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May 2021
नहीं बन रही कविता, पता न चले मांजरा
लगाई चाबियां सारी, पर खुले न दिमाग का पिंजरा

जिसमें रहतीं रचनाएं सारी, वह होने लगा था वीरान
सूना लगने लगा अभी मेरे काव्यों का यह मकान

पहले सूझते थे पलकों में, वैसे न सूझे आज
समझने लगा हूं खुदको अभी, लफ्ज़ - लफ्ज़ का मोहताज

तारीफें बटोरे कई मैंने, तब दिखाया था अपने कमाल
"क्या अब भी वह बात है मुझमें?", मन में गूंजने लगा यह सवाल

पर वापिस आऊंगा मैं ज़रूर, मैं नहीं मानूंगा हार
पिछली कोशिश बेकार गई, तो एक कोशिश एक और बार

और तैयार रहो कागज़ - कलम, मेरे मन में भर गई जोश
मैं ऐसी कविता लाऊंगा, कि उड़ेंगे सबके होश
Sohamkumar Chauhan
Written by
Sohamkumar Chauhan  23/M/Vasco da Gama, Goa
(23/M/Vasco da Gama, Goa)   
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   Benzene
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