तुझे भूलने की जो तलब लगानी थी वो पूरी तरह लग न पाई तुझे याद करने की जो आदत थी वो कब सबसे बड़ी तलब बन गई उसके आगे कुछ सूझा ही नहीं क्या करू कुछ बुझा भी नहीं कहना तो था बहुत कुछ तुझसे पर तूने सुनने का मौका कभी ढूंढा ही नहीं ऐसे कैसे हो गई हूं इतनी लापरवाह तेरी चाह ने ऐसा क्या किया तू तो मुझे चाहता भी नहीं फिर क्यों ये चाह जगी है मुझमें जो बुझती ही नहीं।