चूरु कभी चूरु ही नहीं था यह मेरे लिए एक तीर्थ स्थल था जहां "सत्कार" एक आवास था वहां सद्गुणों का वास था भूख के समय भोजन-पानी रात्रि को प्रवास था ज्ञान की बातें, हास्य व्यंग्य और माखन मिश्री खास था चिंताओं का पिटारा लेकर जाता मैं उदास - उदास था गुरु, गार्जियन व अनुज भ्राताओं का स्नेह पाकर मिलता नया उजास था सारी मुश्किलें भेद कर पहन लेता नया लिबास था छोटी- छोटी सी खुशियों के बड़े-बड़े पंख लगते थे स्कूटर की खरीद पर भी कार के सपने होते थे जब सारे सपने साकार हुए गुरुजी भी शहर से पार हुए वक्त ने ऐसा खेल दिखाया सपने भी नौ दो ग्यारह हुए।
Dedicated to my teacher, my mentor and my guardian on his birthday today , 4th Aug.