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Dec 2020
मेरा बचपन सीधा था
           बीता गोरे धोरों में।
सूरज उगते खेत पहुंचते
घर आते थे तारों में
खेतों में मोर-पपीहे बोलते
पशु चरते थे कतारों में
              घरवालों से खूब डरता
            बात समझता था उनकी इशारों में।
शाम को खाने में हमेशा खिचड़ी
दही रोटी का कलेवा था
दोपहर में सांगरी की कढ्ढी
संग बाजरी की रोटी का चलेवा‌ था
                 सर्दी जुकाम में चाय पीता
                 यही आदत थी चलन में।
स्कूल चलती थी छप्पर में
ना झंझट था गणवेश का
पानी लाना, रोटी बनाना
शामिल था गुरु सेवा में
बारहखड़ी और पहाड़े बोलना
मिलता था बस मेवा में
                गुरुजी के डंडे का खौफ
               अक्सर सताता था नींदों में।
प्राथमिक बाद दूसरे गांव गया
पैदल पढ़ने मीलों दूर
घरवालों से पढ़ने के लिए
करता रहता मैं जी हुजूर
         इक्कीस रूपये सालाना फीस की खातिर
          कई दिन व्यर्थ होते थे हल चलाने में।
मैं बैठता था पढ़ने घरवाले
ताना देते थे काम चोरी का
कभी-कभी तो छीना- झपटी में
वो रख देते थे कनपटी में
             मां के साथ और आशीर्वाद से
             सदा अव्वल रहा पढ़ाई में।
मां सरस्वती की कृपा थी
काम चलता रहा वजीफे में
दोस्तों और शुभचिंतकों की‌
दुआएं भरता रहा मैं झोली में
                ऐसा करते - करते ही
                पहुंच गया जवानी में।।











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Mohan Jaipuri
Written by
Mohan Jaipuri  60/M/India
(60/M/India)   
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   Eshwara Prasad
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