महंगाई
अब जीवन शैली पर
बोझ बढ़ाती जा रही है !
जीवनयापन को
महंगा करती जा रही है।
आमदनी उतनी बढ़ी नहीं ,
जितने रोजमर्रा के खर्चे बढ़े ,
यह सब आदमी के अंदर
मतवातर
तनाव और चिन्ता बढ़ा रही है।
आदमी की सुख चैन नींद उड़ती जा रही है।
महंगाई
जीवन को और अधिक
महंगा न करे।
आओ इस की खातिर कुछ
प्रयास करें।
और इस के लिए
सभी अपने
वित्तीय साधनों को
बढ़ाएं ,
या फिर
अपने बढ़ते खर्चे
घटाएं ।
पूर्ववर्ती जीवन
सादा जीवन, उच्च विचार से
संचालित था
और अब फ़ैशन परस्ती का दौर है,
कर्ज़ लेकर, इच्छा पूर्ति की दौड़ लगी है,
भले ही मानसिक तौर पर होना पड़ जाए बीमार ।
इस भेड़चाल से कैसे मिलेगी निजात ?
अब एक यक्ष प्रश्न
सब के सामने
चुनौती बना हुआ है
कि कैसे महंगाई रुके ?
मांग और आपूर्ति में
कैसे संतुलन बना रहे ?
आदमी तनावरहित रहे!
उसकी औसत आय,उमर, कीमत बढ़े ।
अनावश्यक विकास जनक गतिविधियां
जनता और सरकारों पर बोझ बन जातीं हैं।
यह सब कर्ज़ के बूते ही संभव हो पाता है।
अगर कर्ज़ समय पर न लौटाया जाए
तो यह
सभी के लिए
जी का जंजाल बन जाता है !
सब कुछ सुख चैन,नींद, धन सम्पदा
कर्ज़े के दलदल में धंसता जाता है।
हर कोई /क्या आदमी/क्या देश/क्या प्रदेश
सब आत्मघात करते दिख पड़ते से लगते हैं ।
यह जीवन में चार्वाक दर्शन की
परिणिति ही तो है,
सब कुछ
वक़्त के भंवर में
खो रहा होता प्रतीत है।
यह हमारा अतीत नहीं ,
बल्कि वर्तमान है।
आज महंगाई ने
उठाया हुआ आसमान है!
इसके कारण कभी कभी तो
धराशाई हो जाता आत्मसम्मान है ,
जब व्यक्ति ही नहीं व्यवस्था तक को
मांगनी पड़ जाती है ,
सब इज़्ज़त मान सम्मान छोड़ कर
हर ऐरे गेरे नत्थू खैरे से भीख।
हमारा पड़ोसी देश, इस सबका बना हुआ है प्रतीक ।
क्या हम लेंगे
अपने पड़ोसी देशों में
घटते घटनाक्रम से
कुछ सीख ?
...या मांगते रहेंगे ...
दुनिया भर की अर्थ व्यवस्थाओं से भीख ?
आज
जहां प्रति व्यक्ति आय की
तुलना में
प्रति व्यक्ति कर्ज़
मतवातर बढ़ रहा है,
इस सब से अनजान आम आदमी
खास आदमी की निस्बत राहत महसूस करता है।
चलो कुछ तो विकास हो रहा है।
इसी बहाने कुछ लोगों को रोज़गार मिल रहा है।
वहीं कोई कोई संवेदनशील व्यक्ति
विकास की चकाचौंध और चमक दमक के बीच
खुद को ठगा महसूस करता है,
और हताशा निराशा के गर्त में जा गिरता है।
वह सोचता है रह रह कर
देश समाज पर कर्ज़ रहा है निरन्तर बढ़
कर्जे की बाढ़ और सुनामी
देश की अर्थ व्यवस्था को
विश्व बैंक और इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड की तरफ़
ले जा रही है,
ऐसे में
आम आदमी की चेतना क्यों सोती जा रही है ?
भला किसी को कर्ज़ जाल में फंसना कैसे भा सकता है ?
आज आम आदमी तक
अपने आसपास की चमक दमक में उलझ
ले रहा है सुख समृद्धि के मिथ्या स्वप्न।
यही नहीं
अपने इर्द गिर्द की देखा देखी
अधिक से अधिक कर्ज़ लेकर ,
इसे अनुत्पादक कामों पर खर्च कर
अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है,
अपने को अपंग और लाचार बना रहा है।
आज व्यक्ति हो
या फिर कोई भी साधन सम्पन्न देश
इस कर्ज़ के मकड़जाल ने पैदा किया हुआ है कलह क्लेश।
दुनिया भर में अराजकता का साम्राज्य कर रहा है विस्तार।
सभी कर्ज़ लें जरूर, मगर उसे लौटाएं भी,
अन्यथा कुछ भी नहीं रहेगा सही।
सब कुछ रेत के महल सा
वक़्त के साथ साथ ढेर होता जाएगा।
हरेक कर्ज़ लौटाना होता है,
वरना यह मर्ज़ बन कर
अंदर ही अंदर अर्थ व्यवस्था
और जीवन धारा को कमज़ोर करता रहता है।
एक दिन ऐसा भी आता है,
सब कुछ गिरवी रखना पड़ जाता है,
आदमी तो आदमी देश तक ग़ुलाम बन जाता है।
आज देश में कर्ज़ा माफ़ी की भेड़चाल है।
इसके लिए सारे राजनीतिक दलों ने
लोक लुभावन नीतियों के तहत
कर्ज़ माफ़ी को अपनाने के लिए
विपक्ष में रह कर बनाना शुरू किया हुआ है दबाव।
वे क्यों नहीं समझते कि
कोई भी देश,राज्य और व्यक्ति
अपनी आमदनी के स्रोतों पर कैसे लगा सकता है
रोक,प्रतिबंध,विराम!
यदि परिस्थितियों वश ऐसा होता है
तो क्या यह चिंतनीय और निंदनीय नहीं है ?
ऐसा होने पर
व्यक्ति ,देश और समाज में
अराजकता का होता हे प्रवेश।
यह सर्वस्व को
बदहाल और फटेहाल कर देती है ,
दुनिया इससे द्रवित नहीं होती ,
बल्कि वह इसे मनोरंजन के तौर पर लेती है,
वह खूब हँसी ठठ्ठा करती है।
वह जी भर कर उपहास, हास-परिहास करती है।
इससे देश दुनिया में
असंतोष को बढ़ावा मिलता है ,
बल्कि
देश , समाज , व्यक्ति की
स्वतंत्रता के आगे
प्रश्नचिह्न भी लगता है।
अराजकता के दौर में
महंगाई बेतहाशा बढ़ जाती है,
यह अर्थ व्यवस्था को अनियंत्रित करती है।
कभी-कभी यह
जीवन में
छद्मवेशी गुलामी का दौर
लेकर आती है,
ऐसे समय में
हरेक, आदमी और देश तक !
थके हारे, लाचार बने से
आते हैं नज़र !
सब कुछ लगने लगता है
वीरान और बंजर !!
अस्त व्यस्त और तहस नहस !!!
आज के जीवन में
क्या यह विपदा किसी को आती है नज़र?
लगता है कि
नज़र हमारी हो गई है बेहद कमज़ोर !
यह आने वाले समय में
हमारा हश्र क्या होगा ?
इस बाबत , क्या कभी बता पाएगी ?
आओ, हम सब मिलकर
महंगाई की आग को रोकें ,
न कि विकास के नाम पर
स्वयं को मूर्ख बनाएं।
एक दिन देश दुनिया को
अराजकता के मुहाने पर पहुंचाएं।
यह जोखिम हम कतई न उठाएं।
क्यों न आज सभी अपने भीतर झांक पाएं ?
अपने अपने अनुभवों के अनुरूप
जीवन में
कुछ सार्थक दिशा में आगे बढ़ जाएं ।
आओ ,हम अपने सामर्थ्य अनुसार
महंगाई पर अंकुश लगाएं।
जीवन पथ पर
स्वाभाविक रूप से गतिमान रह पाएं।
१७/१२/२०२४.