आज कागज़-कलम लेके बैठा ये सोच कर कि कुछ ऐसा लिखुंगा जिससे दास्तां बन जाएं या जो खुद दास्तां बन जाए। तो शुरुआत क्यों न जुल्फ़ों से की जाए और होंठों तक पहुंचा जाए। तो दिल ने कहा क्यों न जुल्फ़ों तक ही सिमट के रहा जाए। खुदा को फलक से उतार के इश्क के दरबार में पेश किया जाए। फरमान सजा-ए-मौत की सुनाया जाए। हिमाकत कैसे हुई उसकी यह सोचने की,कि एक हसीन रूप बनाया जाए। जिसकी जुल्फ़ों में ही उलझ कर हमने ये भी ना सोचा कि,जान दे दी जाए।