लफड़े जिंदगी में अपने आप आ गये जैसे पेड़ पर बर्र के छात्ते छा गये
ढूंढने की कोशिश की किसी दर्द का तोड़ नए दर्द आने की लग गई होड़ आशाओं के आगोश में झूलते रहे नए-नए दर्द फलते -फूलते रहे ज्यों ज्यों हृदय पर पत्थर रखते गए पत्थरों में भी नये शूल उगते गये
अपनों के अपनत्व पर हम फूलते रहे वो पीछे - पीछे चलते पैर उखाड़ते रहे उम्र के साथ हम किसी तरह पैर साधते रहे अपना मन किसी तरह बहलाते रहे लोग हर तरह की नैतिकता को लांघते गये आदर्शों के बोझ से खुद में ही दफन होते गये
वक्त को भी हम कुछ नागवार गुजरते रहे काठी छिन गई , कहकहे खामोशी में बदलने लगे पिंजड़े उजड़ने लगे ,खामोशी बोलने लगी प्यास अभी बाकी है पर घुटन सी होने लगी खामोशी के मंजर में जब डूबते गये जख्मों के दर्द में लब सीलना सीखते गये।।