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इतिहास के
बारे में
कुछ पूर्वाग्रह से युक्त
कोई धारणा बनाना
ख़तरे से
खाली नहीं ,
इसे कालखंड के
संदर्भ में
पढ़ा जाना चाहिए।
यह अपने अतीत का
मूल्यांकन भर है,
इसे वर्तमान के
घटनाचक्र से
पृथक रखा जाना चाहिए।
इतिहास जीवन का
मार्गदर्शक बन सकता है,
बशर्ते इसे लचीलेपन से
संप्रकृत किया जाए ,
इसे भविष्य के परिवर्तन से
जोड़ते हुए
एक संभावना के रूप में
महसूस किया जाए ,
इतिहास के संदर्भ में
इसे सतर्कता और जागरूकता के साथ
देखा और पढ़ा जाए ,
इतिहास की समझ की बाबत
आपस में लड़ा न जाए,
प्राचीन जीवन के उज्ज्वल पक्षों को तलाशा जाए ,
इनसे सीख लेकर
अपने वर्तमान को तराशा जाए ,
ताकि भविष्य में
संभावनाओं का स्वागत
आदमी अपनी चेतना के स्तर पर
करने के लिए
स्वयं को तैयार कर पाए !
जीवन यात्रा में
समय की धारा के संग
सतत अग्रसर हो सके ,
अतीत के विवादों को पीछे छोड़ सके ,
वह सार्थकता से
अपनी जीवन की संवेदना को जोड़ सके ,
अपना अड़ियल रवैया छोड़ सके ,
जिससे कि उसकी जीवन धारा नया मोड़ ले सके,
उसके भीतर इतिहास की समझ विकसित हो सके।
२५/०३/२०२५.
आज जब देश दुनिया
अराजकता के मुहाने पर खड़ी है
एक समस्या मेरे जेहन में चिंता बनी हुई है।
सब लोग इतिहास को
फुटबाल बना कर अपने अपने ढंग से खेल रहे हैं।
सब धक्कामुक्की ,  जोर-जबरदस्ती कर
अपनी बात मनवाने में लगे हैं।
सब स्वयं को विजेता सिद्ध करना चाहते हैं।
अपना नैरेटिव गढ़ना चाहते हैं।
वे गड़े मुर्दे कब्रों से निकालना चाहते हैं।
ऐसे हालात में
एक पड़ोसी देश के मान्यनीय मंत्री महोदय ने
सच कह कर बवाल मचा दिया।
हंगामेदार शख़्सों को सुप्तावस्था से जगा दिया।
उन्होंने आक्रमणकारी महमूद गजनवी की
बाबत अपना नज़रिया बताया और
अपने वतनवासियों को चेताया कि
अब सच को छुपाया जाना नहीं चाहिए।
इस की बाबत यथार्थ को स्वीकारा जाना चाहिए।

इतना सुनते ही वहां बवाल हो गया।
इतिहास के बारे में अबूझ सवाल खड़ा हो गया।
इतिहास की अस्मिता के सामने अचानक
अप्रत्याशित रूप से एक प्रश्नचिह्न लगा देखा गया।
मैंने इस घटनाक्रम को लेकर सोचा कि
अब और अधिक देर नहीं होनी चाहिए।
इतिहास का सच जनता जनार्दन के सम्मुख आना चाहिए।
इतिहास के विशेषज्ञों और मर्मज्ञों द्वारा
उपेक्षित इतिहास बोध को पुनर्जीवित करने के निमित्त
इतिहास का पुनर्लेखन किया जाना चाहिए
ताकि इतिहास अतीत का आईना बन सके।
इसके उजास से
अराजकता और उदासीनता को
घर आने से रोका जा सके।
सब अपने को गौरवान्वित महसूस कर सकें।

आखिरकार सच का सूरज
बादलों के बीच से बाहर निकल ही आता है ,
जब संवेदनशील राजनेता
इतिहास की बाबत सच को उजागर कर देता है।
वह जाने अनजाने सबको भौंचक्का कर ही देता है।
इतिहास अब चिंतन मनन का विषय बन गया है।
यह जिज्ञासुओं के दिलों की धड़कन भी बन गया है।
इसके सच की अनुभूति कर गर्व से सीना तन गया है।
०२/०१/२०२५.
कल ख़बर आई थी कि
शहर में
अचानक
सुबह सात बजे
एक इमारत
धराशाई हो गई
गनीमत यह रही कि
प्रशासन ने
एक सप्ताह पूर्व
इस इमारत को
असुरक्षित घोषित
करवा दिया था
वरना जान और माल का
हो सकता था
बड़ा भारी भरकम नुक्सान।

आज इस बाबत
अख़बार में ख़बर पढ़ी
यह महफ़िल रेस्टोरेंट वाली
इमारत थी
वहीं पास की इमारत में
मेरे पिता नौकरी करते थे।
इस पर मुझे लगा कि
कहीं मेरे भीतर से भी
कुछ भुर-भुरा कर
झर रहा है ,
समय बीतने के साथ साथ
मेरे भीतर से भी
इस कुछ का झरना  
मतवातर बढ़ता जा रहा है ,
यह तन और मन भी
किसी हद तक धीरे धीरे
खोखला होता जा रहा है।
जीवन में से कुछ
महत्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दों का कम होना
जीवन में  खालीपन को भरता जा रहा है।
मुझे यकायक अहसास हुआ कि इर्द-गिर्द
कुछ नया बन रहा है ,
कुछ पुराना धीरे-धीरे
मरता जा रहा है ,
जीवन के इर्द-गिर्द कोई
चुपचाप मकड़जाल बुन रहा है।

ज्यों ज्यों शहर
तरक्की कर रहा है,
त्यों त्यों बाज़ार
अपनी कीमत बढ़ा रहा है।
यह इमारत भी कीमती होकर
तीस करोड़ी हो चुकी थी।
आजकल इस के भीतर
रेनोवेशन का काम चल रहा था।
वह भी बिना किसी से
प्रशासनिक अनुमति लिए।

प्रशासन ने बगैर कोई देरी किए
शहर भर की पुरानी पड़ चुकी इमारतों का
स्ट्रक्चरल आडिट करवाने का दे दिया है आदेश।

मैं भी एक पचास साल से भी
ज़्यादा पुराने मकान में रह रहा हूं ,
मैं चाहता हूं कि
बुढ़ाते शहर की पुरानी इमारतों को
स्ट्रक्चरल आडिट रिपोर्ट के
नियम के तहत लाया जाए ।
असमय शहरी जनसंख्या को
दुर्घटनाग्रस्त होने से बचाया जाए।

और हां, यह बताना तो
मैं भूल ही गया कि मेरा शहर
भूकम्प की संभावना वाली
एक अतिसंवेदनशील श्रेणी में आता है।
फिर भी यहां बहुत कुछ
उल्टा-सीधा होता नज़र आता है ,
यहां का सब कुछ भ्रष्टाचार से मुक्त होना चाहता है।
पर विडंबना है कि अचानक इमारत के
गिरने जैसी दुर्घटना के इंतजार में
इस शहर की व्यवस्था
आदमी के असुरक्षित होने का
हरपल अमानुषिक अहसास करवाती है।
क्यों यहां सब कुछ ,
कुछ कुछ अराजकता के
यत्र तत्र सर्वत्र व्यापे  होने का
बोध करा रहा है ?
क्या यहां सब कुछ  
मलियामेट होने के लिए सृजित हुआ है ?
कभी कभी यह शहर
अस्त व्यस्त और ध्वस्त जैसे
अनचाहे दृश्य दिखाता दिखाई देता है ,
चुपके से मन को ठेस पहुंचा देता है।
०७/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
जब दोस्त
बात बात पर
मारने लगें ताना,
तब टूट ही जाता है
दोस्ताना।
अतः
दोस्त!
दोस्ती
बचाने की खातिर
अपने आप को
संतुलित करना सीख।
अरे भाई!
तुम दोस्त हो
दोस्तों पर
तानाकशी से बच,
कभी कभी तो
बोला करो
खुद से ही सच।


२५/०४/२०२०.
इस बार होली पर
खूब हुड़दंग हुआ ,
पर मैं सोया रहा
अपने आप में खोया रहा।
कोई कुछ नया घटा ,
आशंका का कोई बादल फटा!
यह सब सोच बाद दोपहर
टी.वी.पर समाचार देखे सुने
तो मन में इत्मीनान था ,
देश होली और जुम्मे के दिन शांत रहा।
होली रंगों का त्योहार है ,
इसे सब प्रेमपूर्वक मनाएं।
किसी की बातों में आकर
नफ़रत और वैमनस्य को न फैलाएं।

बालकनी से बाहर निकल कर देखा।
प्रणव का मोटर साइकिल रंगों से नहाया था।
उस पर हुड़दंगियों ने खूब अबीर गुलाल उड़ाया था।

इधर उमर बढ़ने के साथ
रंगों से होली खेलने से करता हूँ परहेज़।
घर पर गुजिया के साथ शरबत का आनंद लिया।
इधर हुड़दंगियों की टोली उत्साह और जोश दिखलाती निकल गई।

दो घंटे के बाद प्रणव होली खेल कर घर आया था।
उसके चेहरे और बदन पर रंगों का हर्षोल्लास छाया था।
जैसे ही वह खुद को रंगविहीन कर बाथरूम से बाहर आया,
उसकी पुरानी मित्र मंडली ने उसे रंगों से कर दिया था सराबोर।

मैं यह सब देख कर अच्छा महसूस कर रहा था।
मन ही मन मैंने सौगंध खाई ,अगली होली पर
मैं कुछ अनूठे ढंग से होली मनाऊंगा।
कम से कम सोए रहकर समय नहीं गवाऊंगा।
कैनवास पर अपने जीवन की स्मृतियों को संजोकर
एक अद्भुत अनोखा अनूठा कोलाज बनाने का प्रयास करूंगा।

और हाँ, रंग पंचमी से एक दिन पूर्व होलिका दहन पर
एक  संगीत समारोह का आयोजन घर के बाहर करवाऊंगा।
उसमें समस्त मोहल्ला वासियों को आमंत्रित करूंगा।
उनके उतार चढ़ावों भरे जीवन में खुशियों के रंग भरूंगा।
१७/०३/२०२५.
बहुत बार उज्ज्वल भविष्य के
बारे में सोचने और बताने से पहले ही
चाय के प्याले में
तूफ़ान आ गया है ,
सारे पूर्वानुमान
संभावनाओं के नव चयनित जादूगर के
कयास लगभग असफल रहने से
बाज़ार नीचे की तरफ़
बैठ गया है ,
निवेशक को
अचानक धक्का लगा है ,
वह सहम गया है !
कहाँ तो अच्छे दिन आने वाले थे !!
लोग स्वप्न नगरी की ओर उड़ान भरने को तैयार थे !!
अब लोग धरना प्रदर्शन पर उतारू हैं।
क्या आर्थिकता को बीमार करने वाले दिन सब पर भारू हैं ?
इससे पहले कि
कुछ बुरा घटे ,
हम अराजकता की
तरफ़ बढ़ने से
स्वयं को रोक लें ,
ताकि सब
सुख समृद्धि और संपन्नता से
खुद को जोड़ सकें।
०७/०४/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
करने दो
उसे इंतज़ार।
इंतज़ार में
समय कट जाता है !
युग तक रीत जाता है!!
२१/१२/२०१६.
Joginder Singh Dec 2024
नीत्शे!
तुम से पूछना
चाहता हूं कुछ ,
अपनी जिज्ञासा की बाबत।
कहीं इस दुनिया में
ईश दिखा क्या ?
फिर ईश निंदा का
आरोप लगा कर इस
कायनात के भीतर
बसे जन समूहों में डर
क्यों भरा  जा रहा है ?
उन में से कुछ को
क्यों मारा जा रहा है?

ईश्वर पर
निंदा का असर हो सकता है क्या ?
असर होता है
बस! कुछ बेईमानों पर।
वे पर देते कतर
परिंदे उड़ न पाएं !
अपने लक्ष्य को हासिल न कर पाएं !!
०१/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
मैं :  हे ईश्वर !
       तुम साम्यवादी हो क्या ?

ईश्वर : हाँ ,  बिल्कुल ।
        मेरे यहाँ से
        व्यक्ति
        इस धरा पर
        समानता और स्वतंत्रता के
        अधिकार सहित आता है ।
  मैं :   फिर क्यों वह गैर बराबरी और
          शोषण का शिकार बन जाता है ?
  ईश्वर :...पर ज़माने की हवा खाकर कोई कोई
          व्यक्ति साधन सम्पन्न बनकर
         पूंजीवादी मानसिकता का बन जाता है।
         वह पहले पहल अपने हमसायों से ख़ूब मेहनत
         करवाता है।
         ‌फिर उन्हें बेच खाता है,
   ‌      शोषण का शिकार बनाता है।
   मैं: आप इस बाबत क्या सोचते हैं ?
   ईश्वर : सोचना ‌क्या ?
          आज का आदमी हर समय धन कमाने की सोच
  ‌         रखता है।
           वह उन्हें गुलाम बना कर रखता है ।
           उनके कमज़ोर पड़ने पर
            वह उन्हें हड़प कर जाता है । तुम्हारा इस बारे में
            क्या सोचना है ?
    मैं :  .......!
    ईश्वर : सच कहूं, बेटा!
‌‌          मेरा जी भर आता है और मुझे लगता है कि
            ईश्वर कहाँ?...वह तो मर चुका है । ईश्वर को तो
           आदमी के अहंकार ने मार दिया है।
    मैं: ......!!
     मैं ईश्वर के इस कथन के समर्थन में सिर हिला देता हूँ।
     पर कहता कुछ नहीं, उन्होंने मुझे निरुत्तर जो कर दिया
      है ।
किसी के
उकसावे में
आकर बहक जाना
कोई अच्छी बात नहीं।
यह तो बैठे बिठाए
मुसीबत मोल लेना है !
ठीक परवाज़ भरने से पहले
अपने पंखों को घायल कर लेना है !
लोग अक्सर हरदम
अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए
उकसावे को हथियार बना कर
अपना मतलब निकालते हैं !
जैसे ही कोई उनका शिकार बना
वे अपना पल्लू झाड़ लेते हैं !
वे एकदम अजनबियत का लबादा ओढ़ कर
एकदम भोले भाले बने से
मुसीबत में पड़ चुके
आदमी की बेबसी पर
पर मन ही मन खुश होते हैं।
ऐसे लोग किसके हितचिंतक होते हैं ?
किसी के उकसाने पर
भूले से भी बहक जाना
कोई अक्लमंदी नहीं,
दोस्त ! थोड़ा होशियार बनो तो सही।
अपने को परिस्थितियों के अनुरूप
ढालने का प्रयास करो तो सही।
देखना, धीरे धीरे सब कमियाँ दूर हो जाएंगी।
सुख समृद्धि और संपन्नता भी बढ़ती जाएगी।
किसी के कहने में आने से सौ गुणा अच्छा है ,
अपनी योग्यता और सामर्थ्य पर भरोसा करना ,
जीवन यात्रा के दौरान
अपने प्रयासों को संशोधित करते रहना।
जीवन में मनमौजी बनकर अपनी गति से आगे बढ़ना।
किसी के भी उकसावे में आना अक्ल पर पर्दा पड़ना है।
अतः जीवन में संभल कर चलना बेहद ज़रूरी है ,
अन्यथा आदमी की स्वयं तक से बढ़ जाती दूरी है।
वह धीरे धीरे अजनबियत के अजाब में खो जाता है।
आदमी के हाथ से जीने का उद्देश्य और उत्साह फिसलता जाता है।
उकसावा एक छलावा है बस!
इसे समय रहते समझ!
और अपनी डगर चलता जा!
ताकि अपनी संभावना को सके ढूंढ !!
२६/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
मेरे देश!

एक मुसीबत
जो दुश्मन सी होकर
तुम्हें ललकार रही है ।
उसे हटाना,
जड़ से मिटाना
तुम्हारी आज़ादी है!
बेशक! तुम्हारी नजर में ...
अभी ख़ाना जंगी
समाज की बर्बादी है!!
पर...
वे समझे इसे... तभी न!

मेरे दोस्त!
मुसीबत
जो रह रहकर
तुम्हारे वजूद पर
चोट पहुंचाने को है तत्पर!
उसे दुश्मन समझ
तुम कुचल दो।
फ़न
उठाने से पहले ही
समय रहते
सांप को कुचल दो ।
इसी तरह अपने दुश्मनों को
मसल दो ,
तो ही अच्छा रहेगा।
वरना ... सच्चा भी झूठा!
झूठा तो ... खैर , झूठा ही रहेगा।
झूठे को सच्चा
कोई मूर्ख ही कहेगा ।


मुसीबत
जो आतंक को
मन के भीतर
रह रहकर
भर रही है ,
उस आतंक के सामने
आज़ादी के मायने
कहां रह जाते हैं ?
माना तुम अमन पसंद हो,
अपने को आज़ाद रखना चाहते हो ,
तो लड़ने ,  
संघर्ष करने से
झिझक कैसी  ?
तनिक भी झिझके
तो  दुश्मन करेगा
तुम्हारे सपनों की ऐसी तैसी ।

अतः
उठो मेरे देश !
उठो मेरे दोस्त !
उठो ,उठो ,उठो,
और शत्रु से भिड़ जाओ ।
अपनी मौजूदगी ,
अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति
दिन रात परिश्रम करके करो ।
यूं ही व्यर्थ ही ना डरो।
कर्मठ बनो।
अपने जीवन की
अर्थवत्ता को
संघर्ष करते करते
सिद्ध कर जाओ।
हे देश! हे दोस्त!
उठो ,कुछ करो ।
उठो , कुछ करो।
समय कुर्बानी मांगता है।
नादान ना बने रहो।
१६/०८/२०१६.
यह उदासी ही है
जो जीवन को कभी कभी
विरक्ति की ओर ले जाती है ,
आदमी को थोड़ा ठहरना,
चिंतन मनन करना सिखाती है।

उस उदासी का क्या करें ?
जो हमें निष्क्रिय करे ,
जीवन धारा में बाधक बने।
क्यों न सब इस उदासी को
जीवन के आकर्षण में बदलने का
सब समयोचित प्रयास करें !
उदासी को देखने की दृष्टि में तब्दील करें !!
११/०२/२०२५.
हरेक के भीतर
हल्के हल्के
धीरे धीरे
जब निरर्थकता का
होने लगता है बोध
तब आदमी को
निद्रा सुख को छोड़
जीवन के कठोर धरातल पर
उतरना पड़ता है,
सच का सामना
करना पड़ता है।
हर कदम अत्यन्त सोच समझ कर
उठाना पड़ता है,
खुद को गहन निद्रा से
जगाना पड़ता है।

उदासी का समय
मन को व्याकुल करने वाला होता है,
यही वह क्षण है,
जब खुद को
जीवन रण के लिए
आदमी तैयार करे ,
अपनी जड़ता और उदासीनता पर
प्रहार करे
ताकि आदमी
जीवन पथ पर बढ़ सके।
वह जीवन धारा को समझ पाए ,
और अपने  मन में
सद्भावना के पुष्प खिला जाए ,
जीवन यात्रा को गंतव्य तक ले जाए।

११/०२/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
एक दिन
स्टंट करते-करते
मौत उन्हें लील जाएगी ।
वे तो रोमांच के घोड़े पर सवार थे !
बेशक वह मोटरसाइकिल सवार थे !

उन्हें क्या पता था?
कि रोमांचक स्टंट करते-करते
मौत उनका शिकार करने वाली है।
वह उन्हें धराशायी करने वाली है !
मौत तांडव करते हुए आई ,
और उन्हें अपने साथ
काल के समंदर में डूबा गई।
बेशक !उन्हें मौत की ताकत के बारे में पता नहीं था।
वे तो मौत को जिंदगी की तरह मज़ाक भर समझते थे।

जो लोग उनकी स्टंट बाज़ी को
बड़े ग़ौर से निहार रहे थे ।
वह भी तो सब कुछ से अनजान
उन्हें  स्टंट के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे।
वे भी ख़तरे के खिलाड़ियों के साथ
अपने भीतर रोमांच और उत्तेजना भर रहे थे।
उन्हें भी तो अंज़ाम का कुछ अहसास रहा होगा,
जो जिंदगी और मौत से मज़ाक कर रहे थे ,
और जो उनके करतबों को देख रहे थे।
अपने सामने मौत का तांडव देखकर
तमाशबीनों ने भी तो
अपने भीतर मौत का डर
पाल लिया था ।
अपनी आंखों के सामने
मौत का भयावह मंज़र देख लिया था ।


उन्हें तो अब मौत कभी  न  सता पाएगी ।
पर जिन्होंने मौत का 'लाइव टेलीकास्ट 'देखा ,
उनके भीतर श्वासों की अवधि पूरी होने तक,
मौत मतवातर
जिंदा लोगों में दहशत भरती जाएगी।
मरने का क्षण आने तक,
मृत्यु उन्हें सताएगी।
मौत की परछाइयां
रह रहकर आतंकित कर जाएंगी।
आप भी
दृश्य श्रव्य सामग्री के तौर पर
कभी-कभी
मौत और रोमांच का
ले सकते हैं मज़ा ज़रूर ,
पर रखिए ध्यान
कि यह मज़ा बनाता है आपको क्रूर,
इससे तो नहीं टूटेगा
स्टंटबाज़ों का क्या, किसी का भी गुरूर ।
देख देख कर यह सब मौत का तमाशा,
जाने अनजाने
घटता जाता
आदमी के भीतर और बाहर का नूर ।

आपको क्या पता?
जो कुछ भी आप देखते हैं ,
वह आपके अवचेतन का हिस्सा बन जाता है ।
आपको पता भी नहीं चलेगा कि
कब आप जाने अनजाने स्टंट कर जाएंगे ।
आपको यह भी नहीं पता चलेगा कि
आप मौत से जीत जाएंगे
या फिर इस इस खेल में ढेर हो जाएंगे !
१७/०१/२०१७.
यह सुखद अहसास है कि
उपेक्षित
कभी किसी से
कोई अपेक्षा नहीं रखता क्यों कि उसे
आदमी की फितरत का है
बखूबी पता ,
कोई मांग रखी नहीं कि
समझो बस !
जीवन का सच
समर्थवान शख्स
दाएं बाएं, ऊपर नीचे
होते हुए हो जाएगा
चुपके-चुपके ,चोरी-चोरी
लापता।
उपेक्षित रह जाता बस खड़ा ,
उलझा हुआ,
अपनी बेबसी पर
खाली हाथ मलता हुआ।

इसलिए
उपेक्षित
कभी भी ,
कहीं भी ,
हर कमी और अभाव के बावजूद
हर संभव संघर्ष करता हुआ ,
किसी के आगे
हाथ नहीं फैलाता।
वह कठोर परिश्रम करना  
है भली भांति जानता।
सब तरफ से उपेक्षित रहने के बावजूद
वह अपने बुद्धि कौशल से
सफलता हासिल कर
बनाए रखता है अपना वजूद ।
जीवन के हरेक क्षेत्र में
अपनी मौजूदगी का अहसास
हरपल कराता हुआ
अपनी जिजीविषा बनाए रखता है।
अपनी संवेदना और संभावना को जीवंत रखता है।
चुपचाप सतत् मेहनत कर
अपनी मंजिल की ओर अग्रसर होता है
ताकि वह अपने भीतर व्याप्त चेतना को
जीवन में सार्थक दिशा निर्देश के अनुरूप
ढाल सके,
समाज की रक्षार्थ
स्वयं को एक ढाल में बदल सके ,
तथाकथित सेक्युलर सोच के
अराजक तत्वों से
बदला ले सके ,
उन्हें सार्थक बदलाव के लिए
बाध्य कर सके।
जीवन में सब कुछ  
सर्व सुलभ साध्य कर सके ,
जीवन में निधड़क होकर आगे बढ़ सके।
उपेक्षित स्वयं से परिवर्तन की
अपेक्षा रखता है ,
यही वजह है कि वह अपने प्रयासों में
कोई कमीपेशी नहीं छोड़ता ,
वह संकट के दौर में भी
कभी मुख नहीं मोड़ता,
कभी संघर्ष करना नहीं छोड़ता।
२६/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
वह  
कभी कभी मुझे
इंगित कर कहती है,
" देह में
आक्सीजन की कमी
होने पर
लेनी पड़ती है उबासी।"

पता नहीं,
वह सचमुच सच बोलती है
या फिर
कोतुहल जगाने के लिए
यों ही बोल देती अंटशंट,
जैसे कभी कभार
गुस्सा होने पर,
मिकदार से ज़्यादा पीने पर
बोल सकता है कोई भी।


मैं सोचता हूं
हर बार
आसपास फैले
ऊब भरे माहौल में
लेता है कोई उबासी
तो भर जाती है
भीतर उदासी।

मुझे यह तनिक भी
भाती नहीं।
लगता है कि यह तो
नींद के आने की
निशानी है।
यह महज़
निद्रा के आकर
सुलाने का
इक  इशारा भर है,
जिस से जिंदगी सहज
बनी रहती है।
वह अपना सफ़र
जारी रखती है।


पर बार बार की उबासी
मुझे ऊबा देती है।
यह भीतर सुस्ती भरती है।
मुझे इससे डर लगता है।
लगता है
ज़िंदगी का सफ़र
अचानक
रुक जाएगा,
रेत भरी मुट्ठी में से
रेत झर जाएगा।
कुछ ऐसे ही
आदमी
रीतते रीतते रीत जाता है!
वह उबासी लेने के काबिल भी
नहीं रह जाता है।

चाहता हूं... इससे पहले कि
उबासी मुझे उदास और उदासीन करे ।
मैं भाग निकलूं
और तुम्हें
किसी ओर दुनिया में मिलूं ।

वह
अब मुझे इंगित कर
रह रह कर कहती है,
" जब कभी वह  
अपनी प्राण प्रिय  के सम्मुख
उबासी लेती है, भीतर ऊब भर देती है।
उसके गहन अंदर
अंत का अहसास भरा जाता है।
फिर बस तिल तिल कर,
घुटन जैसी वितृष्णा का
मन में आगमन हो जाता है।
यही नहीं वह यहां तक कह देती है
कि उबासी के वक्त
उसे  सब कुछ
तुच्छ प्रतीत होता है।
जब कभी मुझे यह
उबासी सताती है,
मेरी मनोदशा बीमार सी हो जाती है।
जीने की लालसा
मरने लगती है।"

सच तो यह है कि
उबासी के आने का अर्थ है,
अभी और ज़्यादा  सोने की जरूरत है।
   अतः
पर्याप्त नींद लीजिए।
तसल्ली से सोया कीजिए।
बंधु, उबासी सुस्ती फैलाती है।
सो, यह किसी को भाती नहीं है।
इसका निदान,समय पर ‌सोना और जागना है।
उबाऊ, थकाऊ,ऊब भरे माहौल से भागना है।
३/८/२०१०.
Joginder Singh Nov 2024
हर हाल में
उम्मीद का दामन
न छोड़, मेरे दोस्त!
यह उम्मीद  ही है
जिसने साधारण को
असाधारण तो बनाया ही है ,
बल्कि
जीवन को
जीवंत बनाए रखा है ।
इसके साथ ही
बेजोड़ !
बेखोट!
एकदम कुंदन सरीखा !
अनमोल और उम्दा !
साथ ही  तिलिस्म से भरपूर ।
उम्मीद ने ही
जीवन को
नख से शिख तक ,
रहस्यमय और मायावी सा
निर्मित किया है,
जिसने मानव जीवन में
एक नया उत्साह भरा है।

उम्मीद ही
भविष्य को संरक्षित करती है,
यह चेतन की ऊर्जा  सरीखी है।
यह सबसे यही कहती है कि
अभी
जीवन में
बेहतरीन का आगाज़
होना है ,
तो फिर
क्यों न इंसान
सद्कर्म करें!
वह चिंतातुर क्यों रहे?
क्यों न वह
स्वयं के भीतर उतरकर
श्रेष्ठतम जीवन धारा में बहे !
संवेदना के
स्पंदनों को अनुभूत करे !!
Joginder Singh Nov 2024
आदमी के भीतर
उम्मीद बनी रहे मतवातर ,
तो आदमजात करती नहीं
कोई शिकवा, गिला ,शिकायत ।

अगर
कभी भूल से
जिंदगी करने लगे ,
ज़रूरत के वक्त
बहस मुबाहिसा
तो भी भीतर तक  
आदमी रहता है शांत ,
वह बना रहता धीर प्रशांत ।

वह कोई बलवा
नहीं करता।
उम्मीद उसे
ज़िंदादिल बनाए रखती है,
'कुछ अच्छा होगा। ',
यह आस
उसे कर्मठ बनाए रखती है ।
जीवन की गति को बनाए रखती है ।
३०/११/२०२४.
आज मेरे भीतर अंतर्कलह है
मैं अपने पिता के साथ
सरकारी स्वास्थ्य विभाग द्वारा
संचालित सेवाओं का लाभ उठाने आया हूँ ।
बहुत से लोग सरकारी स्वास्थ्य सेवा से
असंतुष्ट प्राइवेट अस्पताल से
करवाना चाहते हैं इलाज़।
इसका कारण स्पष्ट है कि
उन्हें नहीं है विश्वास,
सरकारी चिकित्सा से
वे कर पाएंगे स्वास्थ्य लाभ।
वे प्राइवेट अस्पताल में
लूटे जाते हैं।
वहाँ के डॉक्टर भी तो
कभी सरकारी स्वास्थ्य केंद्र में
इलाज़ करने की अनुभव प्राप्ति के बाद
प्राइवेट अस्पताल में
चिकित्सा कार्य को निभाते हैं।
अच्छा रहे , यदि आम आदमी समय रहते
सरकारी अस्पताल से
अपने रोग की
चिकित्सा करवाए,
ताकि वह अपनी जिन्दगी में
बेहतर और प्रभावी चिकित्सा विकल्प को तलाश पाए।

मेरे पिता खुद भी एक स्वास्थ्य विभाग से
जुड़े पदाधिकारी रहे हैं,
वे अपने विभाग के कार्यों की गुणवत्ता को
अच्छे से पहचानते हैं।
यदि सभी सरकारी चिकित्सा कार्यों का लाभ उठाएं
तो किसी हद तक आम आदमी
सुरक्षित जीवन की आस रख सकता है ,
सचेत रह कर जीवन में संघर्ष ज़ारी रख सकता है।

इस फरवरी महीने में
मेरे पिता जी नब्बे साल के हो जाएंगे ।
वे बहुत
ज़्यादा बीमार हैं
पर उनके भीतर की जिजीविषा ने
उन्हें जीवन की दुश्वारियों के बावजूद
हौंसले वाला बनाया हुआ है,
मरणासन्न स्थिति में
सकारात्मक विचारों से जोड़ कर
जीवन्त बनाया हुआ है।

उनके जीवन जीने के ढंग ने
मुझे यह सिखाया है कि
बुढ़ापे में कैसे आदमी अपनी कर्मठता से
जीवन को सक्रिय रूप से जी सकता है।
वह जिंदादिली से मौत के ख़ौफ़ को
अपने वजूद से दूर रख
स्वयं को शांत चित्त बनाए रख सकता है,
जबकि आम आदमी जल्दी घबरा जाता है,
वह समय आने से पहले
विचलित, हताश और निराश हो
अपने स्वजनों को दुखी कर देता है,
आप भी कष्ट झेलता है
और परिजनों को भी दुःख,तकलीफ व पीड़ा देता है।

सालों पहले सपरिवार पिता जी के साथ
पहाड़ों की सैर करने गया था।
वहाँ का एक नियम है कि
अगर चलते चलते सांस फूल जाए
तो मतवातर चलने की बजाए
थोड़ा रुक रुक कर आगे बढ़ो।
आज पिता को पहाड़ नहीं ,
मैदान में चलते हुए
उसी नियम का पालन करते देखता हूँ
तो मुझे खरगोश और कछुए की कहानी याद आती है,
लेकिन बदले संदर्भ में
कभी पिता जी खरगोश की तरह
तेज गति से मंज़िल की ओर बढ़ते थे
और आज वे बहुत धीरे धीरे चलते हैं,
सांस फूलने पर रुकते हैं,
दम लेते हैं और आगे बढ़ते हैं।
तकलीफ़ होने पर वे चिल्लाते नहीं,
बल्कि प्रभु का नाम लेते हैं ।
उनके आसपास घर परिवार के सदस्य
समझ जाते हैं कि वे पीड़ा में हैं।
सभी सदस्य चौकन्ने और शांत हो जाते हैं।
वे उनके साथ मन ही मन प्रार्थना करते हैं,
अब जीवन प्रभु तुम्हारे हाथ में है,
आप ही जीवन की डोर को संभालना,
और जीवात्मा को उसकी मंज़िल तक पहुँचा देना।
०३/०२/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
तुम उसे पसंद नहीं करते ?
वह घमंडी है।
तुम भी तो एटीट्यूड वाले हो ,
फिर वह भी
अपने भीतर कुछ आत्मसम्मान रखे तो
वह हो गया घमंडी ?
याद रखो
जीवन की पगडंडी
कभी सीधी नहीं होती।
वह ऊपर नीचे,
दाएं बाएं,
इधर उधर,
कभी सीधी,कभी टेढ़ी,
चलती है और अचानक
उसके आगे कोई पहाड़ सरीखी दीवार
रुकावट बन खड़ी हो जाती है
तो वह क्या समाप्त हो जाती है ?
नहीं ,वह किसी सुरंग में भी बदल सकती है,
बशर्ते आदमी को
विभिन्न हालातों का
सामना करना आ जाए।
आदमी अपनी इच्छाओं को
दर किनार कर
खुद को
एक सुरंग सरीखा
बनाने में जुट जाए।
वह घमंडी है।
उसे जैसा है,वैसा बना रहने दो।
तुम स्वयं में परिवर्तन लाओ।
अपने घमंड को
साइबेरिया के ठंडे रेगिस्तान में छोड़ आओ।
खुद को विनम्र बनाओ।
यूं ही खुद को अकड़े अकड़े , टंगे टंगे से न रखो।
फिलहाल
अपने घमंड को
किसी बंद संदूक में
कर दो दफन।
जीवन में बचा रहे अमन।
तरो ताज़ा रहे तन और मन।
जीवन अपने गंतव्य तक
स्वाभाविक गति से बढ़ता रहे।
घमंड मन के भीतर दबा कुचला बना रहे ,
ताकि वह कभी तंग और परेशान न करे।
उसका घमंड जरूर तोड़ो।
मगर तुम कहीं खुद एक घमंडी न बन जाओ ।
इसलिए तुम
इस जीवन में
घमंड की दलदल में
धंसने से खुद को बचाओ।
घमंड को अपनी कथनी करनी से
एक पाखंड अवश्य सिद्ध करते जाओ।
११/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
वह आदमी
जो अभी अभी
तुम्हारी बगल से निकला है ।
एक आदमी भर नहीं,
एक खुली किताब भी है।

दिमाग उसके में
हर समय चलता रहता
हिसाब-किताब  है ,
वह ज़िंदगी की बारीकियां को
जानने ,समझने के लिए रहा बेताब है,
उस जैसा होना
किसी का भी
बन सकता ख़्वाब है,
चाल ढाल, पहनने ओढ़ने,
खाने पीने, रहने सहने, का अंदाज़
बना देता उसे नवाब है।
वह सच में
एक खुली किताब है।

तुम्हें आज
उसे पढ़ना है,
उससे लड़ना नहीं।
वह कुछ भी कहे,
कहता रहे,
बस !उससे डरना नहीं ।
वह इंसान है , हैवान नहीं ।
उम्मीद है ,तुम उसे ,अच्छे से ,पढ़ोगे सही ।
न कि ढूंढते रहोगे, उस पूरी किताब के
किरदार में , कोई कमी।
जो तुम अक्सर करते आए हो
और जिंदगी में
खुली किताबों को
पढ़ नहीं पाए हो।
पढ़े लिखे होने के बावजूद
अनपढ़ रह गए हो।
बहुत से अजाब सह रहे हो।

३०/११/२०२४.
बाज़ार में
ऋण उपलब्ध करवाने की
बढ़ रही है होड़ ,
बैंक और अन्य वित्तीय संस्थान
ऋण आसानी से
देने के  
कर रहे हैं प्रयास।
लोग खुशी खुशी
ऋण लेकर
अनावश्यक पदार्थों का
कर रहे हैं संचय।
ऋण लेना
सरल है ,
पर उसे
समय रहते
चुकाना भी होता है ,
समय पर ऋण चुकाया नहीं,
तो आदमी को
प्रताड़ना और अपमान के लिए
स्वयं को कर लेना चाहिए तैयार।
ऋण को न मोड़ने की
सूरत में  
ब्याज पर ब्याज लगता जाता है ,
यह न केवल
मन पर बोझ की वज़ह बनता है ,
बल्कि यह आदमी को
भीतर तक
कमजोर करता है,
आदमी हर पल आशंकित रहता है।
उसके भीतर
अपमानित होने का डर भी
मतवातर भरता जाता है।
उसका सुकून बेचैनी में बदल जाता है।

यह तो ऋणग्रस्त आदमी की
मनोदशा का सच है ,
परन्तु ऋणग्रस्त देश का
हाल तो और भी अधिक बुरा होता है,
जब आमजन का जीना दुश्वार हो जाता है,
तब देश में असंतोष,कलह और क्लेश, अराजकता का जन्म होता है,
जो धीरे-धीरे देश दुनिया को मरणासन्न अवस्था में ले जाता है,
और एक दिन देश विखंडन के कगार पर पहुंच जाता है ,
देश का काम काज
ऋण प्रदायक देश और संस्थान के इशारों पर होने लगता है।
यह सब एक नई गुलामी की व्यवस्था की वज़ह बनता जा रहा है ,
ऋण का दुष्चक्र विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को
विकास के नाम पर
विनाश की ओर ले जाता है।
इस बाबत बहुत देर बाद
समझ में आता है ,
जब सब कुछ छीन लिया जाता है,
तब ... क्या आदमी और क्या देश...
लूटे पीटे नज़र आते हैं ,
वे केवल नैराश्य फैलाने के लिए
पछतावे के साये में लिपटे नज़र आते हैं।
वे एक दिन आतंकी
और आतंकवाद फैलाने की नर्सरी में बदलते जाते हैं।
बिना उद्देश्य और जरूरत के
ऋण के जाल में फंसने से बचा जाए।
क्यों न
चिंता और तनाव रहित जीवन को जीया जाए !
सुख समृद्धि और शांति की खातिर चिंतन मनन किया जाए !
सार्थक जीवन धारा को अपनाने की दिशा में आगे बढ़ा जाए !!
ऋण मुक्ति की बाबत समय रहते सोच विचार किया जाए ।
३१/०३/२०२५.
ऋण लेकर
घी पीना ठीक नहीं ,
बेशक बहुत से लोग
खुशियों को बटोरने के लिए
इस विधि को अपनाते हैं।
वे इसे लौटाएंगे ही नहीं!
ऋणप्रदाता जो मर्ज़ी कर ले,
वे बेशर्मी से जीवन को जीते हैं।
ऋण लौटाने की कोई बात करे
तो वे लठ लेकर पीछे पड़ जाते हैं।
ऐसे लोगों से निपटने के लिए
बाउंसर्स, वकील, क़ानून की मदद ली जाती है ,
फिर भी अपेक्षित ऋण वसूली नहीं हो पाती है।

कुछ शरीफ़ इंसान अव्वल तो ऋण लेते ही नहीं,
यदि ले ही लिया तो उसे लौटाते हैं।
ऐसे लोगों से ही ऋण का व्यापार चलता है,
अर्थ व्यवस्था का पहिया विकास की ओर बढ़ता है।

ऋण लेना भी ज़रूरी है।
बशर्ते इसे समय पर लौटा दिया जाए।
ताकि यह निरन्तर लोगों के काम में आता जाए।

कभी कभी ऋण न लौटाने पर
सहन करना पड़ता है भारी अपमान।
धूल में मिल जाता है मान सम्मान ,
आदमी का ही नहीं देश दुनिया तक का।
देश दुनिया, समाज, परिवार,व्यक्ति को लगता है धक्का।
कोई भी उन पर लगा देता है पाबंदियां,
चुपके से पहना देता है अदृश्य बेड़ियां।
आज कमोबेश बहुतों ने इसे पहना हुआ है
और वे इस ऋण के मकड़जाल से हैं त्रस्त,
जिसने फैला दी है अराजकता,अस्त व्यस्तता,उथल पुथल।

हो सके तो इस ऋण मुक्ति के करें सब प्रयास !
ताकि मिल सके सभी को,
क्या व्यक्ति और क्या देश को, सुख की सांस !!
सभी को हो सके सुख समृद्धि और संपन्नता का अहसास!!
१७/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
कैसे कहूं ?
मन की ऊहापोह
तुम से !

सोचता हूं ,
आदमी ने
सदियों का दर्द
पल भर में सह लिया।
प्यार की बरसात में
जी भरकर नहा लिया।

कैसे कहूं ?
कैसे सहूं ?
मन के भीतर व्याप्त
अंतर्द्वंद्व
अब
तुम से!
तुम्हें देख देख
मन मैंने अपना
बहला लिया।
मन की खुशियों को
फूलों की खुशबू में
कुदरत ने समा लिया।
भ्रमरों के संग भ्रमण कर
जीवन के उतार चढ़ाव के मध्य
अपने आप को
कुछ हदतक भरमा लिया।

कैसे न कहूं ?
तुम्हें यादों में बसा कर
मैंने जिन्दगी के अकेलेपन से
संवेदना के लम्हों को पा लिया।
अपने होने का अहसास
लुका छिपी का खेल खेलते हुए,
उगते सूरज...!
उठते धूएं...!
उड़ते बादल सा होकर
मन के अन्दर जगा लिया।
कुछ खोया था
अर्से पहले मैंने
उसे आज अनायास पा लिया!
इसे अपने जीवन का गीत बना कर गा लिया!!

कैसे कहूं ?
संवेदना बिन कैसे जीऊं ?
आज यह अपना सच किस से कहूं ??
१४/१०/२००६.
Joginder Singh Dec 2024
जीवन धारा भवन,
संसार नगर।
अभी अभी...!

दोस्त ,
इतना भी
सच न कहो ,
आज
तुम से मिलना
तुम से बिछुड़ना हो जाए।
मन के भीतर
कहीं गहरे में कटुता भर जाए।
हम पहले की तरह
खुल कर , निर्द्वंद्व रहकर
कभी न मिल पाएं।

तुम्हारा मित्र ,
विचित्र कुमार ।

१०/०३/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
आज
फिर से
झूठ बोलना पड़ा!
अपने
सच से
मुँह मोड़ना पड़ा!
सच!
मैं अपने किए पर
शर्मिंदा हूँ,
तुम्हारा गला घोटा,
बना खोटा सिक्का,
भेड़ की खाल में छिपा
दरिंदा हूँ।
सोचता हूँ...
ऐसी कोई मज़बूरी
मेरे सम्मुख कतई न थी
कि बोलना पड़े झूठ,
पीना पड़े ज़हर का घूंट।

क्या झूठ बोलने का भी
कोई मजा होता है?
आदमी बार बार झूठ बोलता है!
अपने ज़मीर को विषाक्त बनाता है!!
रह रह अपने को
दूसरों की नज़रों में गिराता है।

दोस्त,
करूंगा यह वायदा
अब खुद से
कि बोल कर झूठ
अंतरात्मा को
करूंगा नहीं और ज्यादा ठूंठ
और न ही करूंगा
फिर कभी
अपनी जिंदगी को
जड़ विहीन!
और न ही करूंगा
कभी भी
सच की तौहीन!!
१६/०२/२०१०
अख़बार के
एक ही पन्ने पर
छपी है  दो खबरें।
दोनों का संबंध
सड़क हादसों से है ,
एक सकारात्मक है
और दूसरी नकारात्मक,
पर ...!

शुरूआत सकारात्मक खबर से,
"देशभर में सड़क हादसों में ११.९ प्रतिशत इजाफा,
चंडीगढ़ में १९ प्रतिशत कमी ।..."
आंकड़ों की इस बाजीगरी को पढ़ और समझ
आया मुझे समय में व्याप्त चेतना का ध्यान,
हम क्यों नहीं करते इस समय बोध का
रोज़मर्रा की दिनचर्या में , सम्मान ?
ताकि सभी सुरक्षित रहें,
काल कवलित होने से बच सकें।
मेरे मन में सिटी ब्यूटीफुल की
ट्रैफिक व्यवस्था के प्रति सम्मान भावना बढ़ गई।
काश! ऐसी ट्रैफिक व्यवस्था देश भर में दिखे ,
जिसने की ट्रैफिक रूल्स की अवहेलना
उसका चेतावनी के साथ चालान भी कटे।
यही नहीं , इस चालान राशि में से
एकत्रित की गई
धन राशि में से
न केवल सड़क सुरक्षा जागरूकता कार्यक्रम को चलाया जाना चाहिए बल्कि इससे
ट्रैफिक व्यवस्था से संबंधित उत्पादों को भी खरीदा जाए बल्कि आम आदमी तक को  
ट्रैफिक संचालन से जोड़ा जाना चाहिए ,
ताकि देश की आर्थिकता को भी बल मिल सके।

इसी पन्ने पर दूसरी ख़बर थोड़ी नकारात्मक है ,
" धुंध में साइन बोर्ड से टकराया बाइक सवार ,
अस्पताल में मौत ।"

क्यों न सड़क सुरक्षा के निमित्त
आसपास निर्मित कर दिए जाएं  बैरियर ?
जो धुंध के समय ट्रैफिक को
स्वत: कम रफ़्तार से आगे बढ़ाएं ,
ताकि बाइक सवार डिवाइडर से टकराने से बच जाएं।
वैसे भी बाइक सवार यदि ड्रेस कोड को भी अपना लें,
तब भी किसी हद तक
हो सकता है  
दुर्घटनाग्रस्त होने से बचाव।
धुंध के समय
ज़रूरी होने पर ही
घर और दफ्तर से निकलें बाहर,
इस समय स्वयं पर
अघोषित कर्फ्यू लगा लेना ही है पर्याप्त।
एक ही पन्ने पर
बहुत कुछ अप्रत्याशित
छप जाता है ,
उसे पढ़ना और गुनना
अपरिहार्य हो जाता है ,
बशर्ते किसी की
पढ़ने लिखने और उसे
अभिव्यक्त करने में रुचि हो।
कभी तो वह
छोटी-छोटी बातों पर
ध्यान केंद्रित करे,
जीवन में आगे बढ़ सके।
०३/०१/२०२५.
आदमी के पास
एक संतुलित दृष्टिकोण हो
और साथ ही
हृदय के भीतर
प्रभु का सिमरन एवं
स्मृतियों का संकलन भी
प्रवेश कर जाए ,
तब आदमी को
और क्या चाहिए !
मन के आकाश में
भोर,दोपहर,संध्या, रात्रि की
अनुभूतियों के प्रतिबिंब
जल में झिलमिलाते से हों प्रतीत !
समस्त संसार परम का
करवाने लगे अहसास
दूर और पास
एक साथ जूम होने लगें !
जीवन विशिष्ट लगने लगे !!
इससे इतर और क्या चाहिए !
प्रभु दर्शन को आतुर मन
सुगंधित इत्र सा व्याप्त होकर
करने लगता है रह रह कर नर्तन।
यह सृष्टि और इसका कण कण
ईश्वरीय सत्ता का करता है
पवित्रता से ओत प्रोत गुणगान !
पतित पावन संकीर्तन !!
इससे बढ़कर और क्या चाहिए !
वह इस चेतना के सम्मुख पहुँच कर
स्वयं का हरि चरणों में कर दे समर्पण!
१७/०१/२०२५.
बेशक
कटाक्ष काटता है!
यह कभी कभी क्या अक्सर
दिल और दिमाग पर खरोचें लगाकर
घायल करता है !
पर स्वार्थ रंगी दुनिया में
क्या इसके बगैर कोई काम सम्पन्न होता है ?
आप कटाक्ष करिए ज़रुर !
मगर एक सीमा में रहकर !!
यदि कटाक्ष ज्यादा ही काम कर गया
तो कटाक्ष का पैनापन सहने के लिए
संयम के साथ
स्वयं को रखिए तैयार !
ताकि जीवन यात्रा का
कभी छूटे न आधार।
कभी क्रोधवश
आदमी करने लगे उत्पात।
२६/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
जब
देशद्रोही अराजकता को
बढ़ावा देने के मंतव्य से
एक पोस्टरवार का
आगाज़ करते हैं,
और
समाज का
पोस्टमार्टम करने की ग़र्ज से
लगवाते हैं पोस्टर,
तब
होता है महसूस,
मैं आजाद
भले ही हूं,
पर
हूं एक कठपुतली ही,
जिसे
कोई देशद्रोही
नचाना चाहता है,
मेरी अस्मिता को
कटघरे में खड़ा करना चाहता है,
अपनी मनमर्ज़ी से
दहलाना चाहता है,
मेरे अस्तित्व को
दहलाना चाहता है।

मैं
देशद्रोही से
सहानुभूति नहीं रखती।

मैं
उसे देशभक्त का
मुखौटा पहने
नहीं देख सकती।

मैं
देशद्रोही को
साथियों सहित
कुचले जाते
देखना चाहती हूं।

मेरे भीतर
मध्यकालीन बर्बरता है,
सिर के बदले सिर ,
आंख के बदले आंख,
ख़ून के बदले ख़ून
सरीखी
मानसिकता है,
रूढ़ियों से बंधी हुई
दासता है।
चूंकि
मैं एक कठपुतली
खुद दूसरे के हाथ से
नचाई जाती रही हूं,
मैं भी
देशद्रोहियों को
अपनी तरह
नाचते देखना चाहती हूं।

मैं परंपरा का
सम्मान करती हूं,
साथ ही
आधुनिकता को
तन मन से स्वीकारती हूं ।

यदि
आधुनिकता
हमें देशद्रोही
बनाती है ,
तब यह कतई नहीं
भाती है ।
ऐसे में
आधुनिकता मुसीबत
बन जाती है !
यह स्थिति
मुझे हारने की
प्रतीति कराती है ।

मैं
देशद्रोही बनाने वाली
पोस्टर में अंकित,
अधिकारों से वंचित ,
भ्रष्टाचार करके संचित
धन संपदा को एकत्रित करने
और निरंकुश बेशर्मी के
रही सदा खिलाफ हूं ।
मैं इस खातिर
अपना वजूद भी
दांव पर लगा सकती हूं ।
जरूरत पड़े तो हथियार भी
उठा सकती हूं ।

भले ही
अब तक मैं
हथियार विहीन
जिंदगी
जिंदादिली से
जीती आई हूं ।
एक अच्छे नागरिक के
समस्त कर्तव्य
निभाती आई हूं ।

यदि कोई
आंखों के सम्मुख
देशद्रोह की
गुस्ताखी करेगा,
तो प्रतिक्रिया वश
यह गुस्ताख कठपुतली
उसे बदतमीजी की
बेझिझक सजा देगी।
साथ ही उसकी
अकल ठिकाने लगाएगी ।

उसे पश्चाताप करने के लिए
बाध्य करेगी ।

जब कोई देशद्रोही
अपने उन्माद में
अट्टहास करता है ,
तब वह अनजाने ही
शत्रु बनाता है!
वह एक कठपुतली में
असंतोष जगा जाता है !
वह कठपुतली के भीतर
प्रमाद के सुर भर जाता है !!


क्या पता कोई चमत्कार हो जाए !
कठपुतली विद्रोह पर आमादा हो जाए!!
वह देशद्रोहियों के लिए
जी का जंजाल बन जाए !
वह देशद्रोहियों में खौफ भर पाए!!

कठपुतली को कभी छोटा न समझो।
वह भी अपना रूप दिखा सकती है।
वह कभी भी अपने भीतर
बदले के भाव जगा सकती है
और घमंडी को नीचा दिखा सकती है।
वह सच की पहरेदारी भी बन सकती है।
यह जीवन अद्भुत है।
इसमें समय मौन रहकर
जीव में समझ बढ़ाता है।
यहाँ कठोरता और कोमलता में
अंतर्संघर्ष चलता है।
कठोर आसानी से कटता नही,
वह बिना लड़े हार मानता नहीं,
उसे हरदम स्वयं लगता है सही।
कोमल जल्द ही पिघल जाता है,
वह सहज ही हिल मिल जाता है,
वह सभी को आकर्षित करता है।
उसके सान्निध्य में प्रेम पलता है।
कठोर भी भीतर से कोमल होता है,
पर जीवन में अहम क़दम क़दम पर
उसका कभी कभी आड़े आ जाता है।
सो ,इसीलिए वह खुद को
अभिव्यक्त नहीं कर पाता है।
कठोर कोमलता को कैसे सहे?
सच है, उसके भीतर भी संवेदना बहे।
कठोरता दुर्दिनों में बिखरने से बचाती है,
जबकि कोमलता जीवन धारा में
मतवातर निखार लेकर आती रही है।
कठोर कोमलता को कैसे सहे ?
वह बिखरने से बचना चाहता है,
वह हमेशा अडोल बना रहता है।
24/02/2025.
धन्य है वह समाज
जहां कन्या पूजन
किया जाता है,
यही है वह दिया
जहां से जीवन शक्ति का
होता है जागरण।
हिंदू समाज पर व्यर्थ ही
नारी अपमान का
लगाया जाता है आक्षेप,
यह वह उर्वर धरा है
जहां से संजीवनी का
उद्भव हुआ है,
मानव ने चेतना को
साक्षात जिया है।
यह वह समाज है
जहां हर पुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम राम
और स्त्री जगत जननी माता सिया है।

२४/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
कभी-कभी
चेतना कहती है
वे
हत्यारे
रहे होंगे कभी
फ़िलहाल
रोटियां बांटते हैं,
नौकरियां देते हैं,
क्या
यह सच नहीं ?
फिर
किस मुंह से
उन्हें हत्यारा कहोगे ?
उनके बगैर गुज़ारा
कैसे करोगे ?
कभी कभी
चेतना कहती है ,
'अच्छा रहेगा
अपनी भूख दबा दो
कहीं गहरे रसातल में...!
फिर भले ही
उन्हें भूला दो ,
जिन्हें तुम 'आया मालिक '
कहते हो!
जिनके आगे पीछे
घूम घूमकर
अपनी दुम
हर समय  
हिलाते रहे हो !!
उनके ‌सामने
हर समय नाचते हो !!
वे
हत्यारे
रहे होंगे कभी
फ़िलहाल मालिक हैं
पोतते रहते कालिख हैं
मासूम चेहरों पर ।
उन्हें
हर समय डांट ‌लगा कर ,
उन्हें
जबरन गुलाम बनाकर ,
उनके मन-मस्तिष्क में
असंतोष जगाने का काम करते हैं ।
उन्हें
विद्रोही बनाने पर तुले हैं।

भले ही वे
उन्हें ‌हर पल
डांटते रहते हों
अपनी बेहूदा
आदतों की वज़ह से!
वे भी तुम्हारी तरह
भीतर तक शांत रहते हैं
पर हर बार डांट डपट
सहने के बावजूद
हर पल
हंसते मुस्कुराते रहते हैं !
अपनी आदतों की वज़ह से !!
क्या तुम इसे समझते हो ?
कहीं तुम भी तो
उन मालिकों और नौकरों की तरह
किसी तरह से भी कम नहीं ,
सताने और अत्याचार सहने को
अपनी आदतों में
शुमार करने के मामले में  !
क्या तुम भी शामिल हो
चालबाजी ,
हुल्लड़बाजी ,
शब्दों की बाजीगरी ,
चोरी सीनाज़ोरी के खेल में  ?
फिर तो कभी रात कटेगी जेल में!
कभी-कभी चेतना
हम सबको आगाह करती है
पर किसी किसी को
उसकी आवाज़ सुनाई देती है।
०६/०३/२०१८.
Joginder Singh Nov 2024
अब हमें
दबंगों को,
कभी-कभी
दंगाइयों के संग
और
दंगा पीड़ितों को
दबंग, दंगाइयों के साथ
रखना चाहिए ,
ताकि
सभी परस्पर
एक दूसरे को जान सकें,
और भीतर के असंतोष को खत्म कर
खुद को शांत रख सकें,
ढंग से जीवन यापन कर सकें,
जीवन पथ पर
बिखरे बगैर
आगे ही आगे बढ़ सकें,
ज़िंदगी की किताब को
अच्छे से पढ़ सकें,
खुद को समझ और समझा सकें।


देश में दंगे फसाद ही
उन्माद की वजह बनते हैं,
ये जन,धन,बल को हरते हैं,
इन की मार से बहुत से लोग
बेघर हो कर मारे मारे भटकते हैं।

जब कभी दंगाई
मरने मारने पर उतारू हों
तो उन्हें निर्वासित कर देना चाहिए।
निर्वाचितों को भी चाहिए कि
उनके वोटों का मोह त्याग कर
उन्हें तड़ीपार करने की
सिफारिश प्रशासन से करें
ताकि दंगाइयों को  
कारावास में न रखकर
अलग-अलग दूरस्थ इलाकों में
कमाने, कारोबार करने,सुधरने का मौका मिल सके।
यदि वे फिर भी न सुधरें,
तो जबरन परलोक गमन कराने का रास्ता
देश की न्यायिक व्यवस्था के पास होना चाहिए।
आजकल के हालात
बद्तर होते-होते
असहनीय हो चुके हैं।
अंतोगत्वा
सभी को,
दबंगों को ही नहीं,
वरन दंगाइयों को भी
अपने  अनुचित कारज और दुर्व्यवहार
से गुरेज करना चाहिए
अन्यथा
उन सभी को
होना पड़ेगा
निस्संदेह
व्यवस्था के प्रति
जवाबदेह।
सभी को अपने दुःख, तकलीफों की
अभिव्यक्ति का अधिकार है,
पर अनाधिकृत दबाव बनाने पर ,
दंगा करने और करवाने पर
मिलनी चाहिए सज़ा,
साथ ही बद्तमीजी करने का मज़ा।

देश के समस्त नागरिकों को
अपराधी बनने पर
कोर्ट-कचहरी का सामना करना चाहिए,
ना कि दहशत फैलाने का कोई प्रयास ।


दंगा देश की
अर्थ व्यवस्था के लिए घातक है,
यह प्रगति में भी बाधक है,
इससे दंगाइयों के भी जलते हैं।
पर वे यह मूर्खता करने से
कहां हटते हैं?
वे तो सब को मूर्ख और अज्ञानी समझते हैं।
१२/०८/२०२०.
Joginder Singh Dec 2024
बेबस आदमी
अक्सर
अराजकता  के माहौल में
हो जाता है
आसानी से
धोखाधड़ी और ठगीठौरी का शिकार।

बार बार
ठगे जाने पर
अपनी बाबत
गहराई से विचार
करने के बाद
मतवातर
सोच विचार करने पर
आदमी के अंदर
स्वत : भर ही जाता है
संदेह और अविश्वास !
वह कभी खुलकर
नहीं ले पाता उच्छवास !!

आदमी धीरे धीरे
अपने आसपास से
कटता जाता है ,
वह चुप रहता हुआ ,
सबसे अलग-थलग पड़कर
उत्तरोत्तर अकेला होता जाता है।
संशय और संदेह के बीज
अंतर्मन में भ्रम उत्पन्न कर देते हैं ,
जो भीतर तक असंतोष को बढ़ाते हैं।


यही नहीं कभी कभी
आदमी अराजक सोच का
समर्थन भी करने लगे जाता है।
उसकी बुद्धि पर
अविवेक हावी हो जाता है।
वह अपने सभी कामों में
जल्दबाजी करता है ,
जीवन में औंधे मुंह गिरता है।
ऐसी मनोदशा में
अधिक समय बिताते हुए
वह खुद को लुंज-पुंज कर लेता है।
वह क्रोधाग्नि से
स्वयं को असंतुष्ट बना लेता है।
वह कभी भी अपने भीतर को
समझ नहीं पाता है।
यही नहीं वह अन्याय सहता है,
पर विरोध करने का हौसला
चाहकर भी जुटा नहीं पाता है।
और अंततः अचानक
एक दिन धराशायी हो जाता है।
ऐसा होने पर भी
उसका आक्रोश
कभी बाहर नहीं निकल पाता है।
वह अपनी संततियो को भी
किंकर्तव्यविमूढ़ बना देता है।
वे भी अनिर्णय का दंश
झेलने के निमित्त
लावारिस हालत में तड़पते हुए
अंदर ही अंदर घुटते रहते हैं।
वे मतवातर यथास्थिति बनाए
अशांत और बेचैनी से भरे
भीतर तक कसमसाते रहते हैं।

आप ही बताइए कि
लावारिस शख्स देश दुनिया में
अराजकता नहीं फैलाएंगे ,
तो क्या वे सद्भावना का उजास
अपने भीतर से
कभी उदित होता देख पाएंगे ?
...या वे सब जीवन भर भटकते जाएंगे !!
कभी तो वे अपने जीवन में सुधार लाएंगे !!
कभी तो वे समर्थ और प्रबुद्ध नागरिक कहलाएंगे !!

आजकल भले ही आदमी अपनी बेबसी से जूझ रहा है ,
उसकी बेबस ज़िंदगी इतनी भी उबाऊ और टिकाऊ नहीं
कि वह इस यथास्थिति को झेलती रहे।
रह रह कर असंतोष की ज्वाला भीतर धधकती रहे।
अविश्वास के दंश सहकर अविराम कराहती हुई
अचानक अप्रत्याशित घटनाक्रम का शिकार बनकर
हाशिए से हो जाए बाहर।
आदमी और उसकी आदमियत को
सिरे से नकार कर
एक दम अप्रासंगिक बनाती हुई !
आदमी को अपनी ही नज़रों में गिराती हुई !!
कहीं देखनी पड़ें आदमी की आंखें शर्मिंदगी से झुकीं हुईं !!


बेबसी का चाबुक
कभी तो पीछे हटेगा,
तभी आदमी जीवन पथ पर
निर्विघ्न आगे बढ़ सकेगा।
अपनी हसरतें पूरी कर सकेगा।

कभी तो यथास्थिति बदलेगी।
व्यवस्था
परिवर्तन की लहरों से
टकराकर अपने घुटने टेकेगी।
जीवन धरा फिर से स्वयं को उर्वर बनाएगी।
जीवन धारा महकती इठलाती
अपनी शोख हंसी बिखेरती देखी जाएगी।
इस परिवर्तित परिस्थितियों में
प्रतिकूलता विषमता तज कर
आदमी के विकास के अनुकूल होकर
जीवन धारा को स्वाभाविक परिणति तक पहुंचाएगी।
सच ! ऐसे में बेबसी की दुर्गन्ध आदमी के भीतर से हटेगी।

२१/१२/२०२४.
हरेक की चाहत है कि
उसके जीवन में
कभी न रहे
कोई कमी।
उसे मयस्सर हों
सभी सुख सुविधाएं
कभी न कभी।
लेकिन जीवन यात्रा में
शराब की लत
आदत में
शुमार हो जाती है,
तब यह एक श्राप सी होकर
जोंक की तरह
आदमी का खून पीने के निमित्त
उसके वजूद से
लिपट जाती है।

यही नहीं
कभी कभी
शबाब भी उसकी
चेतना से लिपट जाता है,
उसे अपनी खूबसूरती पर
अभिमान हो जाता है,
उसे अपने सिवा कोई दूसरा
नज़र नहीं आता है,
वह औरों के वजूद को
कभी न कभी
नकारने लग जाता है,
आदमी की अकाल पर
पर्दा पड़ जाता है।
उसे हरपल मदिरा से भी
अधिक नशीला नशा भाता है,
वह शानोशौकत और आडंबर में
निरन्तर डूबता जाता है।
इस दौर में आदमी का
सौभाग्य
हरपल हरक़दम उसे
विशिष्टता का अहसास कराता है,
वह एक मायाजाल में फंसता चला जाता है।

शराब और शबाब
जिन्दगी का सत्य नहीं !
इस जैसा भ्रम
झूठ में भी नहीं !!
इस दौर के
आदमी का सच यह है कि
आज जीवन में
सच और झूठ
मायावी संसार को लपेटे
झीने झीने पर्दे हैं
जिनसे हमारे जीवनानुभव जुड़े हैं।
हम सब दुनिया के
मायावी बाज़ार में
लोभ और संपन्नता के आकर्षणों से
बंधे हुए निरीह अवस्था में खड़े हैं।
कभी कभी
अज्ञानतावश
हम आपस में ही लड़ पड़ते हैं,
अनायास जीवन में दुःख पैदा कर
जीवन यात्रा में जड़ता उत्पन्न कर देते हैं।
ये हमारे जीवन का
विरोधाभास है
जो हमें भटकाता रहा है,
अच्छी भली जिंदगी को
असहज बनाता रहा है।
इस मकड़जाल से बचना होगा।
कभी न कभी
नकारात्मकता छोड़
सकारात्मकता से जुड़ना होगा।
हमें जीवन ऊर्जा को संचित करने के लिए
सादा जीवन, उच्च विचार की
जीवन पद्धति की ओर लौटना होगा,
ताकि जीवन के प्रवाह में
बेपरवाह होने से बच सकें,
जीवन को पूरी तन्मयता से
जीने का सलीका सीख सकें।
...और कभी जीवन में
कोई कमी हमें खले नहीं!
सभी सुख समृद्धि
और
संपन्नता को छूएं तो सही!!
२४/०२/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
क्या कभी सोचा आपने
आखिर हम क्यों लड़ते हैं ?
छोटी छोटी बातों पर
लड़ने झगड़ने बिगड़ने लगते हैं ।
जिन बातों को नजर अंदाज किया जाना चाहिए ,
उनसे चिपके रहकर
तिल का ताड़ बना देते हैं।
कभी कभी राई को पहाड़ बना देते हैं।
यही नहीं बात का बतंगड़ बनाने से नहीं चूकते।
आखिर क्या हासिल करने के वास्ते
हम अच्छे भले रास्ते से
अपना ध्यान हटा कर
जीवन में भटकते हैं।
कभी कभी अकेले होकर
छुप छुप कर सिसकते हैं।

क्या पाने के लिए हम लड़ते हैं ?
लड़कर हम किससे जीतते हैं ?
उससे , इससे , या फिर स्वयं से !
आखिकार हम सब थकते , टूटते, हारते हैं ,
फिर भी जीवन भर ज़िद्दी बने भटकते रहते हैं ।

क्या हम सभी कभी समझदार होंगे भी ?
या कुत्ते बिल्लियों की तरह लड़ते और बहसते रहेंगे !
लोग हमें अपनी हँसी और स्वार्थपरकता का
शिकार बनाकर
हमें मूर्ख बनाने में कामयाब होते रहेंगे ।
उम्मीद है कि कभी हम
अपने को संभाल खुद के पैरों पर खड़े होंगे।
शायद तभी हमारे लड़ाई झगड़े ख़त्म होंगे।

३०/१२/२०२४.
सच है
आजकल
हर कोई
कर्ज़ के जाल में
फँस कर छटपटा रहा है ,
वह इस अनचाहे
जी के जंजाल से
बच नहीं पा रहा है।

दिखावे के कारण
कर्ज़ के मर्ज में जकड़े जाना,
किसी अदृश्य दैत्य के हाथों से
छूट न पाना करता है विचलित।
कभी कभी
आदमी
असमय
अपनी जीवन लीला
कर लेता है
समाप्त ,
घर भर में
दुःख जाता है
व्याप्त।
आत्महत्या है पाप ,
यह फैलाता है समाज में संताप।
सोचिए , इससे कैसे बचा जाए ?
क्यों न मन पर पूर्णतः काबू पाया जाए ?
दिखावा भूल कर भी न किया जाए ।
जिन्दगी को सादगी से ही जीया जाए।
कर्ज़ लेकर घी पीने और मौज करने से बचा जाए।
क्यों बैठे बिठाए ख़ुद को छला जाए ?
क्यों न मेहनत की राह से जीवन को साधन सम्पन्न किया जाए ?
कर्ज़ के मर्ज़ से
जहां तक संभव हो , बचा जाए !
महत्वाकांक्षाओं के चंगुल में न ही फंसा जाए !
कर्ज़ के पहाड़ के नीचे दबने से पीछे हटा जाए !!
कम खाकर गुजारा बेशक कर लीजिए।
हर हाल में कर्ज़ लेने से बचना सीखिए।
१३/०३/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
भले ही कोई
उतारना चाहे
दूध का कर्ज़ ,
अदा कर अपने फर्ज़।
यह कभी उतर नहीं सकता ,
कोई इतिहास की धारा को
कतई मोड़ नहीं सकता।
भले ही वह धर्म-कर्म और शक्ति से
सम्पन्न श्री राम चन्द्र जी प्रभृति
मर्यादा पुरुषोत्तम ही क्यों न हों ?
उनके भीतर योगेश्वर श्रीकृष्ण सी
'चाणक्य बुद्धि 'ही क्यों न रही हो !

मां संतान को दुग्धपान कराकर
उसमें अच्छे संस्कार और चेतना जगाकर
देती है अनमोल जीवन, और जीवन में संघर्ष हेतु ऊर्जा।
ऐसी ममता की जीवंत मूर्ति के ऋण से
पुत्र सर्वस्व न्योछावर कर के भी नहीं हो सकता उऋण।
माता चाहे जन्मदात्री हो,या फिर धाय मां अथवा गऊ माता,
दूध प्रदान करने वाली बकरी,ऊंटनी या कोई भी माताश्री।

दूध का कर्ज़ उतारना असंभव है।
इसे मातृभूमि और मातृ सेवा सुश्रुषा से
सदैव स्मरणीय बनाया जाना चाहिए।
मां का अंश सदैव जीवात्मा के भीतर है विद्यमान रहता।
फिर कौन सा ऐसा जीव है,
जो इससे उऋण होने की बालहठ करेगा ?
यदि कोई ऐसा करने की कुचेष्टा करें भी
तो माता श्री का हृदय सदैव दुःख में डूबा रहता!
कोई शूल मतवातर चुभने लगता,
मां की महिमा से
समस्त जीवन धारा
और जीव जगत अनुपम उजास ग्रहण है करता।
ममत्व भरी मां ही है सृष्टि की दृष्टि और कर्ताधर्ता !!
०३/०८/२००८.
अब तक सभी
अपने अपने कर्म चक्र से
बंध कर
जीवन को साधे हुए हैं ,
आगे बढ़ने के लिए
संयम के साथ
स्वयं को
तैयार कर रहें हैं।
सभी को पता है अच्छी तरह से ,
जो बीजेंगे , वही काटेंगे !
यदि कर्म नहीं करेंगे ,
तो आगे कैसे बढ़ेंगे !
जीवन चक्र से मुक्ति की राह में
अनजाने ही एक बाधा खड़ी कर लेंगे।
सो सब अपनी सामर्थ्य से
भरपूर काम कर रहे हैं ,
इस जीवन में सुख के बीज बो रहे हैं ,
बल्कि आगे की भी तैयारी कर रहे हैं।
सनातन में कर्म चक्र
सतत चलायमान है ,
जन्म मरण का खेल भी
कर्म के मोहरों से चल रहा है।
अरे मन ! इस जीवन सत्य को समझ के
आगे बढ़ , कर्म करने से पीछे न हट।
व्यर्थ ठाली बैठे रहने से टल।
कर्म करने से न डर, मतवातर आगे बढ़।
आगे बढ़ने की लगन अपने भीतर भर!
इस जन्म को यों ही न व्यर्थ कर !!
२३/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
अभी अभी
टेलीविजन पर
एक कार्यक्रम देखते हुए,
ब्रेक के दौरान
विज्ञापन देखते हुए
आया एक ख्याल
कि श्रीमती को
दिया जाए एक उपहार।
विज्ञापित सामग्री खरीदी जाए,
और एक टिप्पणी के साथ
श्रीमती जी को सहर्ष
सौंप दी जाए।
विज्ञापन कुछ यूं प्रदर्शित था,
मक्खन सी मुलामियत वाली
पांच सौंदर्य साबुन के  पैक के साथ
एक बॉलपेन फ्री।

श्रीमती की लेखन प्रतिभा का  
करते हुए सम्मान
उन्हें
उपरोक्त विज्ञापन वाली
सामग्री दी जाए,
साथ ही किया जाए
टिप्पणी सहित अनुरोध,
" ....यह सौंदर्य सामग्री बॉलपेन की
ऑफ़र के साथ प्राप्त हुई है जी।
आप  इसका उपयोग करें,
सौंदर्य साबुन से
मल मल कर स्नान कीजिए।
साबुनों के साथ मिले
फ्री के पैन से  कविताएं लिखें
और सुनाएं,
निखार के साथ भी, निखार के बाद भी,मन बहलाएं जी।"

विज्ञापित सामग्री मैं बाज़ार से
ले आया हूं,
सोचता हूँ,
दूं या न दूं,
दूं तो डांट, फटकार के लिए
खुद को तैयार करूँ।
आप से मार्ग दर्शन अपेक्षित है।
वैसे अनुरोधकर्ता घर बाहर उपेक्षित है,
एक दम भोंदू,
रोंदू पति की तरह,
जो तीन में है न तेरह में।
ढूंढता है मजा जीने में,
कभी कभार की सजा में।
Joginder Singh Dec 2024
कष्ट
हद की दहलीज़ को
लांघ कर
आदमी को
पत्थर बना देता है ,
आंसुओं को सुखा देता है ।


कष्ट
उतने ही दे
किसी प्रियजन को
जितने वह
खुशी खुशी सह सके ।
कहीं
कष्ट का आधिक्य
चेतना को कर न दें
पत्थर
और
बाहर से
आदमी ज़िंदा दिखे
पर भीतर से जाए मर ।

२१/०२/२०१४.
Joginder Singh Nov 2024
कहते हैं
कानून के हाथ
बहुत लंबे होते हैं ,
पर ये हाथ
कानून के नियम कायदों से
बंधे होते हैं।

कानून
मौन रहकर
अपना कर्तव्य
निभाता है ,
कानून का उल्लंघन होने पर
अधिवक्ता गुहार लगाता है,
बहस मुबाहिसे,
मनन चिंतन के बाद
माननीय न्यायमूर्ति
अपना फैसला सुनाते हैं।
इसे सभी मानने को बाध्य होते हैं ।


न्याय की देवी की
आंखों पर पट्टी बंधी होती है,
उसे मूर्ति के हाथ में तराजू होता है,
जिसके दो पलड़ों पर
झूठ और सच के प्रतीक
अदृश्य रूप से सवार होते हैं
और जो माननीय न्यायाधीश की सोच के अनुसार
स्वयं ही  संतुलित होते रहते हैं।


एक फ़ैसलाकुन क्षण में
माननीय न्यायाधीश जी की
अंतर्मन की आवाज़
एक फैसले के रूप में सुन पड़ती है।

इस इस फैसले को सभी को मानना पड़ता है।
तभी कानून का एक क्षत्र राज
शासन व्यवस्था पर चलता है।
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अपना कार्य करता है।
कानून के कान बड़े महीन होते हैं
जो फैसले के दूरगामी परिणाम
और प्रभावों पर रखते हैं मतवातर अपनी पैनी नज़र।
यह सुनते रहते हैं
अदालत में उपस्थित और बाहरी व्यवस्था की,
बाहर भीतर की हर आवाज़
ताकि आदमी रख सकें
कानून सम्मत अपने अधिकार मांगते हुए,
अपने एहसासों और अधिकारों की तख्तियां सुरक्षित।
आदमी सिद्ध कर सके
खुद को
नख‌ से शिख तक पाक साफ़!!

कानून के रखवाले
मौन धारण कर
करते रहते हैं लगातार
अपने अपने कर्म
ताकि बचे रह सकें
मानवीय जिजीविषा से
अस्तित्व मान हुए
आचार, विचार और धर्म।
बच्ची रह सके आंखों में शर्म।

०२/०६/२०१२.
यदि कोई काम कम करे
और शोर ज़्यादा ,
तो उसका किसी को
है कितना फ़ायदा ?
ऐसे कर्मचारी को
कौन नौकर रखना चाहेगा ?
मौका देख कर
उसे बहाने से
कौन नहीं निकालना चाहेगा ?
अतः काम ज़्यादा करो
और बातें कम से कम
ताकि सभी पर अच्छा प्रभाव पड़े।
सभी ऐसे कर्मचारी की सराहना करें।
जीवन में कद्र
काम की होती है ,
आलोचना अनावश्यक
आराम करने वाले की होती है।
सचमुच ! एक मज़दूर की जिन्दगी
बेहद कठिन और कठोर होती है।
बेशक यह दिखने में सरल लगे ,
उसकी जीवन डगर संघर्षों से भरी होती है
और उसके मन मस्तिष्क में
कार्य कुशलता व हुनर की समझ
औरों की अपेक्षा अधिक होती है।
तभी उसकी पूछ हर जगह होती रही है।
काम ज़्यादा और बातें कम करना
आदमी को दमदार बनाता है ,
ऐसा मानस ही आजकल खुद्दार बना रहता है।
ऐसा मनुष्य ही उपयोगी बना रहता है ,
और स्वाभिमान ऐसे कर्मचारी की
अलहदा पहचान बना देता है।
१३/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
हे कामदेव!
जब तुम
तन मन में
एक खुमारी बनकर
देहवीणा को
अपना स्पर्श कराते हो
तो तन मन को भीतर तक को
झंकृत कर
जीवन में  राग और रागिनी के सुर
भर जाते हो।

ऐसे में
सब कुछ
तुम्हारे सम्मोहन में
अपनी सुध बुध ,भूल बिसार
दुनिया की सब शर्मोहया छोड़ कर
इक अजब-गजब सी
मदहोशी की
लहरों में
डूब डूब

कहीं
दूर चला जाता है,
यह सब आदमी
के भीतर
सुख तृप्ति के पल
भर जाता है।

इन्द्रियां
अपने कर्म भूल
कामुकता के शूल
चुभने से
कुछ-कुछ मूक हुईं
अपने भीतर
सनसनाहट महसूस
पहले पहल
रह जातीं सन्न !
तन और मन
कहीं गहरे तक
होते प्रसन्न!!

और  सब
इन आनंदित क्षणों को
दिल ओ दिमाग में
उतार
निरंतर
अपना शुद्धीकरण
करते हैं।

कभी-कभी
भीतर
सन्नाटा पसर जाता है।
इंसान
अपनी सुध-बुध खोकर
रोमांस और मस्ती की
डगर पर चल देता है।

हे कामदेव!
तुम देह मेरी में ठहरकर
आज वसन्तोत्सव मनाओ।
काम
तुम मेरी नीरस
काया के भीतर
करो प्रवेश।
मेरी नीरसता का हरण करो।
तुम और के दर पर न जाओ।

हे कामदेव!
तुम मेरे भीतर रस बोध कराकर
मुझे पुनर्जीवित कर जाओ।
ताकि
सुलगते अरमानों की
मृत्युशैया के हवाले कर
मुझे समय से पहले बूढ़ा  न कर पाओ।

हे कामदेव!
तुम समय समय पर
अपने रंग
मुझ पर
छिड़का कर
मुझे
अपनी अनुभूति कराओ ।
काम मेरे भीतर
सुरक्षा का आभास करवाओ।
यही नहीं तुम
सभी के भीतर
जीवंतता की प्रतीति करवाओ।
Joginder Singh Dec 2024
कार्टूनिस्ट
कमाल के साथ रखते हैं
प्रखर करने वाला विचार ,
यह जीवन के किसी भी क्षेत्र से
जुड़ा हो सकता है समाजोपयोगी से लेकर
राजनीतिक परिवर्तन तक।

अभी अभी
एक कार्टून ने
मेरे दिमाग से पूर्वाग्रह और दुराग्रह का
कचरा व कूड़ा कर्कट
कर दिया है साफ़ !

मुझे आम आदमी की
बेवजह से की गई
जद्दोजहद और कश्मकश
और
समान हालात में
नेतृत्वकर्ता के
लिए गये फैसले का बोध
कार्टून के माध्यम से
क्रिस्टल क्लियर हद तक
हुआ है स्पष्ट।

पशु को आगे बढ़ाने की
कोशिश में
आम आदमी ने
पशु को मारा , पीटा और लताड़ा ,
जबकि
नेतृत्वकर्ता ने
उसे चारे का लालच देकर ,
उसके सामने खाद्य सामग्री लटकाकर ,
उसे आगे बढ़ने के लिए
बड़ी आसानी से किया प्रोत्साहित।

इस एक कार्टून को देखकर
मुझे एक व्यंग्य चित्र का
आया था ध्यान ,
जो था कुछ इस प्रकार का, कि
भैंस को सूखा चारा खिलाने के निमित्त
ताकि कि उसका लग सके खाने में चित्त ।
भैंस की आंखों पर ,
हरे शीशों वाला चश्मा लगाया गया था।
इस चित्र और आज देखे कार्टून ने
मुझे इतना समझा दिया है कि
कोई भी समस्या बड़ी नहीं होती ,
उसे हल करने की युक्ति
आदमी के मन मस्तिष्क में होनी चाहिए।

अब अचानक मुझे
समकालीन राजनीतिक परिदृश्य में
सत्ता पक्ष और प्रति पक्ष द्वारा
जनसाधारण से
मुफ़्त की रेवड़ियां बांटने ,
लोक लुभावन नीतियों की बाबत
अथक प्रयास करने का सच
सहज ही समझ आ गया।
दोनों पक्षों का यह मानना है कि
हम करेंगे
अपने मतदाताओं से
मुफ़्त में
सुखसुविधा और "विटामिन एम " देने का वायदा !
ताकि मिल सके जीवन में सबको हलवा मांडा ज़्यादा !!
२९/१२/२०२४.
जीवन का अंत
कभी भी हो सकता है।
क्या पता कब
काल अपने रथ पर
होकर सवार
द्वार पर दस्तक देने
आ जाए ?
...और हमें
उनके साथ
जीवन से प्रस्थान
करना पड़ जाए।

इसी बीच जीवन
मतवातर बतियाता है सबसे
सभी को अपनी चेतना से
साक्षात्कार करवाता हुआ ,
काल के रथ पर
चढ़ने के लिए
स्वयं को हर पल
तैयार रखने के लिए ,
यात्रा पथ पर आगे बढ़ाने के लिए !

इससे पहले कि
यह यात्रा वेला आए ,
जीवन बतियाता
रहता है सबसे धीरे-धीरे।

रह रहकर
जीवन बतियाता रहता है
यह जीवन धारा में
खुशबू और उजास
बिखेर कर
सबको चेतन बनाता है।
काल के आगमन से पूर्व
हमें सचेत करता रहता है।

यह ठीक है कि
मृत्यु हमें विश्राम करवाने के लिए
अपने मालिक काल के
रथ पर होकर सवार
हर पल तेजी से
हमारी ओर आ रही है
इससे पहले कि हमें
काल के रथ पर बैठना पड़े ,
हम अपने अधूरे कार्यों को पूरा करें।
कहीं यह न हो, हमें अधूरे कार्य छोड़ जाना पड़े।
१५/१०/२००७.
काल सोया हुआ
होता है
कभी कभी महसूस,
परंतु
वह चुपके चुपके
बहुत सूक्ष्म गतिविधियों को
लेता है अपने में
समेट।
इतिहास
काल की चेतना को
रेखांकित करने की चेष्टा भर है,
इसमें आक्रमणकारियों ,
शासकों ,
वंचितों शोषितों ,
शरणार्थियों इत्यादि की
कहानियां छिपी रहती हैं ,
जो काल खंड की
गाथाएं कहती हैं।

सभ्यताओं और संस्कृतियों पर
समय की धूल पड़ती रही है ,
जिससे आम जन मानस
अपनी नैसर्गिक चेतना को विस्मृत कर बैठा है ,
आज के अराजकतावादी तत्व
आदमी की इस अज्ञानता का लाभ उठाते हैं ,
उसे भरमाते और भटकाते हैं ,
उसे निद्रा सुख में मतवातर बनाए रखते हैं
ताकि वे जन साधारण को उदासीन बनाए रख सकें।

आज देश दुनिया में
जागरूकता बढ़ रही है ,
समझिए इसे कुछ इस तरह !
काल अब करवट ले रहा है !
आम आदमी सच के रूबरू हो रहा है !
वह जागना चाहता है !
अपनी विस्मृत विरासत से
राबता कायम करना चाहता है !
आदमी का चेतना ही
काल का करवट लेना है
ताकि आदमी जीवन की सच्चाई से जुड़ सके ,
निर्लेप, तटस्थ, शांत रहकर काल चेतना को समझ सके ,
समय की धूल को झाड़ सके ,
अतीत में घटित षडयंत्रों के पीछे
निहित कहानी को जान सके ,
अपनी चेतना के मूल को पहचान सके।

काल जब जब करवट लेता है ,
आदमी का अंतर्मानस जागरूक होता है ,
समय की धूल यकायक झड़ जाती है ,
आदमी की सूरत और सीरत निखरती जाती है।
१६/०२/२०२५.
आज से सालों पहले
मेरे विद्यार्थी जीवन के दौर में
मेरा शहर और राज्य
आतंक से ग्रस्त था ,
इससे हर कोई त्रस्त था।
किसान धरना लगाने के बहाने
शहर की सड़कों पर उतर आते थे,
जमकर उत्पात मचाते थे।
हम स्कूल और ट्यूशन से भागकर
तमाशा देखने जाते थे।
आगजनी, पथराव ,भाषणबाजी का
लुत्फ़ उठाते थे।
इससे भी पहले नक्सली लहर का
रहा सहा असर थोड़ा बहुत दिख जाता था,
उसके बाद पड़ोसी देश के साथ युद्ध ,
ब्लैक आउट डेज,
महंगाई ,
गरीबी हटाओ के नारे की आड़ में
गरीब हटाओ का काम ,
लड़ाई , झगड़ा , असंतोष ,
मिट्टी के तेल से खुद को आग लगाने का सिलसिला,
समाज में बढ़ता गिला शिकवा और शिकायत
और अंततः आपातकाल का दौर ,
फिर समाज में सत्ता परिवर्तन लेकर आया था नई भोर।
कुछ इस तरह के कालखंड से निकल
कॉलेज में पहुँचा था
तो उस समय आतंकवाद
चरम पर था,
हरेक के भीतर
डर भर गया था ,
जन साधारण को बसों से उतार
मारा जाने लगा था।
कुछ ऐसे उथल पुथल के
दौर से गुजरते हुए
अचानक एक समय
उच्च शिक्षा भी गई थी रुक।
और...
बेरोजगारी के दौर से गुज़र
एक अदद नौकरी का मिलना,
तन मन का खिलना
अब बीता समय हो गया है।
पर इस सब से पिछड़ने का अहसास
अब सेवा निवृत्ति के बाद भी
कभी कभी मन को अशांत करता है।

आज पॉडकास्ट का समय है
अभी अभी सुना है कि
विगत चार माह में
सूबे में आतंक की बारह के लगभग
बंब विस्फोट ,आतंक , आगजनी,कत्ल की वारदात
घटने और उसका प्रशासन पर दुष्प्रभाव की बाबत
सुन रहा था विचार विमर्श।
इसके साथ ही
पुलिस कर्मियों पर मुकदमा चलाए जाने ,
कुछ मामलों में आला और साधारण पुलिस कर्मियों के कैदी बनने की बात चली
तो मुझे आतंक के दमन का वह सुनहरा दौर याद आया ,
जब कांटे को कांटे से हटाया गया था,
धीरे धीरे अमन चैन , सामान्य हालात को क़ायम किया गया था।
आज भी उस नेक काम का दुष्परिणाम लोग भुगत रहे हैं ,
अब भी राज्य की अर्थ व्यवस्था कर्ज़े के जाल में धंसी है।
इस हालात में कौन प्रशासनिक नियन्त्रण क़ायम करे ?
वोट बैंक की राजनीति के चलते
मुफ़्त के लाभ देकर , ढीला ढाला शासन चलाया जा रहा है।
कोई मुख्य मंत्री को कोस रहा है तो कोई अधिकारियों को।
जबकि हकीकत यह है कि अच्छा काम करने वाला बुरा बनता है और पिटता है।
उस समय का काला दौर अब भी ज़ारी है।
यह दौर रोका जा सकता है!
अपराधी को टोका जा सकता है!!
जैसे को तैसा की नीति से ठोका जा सकता है!!!
पर सब के मन में डर है !
अच्छा करने के बावजूद यदि उपहास और त्रास मिला तो क्या होगा ?
स्वार्थों से चालित इस व्यवस्था का अंजाम दलदल में धंसने जैसा तो नहीं होगा !
सो काला दौर ज़ारी है।
अच्छे और सच्चे दौर की आमद के लिए
जन जागरण का हो रहा है इंतजार !
यह सच है कि देश दुनिया और समाज शुचिता की ओर बढ़ रहा है।
काला दौर भी किसी हद तक अपनी समाप्ति से भीतर ही भीतर डर रहा है।
१६/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
काश!
यह जगत
होता एक तपोवन
न कि जंगल भर,
जहां संवेदनाएं रहीं मर,
नहीं बची अब जीने की ललक।

तपोवन में
बनी रहनी चाहिए शांति।
मित्र,
जीवन में
कोई कार्य ऐसा न करें,
जिससे उत्पन्न हो भ्रांति
जो हर ले
सुध बुध और अंतर्मन की शांति ।
२६/०२/२०१७.
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