा से कहलाये थे राधेश्याम, पर भव सागर तारण हेतू त्याग चले थे राधे धाम।
पूतना , शकटासुर ,तृणावर्त असुर अति अभिचारी , कंस आदि के मर्दन कर्ता कृष्ण अति बलशाली। वो कान्हा थे योगि राज पर भोगी बनकर नृत्य करें, जरासंध जब रण को तत्पर भागे रण से कृत्य रचे।
सारंग धारी कृष्ण हरि ने वत्सासुर संहार किया , बकासुर और अघासुर के प्राणों का व्यापार किया। मात्र तर्जनी से हीं तो गिरि धर ने गिरि उठाया था, कभी देवाधि पति इंद्र को घुटनों तले झुकाया था।
जब पापी कुचक्र रचे तब हीं वो चक्र चलाते हैं, कुटिल दर्प सर्वत्र फले तब दृष्टि वक्र उठाते हैं। उरग जिनसे थर्र थर्र काँपे पर्वत जिनके हाथों नाचे, इन्द्रदेव भी कंपित होते हैं नतमस्तक जिनके आगे।
एक हाथ में चक्र हैं जिनके मुरली मधुर बजाते हैं, गोवर्धन धारी डर कर भगने का खेल दिखातें है। जैसे गज शिशु से कोई डरने का खेल रचाता है, कारक बन कर कर्ता का कारण से मेल कराता है।
अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
भगवान श्रीकृष्ण की लीलाएँ अद्भुत हैं। उनसे न केवल स्त्रियाँ , पुरुष अपितु गायें भी अगाध प्रेम करती थीं। लेकिन उनका प्रेम व्यक्ति परक न होकर परहित की भावना से ओत प्रोत था। जिस राधा को वो इतना प्रेम करते थे कि आज भी उन्हें राधेकृष्ण के नाम से पुकारा जाता है। जिस राधा के साथ उनका प्रेम इतना गहरा है कि आज भी मंदिरों में राधा और कॄष्ण की मूर्तियाँ मिल जाती है। वोही श्रीकृष्ण जग के निमित्त अपनी वृहद भूमिका को निभाने हेतू श्रीराधा का त्याग करने में जरा भी नहीं हिचकिचाते हैं। और आश्चर्य की बात तो ये हूं एक बार उन्होंने श्रीराधा का त्याग कर दिया तो जीवन में पीछे मुड़कर फिर कभी नहीं देखा। श्रीराधा की गरिमा भी कम नहीं है। श्रीकृष्ण के द्वारिकाधीश बन जाने के बाद उन्होंने श्रीकृष्ण से किसी भी तरह की कोई अपेक्षा नहीं की, जिस तरह की अपेक्षा सुदामा ने रखी। श्रीकृष्ण का प्रेम अद्भुत था तो श्रीराधा की गरिमा भी कुछ कम नहीं। कविता के इस भाग में भगवान श्रीकृष्ण के बाल्य काल के कुछ लीलाओं का वर्णन किया गया है। प्रस्तुत है दीर्घ कविता दुर्योधन कब मिट पाया का पांचवा भाग।