कभी यूँही ख़यालों में बचपन की यादों के गलियारो में करती हूँ जब भी मैं सफ़र एक चेहरा आता है नज़र वो जो पोशाक से ले कर पहनावे तक तालीम से लेकर रखावे तक रखता था हिसाब और ख़बर बसता क्या ,किताबें क्या, क्या क़लम ,क्या कवर स्कूल हो ,या क्लास ,या सीट हो किधर रहती थी जिसको हर बात की फ़िकर हाथ के जिसके सिले कपड़े, बुने स्वेटर निकले जब भी हम घर से पहनकर सवाल हर कोई करता आगे बढ़ कर किसने सिला किसने बुना कौन कारीगर बीमार हो तो दवाखाने का चक्कर बाज़ारों में घूमना भरी दोपहर गुज़र जाता है बचपन पलक झपक कर रह जाता है मगर जहनों के सफ़ों पर होते है सभी माँ बाप भाई बहन उसका हिस्सा पर चेहरा वो है एक.........,,