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Joginder Singh Dec 2024
जब
अचानक
क्रोध से
निकली
एक चिंगारी
बड़ी मेहनत से
श्रृंगारी जिन्दगी को
अंदर बाहर से
धधकाकर ,
आदमी की
अस्मिता को झुलसा दे
तब
आप ही बताइए
आदमी कहाँ जाए ?

मन के भीतर
असंतोष की ज्वालाएं
फूट पड़ें
अचानक
......
मन के भीतर की
कुढ़न और घुटन
बेकाबू होकर
मन के अंदर
रोक कर रखे संवेगों को
बरबस
आंखों के रास्ते
बाहर निकाल दें ...!

तब तुम ही बता दो
आदमी क्या करे?
वह कहाँ जाए ?

कभी कभी
यह जिंदगी
एक मरुभूमि के बीच
श्मशान भूमि की
कराने लगती है
प्रतीति ,
तब
रह जाती  
धरी धराई
सब प्रीति और नीति ।

ऐसे में
तुम्हीं बताओ
आदमी कहाँ जाए ?
क्या वह स्वयं के
भीतर सिमटता जाए ?

क्यों न वह !
मन में सहृदयता
और सदाशयता के
लौट आने तक
खुद के मन को समझा ले ।
यह दुर्दिन का दौर भी
जल्दी ही बीत जाएगा।
तब तक वह धैर्य धारण करे।
वह खुद को संभाल ले ।

बेशक आज
निज के अस्तित्व पर
मंडरा रहीं हैं काल की
काली काली बदलियां ,
ये भी समय बीतने के साथ
इधर उधर छिटक बिखर जाएंगी।
सूर्य की रश्मियां
फिर से अपना आभास
कराने लग जाएंगी।
बस तब तक
आदमी ठहर जाए ,
वह अपने में ठहराव लेकर आए ,
तो ही अच्छा।
वह दिख पड़े फ़िलहाल
एकदम
सीधा सादा और सच्चा।

संकट के समय
आदमी
कहीं न भागे ,
न ही चीखे चिल्लाए ,
वह खुद को शांत बनाए रखे,
मुसीबत के बादल
जिन्दगी के आकाश में
आते जाते रहते हैं ,
बस जिन्दगी बनी रहनी चाहिए।
आदमी की गर्दन
स्वाभिमान से तनी रहनी चाहिए।

१३/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
कितना अच्छा हो
आदमी सदैव सच्चा बना रहे
वह जीवन में
अपने आदर्श के अनुरूप
स्वयं को उतार चढ़ाव के बीच ढालता रहे।

कितना अच्छा हो
अगर आदमी
अपना जीवन
सत्य और अहिंसा का
अनुसरण करता हुआ
जीवन जिंदादिली से गुजार पाए ,
अपनी चेतना को
शुचिता सम्पन्न बनाकर
दिव्यता के पथ प्रदर्शक के
रूप में बदल पाए।

कितना अच्छा हो
आदमी का चरित्र
जीवन जीने के साथ साथ
उत्तरोत्तर निखरता जाए।
पर आदमी तो आदमी ठहरा ,
उसमें गुण अवगुण ,
अच्छाई और बुराई का होना,
उतार चढ़ाव का आना
एकदम स्वाभाविक है,
बस अस्वाभाविक है तो
उसके प्रियजनों द्वारा सताया जाना ,
उसके चरित्र को कुरेदते रहना ,
हर पल इस ताक में रहना कि कभी तो
उसकी कमियां और कमजोरियां पता चलें
फिर कैसे नहीं उसे पटखनी दे देते ?
...और खोल देते सब के सामने उसकी जीवन की बही।

कितना अच्छा हो
आदमी की चाहतें पूरी होतीं रहें ,
उसे स्वार्थी परिवारजनों और मित्र मंडली की
आवश्यकता कभी नहीं रहे ,
बल्कि उसका जीवन
समय के प्रवाह के साथ साथ बहता रहे।

आदमी का चरित्र उत्तरोत्तर निखरे ,
ताकि स्वप्नों का इंद्रधनुष कभी न बिखरे ।
२८/१२/२०२४.
आज का आदमी
अपने साथ
डर का पिटारा
लेकर चलता है।
गफलतों ने
असंख्य डर
आदमी के मन की
उर्वर जमीन पर बो दिए हैं ,
जिनकी फसल
वह समय समय पर
लेता रहा है।
सवाल है कि
आज आदमी का
सबसे बड़ा डर क्या है ?
यह डर
असमय
किसी के द्वारा
वजूद पर
एक सवालिया निशान
लगाना है ,
बाकी डर .....
मौत ,  मुफलिसी ,तंगी तुरशी ,
मान सम्मान का अभाव तो
महज़ बहाने हैं,,,
जिनके साथ जीना
आजकल ज़रूरी है ,
यह बन गई मज़बूरी है,
जिसने निर्मित कर दी
हम सब के बीच दूरी है।
यही सबसे बड़ा डर होना चाहिए।
इस बाबत सभी को कुछ करना चाहिए।
१४/०४/२०२५.
आदमी की जिन्दगी
और जिंदगी में आदमी
एक अद्भुत संतुलन बनाए हैं ,
वे एक दूसरे के साथ
अंतर्गुंफित से हो गए हैं,
दोनों एक दूसरे से
होड़ा होड़ी करने को हैं तैयार
बेशक आस पास उनके
यार मार करने की चली जा रही चाल।
वे अपने आप में तल्लीन
सब कुछ भूले हुए हैं।
बस उन्हें है यह विदित
कि वे दोनों
डांट डपट
छल कपट
आसपास की उठा पटक के
बावजूद
अपने अपने वजूद को
बनाए रखने के निमित्त
कर रहे हैं सतत संघर्ष
और नहीं बचा है कोई विकल्प।
आदमी की जिन्दगी
और
जिन्दगी में आदमी
सरपट भागे
जा रहें हैं अपने पथ पर।
अवसर
अक्सर
अचानक एक अजगर सा होकर
जाता है उनसे लिपट
इस हद तक कि
आदमी की जिन्दगी ,
और जिन्दगी में आदमी  को
समेट कर
बढ़ जाता है सतत
अपने पथ पर।
समय एक अजगर सा होकर
लिपटा जा रहा है
आदमी की जिन्दगी से
इस हद तक कि
उसकी जिन्दगी का किस्सा
लगने लगा है बड़ा अजीब और अद्भुत
बिल्कुल एक शांत बुत सा।
आदमी को
जिन्दगी की तेज़ रफ़्तार के दौर ने
जीने की होड़ ने ,
रोजमर्रा की दौड़ धूप ने
बना दिया है
एक बाज़ीगर सरीखा ।
वह अपनी मूल शांत प्रवृत्ति को छोड़ कर
वह बनता चला जाता है
पल पल तीखा ,एकदम तेज़ तर्रार
हरपल क़दम क़दम पर
अपने प्रतिस्पर्धी को चोट पहुंचाने को उद्यत।
आदमी लड़ता है मतवातर
परस्पर एक दूसरे से
इस हद तक
कि वह हरदम  
करना चाहता उठा पटक ।
वह जैसे ही अपने हिस्से पर
झपटने के बाद
अपने ठौर ठिकाने में लौट कर आता है ,
वह और ज़्यादा अपने भीतर सिमटता जाता है ।
जिन्दगी पर से उसका भरोसा
लगातार पीछे छूटता जाता है ,
वह निपट अकेला रह जाता है।
उसकी जिन्दगी को यह सब नहीं भाता है,
फिर भी वह आदमी का साथ नहीं छोड़ती है।
जिन्दगी का किस्सा है बड़ा अजीबोगरीब ,
आदमी जितना इससे पीछा छुड़ाना चाहता है ,
यह उतना ही
आती जाती है
आदमी के क़रीब।
आदमी कभी भी पीछा नहीं छुड़ा पाता है।
इस डांट डपट छल कपट के दौर में भी
जिन्दगी आदमी के साथ साथ
उसके समानांतर
दौड़ी जा रही है
अपने पथ पर।
यह आदमी को
निरन्तर आगे ही आगे
है बढ़ा रही ,
यह सुख समृद्धि और संपन्नता की ओर
उसे अग्रसर है कर रही।
आदमी के भीतर की बेचैनी
इस सब के बावजूद  
लगातार बढ़ती जा रही है।
यही बेचैनी उसे दरबदर कर ,
ठोकरें खाने को विवश कर
मतवातर भटका रही है।
१८/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
आदमी
जो नहीं है,
वह वैसा होने का
दिखावा करता है ,
बस खुद से  
छलावा करता है।
इस सब को
मैं नहीं समझता हूं अच्छा।
क्या ऐसा करने से
वह रह पाएगा सच्चा ?
यह तो है बस है
अपने आप से बोलना झूठ।
कदम कदम पर पीना
ज़हर और अपमान की घूट।
साथ ही है यह
जाने अनजाने
अपने हाथों ही
अपने पर कतरना भी है।
स्वयं को
अनुभूतियों के आसमान में
परवाज़ भरने से रोकना भी है।


आज
आदमी ने
पाल ली है
यह खुशफहमी,
कोई उसकी असलियत
कभी जानेगा नहीं।
पर
नहीं जानता वह बेचारा।
दूसरे भी
उसकी तरह चेहरा छुपाए हैं,
एक मुखौटा चेहरे पर लगाए हैं।
उनसे चेहरा छुपाना मुश्किल है,
नहीं समझता इसे, कम अक्ल है।
सब यहां, मनोरंजन कर रहा है, जैसा कुछ सोच
हरदम मुस्कुराते रहते हैं!
दुनिया के हमाम में नंगे बने रहते हैं!!


अब आदमी
कतई न करे कोई लोक दिखावा।
खुद को च
छलने से अच्छा है ,
वह देखा करें अब ,
समय की धूप में
अपना परछावा!

आजकल
अपना साया ही बेहतर है,
कम से कम
सुख दुःख में साथ देता है,
तपती धूप के दौर में
आदमी जैसा है, उसे वैसे ही दिखाया करता है ।

आदमी जैसे ही
अपना परछावा भूल
आईने से गुफ्तगू करता है,
आईने में अपना मोहक रूप देख
होता है प्रसन्न।
आईने को एक शरारत सूझी है
और वह
आदमी को
उसके रंग ढंग दिखला ,
उसे सच से अवगत करा
कर देता है सन्न !
ऐसे समय में
आदमी मतवातर
आईने  से शर्माता  है।
वह बीच रास्ते
हक्का-बक्का सा
आता है नज़र।
यही है आदमी की वास्तविकता का मंज़र।


आदमी, जो नहीं है, वह वैसा होने का
दिखावा आखिरकार क्यों करता है?
अगर उसे होना पड़ता है अपमानित, इस वज़ह से ;
तो आज का शातिर आदमी
झट से मांग लेता है माफी
और इसे अपनी भूल ठहरा देता है।

जब कभी समय देवता
उसे अचानक बस यूं ही
दिखा देते हैं ,हकीकत का आईना,
तो आदमी बाहर भीतर तक
कर लेता है मौन धारण।
ऐसा आदमी नहीं होता कतई साधारण ।
वह कभी किसी की पकड़ में नहीं आता है,
बल्कि जनसाधारण के बीच , वह नीच!
पहुंचा हुआ आदमी कहलाता है !
सभी के लिए आदर का पात्र
यानी कि आदरणीय बन जाता है।
और एक दिन समाज और सरकार से पुरस्कृत हो जाता है। ऐसे में सच
सचमुच ही तिरस्कृत हो जाता है ।

२२/०२/२०१७.
पहले आदमी की सोच
नैतिकता से जुड़ी थी।
उसे हेराफेरी चोरी चकारी से
घिन आती थी।
आजकल
उसे यह सब आम लगता है।
वह अनैतिक भी हो जाए,
तो उसे बुरा नहीं लगता है।
उसकी सोच बन गई है कि
आजकल सब अच्छा बुरा चलता है।
कम से कम आदमी को आराम तो मिलता है।
मरने के बाद देखा जाएगा।
आज को तो ढंग से जी लो।
कल नाम कलह का,
वर्तमान को सुविधाजनक बना लो।
यही वजह है कि घूस का कीड़ा
आदमी के भीतर इस हद तक गया है घुस,
जो घूस लेता नहीं, वह आदमी लगने लगता मनहूस।
हेराफेरी,चोरी सीनाजोरी,लड़ना झगड़ना,
मकर फ़रेब, लूटमार,हत्या, बलात्कार तक के
दुष्परिणामों को वह नज़रअंदाज़ करता है,
उसे संवेदना के धरातल पर कुछ नहीं होता महसूस।
पशु भी संवेदना से बंधा है,
पर आज का आदमी निरा गधा बन चुका है।
आजकल वह चौबीसों घंटे अपना स्वार्थ साधने में लगा है।
०६/०५/२०२५.
आदमी
जब तक
नासमझ बना
रहता है ,
छोटी छोटी बातों पर
अड़ा रहता है ।
जैसे ही
वह समझता है
जीवन का सच ,
वह एक सुरक्षा कवच में
सिमट जाता है ,
जिंदगी में
समय रहते
समझौता करना
सीख जाता है ,
सुखी और सुरक्षित
रहता है।
भूल कर भी
बात बात पर
अकड़ दिखाने से
करता है गुरेज।
वह जीवन की
समझ निरंतर
बढ़ाता रहता है।
एक समय आता है ,
वह समझौता
बेहद आसानी से
कर पाता है ,
वह बिना कोई हेर फेर किए
स्वयं को संतुलित और
समायोजित कर लेता है ,
शांत रहना सीख जाता है ,
दिल और दिमाग से
समझौताबाज़ बन जाता है।
वह किसी भी हद तक
सहनशील बना रहता है ,
फल स्वरूप जीवन भर
फलता फूलता जाता है ,
समझौता करने में
गनीमत समझता है।
अतः सुख का आकांक्षी
जीवन में समझौता कर ले ,  
समय रहते समझदारी वर ले।
यह सच है कि
यदि वह समय पर समझौता कर ले ,
तो स्वत: स्वयं को सुखी कर ले।
१४/०३/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
मन के भीतर
             हद से अधिक
यदि होने लगे कभी कभार उथल पुथल
तो कैसे नहीं हो जाएगा आदमी शिथिल ?
यकीनन वह महसूस करेगा खुद को निर्बल।
              मन के भीतर
              सोए हुए डर
  यदि अचानक एक एक कर जागने लगें ,
कैसे नहीं आदमी थोड़ा चलते ही लगे हांफने ?
यकीनन वह खुद को बेकाबू कर लगेगा कांपने।

              मन के भीतर
              बसा है संसार
जो समय बीतने के साथ बनाता सबको अक्लमंद।
यह उतार चढ़ाव भरी राहों से गुजारकर करता निर्द्वंद्व।
इस संसार की अनुभूतियों से सम्बन्ध होते रहते दृढ़।
               मन के भीतर
               बढ़े जब द्वंद्व
अंत समय को झट से ,अचानक अपने नज़दीक देख ।
आदमी जीवन से रचाना चाहता है संवेदना युक्त संवाद।
हो चुका है वह भीतर से पस्त,इसलिए रह जाता तटस्थ।
               मन के भीतर
               दुविधा न बढ़े
अन्तर्जगत अपनी आंतरिक हलचलों से निराश न करे।
बल्कि वह सकारात्मक विचारों से मन को प्रबुद्ध करे।
जीवन में डर सतत् घटें, इसके लिए मानव संयमी बने।
०९/०१/२००८.
      ‌
Joginder Singh Nov 2024
आज
मैं अपने
परम प्रिय
मित्र और पुत्र
विनोद के घर में हूं ।

कल
मेरे परम आदरणीय,आदर्श अध्यापक,
मार्गदर्शक,
प्रेरणा पुंज,
अध्ययनशील
कुंदन भाई साहब जी की
अंत्येष्टि में
शामिल होना पड़ा।  
अधिक देर होने की वजह से
एक आदर्श परिवार में रात बितानी पड़ी है।

आधी रात को
नींद उचट जाने के कारण
जग रहा हूं,
विनोद और उसके परिवार की
बाबत सोच रहा हूं ।
उन दिनों   जब मैं संकटग्रस्त था
नौकरी के दौरान
सहयोगियों के
अहम् और षड्यंत्र का
शिकार बना था,
फलत:
मेरा तबादला  
एक दूरस्थ, पिछड़े इलाके में
किया गया था,
वहां मेरा मन इतना रमा था कि
नौकरी के
अधिकांश साल
उस गांव टकारला को दे दिए थे।
वहीं मुझे मास्टर कुंदन लाल,
विनोद कुमार और ... बहुत सारे जीवनानुभव हुए ।
आदर्श अध्यापक और  आदर्श परिवार की बाबत
जीवन के धरातल पर
समझने का
सुअवसर मिला।

इस परिवार में
अब पांच जीव हैं,  
पहले से कुछ कम,

जीवन के  उतार चढ़ाव ने
कुछ सदस्यों को काल ने
अपने भीतर समा लिया,
इस परिवार को   कष्ट उठाने पड़े ,
आज यह परिवार
एक आदर्श परिवार
कहलाता है,
कारण ...

सभी सदस्यों के मध्य
परस्पर तालमेल है,
वे आपस में कभी लड़ते नहीं,
धन का अपव्यय
करते नहीं,
अन्याय के  खिलाफ डटे रहते हैं।
पति पत्नी , दोनों
तीनों बच्चों को सुशिक्षित
बनाने के लिए
दिन रात
कोल्हू के बैल बने
चौबीसों घंटे मेहनत करके
जीविकोपार्जन करते हैं
और मुझ जैसे अतिथियों का
खिले मन से स्वागत करते हैं ।
ऐसे परिवार ही
देश, समाज, दुनिया को
समृद्ध करते हैं,
वे कर्मठता की मिसाल बन कर
जीवन में टिकाव लेकर आते हैं।
हमारी धरती स्वर्ग सम बने,
सुख की चादर सब पर तने, जैसे आदर्शों को
व्यावहारिक बनाते हैं।
ऐसे परिवार
संक्रमण काल की इस दुनिया में
कभी राम राज्य भी बनेगा,
सतत् इस बाबत आश्वस्त करते हैं।
आदर्श परिवार निर्मित करने की परिपाटी चला कर
राष्ट्र आगे बढ़ते हैं।
Joginder Singh Nov 2024
नाद
पर कर नृत्य
अनुभूति के पार उतरकर,
बनकर अद्वितीय !
कर मुझे चमत्कृत !
ओ ,योगीनाथ शिव !

तुम्हारे आगमन की गंध,
कण-कण में है जा समाई।

आज नाट्य, नाद, नाच ,गान के स्वर, आदिनाथेश्वर!
कर रहे पग पग पर मानव को प्रखर!!

तुम प्रखरता के शिखर पर
बैठी संवेदना हो,
साक्षात सत्य हो,
परम कल्याणकारी हो।

स्वयं में सुंदरता का सार हो।
तुम्हें मेरा नमन।
हे सत्यं शिवम्  सुंदरम के प्रणेता।!
तुम्हीं सृष्टि की दृष्टि हो ।
तुम्हारे भीतर समाया है काल।
तभी तुम महाकाल कहलाते हो।
यही काल बनता जीवन का आकर्षण है ,
जो जीव , जीव को अपनी ओर खींचता है।
मृत्यु का संस्पर्श कराकर
भोलेनाथ ब्रह्मांड की चेतना से
जीवन के कल्पवृक्ष को सींचते हैं !!

हे  भूतनाथ !
नाद तुम्हारा
जीवन का संवाद बने,
साथ ही यह समस्त वाद विवाद हरे ।
सृष्टि के कण कण से
जीव के भीतर व्यापी चेतना का
आप में समाई महाचेतना से संबंध जुड़े।

ओ' आदियोगी भगवान!
तुम्हारे दिशा निर्देशों पर
सब आगे बढ़ें,
जीवन के भीतर से अमृत का संधान करें।
तुमसे प्रेरित होकर
विषपान करने में सक्षम बनें।
जीवन में ज़हर सरीखे कष्टों को सहन कर सकें।
तुम्हारे भक्त अमर जीवन की  चाहत से सदैव दूर रहें।
वह मृत्यु को अटल मानकर
अपने भीतर बाहर की तमाम हलचलों को भूलकर
अपने  और आप को खोजने का प्रयास करें।
आपको खोजने की खातिर सदैव लालायित रहें।


हे आदिनाथ!
आपको क्या कहूं?
आप अंतर्यामी हैं।
सर्वस्व के स्वामी हैं।
हम सब जीवन धारा के साथ बहते रहें।
आपकी कृपा में ही मोक्ष को देखें ।
सभी आपकी चेतना को
जानने और समझने की चेष्टा करते रहें।

२४/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
लगता है
आज आदमी
आधा रह गया है,
उसमें लड़ने का माद्दा नहीं बचा है।
इसलिए जल्दी ही
देता घुटने
टेक।
कई दफा
बगैर लड़े
मान लेता हार,
उसकी बुजदिली पर कोई करेगा चोट
तो मुमकिन है
वह लड़ने के लिए
करे स्वयं को
तैयार
थाम ले हथियार ।
करअपना परिष्कार !!
तुम उसे उकसाओ तो सही।
उसे उसकी ताकत का
अहसास कराओ तो सही।
उसे सही दिशा दिखाओ तो सही।
उसे लड़ाकू होने की प्रतीति करवाओ  तो सही।
उसे, सही ढंग से समझाओ तो सही।
उसकी समझ की बही में सही होने,रहने का गणित लिखवाओ तो सही।
उस के भीतर मनुष्य होने का आधार बनाओ तो सही।
आज
बस उसके अहम् को खरा बनाओ तो सही।
समन्दर किनारे घर न बनाने के लिए
उसे समझाओ तो सही।
उसकी खातिर ,उसे उसके सही होने की ख़बर सुनाओ तो
सही।
कुछ और नहीं कर सकते तो उसे सही राम बनाओ तो सही।
उसे सही कुर्सी पर बैठाओ तो सही,
ठसक उसके भीतर भर  ही जाएगी जी।
जिजीविषा उसके भीतर
सही सही मिकदार में उत्पन्न हो ही जाएगी जी।
वह बिल्कुल सही है जी।
हम ही सहीराम को गलत समझे जी।
उसको करने दो  अपनी मनमर्जी जी।
जी लेने दो उसे जी भर कर जी।
... क्यों कि वह पूरा आदमी नहीं,
आधा अधूरा आदमी है जी।
परम्परा और आधुनिकता का सताया आदमी है जी,
जो बस रिरियाना और गिड़गिड़ाना जानता है जी।
२९/११/२०२४.
कितना सही कहते हैं ...
हमारे लोग
आदमी कितनी भी
रवायती पढ़ाई लिखाई कर ले,
वह निरा अव्यावहारिक बना ‌रहता है,
जब तक कि
वह नौकरी अथवा काम-धंधे में क़दम न रख लें,
वह पढ़ा लिखा नौसीखिया कहलाता है,
जीवन में धक्के खाता रहता है ।


आज देश में
युद्ध अराजक शक्तियों के कारण
थोपा गया है ,
देश को पड़ोसी देश ने
धोखा दिया है।
फलत: देश में आपातकाल लागू है।
यदि यह न हो तो
हर ऐरा गैराज नत्थू खैरा
बेकाबू होकर
अराजकता का नाच नचा दे,
देश दुनिया और समाज की
व्यवस्था को पंगु ‌बना दे,
विकास के पहिए को चरमरा दे।
ऐसे हालात में
देश क्या करें ?
क्यों न वह हरेक आम और खास पर
सख़्ती बढ़ा दें !
सभी को
अनुशासन का पाठ पढ़ा दे,
जीवन की गतिशीलता को बढ़ा दें,
आपातकाल में ढंग से रहना सिखा दे।

आपातकाल
आफत काल
कतई नहीं है
बल्कि यह वह अवसर है
जिससे सब कुछ सही हो सकता है,
देश दुनिया और समाज
अपने गंतव्य तक
सफलता पूर्वक पहुंच सकता है,
भले ही जीवन धारा में
कुछ उतार चढ़ाव आएं
सब अपने लक्ष्य को हासिल कर पाएं।

आपातकाल
अनुशासन पर्व
बन सकता है ,
यह सभी को सकारात्मक बनाता है ।
यह कठिनाइयों के बीच
जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा बनकर
जन गण को नित्य नूतन दिशा में जाने की
प्रतीति कराता है।
बेशक यह देश का
ताना-बाना हिला दे
सत्ता के गलियारों में
तानाशाही के रंग ढंग दिखला दे ।
निकम्मों को
दिन में तारे दिखला दे।

आपातकाल की सीख
कोई नहीं है भीख
बल्कि यह भीड़ तंत्र को
काबू में रखने का गुर और गुण है
इसे मुसीबत समझना ही
आज बना एक अवगुण है।
फलत: देश आपातकाल
झेलने को है विवश।
इस पर किसका है वश ?
११/०५/२०२५.
आजकल
दुनिया असली से
नकली बनती जा रही है ,
आभासी दुनिया की
चकाचौंध भी
अब सभी को
लुभा रही है ,
यह दिन प्रति दिन
भरमा रही है।

इस दुनिया के
अपने ही ख़तरे हैं,
हम सब आभास करते हैं
कुछ सचमुच का होने का ,
पर यह होता नहीं , कहीं भी।
इसे असल दुनिया में
खोजने लगें
तो हासिल होता कुछ भी नहीं ,
फिर भी लगता सब कुछ ठीक और सही।
मैं आभासी अंतरंगता के
दौर से भी गुजर चुका हूँ,
खुद को खूब थका चुका हूँ।
सब कपोल कल्पित
किस्से कहानियों में वर्णित
रंग बिरंगी दुनिया के
आकर्षक और लुभावने पात्रों की तरह !
इर्द गिर्द मंडराते और घूमते दिखाई देते हैं !!
एक नशीली महिमा मंडित दुनिया की तरह !
जहां असलियत और सच्चाई के लिए
होती नहीं कोई जगह बेवजह।

आभासी दुनिया का सच
कब हो जाए गायब और गुम !
यह कर दे इंसान को गुमसुम !!
कुछ कहा नहीं जा सकता !
बहुत कुछ कभी सहा नहीं जा सकता !!

जैसे ही रीचार्ज खत्म
समझो आभासी दुनिया का तिलिस्म भी हुआ खत्म !
और जैसे ही इंटरनेट कनेक्शन हुआ डिस्कनेक्ट !
वैसे ही समझो अब कुछ खत्म और समाप्त !
समूल सत्यानाश ! सब कुछ तहस नहस !
जीते जी बेड़ा गर्क !
जिन्दगी बन जाती साक्षात नरक !

इस आभासी दुनिया के खिलाड़ी
एक आभासी दुनिया में रहकर संतुष्ट होते हैं !
वे किसी हद तक
स्व निर्मित कैद को भोगने को विवश होते हैं !
क्या कभी कल्पित वास्तविकता
हम सब को हड़प जाएगी ?
हाय!तब हमारी असली दुनिया कहाँ ठौर ठिकाना पाएगी?
१७/०१/२०२५.
आदमी पर
आरोप लगने
कोई नई बात नहीं।
बेशक वह कितना भी सही
क्यों न रहा हो ?
आरोप
आर से लगें
या पार से लगें ,
ये बस किसी आधार पर लगें।
झूठे और मिथ्या आरोप
किसी पर मढ़े न जाएं।
आरोप प्रत्यारोप की रस्सी पर
आदमी संतुलन बना कर चले
ताकि वह अचानक
कभी औंधे मुंह नहीं गिरे।
जीवन पर्यन्त
वह कालिख रहित  बना रहे।
वह पतन के गड्ढे में गिरने से
सुरक्षित बना रहे
और वह जीवन पथ पर डटा रहे।
वह निरंतर आगे बढ़ने का प्रयास करता रहे।
०४/०५/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
देश की
आर्थिकता
आजकल बैसाखियों के आसरे
चल रही है ,
सोचता हूं,
देश के भीतर
तभी आर्थिक अपराध बढ़े हैं,
सभी भीतर तक भ्रष्ट हुए हैं।


देश समाज और दुनिया में
सभी अपनी आर्थिकता को
सुदृढ़ कर रहे हैं
मतवातर
हम ही धनार्जन की दौड़ में
पिछड़े हुए हैं।
आखिरकार ऐसा क्यों है?


आजकल
सत्ताधारी दल
और
विपक्षी दल
परस्पर लड़ रहे हैं ,
नूरा कुश्ती कर रहे हैं।

परस्पर
एक दूसरे पर हेराफेरी करने,
भ्रष्टाचारी होने के
आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हैं।
इन दोनों की लड़ाई का
कुछ आर्थिक शक्तियां
लाभ उठा रही हैं।
देश भर में निवेश, शेयरों को
अपने हाथों में लेकर
रक्त चूसने की हद तक लाभ कमा रही हैं।
उपभोक्ताओं को सस्ते सामान मुहैया कर लुभा रही हैं।
अंदर ही अंदर
देश की आर्थिकता को
दीमक सी होकर
खोखला करती जा रही हैं।


आज
देश का व्यापार संतुलन
बिगड़ चुका है,आयात अधिक, निर्यात कम है।
इस स्थिति को
समझते बूझते हुए भी सत्ता पक्ष और विपक्ष
चोरी-चोरी ,चुपके-चुपके
अपना अपना खेल, खेल रहे हैं।
जन साधारण इन सब के बीच पिस रही है।
देश की आर्थिकता
चुपचाप परित्यक्ताओं सी  होकर
सिसकियां भर रही है।
हाय! देश की शासन व्यवस्था क्या कर रही है?
Joginder Singh Nov 2024
बेघर को
यदि
घर का
तुम दिखाओगे सपना
तो उसे कैसे नहीं
लगेगा अच्छा?
वह कैसे नहीं,
समझेगा तुम्हें अपना?
परंतु
आजकल
घर के बाशिंदों को
बेघर करने की
रची जा रही हैं साजिशें,
तो किसे अच्छा लगेगा ?
सच!
ऐसे में
भीतर उठती है
पीड़ा, बेचैनी,दर्द,कसक।
इन्सान होने की ठसक क्या!
सब कुछ मिट्टी में मिलता लगता है।
सब कुछ तहस नहस होता लगता है।
कभी कभी रोने का मन करता है,
परंतु दुनिया की निर्मम हंसी से डर लगता है।


मन मनन चिंतन छोड़ कर
करता है महसूस
वह घड़ी रही होगी मनहूस
जब किसी उत्पाती ने
दी थी आधी रात घर की देहरी पर दस्तक
और कर दिया था हम सब को
बेघर और अकेला।
दे दी थी भटकन सभी को।
बस! तभी से है मेरा मन आशंकित।
मुझे हर समय एक दुस्वप्न
घर की देहरी पर दस्तक देता लगता है।
मैं भीतर तक खुद को हिला और डरा पाता हूं।
इस भरी पूरी दुनिया में खुद को अकेला पाता हूं।
मुझे कहीं कोई ठौर ठिकाना नहीं मिलेगा,
बस इसी सोच से पल पल चिंतित रहता हूं।


आजकल मैं एक यतीम हुआ सा
सतत् भटकता हुआ आवारा बना घूमता हूं।
मन मेरा बेघर है ।
उसके भीतर बिछुड़न का डर  कर गया घर है।
अतः अंत के आतंक से भटक रहा गली गली डगर डगर है।
०२/०१/२०१२.
इतिहास के
बारे में
कुछ पूर्वाग्रह से युक्त
कोई धारणा बनाना
ख़तरे से
खाली नहीं ,
इसे कालखंड के
संदर्भ में
पढ़ा जाना चाहिए।
यह अपने अतीत का
मूल्यांकन भर है,
इसे वर्तमान के
घटनाचक्र से
पृथक रखा जाना चाहिए।
इतिहास जीवन का
मार्गदर्शक बन सकता है,
बशर्ते इसे लचीलेपन से
संप्रकृत किया जाए ,
इसे भविष्य के परिवर्तन से
जोड़ते हुए
एक संभावना के रूप में
महसूस किया जाए ,
इतिहास के संदर्भ में
इसे सतर्कता और जागरूकता के साथ
देखा और पढ़ा जाए ,
इतिहास की समझ की बाबत
आपस में लड़ा न जाए,
प्राचीन जीवन के उज्ज्वल पक्षों को तलाशा जाए ,
इनसे सीख लेकर
अपने वर्तमान को तराशा जाए ,
ताकि भविष्य में
संभावनाओं का स्वागत
आदमी अपनी चेतना के स्तर पर
करने के लिए
स्वयं को तैयार कर पाए !
जीवन यात्रा में
समय की धारा के संग
सतत अग्रसर हो सके ,
अतीत के विवादों को पीछे छोड़ सके ,
वह सार्थकता से
अपनी जीवन की संवेदना को जोड़ सके ,
अपना अड़ियल रवैया छोड़ सके ,
जिससे कि उसकी जीवन धारा नया मोड़ ले सके,
उसके भीतर इतिहास की समझ विकसित हो सके।
२५/०३/२०२५.
आज जब देश दुनिया
अराजकता के मुहाने पर खड़ी है
एक समस्या मेरे जेहन में चिंता बनी हुई है।
सब लोग इतिहास को
फुटबाल बना कर अपने अपने ढंग से खेल रहे हैं।
सब धक्कामुक्की ,  जोर-जबरदस्ती कर
अपनी बात मनवाने में लगे हैं।
सब स्वयं को विजेता सिद्ध करना चाहते हैं।
अपना नैरेटिव गढ़ना चाहते हैं।
वे गड़े मुर्दे कब्रों से निकालना चाहते हैं।
ऐसे हालात में
एक पड़ोसी देश के मान्यनीय मंत्री महोदय ने
सच कह कर बवाल मचा दिया।
हंगामेदार शख़्सों को सुप्तावस्था से जगा दिया।
उन्होंने आक्रमणकारी महमूद गजनवी की
बाबत अपना नज़रिया बताया और
अपने वतनवासियों को चेताया कि
अब सच को छुपाया जाना नहीं चाहिए।
इस की बाबत यथार्थ को स्वीकारा जाना चाहिए।

इतना सुनते ही वहां बवाल हो गया।
इतिहास के बारे में अबूझ सवाल खड़ा हो गया।
इतिहास की अस्मिता के सामने अचानक
अप्रत्याशित रूप से एक प्रश्नचिह्न लगा देखा गया।
मैंने इस घटनाक्रम को लेकर सोचा कि
अब और अधिक देर नहीं होनी चाहिए।
इतिहास का सच जनता जनार्दन के सम्मुख आना चाहिए।
इतिहास के विशेषज्ञों और मर्मज्ञों द्वारा
उपेक्षित इतिहास बोध को पुनर्जीवित करने के निमित्त
इतिहास का पुनर्लेखन किया जाना चाहिए
ताकि इतिहास अतीत का आईना बन सके।
इसके उजास से
अराजकता और उदासीनता को
घर आने से रोका जा सके।
सब अपने को गौरवान्वित महसूस कर सकें।

आखिरकार सच का सूरज
बादलों के बीच से बाहर निकल ही आता है ,
जब संवेदनशील राजनेता
इतिहास की बाबत सच को उजागर कर देता है।
वह जाने अनजाने सबको भौंचक्का कर ही देता है।
इतिहास अब चिंतन मनन का विषय बन गया है।
यह जिज्ञासुओं के दिलों की धड़कन भी बन गया है।
इसके सच की अनुभूति कर गर्व से सीना तन गया है।
०२/०१/२०२५.
कल ख़बर आई थी कि
शहर में
अचानक
सुबह सात बजे
एक इमारत
धराशाई हो गई
गनीमत यह रही कि
प्रशासन ने
एक सप्ताह पूर्व
इस इमारत को
असुरक्षित घोषित
करवा दिया था
वरना जान और माल का
हो सकता था
बड़ा भारी भरकम नुक्सान।

आज इस बाबत
अख़बार में ख़बर पढ़ी
यह महफ़िल रेस्टोरेंट वाली
इमारत थी
वहीं पास की इमारत में
मेरे पिता नौकरी करते थे।
इस पर मुझे लगा कि
कहीं मेरे भीतर से भी
कुछ भुर-भुरा कर
झर रहा है ,
समय बीतने के साथ साथ
मेरे भीतर से भी
इस कुछ का झरना  
मतवातर बढ़ता जा रहा है ,
यह तन और मन भी
किसी हद तक धीरे धीरे
खोखला होता जा रहा है।
जीवन में से कुछ
महत्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दों का कम होना
जीवन में  खालीपन को भरता जा रहा है।
मुझे यकायक अहसास हुआ कि इर्द-गिर्द
कुछ नया बन रहा है ,
कुछ पुराना धीरे-धीरे
मरता जा रहा है ,
जीवन के इर्द-गिर्द कोई
चुपचाप मकड़जाल बुन रहा है।

ज्यों ज्यों शहर
तरक्की कर रहा है,
त्यों त्यों बाज़ार
अपनी कीमत बढ़ा रहा है।
यह इमारत भी कीमती होकर
तीस करोड़ी हो चुकी थी।
आजकल इस के भीतर
रेनोवेशन का काम चल रहा था।
वह भी बिना किसी से
प्रशासनिक अनुमति लिए।

प्रशासन ने बगैर कोई देरी किए
शहर भर की पुरानी पड़ चुकी इमारतों का
स्ट्रक्चरल आडिट करवाने का दे दिया है आदेश।

मैं भी एक पचास साल से भी
ज़्यादा पुराने मकान में रह रहा हूं ,
मैं चाहता हूं कि
बुढ़ाते शहर की पुरानी इमारतों को
स्ट्रक्चरल आडिट रिपोर्ट के
नियम के तहत लाया जाए ।
असमय शहरी जनसंख्या को
दुर्घटनाग्रस्त होने से बचाया जाए।

और हां, यह बताना तो
मैं भूल ही गया कि मेरा शहर
भूकम्प की संभावना वाली
एक अतिसंवेदनशील श्रेणी में आता है।
फिर भी यहां बहुत कुछ
उल्टा-सीधा होता नज़र आता है ,
यहां का सब कुछ भ्रष्टाचार से मुक्त होना चाहता है।
पर विडंबना है कि अचानक इमारत के
गिरने जैसी दुर्घटना के इंतजार में
इस शहर की व्यवस्था
आदमी के असुरक्षित होने का
हरपल अमानुषिक अहसास करवाती है।
क्यों यहां सब कुछ ,
कुछ कुछ अराजकता के
यत्र तत्र सर्वत्र व्यापे  होने का
बोध करा रहा है ?
क्या यहां सब कुछ  
मलियामेट होने के लिए सृजित हुआ है ?
कभी कभी यह शहर
अस्त व्यस्त और ध्वस्त जैसे
अनचाहे दृश्य दिखाता दिखाई देता है ,
चुपके से मन को ठेस पहुंचा देता है।
०७/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
जब दोस्त
बात बात पर
मारने लगें ताना,
तब टूट ही जाता है
दोस्ताना।
अतः
दोस्त!
दोस्ती
बचाने की खातिर
अपने आप को
संतुलित करना सीख।
अरे भाई!
तुम दोस्त हो
दोस्तों पर
तानाकशी से बच,
कभी कभी तो
बोला करो
खुद से ही सच।


२५/०४/२०२०.
इस बार होली पर
खूब हुड़दंग हुआ ,
पर मैं सोया रहा
अपने आप में खोया रहा।
कोई कुछ नया घटा ,
आशंका का कोई बादल फटा!
यह सब सोच बाद दोपहर
टी.वी.पर समाचार देखे सुने
तो मन में इत्मीनान था ,
देश होली और जुम्मे के दिन शांत रहा।
होली रंगों का त्योहार है ,
इसे सब प्रेमपूर्वक मनाएं।
किसी की बातों में आकर
नफ़रत और वैमनस्य को न फैलाएं।

बालकनी से बाहर निकल कर देखा।
प्रणव का मोटर साइकिल रंगों से नहाया था।
उस पर हुड़दंगियों ने खूब अबीर गुलाल उड़ाया था।

इधर उमर बढ़ने के साथ
रंगों से होली खेलने से करता हूँ परहेज़।
घर पर गुजिया के साथ शरबत का आनंद लिया।
इधर हुड़दंगियों की टोली उत्साह और जोश दिखलाती निकल गई।

दो घंटे के बाद प्रणव होली खेल कर घर आया था।
उसके चेहरे और बदन पर रंगों का हर्षोल्लास छाया था।
जैसे ही वह खुद को रंगविहीन कर बाथरूम से बाहर आया,
उसकी पुरानी मित्र मंडली ने उसे रंगों से कर दिया था सराबोर।

मैं यह सब देख कर अच्छा महसूस कर रहा था।
मन ही मन मैंने सौगंध खाई ,अगली होली पर
मैं कुछ अनूठे ढंग से होली मनाऊंगा।
कम से कम सोए रहकर समय नहीं गवाऊंगा।
कैनवास पर अपने जीवन की स्मृतियों को संजोकर
एक अद्भुत अनोखा अनूठा कोलाज बनाने का प्रयास करूंगा।

और हाँ, रंग पंचमी से एक दिन पूर्व होलिका दहन पर
एक  संगीत समारोह का आयोजन घर के बाहर करवाऊंगा।
उसमें समस्त मोहल्ला वासियों को आमंत्रित करूंगा।
उनके उतार चढ़ावों भरे जीवन में खुशियों के रंग भरूंगा।
१७/०३/२०२५.
बहुत बार उज्ज्वल भविष्य के
बारे में सोचने और बताने से पहले ही
चाय के प्याले में
तूफ़ान आ गया है ,
सारे पूर्वानुमान
संभावनाओं के नव चयनित जादूगर के
कयास लगभग असफल रहने से
बाज़ार नीचे की तरफ़
बैठ गया है ,
निवेशक को
अचानक धक्का लगा है ,
वह सहम गया है !
कहाँ तो अच्छे दिन आने वाले थे !!
लोग स्वप्न नगरी की ओर उड़ान भरने को तैयार थे !!
अब लोग धरना प्रदर्शन पर उतारू हैं।
क्या आर्थिकता को बीमार करने वाले दिन सब पर भारू हैं ?
इससे पहले कि
कुछ बुरा घटे ,
हम अराजकता की
तरफ़ बढ़ने से
स्वयं को रोक लें ,
ताकि सब
सुख समृद्धि और संपन्नता से
खुद को जोड़ सकें।
०७/०४/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
करने दो
उसे इंतज़ार।
इंतज़ार में
समय कट जाता है !
युग तक रीत जाता है!!
२१/१२/२०१६.
Joginder Singh Dec 2024
नीत्शे!
तुम से पूछना
चाहता हूं कुछ ,
अपनी जिज्ञासा की बाबत।
कहीं इस दुनिया में
ईश दिखा क्या ?
फिर ईश निंदा का
आरोप लगा कर इस
कायनात के भीतर
बसे जन समूहों में डर
क्यों भरा  जा रहा है ?
उन में से कुछ को
क्यों मारा जा रहा है?

ईश्वर पर
निंदा का असर हो सकता है क्या ?
असर होता है
बस! कुछ बेईमानों पर।
वे पर देते कतर
परिंदे उड़ न पाएं !
अपने लक्ष्य को हासिल न कर पाएं !!
०१/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
मैं :  हे ईश्वर !
       तुम साम्यवादी हो क्या ?

ईश्वर : हाँ ,  बिल्कुल ।
        मेरे यहाँ से
        व्यक्ति
        इस धरा पर
        समानता और स्वतंत्रता के
        अधिकार सहित आता है ।
  मैं :   फिर क्यों वह गैर बराबरी और
          शोषण का शिकार बन जाता है ?
  ईश्वर :...पर ज़माने की हवा खाकर कोई कोई
          व्यक्ति साधन सम्पन्न बनकर
         पूंजीवादी मानसिकता का बन जाता है।
         वह पहले पहल अपने हमसायों से ख़ूब मेहनत
         करवाता है।
         ‌फिर उन्हें बेच खाता है,
   ‌      शोषण का शिकार बनाता है।
   मैं: आप इस बाबत क्या सोचते हैं ?
   ईश्वर : सोचना ‌क्या ?
          आज का आदमी हर समय धन कमाने की सोच
  ‌         रखता है।
           वह उन्हें गुलाम बना कर रखता है ।
           उनके कमज़ोर पड़ने पर
            वह उन्हें हड़प कर जाता है । तुम्हारा इस बारे में
            क्या सोचना है ?
    मैं :  .......!
    ईश्वर : सच कहूं, बेटा!
‌‌          मेरा जी भर आता है और मुझे लगता है कि
            ईश्वर कहाँ?...वह तो मर चुका है । ईश्वर को तो
           आदमी के अहंकार ने मार दिया है।
    मैं: ......!!
     मैं ईश्वर के इस कथन के समर्थन में सिर हिला देता हूँ।
     पर कहता कुछ नहीं, उन्होंने मुझे निरुत्तर जो कर दिया
      है ।
किसी के
उकसावे में
आकर बहक जाना
कोई अच्छी बात नहीं।
यह तो बैठे बिठाए
मुसीबत मोल लेना है !
ठीक परवाज़ भरने से पहले
अपने पंखों को घायल कर लेना है !
लोग अक्सर हरदम
अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए
उकसावे को हथियार बना कर
अपना मतलब निकालते हैं !
जैसे ही कोई उनका शिकार बना
वे अपना पल्लू झाड़ लेते हैं !
वे एकदम अजनबियत का लबादा ओढ़ कर
एकदम भोले भाले बने से
मुसीबत में पड़ चुके
आदमी की बेबसी पर
पर मन ही मन खुश होते हैं।
ऐसे लोग किसके हितचिंतक होते हैं ?
किसी के उकसाने पर
भूले से भी बहक जाना
कोई अक्लमंदी नहीं,
दोस्त ! थोड़ा होशियार बनो तो सही।
अपने को परिस्थितियों के अनुरूप
ढालने का प्रयास करो तो सही।
देखना, धीरे धीरे सब कमियाँ दूर हो जाएंगी।
सुख समृद्धि और संपन्नता भी बढ़ती जाएगी।
किसी के कहने में आने से सौ गुणा अच्छा है ,
अपनी योग्यता और सामर्थ्य पर भरोसा करना ,
जीवन यात्रा के दौरान
अपने प्रयासों को संशोधित करते रहना।
जीवन में मनमौजी बनकर अपनी गति से आगे बढ़ना।
किसी के भी उकसावे में आना अक्ल पर पर्दा पड़ना है।
अतः जीवन में संभल कर चलना बेहद ज़रूरी है ,
अन्यथा आदमी की स्वयं तक से बढ़ जाती दूरी है।
वह धीरे धीरे अजनबियत के अजाब में खो जाता है।
आदमी के हाथ से जीने का उद्देश्य और उत्साह फिसलता जाता है।
उकसावा एक छलावा है बस!
इसे समय रहते समझ!
और अपनी डगर चलता जा!
ताकि अपनी संभावना को सके ढूंढ !!
२६/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
मेरे देश!

एक मुसीबत
जो दुश्मन सी होकर
तुम्हें ललकार रही है ।
उसे हटाना,
जड़ से मिटाना
तुम्हारी आज़ादी है!
बेशक! तुम्हारी नजर में ...
अभी ख़ाना जंगी
समाज की बर्बादी है!!
पर...
वे समझे इसे... तभी न!

मेरे दोस्त!
मुसीबत
जो रह रहकर
तुम्हारे वजूद पर
चोट पहुंचाने को है तत्पर!
उसे दुश्मन समझ
तुम कुचल दो।
फ़न
उठाने से पहले ही
समय रहते
सांप को कुचल दो ।
इसी तरह अपने दुश्मनों को
मसल दो ,
तो ही अच्छा रहेगा।
वरना ... सच्चा भी झूठा!
झूठा तो ... खैर , झूठा ही रहेगा।
झूठे को सच्चा
कोई मूर्ख ही कहेगा ।


मुसीबत
जो आतंक को
मन के भीतर
रह रहकर
भर रही है ,
उस आतंक के सामने
आज़ादी के मायने
कहां रह जाते हैं ?
माना तुम अमन पसंद हो,
अपने को आज़ाद रखना चाहते हो ,
तो लड़ने ,  
संघर्ष करने से
झिझक कैसी  ?
तनिक भी झिझके
तो  दुश्मन करेगा
तुम्हारे सपनों की ऐसी तैसी ।

अतः
उठो मेरे देश !
उठो मेरे दोस्त !
उठो ,उठो ,उठो,
और शत्रु से भिड़ जाओ ।
अपनी मौजूदगी ,
अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति
दिन रात परिश्रम करके करो ।
यूं ही व्यर्थ ही ना डरो।
कर्मठ बनो।
अपने जीवन की
अर्थवत्ता को
संघर्ष करते करते
सिद्ध कर जाओ।
हे देश! हे दोस्त!
उठो ,कुछ करो ।
उठो , कुछ करो।
समय कुर्बानी मांगता है।
नादान ना बने रहो।
१६/०८/२०१६.
यह उदासी ही है
जो जीवन को कभी कभी
विरक्ति की ओर ले जाती है ,
आदमी को थोड़ा ठहरना,
चिंतन मनन करना सिखाती है।

उस उदासी का क्या करें ?
जो हमें निष्क्रिय करे ,
जीवन धारा में बाधक बने।
क्यों न सब इस उदासी को
जीवन के आकर्षण में बदलने का
सब समयोचित प्रयास करें !
उदासी को देखने की दृष्टि में तब्दील करें !!
११/०२/२०२५.
हरेक के भीतर
हल्के हल्के
धीरे धीरे
जब निरर्थकता का
होने लगता है बोध
तब आदमी को
निद्रा सुख को छोड़
जीवन के कठोर धरातल पर
उतरना पड़ता है,
सच का सामना
करना पड़ता है।
हर कदम अत्यन्त सोच समझ कर
उठाना पड़ता है,
खुद को गहन निद्रा से
जगाना पड़ता है।

उदासी का समय
मन को व्याकुल करने वाला होता है,
यही वह क्षण है,
जब खुद को
जीवन रण के लिए
आदमी तैयार करे ,
अपनी जड़ता और उदासीनता पर
प्रहार करे
ताकि आदमी
जीवन पथ पर बढ़ सके।
वह जीवन धारा को समझ पाए ,
और अपने  मन में
सद्भावना के पुष्प खिला जाए ,
जीवन यात्रा को गंतव्य तक ले जाए।

११/०२/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
एक दिन
स्टंट करते-करते
मौत उन्हें लील जाएगी ।
वे तो रोमांच के घोड़े पर सवार थे !
बेशक वह मोटरसाइकिल सवार थे !

उन्हें क्या पता था?
कि रोमांचक स्टंट करते-करते
मौत उनका शिकार करने वाली है।
वह उन्हें धराशायी करने वाली है !
मौत तांडव करते हुए आई ,
और उन्हें अपने साथ
काल के समंदर में डूबा गई।
बेशक !उन्हें मौत की ताकत के बारे में पता नहीं था।
वे तो मौत को जिंदगी की तरह मज़ाक भर समझते थे।

जो लोग उनकी स्टंट बाज़ी को
बड़े ग़ौर से निहार रहे थे ।
वह भी तो सब कुछ से अनजान
उन्हें  स्टंट के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे।
वे भी ख़तरे के खिलाड़ियों के साथ
अपने भीतर रोमांच और उत्तेजना भर रहे थे।
उन्हें भी तो अंज़ाम का कुछ अहसास रहा होगा,
जो जिंदगी और मौत से मज़ाक कर रहे थे ,
और जो उनके करतबों को देख रहे थे।
अपने सामने मौत का तांडव देखकर
तमाशबीनों ने भी तो
अपने भीतर मौत का डर
पाल लिया था ।
अपनी आंखों के सामने
मौत का भयावह मंज़र देख लिया था ।


उन्हें तो अब मौत कभी  न  सता पाएगी ।
पर जिन्होंने मौत का 'लाइव टेलीकास्ट 'देखा ,
उनके भीतर श्वासों की अवधि पूरी होने तक,
मौत मतवातर
जिंदा लोगों में दहशत भरती जाएगी।
मरने का क्षण आने तक,
मृत्यु उन्हें सताएगी।
मौत की परछाइयां
रह रहकर आतंकित कर जाएंगी।
आप भी
दृश्य श्रव्य सामग्री के तौर पर
कभी-कभी
मौत और रोमांच का
ले सकते हैं मज़ा ज़रूर ,
पर रखिए ध्यान
कि यह मज़ा बनाता है आपको क्रूर,
इससे तो नहीं टूटेगा
स्टंटबाज़ों का क्या, किसी का भी गुरूर ।
देख देख कर यह सब मौत का तमाशा,
जाने अनजाने
घटता जाता
आदमी के भीतर और बाहर का नूर ।

आपको क्या पता?
जो कुछ भी आप देखते हैं ,
वह आपके अवचेतन का हिस्सा बन जाता है ।
आपको पता भी नहीं चलेगा कि
कब आप जाने अनजाने स्टंट कर जाएंगे ।
आपको यह भी नहीं पता चलेगा कि
आप मौत से जीत जाएंगे
या फिर इस इस खेल में ढेर हो जाएंगे !
१७/०१/२०१७.
दोस्त,
करो कुछ ऐसा उपाय
उदास और हताश चेहरे
कमल से खिल जाएं।
उनमें जीने की ललक उभरे।
वे छोटी सी बात पर न भड़कें।
वे शांत रहें
और अवसरों की
तलाश के लिए
तत्पर बने रहें।
उनमें जिजीविषा बनी रहे।
उनमें सुख समृद्धि और संपन्नता की
अभिलाषा जगी रहे।
उन्हें यह जीवन किसी जन्नत से
कम  न लगे।
वे इस जन्नत में बने रहनेके लिए
निरन्तर अथक संघर्ष करते रहें ।
१२/०५/२०२५.
यह सुखद अहसास है कि
उपेक्षित
कभी किसी से
कोई अपेक्षा नहीं रखता क्यों कि उसे
आदमी की फितरत का है
बखूबी पता ,
कोई मांग रखी नहीं कि
समझो बस !
जीवन का सच
समर्थवान शख्स
दाएं बाएं, ऊपर नीचे
होते हुए हो जाएगा
चुपके-चुपके ,चोरी-चोरी
लापता।
उपेक्षित रह जाता बस खड़ा ,
उलझा हुआ,
अपनी बेबसी पर
खाली हाथ मलता हुआ।

इसलिए
उपेक्षित
कभी भी ,
कहीं भी ,
हर कमी और अभाव के बावजूद
हर संभव संघर्ष करता हुआ ,
किसी के आगे
हाथ नहीं फैलाता।
वह कठोर परिश्रम करना  
है भली भांति जानता।
सब तरफ से उपेक्षित रहने के बावजूद
वह अपने बुद्धि कौशल से
सफलता हासिल कर
बनाए रखता है अपना वजूद ।
जीवन के हरेक क्षेत्र में
अपनी मौजूदगी का अहसास
हरपल कराता हुआ
अपनी जिजीविषा बनाए रखता है।
अपनी संवेदना और संभावना को जीवंत रखता है।
चुपचाप सतत् मेहनत कर
अपनी मंजिल की ओर अग्रसर होता है
ताकि वह अपने भीतर व्याप्त चेतना को
जीवन में सार्थक दिशा निर्देश के अनुरूप
ढाल सके,
समाज की रक्षार्थ
स्वयं को एक ढाल में बदल सके ,
तथाकथित सेक्युलर सोच के
अराजक तत्वों से
बदला ले सके ,
उन्हें सार्थक बदलाव के लिए
बाध्य कर सके।
जीवन में सब कुछ  
सर्व सुलभ साध्य कर सके ,
जीवन में निधड़क होकर आगे बढ़ सके।
उपेक्षित स्वयं से परिवर्तन की
अपेक्षा रखता है ,
यही वजह है कि वह अपने प्रयासों में
कोई कमीपेशी नहीं छोड़ता ,
वह संकट के दौर में भी
कभी मुख नहीं मोड़ता,
कभी संघर्ष करना नहीं छोड़ता।
२६/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
वह  
कभी कभी मुझे
इंगित कर कहती है,
" देह में
आक्सीजन की कमी
होने पर
लेनी पड़ती है उबासी।"

पता नहीं,
वह सचमुच सच बोलती है
या फिर
कोतुहल जगाने के लिए
यों ही बोल देती अंटशंट,
जैसे कभी कभार
गुस्सा होने पर,
मिकदार से ज़्यादा पीने पर
बोल सकता है कोई भी।


मैं सोचता हूं
हर बार
आसपास फैले
ऊब भरे माहौल में
लेता है कोई उबासी
तो भर जाती है
भीतर उदासी।

मुझे यह तनिक भी
भाती नहीं।
लगता है कि यह तो
नींद के आने की
निशानी है।
यह महज़
निद्रा के आकर
सुलाने का
इक  इशारा भर है,
जिस से जिंदगी सहज
बनी रहती है।
वह अपना सफ़र
जारी रखती है।


पर बार बार की उबासी
मुझे ऊबा देती है।
यह भीतर सुस्ती भरती है।
मुझे इससे डर लगता है।
लगता है
ज़िंदगी का सफ़र
अचानक
रुक जाएगा,
रेत भरी मुट्ठी में से
रेत झर जाएगा।
कुछ ऐसे ही
आदमी
रीतते रीतते रीत जाता है!
वह उबासी लेने के काबिल भी
नहीं रह जाता है।

चाहता हूं... इससे पहले कि
उबासी मुझे उदास और उदासीन करे ।
मैं भाग निकलूं
और तुम्हें
किसी ओर दुनिया में मिलूं ।

वह
अब मुझे इंगित कर
रह रह कर कहती है,
" जब कभी वह  
अपनी प्राण प्रिय  के सम्मुख
उबासी लेती है, भीतर ऊब भर देती है।
उसके गहन अंदर
अंत का अहसास भरा जाता है।
फिर बस तिल तिल कर,
घुटन जैसी वितृष्णा का
मन में आगमन हो जाता है।
यही नहीं वह यहां तक कह देती है
कि उबासी के वक्त
उसे  सब कुछ
तुच्छ प्रतीत होता है।
जब कभी मुझे यह
उबासी सताती है,
मेरी मनोदशा बीमार सी हो जाती है।
जीने की लालसा
मरने लगती है।"

सच तो यह है कि
उबासी के आने का अर्थ है,
अभी और ज़्यादा  सोने की जरूरत है।
   अतः
पर्याप्त नींद लीजिए।
तसल्ली से सोया कीजिए।
बंधु, उबासी सुस्ती फैलाती है।
सो, यह किसी को भाती नहीं है।
इसका निदान,समय पर ‌सोना और जागना है।
उबाऊ, थकाऊ,ऊब भरे माहौल से भागना है।
३/८/२०१०.
Joginder Singh Nov 2024
हर हाल में
उम्मीद का दामन
न छोड़, मेरे दोस्त!
यह उम्मीद  ही है
जिसने साधारण को
असाधारण तो बनाया ही है ,
बल्कि
जीवन को
जीवंत बनाए रखा है ।
इसके साथ ही
बेजोड़ !
बेखोट!
एकदम कुंदन सरीखा !
अनमोल और उम्दा !
साथ ही  तिलिस्म से भरपूर ।
उम्मीद ने ही
जीवन को
नख से शिख तक ,
रहस्यमय और मायावी सा
निर्मित किया है,
जिसने मानव जीवन में
एक नया उत्साह भरा है।

उम्मीद ही
भविष्य को संरक्षित करती है,
यह चेतन की ऊर्जा  सरीखी है।
यह सबसे यही कहती है कि
अभी
जीवन में
बेहतरीन का आगाज़
होना है ,
तो फिर
क्यों न इंसान
सद्कर्म करें!
वह चिंतातुर क्यों रहे?
क्यों न वह
स्वयं के भीतर उतरकर
श्रेष्ठतम जीवन धारा में बहे !
संवेदना के
स्पंदनों को अनुभूत करे !!
Joginder Singh Nov 2024
आदमी के भीतर
उम्मीद बनी रहे मतवातर ,
तो आदमजात करती नहीं
कोई शिकवा, गिला ,शिकायत ।

अगर
कभी भूल से
जिंदगी करने लगे ,
ज़रूरत के वक्त
बहस मुबाहिसा
तो भी भीतर तक  
आदमी रहता है शांत ,
वह बना रहता धीर प्रशांत ।

वह कोई बलवा
नहीं करता।
उम्मीद उसे
ज़िंदादिल बनाए रखती है,
'कुछ अच्छा होगा। ',
यह आस
उसे कर्मठ बनाए रखती है ।
जीवन की गति को बनाए रखती है ।
३०/११/२०२४.
आज मेरे भीतर अंतर्कलह है
मैं अपने पिता के साथ
सरकारी स्वास्थ्य विभाग द्वारा
संचालित सेवाओं का लाभ उठाने आया हूँ ।
बहुत से लोग सरकारी स्वास्थ्य सेवा से
असंतुष्ट प्राइवेट अस्पताल से
करवाना चाहते हैं इलाज़।
इसका कारण स्पष्ट है कि
उन्हें नहीं है विश्वास,
सरकारी चिकित्सा से
वे कर पाएंगे स्वास्थ्य लाभ।
वे प्राइवेट अस्पताल में
लूटे जाते हैं।
वहाँ के डॉक्टर भी तो
कभी सरकारी स्वास्थ्य केंद्र में
इलाज़ करने की अनुभव प्राप्ति के बाद
प्राइवेट अस्पताल में
चिकित्सा कार्य को निभाते हैं।
अच्छा रहे , यदि आम आदमी समय रहते
सरकारी अस्पताल से
अपने रोग की
चिकित्सा करवाए,
ताकि वह अपनी जिन्दगी में
बेहतर और प्रभावी चिकित्सा विकल्प को तलाश पाए।

मेरे पिता खुद भी एक स्वास्थ्य विभाग से
जुड़े पदाधिकारी रहे हैं,
वे अपने विभाग के कार्यों की गुणवत्ता को
अच्छे से पहचानते हैं।
यदि सभी सरकारी चिकित्सा कार्यों का लाभ उठाएं
तो किसी हद तक आम आदमी
सुरक्षित जीवन की आस रख सकता है ,
सचेत रह कर जीवन में संघर्ष ज़ारी रख सकता है।

इस फरवरी महीने में
मेरे पिता जी नब्बे साल के हो जाएंगे ।
वे बहुत
ज़्यादा बीमार हैं
पर उनके भीतर की जिजीविषा ने
उन्हें जीवन की दुश्वारियों के बावजूद
हौंसले वाला बनाया हुआ है,
मरणासन्न स्थिति में
सकारात्मक विचारों से जोड़ कर
जीवन्त बनाया हुआ है।

उनके जीवन जीने के ढंग ने
मुझे यह सिखाया है कि
बुढ़ापे में कैसे आदमी अपनी कर्मठता से
जीवन को सक्रिय रूप से जी सकता है।
वह जिंदादिली से मौत के ख़ौफ़ को
अपने वजूद से दूर रख
स्वयं को शांत चित्त बनाए रख सकता है,
जबकि आम आदमी जल्दी घबरा जाता है,
वह समय आने से पहले
विचलित, हताश और निराश हो
अपने स्वजनों को दुखी कर देता है,
आप भी कष्ट झेलता है
और परिजनों को भी दुःख,तकलीफ व पीड़ा देता है।

सालों पहले सपरिवार पिता जी के साथ
पहाड़ों की सैर करने गया था।
वहाँ का एक नियम है कि
अगर चलते चलते सांस फूल जाए
तो मतवातर चलने की बजाए
थोड़ा रुक रुक कर आगे बढ़ो।
आज पिता को पहाड़ नहीं ,
मैदान में चलते हुए
उसी नियम का पालन करते देखता हूँ
तो मुझे खरगोश और कछुए की कहानी याद आती है,
लेकिन बदले संदर्भ में
कभी पिता जी खरगोश की तरह
तेज गति से मंज़िल की ओर बढ़ते थे
और आज वे बहुत धीरे धीरे चलते हैं,
सांस फूलने पर रुकते हैं,
दम लेते हैं और आगे बढ़ते हैं।
तकलीफ़ होने पर वे चिल्लाते नहीं,
बल्कि प्रभु का नाम लेते हैं ।
उनके आसपास घर परिवार के सदस्य
समझ जाते हैं कि वे पीड़ा में हैं।
सभी सदस्य चौकन्ने और शांत हो जाते हैं।
वे उनके साथ मन ही मन प्रार्थना करते हैं,
अब जीवन प्रभु तुम्हारे हाथ में है,
आप ही जीवन की डोर को संभालना,
और जीवात्मा को उसकी मंज़िल तक पहुँचा देना।
०३/०२/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
तुम उसे पसंद नहीं करते ?
वह घमंडी है।
तुम भी तो एटीट्यूड वाले हो ,
फिर वह भी
अपने भीतर कुछ आत्मसम्मान रखे तो
वह हो गया घमंडी ?
याद रखो
जीवन की पगडंडी
कभी सीधी नहीं होती।
वह ऊपर नीचे,
दाएं बाएं,
इधर उधर,
कभी सीधी,कभी टेढ़ी,
चलती है और अचानक
उसके आगे कोई पहाड़ सरीखी दीवार
रुकावट बन खड़ी हो जाती है
तो वह क्या समाप्त हो जाती है ?
नहीं ,वह किसी सुरंग में भी बदल सकती है,
बशर्ते आदमी को
विभिन्न हालातों का
सामना करना आ जाए।
आदमी अपनी इच्छाओं को
दर किनार कर
खुद को
एक सुरंग सरीखा
बनाने में जुट जाए।
वह घमंडी है।
उसे जैसा है,वैसा बना रहने दो।
तुम स्वयं में परिवर्तन लाओ।
अपने घमंड को
साइबेरिया के ठंडे रेगिस्तान में छोड़ आओ।
खुद को विनम्र बनाओ।
यूं ही खुद को अकड़े अकड़े , टंगे टंगे से न रखो।
फिलहाल
अपने घमंड को
किसी बंद संदूक में
कर दो दफन।
जीवन में बचा रहे अमन।
तरो ताज़ा रहे तन और मन।
जीवन अपने गंतव्य तक
स्वाभाविक गति से बढ़ता रहे।
घमंड मन के भीतर दबा कुचला बना रहे ,
ताकि वह कभी तंग और परेशान न करे।
उसका घमंड जरूर तोड़ो।
मगर तुम कहीं खुद एक घमंडी न बन जाओ ।
इसलिए तुम
इस जीवन में
घमंड की दलदल में
धंसने से खुद को बचाओ।
घमंड को अपनी कथनी करनी से
एक पाखंड अवश्य सिद्ध करते जाओ।
११/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
वह आदमी
जो अभी अभी
तुम्हारी बगल से निकला है ।
एक आदमी भर नहीं,
एक खुली किताब भी है।

दिमाग उसके में
हर समय चलता रहता
हिसाब-किताब  है ,
वह ज़िंदगी की बारीकियां को
जानने ,समझने के लिए रहा बेताब है,
उस जैसा होना
किसी का भी
बन सकता ख़्वाब है,
चाल ढाल, पहनने ओढ़ने,
खाने पीने, रहने सहने, का अंदाज़
बना देता उसे नवाब है।
वह सच में
एक खुली किताब है।

तुम्हें आज
उसे पढ़ना है,
उससे लड़ना नहीं।
वह कुछ भी कहे,
कहता रहे,
बस !उससे डरना नहीं ।
वह इंसान है , हैवान नहीं ।
उम्मीद है ,तुम उसे ,अच्छे से ,पढ़ोगे सही ।
न कि ढूंढते रहोगे, उस पूरी किताब के
किरदार में , कोई कमी।
जो तुम अक्सर करते आए हो
और जिंदगी में
खुली किताबों को
पढ़ नहीं पाए हो।
पढ़े लिखे होने के बावजूद
अनपढ़ रह गए हो।
बहुत से अजाब सह रहे हो।

३०/११/२०२४.
बाज़ार में
ऋण उपलब्ध करवाने की
बढ़ रही है होड़ ,
बैंक और अन्य वित्तीय संस्थान
ऋण आसानी से
देने के  
कर रहे हैं प्रयास।
लोग खुशी खुशी
ऋण लेकर
अनावश्यक पदार्थों का
कर रहे हैं संचय।
ऋण लेना
सरल है ,
पर उसे
समय रहते
चुकाना भी होता है ,
समय पर ऋण चुकाया नहीं,
तो आदमी को
प्रताड़ना और अपमान के लिए
स्वयं को कर लेना चाहिए तैयार।
ऋण को न मोड़ने की
सूरत में  
ब्याज पर ब्याज लगता जाता है ,
यह न केवल
मन पर बोझ की वज़ह बनता है ,
बल्कि यह आदमी को
भीतर तक
कमजोर करता है,
आदमी हर पल आशंकित रहता है।
उसके भीतर
अपमानित होने का डर भी
मतवातर भरता जाता है।
उसका सुकून बेचैनी में बदल जाता है।

यह तो ऋणग्रस्त आदमी की
मनोदशा का सच है ,
परन्तु ऋणग्रस्त देश का
हाल तो और भी अधिक बुरा होता है,
जब आमजन का जीना दुश्वार हो जाता है,
तब देश में असंतोष,कलह और क्लेश, अराजकता का जन्म होता है,
जो धीरे-धीरे देश दुनिया को मरणासन्न अवस्था में ले जाता है,
और एक दिन देश विखंडन के कगार पर पहुंच जाता है ,
देश का काम काज
ऋण प्रदायक देश और संस्थान के इशारों पर होने लगता है।
यह सब एक नई गुलामी की व्यवस्था की वज़ह बनता जा रहा है ,
ऋण का दुष्चक्र विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को
विकास के नाम पर
विनाश की ओर ले जाता है।
इस बाबत बहुत देर बाद
समझ में आता है ,
जब सब कुछ छीन लिया जाता है,
तब ... क्या आदमी और क्या देश...
लूटे पीटे नज़र आते हैं ,
वे केवल नैराश्य फैलाने के लिए
पछतावे के साये में लिपटे नज़र आते हैं।
वे एक दिन आतंकी
और आतंकवाद फैलाने की नर्सरी में बदलते जाते हैं।
बिना उद्देश्य और जरूरत के
ऋण के जाल में फंसने से बचा जाए।
क्यों न
चिंता और तनाव रहित जीवन को जीया जाए !
सुख समृद्धि और शांति की खातिर चिंतन मनन किया जाए !
सार्थक जीवन धारा को अपनाने की दिशा में आगे बढ़ा जाए !!
ऋण मुक्ति की बाबत समय रहते सोच विचार किया जाए ।
३१/०३/२०२५.
ऋण लेकर
घी पीना ठीक नहीं ,
बेशक बहुत से लोग
खुशियों को बटोरने के लिए
इस विधि को अपनाते हैं।
वे इसे लौटाएंगे ही नहीं!
ऋणप्रदाता जो मर्ज़ी कर ले,
वे बेशर्मी से जीवन को जीते हैं।
ऋण लौटाने की कोई बात करे
तो वे लठ लेकर पीछे पड़ जाते हैं।
ऐसे लोगों से निपटने के लिए
बाउंसर्स, वकील, क़ानून की मदद ली जाती है ,
फिर भी अपेक्षित ऋण वसूली नहीं हो पाती है।

कुछ शरीफ़ इंसान अव्वल तो ऋण लेते ही नहीं,
यदि ले ही लिया तो उसे लौटाते हैं।
ऐसे लोगों से ही ऋण का व्यापार चलता है,
अर्थ व्यवस्था का पहिया विकास की ओर बढ़ता है।

ऋण लेना भी ज़रूरी है।
बशर्ते इसे समय पर लौटा दिया जाए।
ताकि यह निरन्तर लोगों के काम में आता जाए।

कभी कभी ऋण न लौटाने पर
सहन करना पड़ता है भारी अपमान।
धूल में मिल जाता है मान सम्मान ,
आदमी का ही नहीं देश दुनिया तक का।
देश दुनिया, समाज, परिवार,व्यक्ति को लगता है धक्का।
कोई भी उन पर लगा देता है पाबंदियां,
चुपके से पहना देता है अदृश्य बेड़ियां।
आज कमोबेश बहुतों ने इसे पहना हुआ है
और वे इस ऋण के मकड़जाल से हैं त्रस्त,
जिसने फैला दी है अराजकता,अस्त व्यस्तता,उथल पुथल।

हो सके तो इस ऋण मुक्ति के करें सब प्रयास !
ताकि मिल सके सभी को,
क्या व्यक्ति और क्या देश को, सुख की सांस !!
सभी को हो सके सुख समृद्धि और संपन्नता का अहसास!!
१७/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
कैसे कहूं ?
मन की ऊहापोह
तुम से !

सोचता हूं ,
आदमी ने
सदियों का दर्द
पल भर में सह लिया।
प्यार की बरसात में
जी भरकर नहा लिया।

कैसे कहूं ?
कैसे सहूं ?
मन के भीतर व्याप्त
अंतर्द्वंद्व
अब
तुम से!
तुम्हें देख देख
मन मैंने अपना
बहला लिया।
मन की खुशियों को
फूलों की खुशबू में
कुदरत ने समा लिया।
भ्रमरों के संग भ्रमण कर
जीवन के उतार चढ़ाव के मध्य
अपने आप को
कुछ हदतक भरमा लिया।

कैसे न कहूं ?
तुम्हें यादों में बसा कर
मैंने जिन्दगी के अकेलेपन से
संवेदना के लम्हों को पा लिया।
अपने होने का अहसास
लुका छिपी का खेल खेलते हुए,
उगते सूरज...!
उठते धूएं...!
उड़ते बादल सा होकर
मन के अन्दर जगा लिया।
कुछ खोया था
अर्से पहले मैंने
उसे आज अनायास पा लिया!
इसे अपने जीवन का गीत बना कर गा लिया!!

कैसे कहूं ?
संवेदना बिन कैसे जीऊं ?
आज यह अपना सच किस से कहूं ??
१४/१०/२००६.
Joginder Singh Dec 2024
जीवन धारा भवन,
संसार नगर।
अभी अभी...!

दोस्त ,
इतना भी
सच न कहो ,
आज
तुम से मिलना
तुम से बिछुड़ना हो जाए।
मन के भीतर
कहीं गहरे में कटुता भर जाए।
हम पहले की तरह
खुल कर , निर्द्वंद्व रहकर
कभी न मिल पाएं।

तुम्हारा मित्र ,
विचित्र कुमार ।

१०/०३/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
आज
फिर से
झूठ बोलना पड़ा!
अपने
सच से
मुँह मोड़ना पड़ा!
सच!
मैं अपने किए पर
शर्मिंदा हूँ,
तुम्हारा गला घोटा,
बना खोटा सिक्का,
भेड़ की खाल में छिपा
दरिंदा हूँ।
सोचता हूँ...
ऐसी कोई मज़बूरी
मेरे सम्मुख कतई न थी
कि बोलना पड़े झूठ,
पीना पड़े ज़हर का घूंट।

क्या झूठ बोलने का भी
कोई मजा होता है?
आदमी बार बार झूठ बोलता है!
अपने ज़मीर को विषाक्त बनाता है!!
रह रह अपने को
दूसरों की नज़रों में गिराता है।

दोस्त,
करूंगा यह वायदा
अब खुद से
कि बोल कर झूठ
अंतरात्मा को
करूंगा नहीं और ज्यादा ठूंठ
और न ही करूंगा
फिर कभी
अपनी जिंदगी को
जड़ विहीन!
और न ही करूंगा
कभी भी
सच की तौहीन!!
१६/०२/२०१०
आजकल
देश दुनिया में
शादी करने से
लोग कतरा रहे हैं ,
वे भगोड़े बन कर
जीवन बिताना चाह रहे हैं।
फिर भी
यदि दाल न गले
तो वे शादी से पहले
लिव इन को अपनाना चाह रहे हैं।
अभी अभी
सच को उजागर करता
एक कार्टून देखा कि
पति यदि काल कवलित हो जाए
तो पत्नी ,
सप्ताह बाद , महीने के बाद ,साल भर बाद भी
पति को याद करती रहती है।
जबकि पति
पत्नी के मरने के बाद
सप्ताह भर याद करता है ,
महीने तक जीवनसाथी तलाश लेता है
और साल बाद
पहली पत्नी को भूल भाल कर
अपनी ही दुनिया में खो जाता है।
यह व्यंग्य चित्र देखकर
मुझे शाहजहां के आखिरी दिनों का ख्याल आया,
जो ताजमहल को देखकर
अपनी बेगम मुमताज को याद करते रहे होंगे।
शाहजहां के लिए
ये दुर्दिन वाले दिन रहे होंगे,
मतवातर निहारने वाले दिन रहे होंगे।
आजकल
लोग जल्दी
वफादारियों और सरदारियों को
भूल जाते हैं,
तभी वे कपड़े बदलने जैसी
मानसिकता के साथ जी पाते हैं ,
वफादारियों और कसमें वायदे दरकिनार कर जाते हैं।
आज स्त्री और पुरुष
पिक, यूज एंड थ्रो कल्चर में
खोते जा रहे हैं ,
अपने खोटेपन को
लग्जरी सॉप की खुशबू में
धोते जा रहे हैं
ताकि किसी को
कुटिलता की भनक न लगे ,
फास्ट लाइफ और लाइफ स्टाइल की
चमक दमक बनी रहे।
बस जीवन की गाड़ी किसी तरह आगे बढ़ती रहे।
१५/०४/२०२५.
अख़बार के
एक ही पन्ने पर
छपी है  दो खबरें।
दोनों का संबंध
सड़क हादसों से है ,
एक सकारात्मक है
और दूसरी नकारात्मक,
पर ...!

शुरूआत सकारात्मक खबर से,
"देशभर में सड़क हादसों में ११.९ प्रतिशत इजाफा,
चंडीगढ़ में १९ प्रतिशत कमी ।..."
आंकड़ों की इस बाजीगरी को पढ़ और समझ
आया मुझे समय में व्याप्त चेतना का ध्यान,
हम क्यों नहीं करते इस समय बोध का
रोज़मर्रा की दिनचर्या में , सम्मान ?
ताकि सभी सुरक्षित रहें,
काल कवलित होने से बच सकें।
मेरे मन में सिटी ब्यूटीफुल की
ट्रैफिक व्यवस्था के प्रति सम्मान भावना बढ़ गई।
काश! ऐसी ट्रैफिक व्यवस्था देश भर में दिखे ,
जिसने की ट्रैफिक रूल्स की अवहेलना
उसका चेतावनी के साथ चालान भी कटे।
यही नहीं , इस चालान राशि में से
एकत्रित की गई
धन राशि में से
न केवल सड़क सुरक्षा जागरूकता कार्यक्रम को चलाया जाना चाहिए बल्कि इससे
ट्रैफिक व्यवस्था से संबंधित उत्पादों को भी खरीदा जाए बल्कि आम आदमी तक को  
ट्रैफिक संचालन से जोड़ा जाना चाहिए ,
ताकि देश की आर्थिकता को भी बल मिल सके।

इसी पन्ने पर दूसरी ख़बर थोड़ी नकारात्मक है ,
" धुंध में साइन बोर्ड से टकराया बाइक सवार ,
अस्पताल में मौत ।"

क्यों न सड़क सुरक्षा के निमित्त
आसपास निर्मित कर दिए जाएं  बैरियर ?
जो धुंध के समय ट्रैफिक को
स्वत: कम रफ़्तार से आगे बढ़ाएं ,
ताकि बाइक सवार डिवाइडर से टकराने से बच जाएं।
वैसे भी बाइक सवार यदि ड्रेस कोड को भी अपना लें,
तब भी किसी हद तक
हो सकता है  
दुर्घटनाग्रस्त होने से बचाव।
धुंध के समय
ज़रूरी होने पर ही
घर और दफ्तर से निकलें बाहर,
इस समय स्वयं पर
अघोषित कर्फ्यू लगा लेना ही है पर्याप्त।
एक ही पन्ने पर
बहुत कुछ अप्रत्याशित
छप जाता है ,
उसे पढ़ना और गुनना
अपरिहार्य हो जाता है ,
बशर्ते किसी की
पढ़ने लिखने और उसे
अभिव्यक्त करने में रुचि हो।
कभी तो वह
छोटी-छोटी बातों पर
ध्यान केंद्रित करे,
जीवन में आगे बढ़ सके।
०३/०१/२०२५.
पाप को अंग्रेज़ी में कहते हैं सिन,
मरणोपरांत व्यक्ति बहुधा नरक को जाता है।
कलयुग के व्यक्ति
दिन रात बेख़ौफ़ होकर
पाप करते हैं ,
इससे ही मिलता है उन्हें सुख।
दुःख पहुंचाने में उन्हें मज़ा आता है ,
जब पाप कर्म हाथ धोकर पीछे पड़ जाता है
तब उनका जीवन मज़ाक सरीखा बन जाता है।
ऐसे में शीघ्रातिशीघ्र
उन्हें पाप का द्वार
दूर से आता है नज़र।
जिस में प्रवेश करने से पूर्व
तन मन में अवसाद भर जाता है ,
जीवन का स्वाद फीका पड़ जाता है।
नरक का द्वार
आदमी के पास ही स्थित होता है ,
यह वो तिलिस्म है
जो जीवित को नहीं दिख पड़ता है ,
केवल मृत ही इसे
ढंग से महसूस कर पाता है।

देश में ऑपरेशन सिंदूर जारी है।
जो आतंकियों को बनाने वाला भिखारी है।
देखना आतंकी अब प्राणों की भीख मांगते दिखेंगे।
सिन और डोर को जोड़ने से बनता है शब्द सिंदूर ,
जो सुहागिन महिलाओं की माँग में पहुँच कर
अखंड सौभाग्य का प्रतीक बन जाता है।
कायर आतंकी इसे पोंछने पर उतारू हो जाते हैं ,
उन्हें बस अपनी वासना नजर आती है ,
सुहागिन की साधना उन अंधों को दिख नहीं है पड़ती।
वासना तीखी मिर्च बन कर उन्हें अक्ल का अंधा है कर देती।
पहलगाम के दूरगामी नतीजे अब दिखने लगे हैं।
पड़ोसी देश के आतंकी शिविरों पर
अब बॉम्ब, गोले, मिसाइल, रॉकेट दागे जा रहे हैं।
इस की मार के तले आकर आतंक के मसीहा अब कराहने लगे हैं।
यह युद्ध पाप के खिलाफ़ है।
इसके लिए पुण्य ने ओढ़ा नकाब है।
क्या करे सवाब , पापी ,देवता से बेख़ौफ़ रहता है ,
वह अच्छे और सच्चे को चुटकियों में मसलना चाहता है ,
अतः पुण्यात्मा को पापी के मन में डर पैदा करने के लिए
न केवल नकाब
बल्कि भीतर तक रौद्र रूप धारण करना पड़ता है ,
साक्षात काली सम बनना पड़ता है।
भारत माता के काली बनने ‌की अब बारी है।
आतंक के खात्मे के लिए  ऑपरेशन सिंदूर ज़ारी है !
अब देश दुनिया और समाज में परिवर्तन की तैयारी है !!
०८/०५/२०२५.
आदमी के पास
एक संतुलित दृष्टिकोण हो
और साथ ही
हृदय के भीतर
प्रभु का सिमरन एवं
स्मृतियों का संकलन भी
प्रवेश कर जाए ,
तब आदमी को
और क्या चाहिए !
मन के आकाश में
भोर,दोपहर,संध्या, रात्रि की
अनुभूतियों के प्रतिबिंब
जल में झिलमिलाते से हों प्रतीत !
समस्त संसार परम का
करवाने लगे अहसास
दूर और पास
एक साथ जूम होने लगें !
जीवन विशिष्ट लगने लगे !!
इससे इतर और क्या चाहिए !
प्रभु दर्शन को आतुर मन
सुगंधित इत्र सा व्याप्त होकर
करने लगता है रह रह कर नर्तन।
यह सृष्टि और इसका कण कण
ईश्वरीय सत्ता का करता है
पवित्रता से ओत प्रोत गुणगान !
पतित पावन संकीर्तन !!
इससे बढ़कर और क्या चाहिए !
वह इस चेतना के सम्मुख पहुँच कर
स्वयं का हरि चरणों में कर दे समर्पण!
१७/०१/२०२५.
बेशक
कटाक्ष काटता है!
यह कभी कभी क्या अक्सर
दिल और दिमाग पर खरोचें लगाकर
घायल करता है !
पर स्वार्थ रंगी दुनिया में
क्या इसके बगैर कोई काम सम्पन्न होता है ?
आप कटाक्ष करिए ज़रुर !
मगर एक सीमा में रहकर !!
यदि कटाक्ष ज्यादा ही काम कर गया
तो कटाक्ष का पैनापन सहने के लिए
संयम के साथ
स्वयं को रखिए तैयार !
ताकि जीवन यात्रा का
कभी छूटे न आधार।
कभी क्रोधवश
आदमी करने लगे उत्पात।
२६/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
जब
देशद्रोही अराजकता को
बढ़ावा देने के मंतव्य से
एक पोस्टरवार का
आगाज़ करते हैं,
और
समाज का
पोस्टमार्टम करने की ग़र्ज से
लगवाते हैं पोस्टर,
तब
होता है महसूस,
मैं आजाद
भले ही हूं,
पर
हूं एक कठपुतली ही,
जिसे
कोई देशद्रोही
नचाना चाहता है,
मेरी अस्मिता को
कटघरे में खड़ा करना चाहता है,
अपनी मनमर्ज़ी से
दहलाना चाहता है,
मेरे अस्तित्व को
दहलाना चाहता है।

मैं
देशद्रोही से
सहानुभूति नहीं रखती।

मैं
उसे देशभक्त का
मुखौटा पहने
नहीं देख सकती।

मैं
देशद्रोही को
साथियों सहित
कुचले जाते
देखना चाहती हूं।

मेरे भीतर
मध्यकालीन बर्बरता है,
सिर के बदले सिर ,
आंख के बदले आंख,
ख़ून के बदले ख़ून
सरीखी
मानसिकता है,
रूढ़ियों से बंधी हुई
दासता है।
चूंकि
मैं एक कठपुतली
खुद दूसरे के हाथ से
नचाई जाती रही हूं,
मैं भी
देशद्रोहियों को
अपनी तरह
नाचते देखना चाहती हूं।

मैं परंपरा का
सम्मान करती हूं,
साथ ही
आधुनिकता को
तन मन से स्वीकारती हूं ।

यदि
आधुनिकता
हमें देशद्रोही
बनाती है ,
तब यह कतई नहीं
भाती है ।
ऐसे में
आधुनिकता मुसीबत
बन जाती है !
यह स्थिति
मुझे हारने की
प्रतीति कराती है ।

मैं
देशद्रोही बनाने वाली
पोस्टर में अंकित,
अधिकारों से वंचित ,
भ्रष्टाचार करके संचित
धन संपदा को एकत्रित करने
और निरंकुश बेशर्मी के
रही सदा खिलाफ हूं ।
मैं इस खातिर
अपना वजूद भी
दांव पर लगा सकती हूं ।
जरूरत पड़े तो हथियार भी
उठा सकती हूं ।

भले ही
अब तक मैं
हथियार विहीन
जिंदगी
जिंदादिली से
जीती आई हूं ।
एक अच्छे नागरिक के
समस्त कर्तव्य
निभाती आई हूं ।

यदि कोई
आंखों के सम्मुख
देशद्रोह की
गुस्ताखी करेगा,
तो प्रतिक्रिया वश
यह गुस्ताख कठपुतली
उसे बदतमीजी की
बेझिझक सजा देगी।
साथ ही उसकी
अकल ठिकाने लगाएगी ।

उसे पश्चाताप करने के लिए
बाध्य करेगी ।

जब कोई देशद्रोही
अपने उन्माद में
अट्टहास करता है ,
तब वह अनजाने ही
शत्रु बनाता है!
वह एक कठपुतली में
असंतोष जगा जाता है !
वह कठपुतली के भीतर
प्रमाद के सुर भर जाता है !!


क्या पता कोई चमत्कार हो जाए !
कठपुतली विद्रोह पर आमादा हो जाए!!
वह देशद्रोहियों के लिए
जी का जंजाल बन जाए !
वह देशद्रोहियों में खौफ भर पाए!!

कठपुतली को कभी छोटा न समझो।
वह भी अपना रूप दिखा सकती है।
वह कभी भी अपने भीतर
बदले के भाव जगा सकती है
और घमंडी को नीचा दिखा सकती है।
वह सच की पहरेदारी भी बन सकती है।
यह जीवन अद्भुत है।
इसमें समय मौन रहकर
जीव में समझ बढ़ाता है।
यहाँ कठोरता और कोमलता में
अंतर्संघर्ष चलता है।
कठोर आसानी से कटता नही,
वह बिना लड़े हार मानता नहीं,
उसे हरदम स्वयं लगता है सही।
कोमल जल्द ही पिघल जाता है,
वह सहज ही हिल मिल जाता है,
वह सभी को आकर्षित करता है।
उसके सान्निध्य में प्रेम पलता है।
कठोर भी भीतर से कोमल होता है,
पर जीवन में अहम क़दम क़दम पर
उसका कभी कभी आड़े आ जाता है।
सो ,इसीलिए वह खुद को
अभिव्यक्त नहीं कर पाता है।
कठोर कोमलता को कैसे सहे?
सच है, उसके भीतर भी संवेदना बहे।
कठोरता दुर्दिनों में बिखरने से बचाती है,
जबकि कोमलता जीवन धारा में
मतवातर निखार लेकर आती रही है।
कठोर कोमलता को कैसे सहे ?
वह बिखरने से बचना चाहता है,
वह हमेशा अडोल बना रहता है।
24/02/2025.
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