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धन्य है वह समाज
जहां कन्या पूजन
किया जाता है,
यही है वह दिया
जहां से जीवन शक्ति का
होता है जागरण।
हिंदू समाज पर व्यर्थ ही
नारी अपमान का
लगाया जाता है आक्षेप,
यह वह उर्वर धरा है
जहां से संजीवनी का
उद्भव हुआ है,
मानव ने चेतना को
साक्षात जिया है।
यह वह समाज है
जहां हर पुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम राम
और स्त्री जगत जननी माता सिया है।

२४/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
कभी-कभी
चेतना कहती है
वे
हत्यारे
रहे होंगे कभी
फ़िलहाल
रोटियां बांटते हैं,
नौकरियां देते हैं,
क्या
यह सच नहीं ?
फिर
किस मुंह से
उन्हें हत्यारा कहोगे ?
उनके बगैर गुज़ारा
कैसे करोगे ?
कभी कभी
चेतना कहती है ,
'अच्छा रहेगा
अपनी भूख दबा दो
कहीं गहरे रसातल में...!
फिर भले ही
उन्हें भूला दो ,
जिन्हें तुम 'आया मालिक '
कहते हो!
जिनके आगे पीछे
घूम घूमकर
अपनी दुम
हर समय  
हिलाते रहे हो !!
उनके ‌सामने
हर समय नाचते हो !!
वे
हत्यारे
रहे होंगे कभी
फ़िलहाल मालिक हैं
पोतते रहते कालिख हैं
मासूम चेहरों पर ।
उन्हें
हर समय डांट ‌लगा कर ,
उन्हें
जबरन गुलाम बनाकर ,
उनके मन-मस्तिष्क में
असंतोष जगाने का काम करते हैं ।
उन्हें
विद्रोही बनाने पर तुले हैं।

भले ही वे
उन्हें ‌हर पल
डांटते रहते हों
अपनी बेहूदा
आदतों की वज़ह से!
वे भी तुम्हारी तरह
भीतर तक शांत रहते हैं
पर हर बार डांट डपट
सहने के बावजूद
हर पल
हंसते मुस्कुराते रहते हैं !
अपनी आदतों की वज़ह से !!
क्या तुम इसे समझते हो ?
कहीं तुम भी तो
उन मालिकों और नौकरों की तरह
किसी तरह से भी कम नहीं ,
सताने और अत्याचार सहने को
अपनी आदतों में
शुमार करने के मामले में  !
क्या तुम भी शामिल हो
चालबाजी ,
हुल्लड़बाजी ,
शब्दों की बाजीगरी ,
चोरी सीनाज़ोरी के खेल में  ?
फिर तो कभी रात कटेगी जेल में!
कभी-कभी चेतना
हम सबको आगाह करती है
पर किसी किसी को
उसकी आवाज़ सुनाई देती है।
०६/०३/२०१८.
Joginder Singh Nov 2024
अब हमें
दबंगों को,
कभी-कभी
दंगाइयों के संग
और
दंगा पीड़ितों को
दबंग, दंगाइयों के साथ
रखना चाहिए ,
ताकि
सभी परस्पर
एक दूसरे को जान सकें,
और भीतर के असंतोष को खत्म कर
खुद को शांत रख सकें,
ढंग से जीवन यापन कर सकें,
जीवन पथ पर
बिखरे बगैर
आगे ही आगे बढ़ सकें,
ज़िंदगी की किताब को
अच्छे से पढ़ सकें,
खुद को समझ और समझा सकें।


देश में दंगे फसाद ही
उन्माद की वजह बनते हैं,
ये जन,धन,बल को हरते हैं,
इन की मार से बहुत से लोग
बेघर हो कर मारे मारे भटकते हैं।

जब कभी दंगाई
मरने मारने पर उतारू हों
तो उन्हें निर्वासित कर देना चाहिए।
निर्वाचितों को भी चाहिए कि
उनके वोटों का मोह त्याग कर
उन्हें तड़ीपार करने की
सिफारिश प्रशासन से करें
ताकि दंगाइयों को  
कारावास में न रखकर
अलग-अलग दूरस्थ इलाकों में
कमाने, कारोबार करने,सुधरने का मौका मिल सके।
यदि वे फिर भी न सुधरें,
तो जबरन परलोक गमन कराने का रास्ता
देश की न्यायिक व्यवस्था के पास होना चाहिए।
आजकल के हालात
बद्तर होते-होते
असहनीय हो चुके हैं।
अंतोगत्वा
सभी को,
दबंगों को ही नहीं,
वरन दंगाइयों को भी
अपने  अनुचित कारज और दुर्व्यवहार
से गुरेज करना चाहिए
अन्यथा
उन सभी को
होना पड़ेगा
निस्संदेह
व्यवस्था के प्रति
जवाबदेह।
सभी को अपने दुःख, तकलीफों की
अभिव्यक्ति का अधिकार है,
पर अनाधिकृत दबाव बनाने पर ,
दंगा करने और करवाने पर
मिलनी चाहिए सज़ा,
साथ ही बद्तमीजी करने का मज़ा।

देश के समस्त नागरिकों को
अपराधी बनने पर
कोर्ट-कचहरी का सामना करना चाहिए,
ना कि दहशत फैलाने का कोई प्रयास ।


दंगा देश की
अर्थ व्यवस्था के लिए घातक है,
यह प्रगति में भी बाधक है,
इससे दंगाइयों के भी जलते हैं।
पर वे यह मूर्खता करने से
कहां हटते हैं?
वे तो सब को मूर्ख और अज्ञानी समझते हैं।
१२/०८/२०२०.
Joginder Singh Dec 2024
बेबस आदमी
अक्सर
अराजकता  के माहौल में
हो जाता है
आसानी से
धोखाधड़ी और ठगीठौरी का शिकार।

बार बार
ठगे जाने पर
अपनी बाबत
गहराई से विचार
करने के बाद
मतवातर
सोच विचार करने पर
आदमी के अंदर
स्वत : भर ही जाता है
संदेह और अविश्वास !
वह कभी खुलकर
नहीं ले पाता उच्छवास !!

आदमी धीरे धीरे
अपने आसपास से
कटता जाता है ,
वह चुप रहता हुआ ,
सबसे अलग-थलग पड़कर
उत्तरोत्तर अकेला होता जाता है।
संशय और संदेह के बीज
अंतर्मन में भ्रम उत्पन्न कर देते हैं ,
जो भीतर तक असंतोष को बढ़ाते हैं।


यही नहीं कभी कभी
आदमी अराजक सोच का
समर्थन भी करने लगे जाता है।
उसकी बुद्धि पर
अविवेक हावी हो जाता है।
वह अपने सभी कामों में
जल्दबाजी करता है ,
जीवन में औंधे मुंह गिरता है।
ऐसी मनोदशा में
अधिक समय बिताते हुए
वह खुद को लुंज-पुंज कर लेता है।
वह क्रोधाग्नि से
स्वयं को असंतुष्ट बना लेता है।
वह कभी भी अपने भीतर को
समझ नहीं पाता है।
यही नहीं वह अन्याय सहता है,
पर विरोध करने का हौसला
चाहकर भी जुटा नहीं पाता है।
और अंततः अचानक
एक दिन धराशायी हो जाता है।
ऐसा होने पर भी
उसका आक्रोश
कभी बाहर नहीं निकल पाता है।
वह अपनी संततियो को भी
किंकर्तव्यविमूढ़ बना देता है।
वे भी अनिर्णय का दंश
झेलने के निमित्त
लावारिस हालत में तड़पते हुए
अंदर ही अंदर घुटते रहते हैं।
वे मतवातर यथास्थिति बनाए
अशांत और बेचैनी से भरे
भीतर तक कसमसाते रहते हैं।

आप ही बताइए कि
लावारिस शख्स देश दुनिया में
अराजकता नहीं फैलाएंगे ,
तो क्या वे सद्भावना का उजास
अपने भीतर से
कभी उदित होता देख पाएंगे ?
...या वे सब जीवन भर भटकते जाएंगे !!
कभी तो वे अपने जीवन में सुधार लाएंगे !!
कभी तो वे समर्थ और प्रबुद्ध नागरिक कहलाएंगे !!

आजकल भले ही आदमी अपनी बेबसी से जूझ रहा है ,
उसकी बेबस ज़िंदगी इतनी भी उबाऊ और टिकाऊ नहीं
कि वह इस यथास्थिति को झेलती रहे।
रह रह कर असंतोष की ज्वाला भीतर धधकती रहे।
अविश्वास के दंश सहकर अविराम कराहती हुई
अचानक अप्रत्याशित घटनाक्रम का शिकार बनकर
हाशिए से हो जाए बाहर।
आदमी और उसकी आदमियत को
सिरे से नकार कर
एक दम अप्रासंगिक बनाती हुई !
आदमी को अपनी ही नज़रों में गिराती हुई !!
कहीं देखनी पड़ें आदमी की आंखें शर्मिंदगी से झुकीं हुईं !!


बेबसी का चाबुक
कभी तो पीछे हटेगा,
तभी आदमी जीवन पथ पर
निर्विघ्न आगे बढ़ सकेगा।
अपनी हसरतें पूरी कर सकेगा।

कभी तो यथास्थिति बदलेगी।
व्यवस्था
परिवर्तन की लहरों से
टकराकर अपने घुटने टेकेगी।
जीवन धरा फिर से स्वयं को उर्वर बनाएगी।
जीवन धारा महकती इठलाती
अपनी शोख हंसी बिखेरती देखी जाएगी।
इस परिवर्तित परिस्थितियों में
प्रतिकूलता विषमता तज कर
आदमी के विकास के अनुकूल होकर
जीवन धारा को स्वाभाविक परिणति तक पहुंचाएगी।
सच ! ऐसे में बेबसी की दुर्गन्ध आदमी के भीतर से हटेगी।

२१/१२/२०२४.
हरेक की चाहत है कि
उसके जीवन में
कभी न रहे
कोई कमी।
उसे मयस्सर हों
सभी सुख सुविधाएं
कभी न कभी।
लेकिन जीवन यात्रा में
शराब की लत
आदत में
शुमार हो जाती है,
तब यह एक श्राप सी होकर
जोंक की तरह
आदमी का खून पीने के निमित्त
उसके वजूद से
लिपट जाती है।

यही नहीं
कभी कभी
शबाब भी उसकी
चेतना से लिपट जाता है,
उसे अपनी खूबसूरती पर
अभिमान हो जाता है,
उसे अपने सिवा कोई दूसरा
नज़र नहीं आता है,
वह औरों के वजूद को
कभी न कभी
नकारने लग जाता है,
आदमी की अकाल पर
पर्दा पड़ जाता है।
उसे हरपल मदिरा से भी
अधिक नशीला नशा भाता है,
वह शानोशौकत और आडंबर में
निरन्तर डूबता जाता है।
इस दौर में आदमी का
सौभाग्य
हरपल हरक़दम उसे
विशिष्टता का अहसास कराता है,
वह एक मायाजाल में फंसता चला जाता है।

शराब और शबाब
जिन्दगी का सत्य नहीं !
इस जैसा भ्रम
झूठ में भी नहीं !!
इस दौर के
आदमी का सच यह है कि
आज जीवन में
सच और झूठ
मायावी संसार को लपेटे
झीने झीने पर्दे हैं
जिनसे हमारे जीवनानुभव जुड़े हैं।
हम सब दुनिया के
मायावी बाज़ार में
लोभ और संपन्नता के आकर्षणों से
बंधे हुए निरीह अवस्था में खड़े हैं।
कभी कभी
अज्ञानतावश
हम आपस में ही लड़ पड़ते हैं,
अनायास जीवन में दुःख पैदा कर
जीवन यात्रा में जड़ता उत्पन्न कर देते हैं।
ये हमारे जीवन का
विरोधाभास है
जो हमें भटकाता रहा है,
अच्छी भली जिंदगी को
असहज बनाता रहा है।
इस मकड़जाल से बचना होगा।
कभी न कभी
नकारात्मकता छोड़
सकारात्मकता से जुड़ना होगा।
हमें जीवन ऊर्जा को संचित करने के लिए
सादा जीवन, उच्च विचार की
जीवन पद्धति की ओर लौटना होगा,
ताकि जीवन के प्रवाह में
बेपरवाह होने से बच सकें,
जीवन को पूरी तन्मयता से
जीने का सलीका सीख सकें।
...और कभी जीवन में
कोई कमी हमें खले नहीं!
सभी सुख समृद्धि
और
संपन्नता को छूएं तो सही!!
२४/०२/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
क्या कभी सोचा आपने
आखिर हम क्यों लड़ते हैं ?
छोटी छोटी बातों पर
लड़ने झगड़ने बिगड़ने लगते हैं ।
जिन बातों को नजर अंदाज किया जाना चाहिए ,
उनसे चिपके रहकर
तिल का ताड़ बना देते हैं।
कभी कभी राई को पहाड़ बना देते हैं।
यही नहीं बात का बतंगड़ बनाने से नहीं चूकते।
आखिर क्या हासिल करने के वास्ते
हम अच्छे भले रास्ते से
अपना ध्यान हटा कर
जीवन में भटकते हैं।
कभी कभी अकेले होकर
छुप छुप कर सिसकते हैं।

क्या पाने के लिए हम लड़ते हैं ?
लड़कर हम किससे जीतते हैं ?
उससे , इससे , या फिर स्वयं से !
आखिकार हम सब थकते , टूटते, हारते हैं ,
फिर भी जीवन भर ज़िद्दी बने भटकते रहते हैं ।

क्या हम सभी कभी समझदार होंगे भी ?
या कुत्ते बिल्लियों की तरह लड़ते और बहसते रहेंगे !
लोग हमें अपनी हँसी और स्वार्थपरकता का
शिकार बनाकर
हमें मूर्ख बनाने में कामयाब होते रहेंगे ।
उम्मीद है कि कभी हम
अपने को संभाल खुद के पैरों पर खड़े होंगे।
शायद तभी हमारे लड़ाई झगड़े ख़त्म होंगे।

३०/१२/२०२४.
अपनी मातृ भाषा में
क्रिकेट कमेन्ट्री सुनकर मज़ा आ गया !
इसका लुत्फ़ हंसी-मज़ाक से भी ज़्यादा आया !!
अब जब भी मन करेगा मैं इस खेल की
कमेन्ट्री हरियाणवी में सुनूंगा।
अपने भीतर खुशियां लबालब भरूंगा।
यदि आप हिंदी और हरियाणवी को समझते हैं
तो खेल की कमेन्ट्री हिंदी में न सुनकर
हरियाणवी में सुन लीजिए,
अपने भीतर भरपूर प्रसन्नता भर लीजिए ।
तनिक  जीवन में उदासी को भूल कर
थोड़ा बहुत हंसी मज़ाक का तड़का जीवन में लगा कर
अपनी स्वाभाविक खिलखिलाहट से दोस्ती कर लीजिए।
कम से कम थोड़े समय के लिए तनावमुक्त हो लीजिए।
इस जीवन में हंसी मज़ाक,
ठहाकों  और कहकहों का आनन्द अवश्य लीजिए।
यही नहीं अपने जीवन की कमेन्ट्री भी  
कभी कभी खुद किया कीजिए।
ज़िन्दगी को जिन्दादिली से जीने का तोहफा दीजिए।
०४/०५/२०२५.
सच है
आजकल
हर कोई
कर्ज़ के जाल में
फँस कर छटपटा रहा है ,
वह इस अनचाहे
जी के जंजाल से
बच नहीं पा रहा है।

दिखावे के कारण
कर्ज़ के मर्ज में जकड़े जाना,
किसी अदृश्य दैत्य के हाथों से
छूट न पाना करता है विचलित।
कभी कभी
आदमी
असमय
अपनी जीवन लीला
कर लेता है
समाप्त ,
घर भर में
दुःख जाता है
व्याप्त।
आत्महत्या है पाप ,
यह फैलाता है समाज में संताप।
सोचिए , इससे कैसे बचा जाए ?
क्यों न मन पर पूर्णतः काबू पाया जाए ?
दिखावा भूल कर भी न किया जाए ।
जिन्दगी को सादगी से ही जीया जाए।
कर्ज़ लेकर घी पीने और मौज करने से बचा जाए।
क्यों बैठे बिठाए ख़ुद को छला जाए ?
क्यों न मेहनत की राह से जीवन को साधन सम्पन्न किया जाए ?
कर्ज़ के मर्ज़ से
जहां तक संभव हो , बचा जाए !
महत्वाकांक्षाओं के चंगुल में न ही फंसा जाए !
कर्ज़ के पहाड़ के नीचे दबने से पीछे हटा जाए !!
कम खाकर गुजारा बेशक कर लीजिए।
हर हाल में कर्ज़ लेने से बचना सीखिए।
१३/०३/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
भले ही कोई
उतारना चाहे
दूध का कर्ज़ ,
अदा कर अपने फर्ज़।
यह कभी उतर नहीं सकता ,
कोई इतिहास की धारा को
कतई मोड़ नहीं सकता।
भले ही वह धर्म-कर्म और शक्ति से
सम्पन्न श्री राम चन्द्र जी प्रभृति
मर्यादा पुरुषोत्तम ही क्यों न हों ?
उनके भीतर योगेश्वर श्रीकृष्ण सी
'चाणक्य बुद्धि 'ही क्यों न रही हो !

मां संतान को दुग्धपान कराकर
उसमें अच्छे संस्कार और चेतना जगाकर
देती है अनमोल जीवन, और जीवन में संघर्ष हेतु ऊर्जा।
ऐसी ममता की जीवंत मूर्ति के ऋण से
पुत्र सर्वस्व न्योछावर कर के भी नहीं हो सकता उऋण।
माता चाहे जन्मदात्री हो,या फिर धाय मां अथवा गऊ माता,
दूध प्रदान करने वाली बकरी,ऊंटनी या कोई भी माताश्री।

दूध का कर्ज़ उतारना असंभव है।
इसे मातृभूमि और मातृ सेवा सुश्रुषा से
सदैव स्मरणीय बनाया जाना चाहिए।
मां का अंश सदैव जीवात्मा के भीतर है विद्यमान रहता।
फिर कौन सा ऐसा जीव है,
जो इससे उऋण होने की बालहठ करेगा ?
यदि कोई ऐसा करने की कुचेष्टा करें भी
तो माता श्री का हृदय सदैव दुःख में डूबा रहता!
कोई शूल मतवातर चुभने लगता,
मां की महिमा से
समस्त जीवन धारा
और जीव जगत अनुपम उजास ग्रहण है करता।
ममत्व भरी मां ही है सृष्टि की दृष्टि और कर्ताधर्ता !!
०३/०८/२००८.
अब तक सभी
अपने अपने कर्म चक्र से
बंध कर
जीवन को साधे हुए हैं ,
आगे बढ़ने के लिए
संयम के साथ
स्वयं को
तैयार कर रहें हैं।
सभी को पता है अच्छी तरह से ,
जो बीजेंगे , वही काटेंगे !
यदि कर्म नहीं करेंगे ,
तो आगे कैसे बढ़ेंगे !
जीवन चक्र से मुक्ति की राह में
अनजाने ही एक बाधा खड़ी कर लेंगे।
सो सब अपनी सामर्थ्य से
भरपूर काम कर रहे हैं ,
इस जीवन में सुख के बीज बो रहे हैं ,
बल्कि आगे की भी तैयारी कर रहे हैं।
सनातन में कर्म चक्र
सतत चलायमान है ,
जन्म मरण का खेल भी
कर्म के मोहरों से चल रहा है।
अरे मन ! इस जीवन सत्य को समझ के
आगे बढ़ , कर्म करने से पीछे न हट।
व्यर्थ ठाली बैठे रहने से टल।
कर्म करने से न डर, मतवातर आगे बढ़।
आगे बढ़ने की लगन अपने भीतर भर!
इस जन्म को यों ही न व्यर्थ कर !!
२३/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
अभी अभी
टेलीविजन पर
एक कार्यक्रम देखते हुए,
ब्रेक के दौरान
विज्ञापन देखते हुए
आया एक ख्याल
कि श्रीमती को
दिया जाए एक उपहार।
विज्ञापित सामग्री खरीदी जाए,
और एक टिप्पणी के साथ
श्रीमती जी को सहर्ष
सौंप दी जाए।
विज्ञापन कुछ यूं प्रदर्शित था,
मक्खन सी मुलामियत वाली
पांच सौंदर्य साबुन के  पैक के साथ
एक बॉलपेन फ्री।

श्रीमती की लेखन प्रतिभा का  
करते हुए सम्मान
उन्हें
उपरोक्त विज्ञापन वाली
सामग्री दी जाए,
साथ ही किया जाए
टिप्पणी सहित अनुरोध,
" ....यह सौंदर्य सामग्री बॉलपेन की
ऑफ़र के साथ प्राप्त हुई है जी।
आप  इसका उपयोग करें,
सौंदर्य साबुन से
मल मल कर स्नान कीजिए।
साबुनों के साथ मिले
फ्री के पैन से  कविताएं लिखें
और सुनाएं,
निखार के साथ भी, निखार के बाद भी,मन बहलाएं जी।"

विज्ञापित सामग्री मैं बाज़ार से
ले आया हूं,
सोचता हूँ,
दूं या न दूं,
दूं तो डांट, फटकार के लिए
खुद को तैयार करूँ।
आप से मार्ग दर्शन अपेक्षित है।
वैसे अनुरोधकर्ता घर बाहर उपेक्षित है,
एक दम भोंदू,
रोंदू पति की तरह,
जो तीन में है न तेरह में।
ढूंढता है मजा जीने में,
कभी कभार की सजा में।
Joginder Singh Dec 2024
कष्ट
हद की दहलीज़ को
लांघ कर
आदमी को
पत्थर बना देता है ,
आंसुओं को सुखा देता है ।


कष्ट
उतने ही दे
किसी प्रियजन को
जितने वह
खुशी खुशी सह सके ।
कहीं
कष्ट का आधिक्य
चेतना को कर न दें
पत्थर
और
बाहर से
आदमी ज़िंदा दिखे
पर भीतर से जाए मर ।

२१/०२/२०१४.
Joginder Singh Nov 2024
कहते हैं
कानून के हाथ
बहुत लंबे होते हैं ,
पर ये हाथ
कानून के नियम कायदों से
बंधे होते हैं।

कानून
मौन रहकर
अपना कर्तव्य
निभाता है ,
कानून का उल्लंघन होने पर
अधिवक्ता गुहार लगाता है,
बहस मुबाहिसे,
मनन चिंतन के बाद
माननीय न्यायमूर्ति
अपना फैसला सुनाते हैं।
इसे सभी मानने को बाध्य होते हैं ।


न्याय की देवी की
आंखों पर पट्टी बंधी होती है,
उसे मूर्ति के हाथ में तराजू होता है,
जिसके दो पलड़ों पर
झूठ और सच के प्रतीक
अदृश्य रूप से सवार होते हैं
और जो माननीय न्यायाधीश की सोच के अनुसार
स्वयं ही  संतुलित होते रहते हैं।


एक फ़ैसलाकुन क्षण में
माननीय न्यायाधीश जी की
अंतर्मन की आवाज़
एक फैसले के रूप में सुन पड़ती है।

इस इस फैसले को सभी को मानना पड़ता है।
तभी कानून का एक क्षत्र राज
शासन व्यवस्था पर चलता है।
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अपना कार्य करता है।
कानून के कान बड़े महीन होते हैं
जो फैसले के दूरगामी परिणाम
और प्रभावों पर रखते हैं मतवातर अपनी पैनी नज़र।
यह सुनते रहते हैं
अदालत में उपस्थित और बाहरी व्यवस्था की,
बाहर भीतर की हर आवाज़
ताकि आदमी रख सकें
कानून सम्मत अपने अधिकार मांगते हुए,
अपने एहसासों और अधिकारों की तख्तियां सुरक्षित।
आदमी सिद्ध कर सके
खुद को
नख‌ से शिख तक पाक साफ़!!

कानून के रखवाले
मौन धारण कर
करते रहते हैं लगातार
अपने अपने कर्म
ताकि बचे रह सकें
मानवीय जिजीविषा से
अस्तित्व मान हुए
आचार, विचार और धर्म।
बच्ची रह सके आंखों में शर्म।

०२/०६/२०१२.
यदि कोई काम कम करे
और शोर ज़्यादा ,
तो उसका किसी को
है कितना फ़ायदा ?
ऐसे कर्मचारी को
कौन नौकर रखना चाहेगा ?
मौका देख कर
उसे बहाने से
कौन नहीं निकालना चाहेगा ?
अतः काम ज़्यादा करो
और बातें कम से कम
ताकि सभी पर अच्छा प्रभाव पड़े।
सभी ऐसे कर्मचारी की सराहना करें।
जीवन में कद्र
काम की होती है ,
आलोचना अनावश्यक
आराम करने वाले की होती है।
सचमुच ! एक मज़दूर की जिन्दगी
बेहद कठिन और कठोर होती है।
बेशक यह दिखने में सरल लगे ,
उसकी जीवन डगर संघर्षों से भरी होती है
और उसके मन मस्तिष्क में
कार्य कुशलता व हुनर की समझ
औरों की अपेक्षा अधिक होती है।
तभी उसकी पूछ हर जगह होती रही है।
काम ज़्यादा और बातें कम करना
आदमी को दमदार बनाता है ,
ऐसा मानस ही आजकल खुद्दार बना रहता है।
ऐसा मनुष्य ही उपयोगी बना रहता है ,
और स्वाभिमान ऐसे कर्मचारी की
अलहदा पहचान बना देता है।
१३/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
हे कामदेव!
जब तुम
तन मन में
एक खुमारी बनकर
देहवीणा को
अपना स्पर्श कराते हो
तो तन मन को भीतर तक को
झंकृत कर
जीवन में  राग और रागिनी के सुर
भर जाते हो।

ऐसे में
सब कुछ
तुम्हारे सम्मोहन में
अपनी सुध बुध ,भूल बिसार
दुनिया की सब शर्मोहया छोड़ कर
इक अजब-गजब सी
मदहोशी की
लहरों में
डूब डूब

कहीं
दूर चला जाता है,
यह सब आदमी
के भीतर
सुख तृप्ति के पल
भर जाता है।

इन्द्रियां
अपने कर्म भूल
कामुकता के शूल
चुभने से
कुछ-कुछ मूक हुईं
अपने भीतर
सनसनाहट महसूस
पहले पहल
रह जातीं सन्न !
तन और मन
कहीं गहरे तक
होते प्रसन्न!!

और  सब
इन आनंदित क्षणों को
दिल ओ दिमाग में
उतार
निरंतर
अपना शुद्धीकरण
करते हैं।

कभी-कभी
भीतर
सन्नाटा पसर जाता है।
इंसान
अपनी सुध-बुध खोकर
रोमांस और मस्ती की
डगर पर चल देता है।

हे कामदेव!
तुम देह मेरी में ठहरकर
आज वसन्तोत्सव मनाओ।
काम
तुम मेरी नीरस
काया के भीतर
करो प्रवेश।
मेरी नीरसता का हरण करो।
तुम और के दर पर न जाओ।

हे कामदेव!
तुम मेरे भीतर रस बोध कराकर
मुझे पुनर्जीवित कर जाओ।
ताकि
सुलगते अरमानों की
मृत्युशैया के हवाले कर
मुझे समय से पहले बूढ़ा  न कर पाओ।

हे कामदेव!
तुम समय समय पर
अपने रंग
मुझ पर
छिड़का कर
मुझे
अपनी अनुभूति कराओ ।
काम मेरे भीतर
सुरक्षा का आभास करवाओ।
यही नहीं तुम
सभी के भीतर
जीवंतता की प्रतीति करवाओ।
Joginder Singh Dec 2024
कार्टूनिस्ट
कमाल के साथ रखते हैं
प्रखर करने वाला विचार ,
यह जीवन के किसी भी क्षेत्र से
जुड़ा हो सकता है समाजोपयोगी से लेकर
राजनीतिक परिवर्तन तक।

अभी अभी
एक कार्टून ने
मेरे दिमाग से पूर्वाग्रह और दुराग्रह का
कचरा व कूड़ा कर्कट
कर दिया है साफ़ !

मुझे आम आदमी की
बेवजह से की गई
जद्दोजहद और कश्मकश
और
समान हालात में
नेतृत्वकर्ता के
लिए गये फैसले का बोध
कार्टून के माध्यम से
क्रिस्टल क्लियर हद तक
हुआ है स्पष्ट।

पशु को आगे बढ़ाने की
कोशिश में
आम आदमी ने
पशु को मारा , पीटा और लताड़ा ,
जबकि
नेतृत्वकर्ता ने
उसे चारे का लालच देकर ,
उसके सामने खाद्य सामग्री लटकाकर ,
उसे आगे बढ़ने के लिए
बड़ी आसानी से किया प्रोत्साहित।

इस एक कार्टून को देखकर
मुझे एक व्यंग्य चित्र का
आया था ध्यान ,
जो था कुछ इस प्रकार का, कि
भैंस को सूखा चारा खिलाने के निमित्त
ताकि कि उसका लग सके खाने में चित्त ।
भैंस की आंखों पर ,
हरे शीशों वाला चश्मा लगाया गया था।
इस चित्र और आज देखे कार्टून ने
मुझे इतना समझा दिया है कि
कोई भी समस्या बड़ी नहीं होती ,
उसे हल करने की युक्ति
आदमी के मन मस्तिष्क में होनी चाहिए।

अब अचानक मुझे
समकालीन राजनीतिक परिदृश्य में
सत्ता पक्ष और प्रति पक्ष द्वारा
जनसाधारण से
मुफ़्त की रेवड़ियां बांटने ,
लोक लुभावन नीतियों की बाबत
अथक प्रयास करने का सच
सहज ही समझ आ गया।
दोनों पक्षों का यह मानना है कि
हम करेंगे
अपने मतदाताओं से
मुफ़्त में
सुखसुविधा और "विटामिन एम " देने का वायदा !
ताकि मिल सके जीवन में सबको हलवा मांडा ज़्यादा !!
२९/१२/२०२४.
जीवन का अंत
कभी भी हो सकता है।
क्या पता कब
काल अपने रथ पर
होकर सवार
द्वार पर दस्तक देने
आ जाए ?
...और हमें
उनके साथ
जीवन से प्रस्थान
करना पड़ जाए।

इसी बीच जीवन
मतवातर बतियाता है सबसे
सभी को अपनी चेतना से
साक्षात्कार करवाता हुआ ,
काल के रथ पर
चढ़ने के लिए
स्वयं को हर पल
तैयार रखने के लिए ,
यात्रा पथ पर आगे बढ़ाने के लिए !

इससे पहले कि
यह यात्रा वेला आए ,
जीवन बतियाता
रहता है सबसे धीरे-धीरे।

रह रहकर
जीवन बतियाता रहता है
यह जीवन धारा में
खुशबू और उजास
बिखेर कर
सबको चेतन बनाता है।
काल के आगमन से पूर्व
हमें सचेत करता रहता है।

यह ठीक है कि
मृत्यु हमें विश्राम करवाने के लिए
अपने मालिक काल के
रथ पर होकर सवार
हर पल तेजी से
हमारी ओर आ रही है
इससे पहले कि हमें
काल के रथ पर बैठना पड़े ,
हम अपने अधूरे कार्यों को पूरा करें।
कहीं यह न हो, हमें अधूरे कार्य छोड़ जाना पड़े।
१५/१०/२००७.
योगेश्वर कृष्ण का
सुदर्शन चक्र
युद्धभूमि में
काल चक्र बन कर
सब को नियंत्रित करता रहा है।
आप कहेंगे कि
महाभारत के युद्ध में
उन्होंने हथियार उठाया नहीं।
क्या यह सही नहीं ?
बेशक
उन्होंने हथियार उठाया नहीं।
मन के भीतर
जोड़ घटाव गुणा तकसीम कर
उन्होंने काल चक्र को
अपने ढंग से
नियंत्रित किया था।
सारथी बने योगेश्वर ने
अर्जुन को रथ से उतार
अभय दान दिया था ,
जब रथ भस्म हुआ था।
काल चक्र को
हर युग में
परम चेतना ने
मानव रूप में जीया है ,
तभी जीवन ने
नित्य नूतन आयाम छुए हैं।
सब हरि लीला से
चमत्कृत हुए हैं।
११/०५/२०२५.
काल सोया हुआ
होता है
कभी कभी महसूस,
परंतु
वह चुपके चुपके
बहुत सूक्ष्म गतिविधियों को
लेता है अपने में
समेट।
इतिहास
काल की चेतना को
रेखांकित करने की चेष्टा भर है,
इसमें आक्रमणकारियों ,
शासकों ,
वंचितों शोषितों ,
शरणार्थियों इत्यादि की
कहानियां छिपी रहती हैं ,
जो काल खंड की
गाथाएं कहती हैं।

सभ्यताओं और संस्कृतियों पर
समय की धूल पड़ती रही है ,
जिससे आम जन मानस
अपनी नैसर्गिक चेतना को विस्मृत कर बैठा है ,
आज के अराजकतावादी तत्व
आदमी की इस अज्ञानता का लाभ उठाते हैं ,
उसे भरमाते और भटकाते हैं ,
उसे निद्रा सुख में मतवातर बनाए रखते हैं
ताकि वे जन साधारण को उदासीन बनाए रख सकें।

आज देश दुनिया में
जागरूकता बढ़ रही है ,
समझिए इसे कुछ इस तरह !
काल अब करवट ले रहा है !
आम आदमी सच के रूबरू हो रहा है !
वह जागना चाहता है !
अपनी विस्मृत विरासत से
राबता कायम करना चाहता है !
आदमी का चेतना ही
काल का करवट लेना है
ताकि आदमी जीवन की सच्चाई से जुड़ सके ,
निर्लेप, तटस्थ, शांत रहकर काल चेतना को समझ सके ,
समय की धूल को झाड़ सके ,
अतीत में घटित षडयंत्रों के पीछे
निहित कहानी को जान सके ,
अपनी चेतना के मूल को पहचान सके।

काल जब जब करवट लेता है ,
आदमी का अंतर्मानस जागरूक होता है ,
समय की धूल यकायक झड़ जाती है ,
आदमी की सूरत और सीरत निखरती जाती है।
१६/०२/२०२५.
आज से सालों पहले
मेरे विद्यार्थी जीवन के दौर में
मेरा शहर और राज्य
आतंक से ग्रस्त था ,
इससे हर कोई त्रस्त था।
किसान धरना लगाने के बहाने
शहर की सड़कों पर उतर आते थे,
जमकर उत्पात मचाते थे।
हम स्कूल और ट्यूशन से भागकर
तमाशा देखने जाते थे।
आगजनी, पथराव ,भाषणबाजी का
लुत्फ़ उठाते थे।
इससे भी पहले नक्सली लहर का
रहा सहा असर थोड़ा बहुत दिख जाता था,
उसके बाद पड़ोसी देश के साथ युद्ध ,
ब्लैक आउट डेज,
महंगाई ,
गरीबी हटाओ के नारे की आड़ में
गरीब हटाओ का काम ,
लड़ाई , झगड़ा , असंतोष ,
मिट्टी के तेल से खुद को आग लगाने का सिलसिला,
समाज में बढ़ता गिला शिकवा और शिकायत
और अंततः आपातकाल का दौर ,
फिर समाज में सत्ता परिवर्तन लेकर आया था नई भोर।
कुछ इस तरह के कालखंड से निकल
कॉलेज में पहुँचा था
तो उस समय आतंकवाद
चरम पर था,
हरेक के भीतर
डर भर गया था ,
जन साधारण को बसों से उतार
मारा जाने लगा था।
कुछ ऐसे उथल पुथल के
दौर से गुजरते हुए
अचानक एक समय
उच्च शिक्षा भी गई थी रुक।
और...
बेरोजगारी के दौर से गुज़र
एक अदद नौकरी का मिलना,
तन मन का खिलना
अब बीता समय हो गया है।
पर इस सब से पिछड़ने का अहसास
अब सेवा निवृत्ति के बाद भी
कभी कभी मन को अशांत करता है।

आज पॉडकास्ट का समय है
अभी अभी सुना है कि
विगत चार माह में
सूबे में आतंक की बारह के लगभग
बंब विस्फोट ,आतंक , आगजनी,कत्ल की वारदात
घटने और उसका प्रशासन पर दुष्प्रभाव की बाबत
सुन रहा था विचार विमर्श।
इसके साथ ही
पुलिस कर्मियों पर मुकदमा चलाए जाने ,
कुछ मामलों में आला और साधारण पुलिस कर्मियों के कैदी बनने की बात चली
तो मुझे आतंक के दमन का वह सुनहरा दौर याद आया ,
जब कांटे को कांटे से हटाया गया था,
धीरे धीरे अमन चैन , सामान्य हालात को क़ायम किया गया था।
आज भी उस नेक काम का दुष्परिणाम लोग भुगत रहे हैं ,
अब भी राज्य की अर्थ व्यवस्था कर्ज़े के जाल में धंसी है।
इस हालात में कौन प्रशासनिक नियन्त्रण क़ायम करे ?
वोट बैंक की राजनीति के चलते
मुफ़्त के लाभ देकर , ढीला ढाला शासन चलाया जा रहा है।
कोई मुख्य मंत्री को कोस रहा है तो कोई अधिकारियों को।
जबकि हकीकत यह है कि अच्छा काम करने वाला बुरा बनता है और पिटता है।
उस समय का काला दौर अब भी ज़ारी है।
यह दौर रोका जा सकता है!
अपराधी को टोका जा सकता है!!
जैसे को तैसा की नीति से ठोका जा सकता है!!!
पर सब के मन में डर है !
अच्छा करने के बावजूद यदि उपहास और त्रास मिला तो क्या होगा ?
स्वार्थों से चालित इस व्यवस्था का अंजाम दलदल में धंसने जैसा तो नहीं होगा !
सो काला दौर ज़ारी है।
अच्छे और सच्चे दौर की आमद के लिए
जन जागरण का हो रहा है इंतजार !
यह सच है कि देश दुनिया और समाज शुचिता की ओर बढ़ रहा है।
काला दौर भी किसी हद तक अपनी समाप्ति से भीतर ही भीतर डर रहा है।
१६/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
काश!
यह जगत
होता एक तपोवन
न कि जंगल भर,
जहां संवेदनाएं रहीं मर,
नहीं बची अब जीने की ललक।

तपोवन में
बनी रहनी चाहिए शांति।
मित्र,
जीवन में
कोई कार्य ऐसा न करें,
जिससे उत्पन्न हो भ्रांति
जो हर ले
सुध बुध और अंतर्मन की शांति ।
२६/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
काश!
कोई समय रहते
अपनी कर्मठता से
वसुंधरा पर
सुख के बीज
बिखेर जाए!
ताकि
सुख का वृक्ष
फलता फूलता
नज़र आए!!

२५/०४/२०२०
Joginder Singh Nov 2024
कैसे दिन थे वे!
हम चाय पकौड़ियों से
हो जाते थे तृप्त !
उन दिनों हम थे संतुष्ट।

अब दिन बदल गए क्या?
नहीं ,दिन तो वही हैं।
हम बदल गए हैं।
थोड़े स्वार्थी अधिक हुए हैं ।

उन दिनों
दिन भर खाने पीने की जुगत भिड़ाकर ।
इधर बिल्ली ,उधर कुत्ते को परस्पर लड़ा कर ।
हेरा फेरी, चोरी सीनाज़ोरी ,
मटरगश्ती, मौज मस्ती में रहकर ।
समय बिताया करते थे,
चिंता फ़िक्र को अपने से दूर रखा करते थे।
परस्पर एक दूसरे के संग
उपहास , हास-परिहास किया करते थे।


आजकल
सूरज की पहली किरण से लेकर,
दिन छिपने तक रहते असंतुष्ट !
कितनी बढ़ गई है हमारी भूख?
कितने बढ़ गए हैं हमारे पेट?
हम दिन रात उसे भरने का करते रहते उपक्रम।
अचानक आन विराजता है, जीवन में अंत।
हम आस लगाए रखते कि जीवन में आएगा वसंत।
हमारे जीवन देहरी पर,मृत्यु है आ  विराजती।
किया जाने लगता,
हमारा क्रिया कर्म।



कैसे दिन थे वे!
हम चाय पकौड़ियों से,
हो जाते थे तृप्त!
उन दिनों हम सच में थे संतुष्ट!!



अब अक्सर सोचता रहता हूं...
... दिन तो वही हैं...
हमारी सोच ही है प्रदूषण का शिकार हुई,
हमारे लोभ - लालच की है जिह्वा बढ़ गई,
वह ज़मीर को है हड़प  कर गई,
और आदमी के अंदर -बाहर गंदगी भर गई!
चुपचाप उज्ज्वल काया को मलिन कर गई!!



काश! वे दिन लौट आएं!
हम निश्चल हंसी हंस पाएं!!
इसके साथ ही, चाय पकौड़ी से ही प्रसन्न और संतुष्ट रहें।
अपने जीवन में छोटी-छोटी खुशियों का संचय करें।
जिंदगी की लहरों के साथ विचरकर स्वयं को संतुष्ट करें ।

  १८/०१/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
देश
अलगाव
नहीं चाहता ।

देश
विकास को
वरना है चाहता ।


कोई कोई
घटना दुर्घटना
गले की फांस बनकर
देश को तकलीफ़ है देती।
करने लगती
उसके विश्वास पर चोट ,
हर एक चेहरे पर
नज़र आने लगती खोट ।


देश
अलगाव
नहीं चाहता ।


देश
दुराव छिपाव
कतई नहीं चाहता।


काश !
देश के हर बाशिंदे का चेहरा
पाक साफ़ रह पाता ।
फिर कैसे नहीं
हरेक जीवात्मा
प्रसन्नता को वर पाती?
अपनी जड़ों और मंसूबों को समझ पाती ?


काश !
सबने देश की आकांक्षा,
अंतर्व्यथा को समझा होता
तो अलगाव का बखेड़ा
खड़ा ही न होता ।
देश में संतुलित विकास  होता ।

२६/०२/२०१७.
समय
कभी रुक नहीं सकता
वह मतवातर
गतिशील रहता है ,
यदि वह रुक जाए ,
तो जीवन में ठहराव आ जाए।
जीवन का क्रम नष्ट भ्रष्ट हो जाए!
इसलिए
समय कभी
रुकता नहीं,
रुक सकता नहीं।
वह चाहता है
प्रकृति की व्यवस्था को
रखना सही।

आदमी का जीवन में
रुक जाना असहनीय होता है,
रुके रहना जैसा अहसास
जीवन को बोझिल कर देता है,
यह जीव के भीतर
थकावट भर देता है।
उसका सारा उत्साह और उमंग
बिखर जाता है ।
आदमी समय में
शीघ्र विलीन हो जाता है।
यही वज़ह है कि
समय कभी रुकता नहीं ।
वह कभी झुकता नहीं ,
बेशक वह जीवन में
उतार चढ़ाव लाकर
गर्व के उन्माद में डूबे आदमी को
झुकने के लिए बाध्य कर दे !
आदमी का जीवन कष्ट साध्य कर दे !!

काश! समय ठहर पाए!
आदमी को चुनौतियों के लिए
तैयार कर
आगे की राह सुगम बना पाए।
समय बेशक ठहरता नहीं,
इसे जितना जीया जाए , उतना कम है।
इसे सलीके से जीना ही
समय को जानने जैसा अति उत्तम है !
समय का ठहराव महज एक दिशा भ्रम है !!
०४/०२/२०२५.
यदि आदमी कभी
अपनी जेहादी मानसिकता को भूल जाए ,
तो कितना अच्छा हो
उसका रोम रोम भीतर तक
कमल सा खिल जाए !
वह बगैर किसी कुंठा और तनाव के
जीवन पथ पर आगे बढ़ पाए !
कितना अच्छा हो
आदमी बस खुद को समझ जाए ,
तो उसका जीवन स्वयंमेव सुधर जाए।
वह निर्मलता का मूल जान जाए ।
वह मन की मलिनता को दूर कर पाए।
वह बाहर और भीतर के प्रदूषण से लड़ पाए।
वह जीवन में कुंदन बन जाए।
२१/०२/२०२४.
पिता पुत्र में
होता है
हमेशा प्यार
और अगाध विश्वास !
कभी कभी
इस हद तक
कि दोनों लगते
एक साथ ले रहे हैं श्वास !
पिता पुत्र के बीच
कभी कभी
होता  है विवाद !
लेकिन थोड़ी देर में
वे मतभेद भुला कर
जीवन यात्रा की बाबत
स्थापित कर लेते संवाद !

अभी अभी
मेरे पिता ने
मुझे एक बिस्किट दिया ,
जिसे मैंने लेने से मना किया।
वज़ह बस यही कि
आज मेरा व्रत है ,
मैने उन्हें याद दिलाया कि...!
वे सब समझ गए कि...!
... मैं एक बार अन्न ग्रहण कर चुका हूँ ,
बेशक ! मैं आज्ञा पालन में अभी चुका नहीं हूँ !
जीवन में कुछ सिद्धांतों से
निज को बांधना भी व्रत होता है!
पिता और पुत्र का रिश्ता
नेह और स्नेह के बंधनों से बंधा है ,
जिससे से जीवन का सन्मार्ग साधे सधा है ,
पिता पुत्र का पवित्र रिश्ता बना है।

सोचिए ज़रा ,
उन के बीच होता है
कितना प्यार ?
उन्हें एक दूसरे का हित
जीने का आधार लगता है।
इस सूत्र से बंधा उनका जीवन
धीरे धीरे मान मनव्वल के संग बढ़ता है।
17/03/2025.
आज किसान बेचारा नज़र आता है।
वह शोषण का शिकार बनाया जा रहा है।
ऐसा क्यों ? सोचिए , इस बाबत कुछ करिए ज़रा।
किसान कब तक बना रहेगा बेचारा और बेसहारा ?

उसकी मदद कैसे हो ?
उसकी लाचारी कैसे दूर हो ?
यदि उस की उपज खेत से
सीधे बाज़ार भाव पर खरीद ली जाए ?
और थोड़ा खर्चा करके उपभोक्ता से वसूल ली जाए
तो क्या हो ?
कम से कम किसान इससे सुखी रहेगा।
उपभोक्ता अपने द्वारा की गई
अनावश्यक भोजन की बर्बादी को रोक ले ,
तो यकीनन देश की आर्थिकता दृढ़ होगी।
किसान की चिंताएं धीरे धीरे खत्म होंगी।
इसके साथ ही भ्रष्टाचार में भी शनै: शनै: कमी होगी।
किसान की मदद
उपभोक्ता की सदाशयता से
बिना किसी तनाव ,दुराव ,छिपाव के की जा सकती है।
इस राह पर बढ़ कर ही किसान और समाज की तक़दीर
बदली जा सकती है।
संपन्नता,सुख , समृद्धि और सुविधाएं
बगैर किसी देरी किए खोजी जा सकती हैं।
१३/०३/२०२५.
यदि कोई अच्छा हो या बुरा ,
वह पूरा हो या आधा अधूरा।
उसे कोसना कतई ठीक नहीं ,
संभव है वह धूरा बने कभी।

हर जीव यहाँ धरा पर है कुछ विशेष
अच्छे के निमित्त,हुआ हो वह अवतरित।
हो सकता है वह अभी भटक रहा हो ,
उसे मंज़िल पर पहुंचाओ, करें पथ प्रदर्शित।

सब लक्ष्य सिद्धि को हासिल कर सकें ,
आओ , हम उनकी राह को आसान करें।
हम उनकी संभावना को सदैव टटोलते रहें ,
इसके लिए सब मतवातर प्रयास करते रहें।

किसी को कोसना और कुछ करने से से रोकना,
कदापि सही नहीं, हम प्रोत्साहित करें तो सही।
१४/०३/२०२५.
जीवन में
किसी से अपेक्षा रखना
ठीक नहीं,
यह है
अपने को ठगना।
यदि कोई आदमी
आपकी अपेक्षा पर
खरा उतरता नहीं है,
तो उसकी उपेक्षा करना,
है नितांत सही।
कभी कभी अपेक्षा
आदमी द्वारा
अचानक ही जब
जीवन की कसौटी पर
परखी जाती है
और यह सौ फीसदी
खरी उतरती नहीं है,
तब अपेक्षा उपेक्षा में बदल कर
मन के भीतर विक्षोभ
करती है उत्पन्न !
आदमी रह जाता सन्न !
वह महसूसता है स्वयं को विपन्न !
ऐसे में अनायास
उपेक्षा का जीवन में
हो जाता है प्रवेश!
जीवन पथ के
पग पग पर
होने लगता है कलह क्लेश !!

आदमी इस समय क्या करे ?
क्या वह निराशा में डूब जाए ?
नहीं ! वह अपना संतुलन बनाए रखे।
वह मतवातर खुद को तराशता जाए।
वह स्वयं को वश में करे !
वह उदास और हताश होने से बचे !
अपने इर्द गिर्द और आसपास से
हर्गिज़ हर्गिज़ उदासीन होने की
उसे जरूरत नहीं।
ऐसी किसी की कुव्वत नहीं कि
उसे उपेक्षा एक जिंदा शव में बदल दे ।
ऐसा होने से पहले ही आदमी अपने में
साहस और हिम्मत पैदा करे ,
वह अपनी आंतरिक मनोदशा को दृढ़ करे।
वह जीवन के उतार चढ़ावों और कठिनाइयों से न डरे।

अच्छा यही रहेगा कि वह कभी भी
अपेक्षा और उपेक्षा के पचड़ों में न ही पड़े ,
ताकि उसे ऐसी कोई अकल्पनीय समस्या
जीवन नदिया में बहते बहते झेलनी ही न पड़े।
मनुष्य को सदैव यह चाहिए कि
वह जीवन में किसी से भी
कभी कोई अपेक्षा न ही करे ,
जिससे समस्त मानवीय संबंध सुरक्षित रहें !
उसके सब संगी साथी जीवन की रणभूमि में डटे रहें !!
१५/०३/२०२५.
हे मन!
तुम कुछ अच्छा नहीं कर सकते
तो क्या हुआ ?
बुरा तो कर सकते हो ?
बस !
एक काम करना।
वह है !
हरेक बुरे काम के बाद
विष्णु का नाम लेना !
यहां तक कि
अपने परिवारजनों के नाम भी
विष्णु के सहस्रों नामों पर रखना !
अपने मित्रों और दुश्मनों के नाम भी
मन ही मन बदल देना ,
उनके नाम भी विष्णु जी के
प्रचलित नामों पर रखना!
और हां!
दिन रात उठते बैठते
चलते फिरते
सोते जागते
हरि हरि करना !
तब स्वयंमेव बदल जाओगे !
अपने को जान जाओगे !
हे मन !
तुम तम के समंदर को
लांघ जाओगे !
अपनी क्षुद्रताओं को
भस्मित कर पाओगे !
मन के गगन के ऊपर
स्वचेतना को हर पल
पुलकित होते पाओगे।
अपनी क्षमता को
जान जाओगे।
१३/०२/२०२५.
हमने अज्ञानता वश
कर दी है एक भारी भरकम भूल ,
जिस भूल ने
जाने अनजाने
चटा दी है बड़े बड़ों को धूल
और जो बनकर शूल
सबको मतवातर
बेचारगी का अहसास
करवा रही है ,
अंदर ही अंदर
हम सब को
कमजोर
करती जा रही है।

हमने
लोग क्या कहेंगे ,
जैसी क्षुद्रता में फंसे रहकर
जीवन के सच को
छुपा कर रखा हुआ है ,
अपने भीतर
अनिष्ट होने के डर को भर
स्वयं को
सहज होने से
रोक रखा है।
यही असहजता
हमें भटकाती रही है ,
दर दर की ठोकरें खाने को
करती रही है बाध्य ,
जीवन के सच को
छुपाना
सब पर भारी पड़ गया है !
यह बन गया है
एक रोग असाध्य !!
आदमी
आजतक हर पल
सच को झूठलाने की
व्यर्थ की दौड़ धूप
करता रहा है ,
वह
स्वयं को छलता रहा है ,
निज चेतना को
छलनी छलनी कर रहा है !
स्व दृष्टि में
गया गुजरा बना हुआ सा
इधर उधर डोल रहा है ,
चाहकर भी
मन की घुंडी खोल
नहीं  रहा है ,
वह
एक बेबस और बेचारगी भरा
जीवन बिता रहा है ,
और
अपने भीतर पछतावा
भरता जा रहा है।
अतः
यह जरूरी है कि वह
जीवन के
सच को  
बेझिझक
बेरोक टोक
स्वीकार करे ,
जीवन में छुपने छुपाने का खेल
खेलने से गुरेज करे।
वह
इर्द गिर्द फैली
जीवन की खुली किताब को
रहस्यमय बनाने से परहेज़ करे।
इसे सीधी-सादी ही रहने दे।
इसे अनावृत्त ही रहने दे।
ताकि
सब सरल हृदय बने रह कर
इसे पढ़ सकें ,
जीवन पथ पर
आगे बढ़ सकें।
आओ , इस की खातिर
सब चिंतन मनन करें।
जीवन में कुछ भी छिपाना ठीक नहीं,
ताकि हम अपनी नीयत को रख सकें सही।
०१/०४/२०२५.
यहाँ वहाँ सब जगह
कुछ लोग
अपनी बात
बेबाकी से रख
आग में घी
डालने का काम
बहुत सफाई से करते हैं।
ऐसे लोग
प्रायः सभी जगह मिलते हैं!
लोग भी
इनकी बातों का समर्थन
बढ़ चढ़ कर करते हैं।

उनके लिए
लोग बेशक
लड़ते झगड़ते रहें ,
पर वे अपनी बात पर
डटे रहते हैं!
ऐसे लोग
प्रायः जनता जर्नादन के
प्रिय बने रहते हैं!
कुछ लोग
बड़े प्यार और सहानुभूति से
दुखती रग को
सहला कर
सोए दुःख को जगा कर
अपने को अलग कर लेते हैं !
वे अच्छे और सच्चे बने रहते हैं !
उन्हें देख समझ कर
आईना भी शर्मिंदा हो जाता है,
परंतु कुछ लोग सहज ही
इस राह पर चल कर
दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करते हैं।
वे आँखों का तारा बने चमकते रहते हैं।

कुछ लोग
बात ही बात में
अपना उल्लू सीधा कर जाते हैं।
जब तक हकीकत सामने आती है,
वे सर्वस्व हड़प जाते हैं ,
चुपके से अराजकता फैला जाते हैं।
वे मुश्किल से व्यवस्था के काबू में आते हैं।

कुछ लोग
किसी असाध्य रोग से
कम नहीं होते हैं,
आजकल उनकी गिनती बढ़ती जा रही है,
व्यवस्था उनके चंगुल में फंसती जा रही है।
फिर कैसे जिन्दगी आगे बढ़े ?
या वह उन दबंगों से मतवातर डरती रहे ।
इस बाबत आप भी कभी अपने विचार प्रकट करें।
२१/०१/२०२५.
अचानक
अप्रत्याशित
कुदरत का कहर
जब तब , कभी टूटता है।
यह सबसे पहले
नास्तिक का गुरूर तोड़ता है।
आस्तिक फिर भी
दुःख के बावजूद
अपने मन को समझाता है।
वह जल्दी से
जीवन को
पुनर्व्यवस्थित
करने में जुट जाता है।
कुदरत के कहर को
सहने के अलावा
क्या हम सब के पास
कोई चारा है ?
आदमी तो बस बेचारा है !
है कि नहीं ?
जीवन में कुदरत से
तालमेल बनाकर चलो ,
ताकि कुदरत के
प्रकोप और कहर से बच सको।
२०/०४/२०२५.
कुर्सी का आकर्षण
कितना प्रबल होता है, यह कुर्सी पर काबिज़
मानुष अच्छे से जानता है,
वह इसे अपने पास रखने की खातिर
सच्चे पर लांछन लगाता है,
और जब सच्चा घायल पंछी सा तड़पता है,
वह ज़ोर आजमाइश के साथ साथ
करता है उपहास और अट्टहास!
परन्तु सच्चा कुछ भी नहीं कर पाता है,
वह अपना सा मुँह लेकर रह जाता है।
कुर्सी की चाहत में
इतिहास की किताबें
कत्ल ओ गैरत की अनगिनत कहानियां
कहती हैं ,
बड़ी मुश्किल से
संततियां इस ज़ुल्मो सितम को सहती हैं।
आज इस देश में
हरेक आम और ख़ास आदमी
कुर्सी का सताया है,
जब तक समझते समझते समझ आती है
सत्ता की अंदरूनी बात
तब तक आदर्शों का सफ़ाया
हो जाता है,
आदमी के हिस्से पछतावा आता है।
कुर्सी की चाहत
मनुष्य को दानव बना देती है,
वह अपने आदर्शों और सिद्धांतों को
भूल भालकर समझौता करने को
होता है बाध्य।
कुर्सी को साधना बड़ा कठिन होता है,
जिसे यह मिल जाए ,
वह इस से बंध जाता है।
फिर कुर्सी ही सगी हो जाती है ,
बाकी सब कुछ पराया और अप्रासंगिक हो जाता है।
इसे बनाए रखने की खातिर
आदमी शतरंजी चालें चलने में
होना चाहता माहिर,
इस के लिए स्वतः आदमी
दिन प्रति दिन होता जाता शातिर।
जब अंततः एक दिन
कुर्सी अपनी वफादारी बदलती है,
तब कुर्सी का न होना अखरता है,
यह भीतर तरह तरह के डर भर देती है,
तब जाँच का आतंक भी
मतवातर मन के भीतर दहशत भरता है,
यह अंतिम श्वास तक न केवल नींद हरता है ,
बल्कि यह आदमी को हैरान,परेशान,अवाक करता है।
फिर भी दुनिया भर में कुर्सी की चाहत बढ़ रही है।
वह आदमी को देश, दुनिया और समाज से बेदखल भी करती है।
आदमी आजकल कुर्सीदास हो गया है ,
जिसे मिले कुर्सी ,वह कोहिनूर सा अनमोल नजर आता है।
वहीं मानस आजकल सभी को भाता है।
नहीं जानते कुर्सी के प्रशंसक कि
कुर्सी का क्रूरता से अटूट नाता है।
यह किसी पर दया नहीं करती।
कुर्सी बेशक देखने में कोमल लगे ,
यह निर्णय लेते समय कठोरता की मांग करती है।
१८/०३/२०२५.
आदमी के पीछे
यदि कुंठा
किसी पिशाच सरीखी होकर
पड़ जाए तो आदमी
कहां जाए ?
उसे हरेक दिशा में
अंधेरा नज़र आए !
मन के भीतर
मतवातर
सन्नाटा पसरता जाए !!
कुंठित आदमी
अपने आसपास
नागफनी सरीखी
कांटेदार वनस्पति को
जाने अनजाने रोपता है।
उसका संगी साथी भी
भय के आवरण से भीतर तक
जकड़ा हुआ
उसे अत्याचार करने से
रोक नहीं पाता है।
वह अपार कष्ट सहता जाता है !
कभी मन की बात नहीं कह पाता है !!
मित्रवर ! जीवन को सहजता से जीयो।
असमय कुंठित होकर स्वयं को न डसो।
२९/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
हैं! मास्टर कुंदन जी चले गए।
अभी कल ही तो मिले थे,
उन्होंने चलते चलते हाथ हिलाया था,
मैं मोटरसाइकिल पर
अपने मित्र के साथ घर जा रहा था,
और मुझे थोड़ी जल्दी थी,
सो मैने भी
प्रतिक्रिया वश अपने हाथ को टाटा के अंदाज में
हिलाया था,
वे चिर परिचित अंदाज में मुस्कराए थे,
मैं भी अपने गंतव्य की ओर बढ़ गया था।

आज
ख़बर मिली,मास्टर जी
अपनी मंजिल की ओर चले गए,
दिल के दौरे से
उनका देहांत हुआ।

एक विचार पुंज शांत हुआ।
पर मेरा मन अशांत हुआ,
अब कर रहा मैं,
उन के लिए
परम से
अपने चरणों में लेने के लिए
अनुरोध भरी याचना ,
और दुआ भी
क्यों कि
वे सच्चे और अच्छे थे,
करते थे यथा शक्ति मदद ,
सही  में थे मेहरबान !
दुर्दिनों और संकट में
सहायता के साथ साथ
नेक और व्याहारिक सलाह भी दी थी।।

सोचता हूँ
उनकी बाबत तो यही  अंतर्ध्वनि
मन के भीतर से आती है
कि
मास्टर कुंदन लाल सचमुच गुदड़ी के लाल थे,
एक नेक और सच्चे इंसान थे,
सहकर्मियों और विद्यार्थियों की
हरपल मदद के लिए रहते थे तैयार।
और हां,वे मेरी तरह
बाइसाइकिल पर घूमने,
संवेदना को ढूंढने के शौकीन थे।
वे रंगीन दुनिया को
एक साधु की नजर से देखते थे, सचमुच वे प्रखर थे।
...और अखबार पढ़ने,तर्क सम्मत अपने विचार व्यक्त करने में
निष्णात।
इलाके में सादगी,मिलनसारिता के लिए विख्यात।
उन जैसा बनना बहुत कठिन है जी।
मस्त मौला मास्टर की तरह
ईमानदार और समझदार ,
अपने नाम कुंदन लाल के अनुरूप
वे सचमुच कुंदन थे ,
जो ऊर्जा,जिजीविषा,सद्भावना से भरपूर।
आज वे  हम सब से चले गए बहुत दूर,
ईश्वर का साक्षात्कार करने के लिए,
परम सत्ता से ढेर सारी बातें करने, और
दुनिया जहां की खबरें परमात्मा तक पहुंचाने के लिए।
वे सारी उमर सादा जीवन,उच्च  विचार, के आदर्श को
आत्मसात करते हुए अपना जीवन जी कर गए।
सब को अकेला छोड़ गए
आजकल संगम तट पर
बेहिसाब आस्था से महिमा मंडित
देश दुनिया से आए
श्रद्धालुओं ने डेरा डाला हुआ है ,
सब इस मंगल अवसर का
उठाना चाहते हैं लाभ
ताकि आत्मा को जागृत किया जा सके ,
अपने भीतर की मैल को
तन और मन से धोया जा सके।
निर्मल हृदय के साथ विश्व कल्याण
और सरबत का भला किया जा सके।
कभी देवताओं और दानवों ने
समुद्र मंथन किया था
परस्पर सहयोग करते हुए
और अमृत कलश पाया था।
वही अमृत तुल्य
आनंद रस सुलभ होने का
अनुपम अवसर आया है
सभी के लिए
प्रयागराज की पावन भूमि पर।


आप बेशक वहां सशरीर
उपस्थित नहीं हो सकते ,
पर यह तो संभव है कि
आप अपने घर पर
स्नान ध्यान करते हुए
इस पावन पर्व का
हृदय से स्मरण कीजिए ,
स्वयं को संतुलित रखने की
अपने अपने इष्टदेव से मंगल कामना कीजिए।
ऐसा करने भर से
आप को संगम स्नान का फल हो
जाता है प्राप्त।
सूक्ष्म रूप से
समस्त ब्रह्माण्ड
परस्पर एक परम चेतना से
जुड़ा हुआ है ,
इसलिए आप किसी भी
देश दुनिया के कोने में रहें ,
किसी भी मज़हब और संप्रदाय से संबंध रखते हों ,
सूक्ष्म रूप से
कहीं भी,
कभी भी,
किसी भी समय
कुंभ स्नान कर सकते हैं,
अपने को सुख समृद्धि और सम्पन्नता से
जोड़ सकते हैं,
आस्थावान बन सकते हैं।
स्वयं को परम चेतना का साक्षात्कार करवाने में
सफल हो सकते हैं।
नैर्मल्य प्राप्त कर सकते हैं।
15/01/2025.
देश दुनिया और समाज
खूब तरक्की कर रहा है,
अच्छी बात है
परन्तु चिंतनीय है कि
चारों तरफ़
गन्दगी के ढेर बढ़ रहे हैं,
लोग बीमार होकर
असमय मर रहे हैं।
हमें मुगालता है कि
हम विकास कर रहे हैं।
यह कभी नहीं सोच पाते कि
भीतर तक सड़ रहे हैं,
घुट घुट कर मर रहे हैं।

यही नहीं
आसपास फैला
कूड़ा कर्कट कचरा,
स्वास्थ्य के लिए बना है खतरा।
इस ओर हम अक्सर दे नहीं पाते ध्यान,
जब कोई हमारी आवाज़ नहीं सुनता,
भीतर तक होते परेशान।
चाहते कोई तो करे ,
परेशानियों का समाधान।
आओ हम सब मिलकर
कूड़ा कर्कट प्रबंधन से जुड़ें
ताकि बची रहें
सुख समृद्धि और सम्पन्नता की जड़ें,
सब सकारात्मक जीवन की ओर बढ़ें।

कूड़ा कर्कट प्रबंधन का
है एक सीधा सादा सरल तरीका,
हम अपनाएं जीवन में
सादगीपूर्ण जीवन जीने का सलीका।
हम कूड़ा कर्कट तत्क्षण समेट लें ,
कोई इसे आकर उठाएगा ,
आसपास साफ़ सुथरा बनाएगा।
हम करें न इसका इन्तज़ार,
हम स्वयं ही इसे यथास्थान पहुंचा दें।
यही नहीं, कूड़े कर्कट को भी उपयोगी बनाएं।
इसके लिए समुचित प्रोद्यौगिकी को अपनाएं।
इस सबसे बढ़कर हम
अपने मनोमस्तिष्क को
भूलकर भी कभी कूड़ा दान न बनाएं ,
ताकि आदमी को कचोटे न कभी कोई कमी।
हम सभी अपना ध्यान जीवन में
कूड़ा कर्कट प्रबंधन में लगाएं।
मतवातर
बढ़ता जा रहा
कूड़े कर्कट के ढेर
कभी जी का जंजाल न बन पाएं ,
आदमी कभी तो
सुख का सांस ले पाएं।
०१/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
जब सोचा मैंने
अचानक
विदूषक
अर्से से हंसी-मजाक नहीं कर रहा।
मैं बड़ी देर तक
उसकी इस मनोदशा को महसूस कर
बहुत बेचैन रहा।
वह जगत तमाशे से
अब तक क्यों दूर रहा ?
वह दुनियादारी के पचड़े में
अभी तक क्यों फंसा नहीं है ?


फिर भी
आज ही क्यों
उसकी हंसी हुई है गायब ।
जरूर कुछ गड़बड़झाला है!
क्या दुनिया के रंगमंच से
अपना यार
जो लुटाता रहा है सब पर प्यार,
रोनी सूरत के साथ प्यारा,सब से न्यारा
विदूषक प्रस्थान करने वाला है?

मैं जो भी उल जलूल, फिजूल
विदूषक की बाबत सोच रहा था।
मेरी कल्पना
कहीं से भी
सत्य के पास नहीं थी।
वह महज कपाल कल्पित रही होगी।
एकदम निराधार।

सच तो यह था कि
अचानक
विदूषक ने
खुद के बारे में सोचा,
मैं अर्से से हंसा नहीं हूं,

तभी पास ही
दीवार पर लटके दर्पण को
विदूषक के दर्प को
खंडित करने की युक्ति सूझी।
उसने विदूषक भाई से
हंसी ठिठोली करनी चाही।

सुना है
कि दर्पण व्यक्ति के
अंतर्वैयक्तिक भावों को पकड़ लेता है,
उसको कहीं गहरे से जकड़ लेता है।

यहीं
विदूषक खा गया मात।
दर्पण ने दिखला दी थी अपनी करामात।
उसके वह राज जान गया,
अतः विदूषक हुआ उदास।
और उसकी हंसी छीनी गई थी।


कृपया
विदूषक को हंसाइए।
उसके चेहरे पर मुस्कान लेकर आइए।
आप स्वयं एक विदूषक बन जाइए।
३१/०५/२०२०.
मुझे
वह हमेशा...
जो कोठे में बंदी जीवन
जी रही है
और
जो दिन में
अनगिनत बार बिकती है,
हर बार बिकने के साथ मरती है,
पल प्रतिपल सिसकती है
फिर भी
लोग कहते हैं
उसे इंगित कर ,
"मनमर्ज़ियां करती है।"
वह मुझे हमेशा से
अच्छी और सच्ची लगती है।
दुनिया बेवजह उस पर ताने कसती है।
जिसे नीचा दिखाने के लिए,
जिसे प्रताड़ित करने के लिए
दुनिया भर ने साज़िशों  को रचा है।
इस मंडी की निर्मिति की है,
जिसमें आदमजात की
सूरत और सीरत बसी है।

वह क्या कभी
किसी क्षण
भावावेगों में बहकर
सोचती है कि
मैं किस घड़ी
उस पत्थर से उल्फत कर बैठी ?
जिसने धोखे से बाज़ार दिया।
और इसके साथ साथ ही
सौगात में
पल पल , तिल तिल कर
भीतर ही भीतर
रिसने और सिसकने की
सज़ा दे डाली।
वह निर्मोही जीवन में
सुख भोगता होगा
और मैं उल्फत में कैद!
एक दुःख, पीड़ा, कष्ट और अजाब झेलती
उम्र कैदी बनी
रही हूं जीवन के
पिंजरे मे पड़ी हुई पछता।

कितना रीत चुकी हूं ,
इसका कोई हिसाब नहीं।
बहुतों के लिए आकर्षण रही हूं ,
भूली-बिसरी याद बनी हूं।
यह सोलह आने सच है कि
पल पल घुट घुट कर जीती हूं ,
दुनिया के लिए एकदम गई बीती हूं।

मेरा चाहने वाला ,
साथ ही बहकाने वाला
क्या कभी अपनी करनी पर
शर्मिंदा होता होगा ?
उसका भीतर
गुनाह का भार
समेटे व्यग्र और रोता होगा ?

शायद नहीं !
फिर वह ही क्यों
बनती रही है शिकार
मर्द के दंभ और दर्प की !

यह भी एक घिनौना सच है कि
आदिकाल से यह सिलसिला
चलता आया है।
जिसने बहुतों को भरमाया है
और कइयों को भटकाया है।
पता नहीं इस पर
कभी रोक लगेगी भी कि नहीं ?
यह सब सभ्य दुनिया के
अस्तित्व को झिंझोड़ पाएगा भी कि नहीं ?
उसके अंदर संवेदनशीलता
जगा भी पाएगा कि नहीं ?
यह जुल्मों सितम का कहर ढाता रहेगा।
सब कुछ को पत्थर बनाता रहेगा।
उन्होंने मुझे देना चाहा
नव वर्ष की शुभ कामनाओं के साथ
एक आकर्षक कैलेंडर
परंतु मैंने शुभ कामनाओं को
अपने पास संभाल कर रख लिया और
कैलेंडर विनम्रता से लौटा दिया।
वज़ह छोटी व साफ़ थी कि
कैलेंडर पर आराध्य प्रभु की छवि अंकित थी।
साल ख़त्म हुआ नहीं कि
कैलेंडर अनुपयोगी हुआ।
वह शीघ्र अतिशीघ्र कूड़े कचरे के हवाले हुआ।
यह संभव नहीं कि उसे फ्रेम करवा कर संभाला जाए।
फिर क्यों जाने अनजाने
अपने आराध्य देवियों और देवताओं का
अपमान किया जाए ?
अच्छा रहेगा कि कैलेंडरों पर
धार्मिक और आस्था के स्मृति चिन्हों को
प्रकाशित न किया जाए।
उन पर रंगीन पेड़ पौधे,पुष्प,पक्षी,पशु और
बहुत कुछ सार्थकता से भरपूर जीवन धारा को
इंगित करता मनमोहक दृश्वावलियों को छापा जाए।
जो जीवन की सार्थकता का अहसास करवाए ,
मन में मतवातर प्रसन्नता के भावों को जगाए ।
१६/०१/२०२५.
कभी कभी
कैलेंडर को
मज़ाक करने का
मौका हो
जाता है मयस्सर।
आदमी की गलती
बन जाया करती है
कैलेंडर के
मज़ाक करने का सबब।
आज शनिवार को
मुझे एकादशी का व्रत
पिछले महीने की तिथि के
अनुसार आधे दिन तक रखना पड़ा।
यह तो अचानक
श्रीमती ने फोन पर
एकादशी के
सोमवार को होने की
बाबत बताया।
मैं जब घर आया
तो दीवार पर टंगे
कैलेंडर पर
फरवरी के महीने वाला
पृष्ठ नजर आया,
जबकि महीना मार्च का
चल रहा था।
आज आठ मार्च है ,
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस।
मैं महीने के ख़त्म होने पर भी
अगले महीने को इंगित करने वाला
पृष्ठ पलट नहीं पाया था।
फलत: कैलेंडर को
मज़ाक करने का
मिल गया था अवसर
और मैं एकादशी होने के
भ्रम का शिकार।
घर पर सभी सदस्यों ने
कैलेंडर के संग
मुझे हँसी मज़ाक का
पात्र बनाया था।
मैं सचमुच खिसिया गया था।
०८/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
कैसी
नासमझी भरी
सियासत है यह।
भीड़ भरी
दुनिया के अंदर तक
जन साधारण को
महंगाई से भीतर ही भीतर
त्रस्त कर
भयभीत करो
इस हद तक कि
जिंदगी लगने लगे
एक हिरासत भर।


कैसी
नासमझी भरी
हकीकत है यह कि
विकास के साथ साथ
महंगाई का आना
निहायत जरूरी है।

कैसी
शतरंज के बिसात पर
अपना वजूद
जिंदा रखने की कश्मकश के
दौर में
नेता और अफसरशाही की
मूक सहमति से
गण तंत्र दिवस के अवसर पर
बस किराया
यकायक बढ़ा दिया जाता है।
आम आदमी को लगता है कि
उसकी आज़ादी को काबू में करने के लिए
उसकी आर्थिकता पर
अधिभार लगा दिया गया है।

शर्म ओ हया के पर्दे
सत्ता की दुल्हनिया सरीखे
झट से गिराने को तत्पर
नेतृत्व शक्तियां!
किश्तीनुमा टोपियां!!
धूमिल और उज्ज्वल पगडंडियां!!!
कुछ तो शर्म करो।
गणतंत्र के मौके पर
मंहगाई का तोहफ़ा तो न दो।
तोहफ़ा देना ही है
तो एक दिन आगे पीछे कर के दे दो!
ताकि टीस ज़्यादा तीव्र महसूस न हो।
महसूस करना,
शिद्दत से महसूस कराना,
एक अजब तोहफ़ा नहीं तो क्या है?
यहां सियासत के आगे सब सियाह है, स्वाह है जी!
Joginder Singh Dec 2024
महंगाई
अब जीवन शैली पर
बोझ बढ़ाती जा रही है !
जीवनयापन को
महंगा करती जा रही है।
आमदनी उतनी बढ़ी नहीं ,
जितने रोजमर्रा के खर्चे बढ़े ,
यह सब आदमी के अंदर
मतवातर
तनाव और चिन्ता बढ़ा रही है।
आदमी की सुख चैन नींद उड़ती जा रही है।

महंगाई
जीवन को और अधिक
महंगा न करे।
आओ इस की खातिर कुछ
प्रयास करें।
और इस के लिए
सभी अपने
वित्तीय साधनों को
बढ़ाएं ,
या फिर
अपने बढ़ते खर्चे
घटाएं ।


पूर्ववर्ती जीवन
सादा जीवन, उच्च विचार से
संचालित था
और अब फ़ैशन परस्ती का दौर है,
कर्ज़ लेकर, इच्छा पूर्ति की दौड़ लगी है,
भले ही मानसिक तौर पर होना पड़ जाए बीमार ।
इस भेड़चाल से कैसे मिलेगी निजात ?

अब एक यक्ष प्रश्न
सब के सामने
चुनौती बना हुआ है
कि कैसे महंगाई रुके ?
मांग और आपूर्ति में
कैसे संतुलन बना रहे ?
आदमी तनावरहित रहे!
उसकी औसत आय,उमर, कीमत बढ़े ।

अनावश्यक विकास जनक गतिविधियां
जनता और सरकारों पर बोझ बन जातीं हैं।
यह सब कर्ज़ के बूते ही संभव हो पाता है।
अगर कर्ज़ समय पर न लौटाया जाए
तो यह
सभी के लिए
जी का जंजाल बन जाता है !
सब कुछ सुख चैन,नींद, धन सम्पदा
कर्ज़े के दलदल में धंसता जाता है।
हर कोई /क्या आदमी/क्या देश/क्या प्रदेश
सब आत्मघात करते दिख पड़ते से लगते हैं ।
यह जीवन में चार्वाक दर्शन की
परिणिति ही तो है,
सब कुछ
वक़्त के भंवर में
खो रहा होता प्रतीत है।
यह हमारा अतीत नहीं ,
बल्कि वर्तमान है।
आज महंगाई ने
उठाया हुआ आसमान है!
इसके कारण कभी कभी तो
धराशाई हो जाता आत्मसम्मान है ,
जब व्यक्ति ही नहीं व्यवस्था तक को
मांगनी पड़ जाती है ,
सब इज़्ज़त मान सम्मान छोड़ कर
हर ऐरे गेरे नत्थू खैरे से भीख।
हमारा पड़ोसी देश, इस सबका बना हुआ है प्रतीक ।
क्या हम लेंगे
अपने पड़ोसी देशों में
घटते घटनाक्रम से
कुछ सीख ?
...या मांगते रहेंगे ...
दुनिया भर की अर्थ व्यवस्थाओं से भीख ?

आज
जहां प्रति व्यक्ति आय की
तुलना में
प्रति व्यक्ति कर्ज़
मतवातर बढ़ रहा है,
इस सब से अनजान आम आदमी
खास आदमी की निस्बत राहत महसूस करता है।
चलो कुछ तो विकास हो रहा है।
इसी बहाने कुछ लोगों को रोज़गार मिल रहा है।
वहीं कोई कोई संवेदनशील व्यक्ति
विकास की चकाचौंध और चमक दमक के बीच
खुद को ठगा महसूस करता है,
और हताशा निराशा के गर्त में जा गिरता है।
वह सोचता है रह रह कर
देश समाज पर कर्ज़ रहा है निरन्तर बढ़
कर्जे की बाढ़ और सुनामी
देश की अर्थ व्यवस्था को
विश्व बैंक और इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड की तरफ़
ले जा रही है,
ऐसे में
आम आदमी की चेतना क्यों सोती जा रही है ?
भला किसी को कर्ज़ जाल में फंसना कैसे भा सकता है ?

आज आम आदमी तक
अपने आसपास की चमक दमक में उलझ
ले रहा है सुख समृद्धि के मिथ्या स्वप्न।
यही नहीं
अपने इर्द गिर्द की देखा देखी
अधिक से अधिक कर्ज़ लेकर ,
इसे अनुत्पादक कामों पर खर्च कर
अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है,
अपने को अपंग और लाचार बना रहा है।

आज व्यक्ति हो
या फिर कोई भी साधन सम्पन्न देश
इस कर्ज़ के मकड़जाल ने पैदा किया हुआ है कलह क्लेश।
दुनिया भर में अराजकता का साम्राज्य कर रहा है विस्तार।
सभी कर्ज़ लें जरूर, मगर उसे लौटाएं भी,
अन्यथा कुछ भी नहीं रहेगा सही।
सब कुछ रेत के महल सा
वक़्त के साथ साथ ढेर होता जाएगा।
हरेक कर्ज़ लौटाना होता है,
वरना यह मर्ज़ बन कर
अंदर ही अंदर अर्थ व्यवस्था
और जीवन धारा को कमज़ोर करता रहता है।
एक दिन ऐसा भी आता है,
सब कुछ गिरवी रखना पड़ जाता है,
आदमी तो आदमी देश तक ग़ुलाम बन जाता है।


आज देश में कर्ज़ा माफ़ी की भेड़चाल है।
इसके लिए सारे राजनीतिक दलों ने
लोक लुभावन नीतियों के तहत
कर्ज़ माफ़ी को अपनाने के लिए
विपक्ष में रह कर बनाना शुरू किया हुआ है दबाव।
वे क्यों नहीं समझते कि
कोई भी देश,राज्य और व्यक्ति
अपनी आमदनी के स्रोतों पर कैसे लगा सकता है
रोक,प्रतिबंध,विराम!
यदि परिस्थितियों वश ऐसा होता है
तो क्या यह चिंतनीय और निंदनीय नहीं है ?
ऐसा होने पर
व्यक्ति ,देश और समाज में
अराजकता का होता हे प्रवेश।
यह सर्वस्व को
बदहाल और फटेहाल कर देती है ,
दुनिया इससे द्रवित नहीं होती ,
बल्कि वह इसे मनोरंजन के तौर पर लेती है,
वह खूब हँसी ठठ्ठा करती है।
वह जी भर कर उपहास, हास-परिहास करती है।

इससे देश दुनिया में
असंतोष को बढ़ावा मिलता है ,
बल्कि
देश , समाज , व्यक्ति की
स्वतंत्रता के आगे
प्रश्नचिह्न भी लगता है।
अराजकता के दौर में
महंगाई बेतहाशा बढ़ जाती है,
यह अर्थ व्यवस्था को अनियंत्रित करती है।

कभी-कभी यह
जीवन में
छद्मवेशी गुलामी का दौर
लेकर आती है,
ऐसे समय में
हरेक, आदमी और देश तक !
थके हारे, लाचार बने से
आते हैं नज़र  !
सब कुछ लगने लगता है
वीरान और बंजर  !!
अस्त व्यस्त और तहस नहस !!!
आज के जीवन में
क्या यह विपदा किसी को आती है नज़र?
लगता है कि  
नज़र हमारी हो गई है बेहद कमज़ोर !
यह आने वाले समय में
हमारा हश्र क्या होगा ?
इस बाबत , क्या ‌कभी बता पाएगी ?

आओ, हम सब मिलकर
महंगाई की आग को रोकें ,
न कि विकास के नाम पर
स्वयं को मूर्ख बनाएं।
एक दिन देश दुनिया को
अराजकता के मुहाने पर पहुंचाएं।
यह जोखिम हम कतई न उठाएं।
क्यों न आज  सभी अपने भीतर झांक पाएं ?
अपने अपने अनुभवों के अनुरूप
जीवन में
कुछ सार्थक दिशा में आगे बढ़ जाएं ।
आओ ,हम अपने सामर्थ्य अनुसार
महंगाई पर अंकुश लगाएं।
जीवन पथ पर
स्वाभाविक रूप से गतिमान रह पाएं।

१७/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
जीवन में
कोई कोई पल
बगैर कोई कोशिश किए
सुखद अहसास
बनकर आता है।
सच! इस पल
आदमी
अपने विगत के
कड़वे कसैले अनुभवों को
भूल पाता है।

यदि कभी अचानक
बेबसी का बोझ
किसी एक पल
अगर दिमाग से
निकल जाए
और
दिल अपने भीतर
हल्कापन
महसूस कर पाएं
तो आदमी
अधिक देर तक
तनाव से निर्मित वजन
नहीं सहता
बल्कि
उसे अपने जीवन में
जिजीविषा और ऊर्जा की
उपस्थिति होती है अनुभूत।
ऐसे में
जीवन एक खिले फूल सा
लगता है
और
कोई  कोई पल
अनपेक्षित वरदान सरीखा होकर
जीवन को
पुष्पित, पल्लवित और सुगंधित कर
ईश्वरीय अनुकंपा की
प्रतीति कराता है।
यह सब जब घटता है ,
तब जीवन
तनाव मुक्त हो जाता है
यही चिरप्रतीक्षित पल
जीवन में
आनंद और सार्थकता की
अनुभूति बन जाता है।

सभी को
अपने जीवन काल में
इन्हीं पलों के
जीवनोपहार का
इंतज़ार रहता है।
समय
मौन रहकर
इन्हीं पलों का
साक्षी बनता है।
इन्हीं पलों को याद कर
आदमी स्मृति पटल में
जीवन धारा को
जीवंतता से सज्जित करता है!
मतवातर जीवन पथ पर आगे बढ़ता है !!
२२/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
जब से
मैं भूल गया हूं
अपना मूल,
चुभ रहे हैं मुझे शूल ।

गिर रही है
मुझे पर
मतवातर
समय की धूल ।

अब
यौवन बीत चुका है,
भीतर से सब रीत गया है,
हाय ! यह जीवन बीत चला है,
लगता मैंने निज को छला है।
मित्र,
अब मैं सतत्
पछताता हूं,
कभी कभी तो
दिल बेचैन हो जाता है,
रह रह कर पिछली भूलों को
याद किया करता हूं,
खुद से लड़ा करता हूं।

अब हूं मैं एक बीमार भर ,
ढूंढ़ो बस एक तीमारदार,  
जो मुझे ढाढस देकर सुला दे!!
दुःख दर्द भरे अहसास भुला दे!!
या फिर मेरी जड़ता मिटा दे!!
भीतर दृढ़ इच्छाशक्ति जगा दे।!

८/५/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
मुझे
अपने पास
बुलाता रहता है
हर पल
कोई अजनबी।
वह मुझे लुभाता है,
पल प्रति पल देता है
प्रलोभन।

वह
मृत्यु को सम्मोहक बताता है,
अपनी गीतों और कविताओं में
मृत्यु  के नाद की कथा कहता है
और  अपने भीतर उन्माद जगाकर
करता रहता है भयभीत।

यह सच है कि
मुझे नहीं है मृत्यु से प्रीत
और कोई मुझे...
हर पल मथता है ,
समय की चक्की में दलता है।


कहीं जीवन यात्रा
यहीं कहीं जाए न ठहर
इस डर से लड़ने को बाध्य कर
कोई मुझे थकाया करता है।

दिन रात, सतत
अविराम चिंतन मनन कर
अंततः चिंता ग्रस्त कर
कोई मुझे जीवन के पार
ले जाना चाहता है।
इसलिए वह
वह रह रह कर मुझे बुलाता है ।

कभी-कभी
वह कई दिनों के लिए
मेरे ज़ेहन से ग़ायब हो जाता है।
वे दिन मेरे लिए
सुख-चैन ,आराम के होते हैं।
पर शीघ्र ही
वह वापसी कर
लौट आया करता है।
फिर से वह
मुझे आतंकित करता है ।


जब तक वह या फिर मैं
सचमुच नहीं होते बेघर ।
हमें जीवन मृत्यु के के बंधनों से
मिल नहीं जाता छुटकारा।
तब तक हम परस्पर घंटों लड़ते रहते हैं,
एक दूसरे को नीचा दिखाने का
हर संभव किया करते हैं प्रयास,
जब तक कोई एक मान नहीं लेता हार।
वह जब  तब
मुझे
देह और नेह  के बंधनों से
छुटकारे का प्रलोभन देकर
लुभाया करता है।

हाय !हाय!
कोई मुझ में
हर पल
मृत्यु का अहसास जगा कर

और
जीवन में  मोहपाश से बांधकर
उन्माद भरा  करता है ,
ज़िंदगी के प्रति
आकर्षण जगा कर ,
अपना वफादार बना कर ,
प्रीत का दीप जलाया करता है।
कोई अजनबी
अचानक से आकर
मुझे
जगाने के करता है  
मतवातर प्रयास
ताकि वह और मैं
लंबी सैर के लिए जा सकें ।
अपने को भीतर तक थका सकें।
जीवन की उलझनों को
अच्छे से सुलझा सकें।
  २२/०९/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
जब जेबें खाली हो गईं,
बैठे बैठे खाते रहे,
कमाया कुछ नहीं,
घरों में बदहाली आ गई,
तब आई
गाँव में रह रहे
सगे संबंधियों की याद।
सोचा, अपनों के पास जाकर ,
फरियाद करेगें ,
उधार के रूप में
मदद के लिए
अनुरोध करेंगे,
बंधु बांधवों के सम्मुख ।
चल पड़े जैसे तैसे पैदल
थके हारे, प्रभु आसरे,गिरते पड़ते,
एक के पीछीक सभी लोग,
तज के सारे लालच लोभ ।
बहुत सारे बीच मार्ग में
भूख और लाचारी,
लूटपाट, मारा मारी ,
धोखाधड़ी का बने शिकार ।
ऊपर से कोरोना का भय विकराल,
लगा कर रहे ताण्डव महाकालेश्वर
बाबा भोलेनाथ
सब की परीक्षा ले रहे,
क्रोध में हैं महाकाल।

देख दुर्दशा बहुतों की,
सुख सुविधा वंचित दिन हीनों की,
बहुतों की आँखों में अश्रु आए झर।
उन्होंने मदद हेतु हाथ बढ़ाए,
वे मानवता के सेतु बन पाए ।
देख, महसूस, दुर्दशा,उन सभी की,
बहुतों को रोना आ गया।
सोचते थे घड़ी घड़ी।
यह कैसा आपातकाल आ गया।
यह कैसा समय आ गया।
अकाल मृत्यु का अप्रत्याशित भय
उनकी संवेदना, सहृदयता,
सहयोग, सौहार्द,
सहानुभूति को खा गया।
सब सकते में थे।
यह कैसा समय आ गया।
अकाल मृत्यु का भय
सबके मनों में घर कर गया।मृत्यु का चला
अनवरत सिलसिला
बहुतों के रोजगार खा गया।
सामाजिक सुरक्षा की मज़बूत दीवारों को ढा गया।
रिश्तेदारों ने दुत्कार दिया।
सोचते थे सब तब
अब कैसे प्राप्त होगी सुरक्षा ढाल?
सब थे बेहाल,
बहुत से मजदूर वर्ग के
बंधु बांधव थे फटेहाल।
कौन रखेगा अब
आदमी और उसकी आदमियत का ख्याल ?

आज वह दौर बीत गया है।
बहुत कुछ सब में से रीत गया है।
अब भी
बहुल से लोग
कोरोना का दंश झेल रहे हैं।
उनकी आर्थिकता बिल्कुल चरमरा चुकी है,
अब भी  कभी कभी
बीमारी,लाचारी, हताशा, निराशा ,
उन्हें आत्महत्या के लिए बाध्य करती है,
कमज़ोर हो चुकी मानसिकता
आत्मघात के लिए उकसाती है।
अभी कुछ दिन पहले मेरे एक पड़ोसी ने
रात्रि तीन बजे करोना काल में आई बीमारी, कमज़ोरी के कारण कर लिया था आत्मघात ।
अब भी कभी कभी
पोस्ट कोरोना  का दुष्प्रभाव
देखने को मिल जाता है।
इसे महसूस कर
अब भी भीतर
भूकंपन सा होता है,
भीतर तक हृदय छलनी हो जाता है।

कोरोना महामारी अब भी जिंदा है,
बेशक आज इंसान,देश,दुनिया,समाज
इस महामारी से उभर चुका है।
मानवता  अभी भी शोकग्रस्त और पस्त है।
कोरोना काल में
बहुत से घरों में
जीवन का सूरज अस्त हुआ था,
वहाँ आज भी सन्नाटा पसरा हुआ है।
वहां बहुत कुछ बिखरा हुआ है,
जिसे समेटा नहीं जा सकता।
Joginder Singh Nov 2024
यह
नितांत सच है कि
कोशिश
जीवन की कशिश है।
कोशिश करते-करते
सभी एक दिन
कामयाब हो जाते हैं,
वे अपने भीतर
जीवन की कशिश
भर पाते हैं,
अपने सपने
साकार कर जाते हैं।

कोशिश में ही
जीवन की कशिश
है छुपी हुई।

कोशिश, मतवातर कोशिशें
हैं सब जिजीविषा का उत्स,
जो जीवन को एक उत्सव
तुल्य बनातीं हैं।

कोशिशों ने ही
जीवन रण में संघर्षों की गाथाएं रचीं हैं।
ये कोशिशें ही हैं, जिन्होंने
मानव के भीतर कशिश भरी है।
जो जीवन का केंद्र बिंदु बनी है।

तुम सतत् अथक कोशिशें करते रहो।
अपने व्यक्तित्व में कशिश पैदा करो।
कामयाबी की एक अनूठी कथा रचो।
सुख समृद्धि के पंखों से नित्य नूतन उड़ान भरो।

तुम कोशिशें कर, जीवन संघर्ष में कशिश उत्पन्न करो।
तुम अपने अस्तित्व को पूर्णरूपेण कर्मठता को सौंप दो।
  २८/०२/२०१७.
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