एक विर जिसने त्याग को दी नयी पहचान। एक विर जिसने भ्रातृ-प्रेम को दिया नया आयाम। वह विर जिसके आदर्शों पर जमी कभी ना धूल । इतिहास वृंत पर था खिला एक ऐसा भी फूल ।
रघुकूल वंश का दीपक, दशरथ की आँख का ज्योति । अवध का राज दुलारा, सुमीत्रा का प्रियतम मोती । जिसने भाई के चलते त्याग दिया राजधानी । उस विरवर लक्ष्मण सा कोइ नहीं दुसरा सानी ।
जब जनक ने सभा मध्य में कटु वचन था बोला । भरी सभा में लक्ष्मण का उर केवल क्षोभ से डोला । सिंह पुत्र सा कर गर्जना कहा विर वो छोटा । रघुकूल वंश में नहीं जन्मता कोइ सिक्का खोटा ।
जब परशुधर के तेज से श्रीहत् थे नृप सारे । जनकराज भी कांप रहे थे थरथर भय के मारे । तब उनके विकराल क्रोध को सौमीत्रे ने रोका । उनके दुर्धुष इतिहास को सौ-सौ बार था टोका।
फिर अवध की खुशियों में विष मंथरा घोली । उसकी चिकनी बातों में आयीं कैकेयी भोली । दशरथ से मांगा की अब भरत बनेगा राजन । चौदह सालों के लिए भेजो राम को कानन ।
कहा लखन ने श्री राम से मै भी साथ रहुंगा । पथ मे आनेवाले कष्ट को पहले स्वयं सहुंगा ।राम को तो कठीन अरण्य दिया भाग्य ने छलकर । पर सुमीत्रा नंदन ने उसको वरण किया था चलकर ।
नयी सुहागन उर्मीला से मांग क्षमा का दान । राम सिया के संग लखन ने किया वन्य प्रस्थान। दिवसावसान पर थककर सारा जग जब सोता था । तब लखन की आँख मे कतरा भर नींद ना होता था ।
जब शुर्पणखा ने कटी नाक से रावण को धिक्कारा । लंकापति ने छल-छद्यम का लेकर गलत सहारा । राम लखन को पर्णकुटी से बाहर छलकर लाया । पर बलवान अशूर वह लक्ष्मण रेखा लांघ न पाया ।
राजमद मे चूर भूलकर सारे वादे अपने । किष्कींधा मे देख रहे थे मीठे मीठे सपने । लक्ष्मण की एक डाँट पर हृदय कंप हो आया । सुग्रीव ने सिया खोज में चहुं ओर दूत पठाया ।
समर आग की लपटें अब बढ चलीं उफानो पर। रणचण्डी नृत्य कर रहीं मौत की भीषण तानो पर। तभी मायावी मेघनाथ ने ऐसा युद्ध मचाया । रणभुमी के हर कोने मे बिम्ब उसीका छाया ।
निज दल का कष्ट हरने लखन समर मे आ गए । दो योद्धाओं के तीर गगन मे चारो ओर से छा गए। इन्द्रजीत ने माया से एक शक्ति का संधान किया । तत्पश्चात बेहोश लखन को मरा हुआ सा जान लिया ।
जब आहत थे वानर भालू राम के करूणा क्रंदन से। आस बची थी तब बस केवल एक मारूति नन्दन से। पिकरके संजीवनी जब वह विर होश मे आया । श्री राम से विजयाशीश ले शर कोदण्ड उठाया ।
इस बार ऐसा रण कौशल सौमीत्रे ने दिखलाया । युद्ध कला की नयी युक्तीयाँ रावणपुत्र को सिखलाया । फिर सुमीर राम के चरणों को छोडा तीर प्रचंड । मेघनाथ के हो गए एक पल मे दो दो खण्ड ।
ऐसे हीं कितने कष्ट सहे ऐसे हीं कितने कर्म किये । राम सिया की सेवा मे ताउम्र वो विर जीये । वह योद्धा, थे सन्यासी थे, भक्त थे निष्काम । हे लखन आपके कर्म को कोटी कोटी प्रणाम ।