छूट गए वे गोरे - गोरे धोरे जिन पर बनी टापियों में बीते दिन सुनहरे जहां-तहां ठहरी नग्न पदचापें पानी के छिड़काव वाली ठंडाई फिर से ताकें यादों के झरोखे से ताकते आज भी वो चील झपटे के घेरे भूले... वह प्राकृतिक खेती होती थी जो गोबर खाद सेती रोहीड़े के पेड़ों पर वो रंगीले फूल और ऊपर ताकते वो बकरियों के चेहरे रेत पर बनी वो हसीन लकीरें जो लिखती थी सबकी उम्दा तकदीरें ऊंटों के टोले, देते थे हिचकोले जेहन में आज भी जिंदा हैं वो निराले फेरे