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जीवन में  
सुख ढूंढते ढूंढते
जीव
उठाता है
दुःख ही दुःख ।

आखिरकार
जीव
छोटी-छोटी उपलब्धियों में
ढूंढ लेता है प्रसन्नता दायक सुख।

यह सुख देता है
कुछ समय तक
समृद्धि और सम्पन्नता का अहसास
फिर अचानक
निन्यानवे के फेर में पड़ कर
उठाने लगता है
कष्टप्रद ‌जीवन में
सुख की आस में
दुःख , दर्द , तकलीफ़
आखिरकार थक-हारकर
जब देने लगती
जीवन के द्वार पर
मृत्यु धीरे-धीरे दस्तक ,
जीवात्मा
झुका देती अपने समस्त
सुख और वैभव ‌भूल भाल कर
मृत्यु के सम्मुख
अपना मस्तक।
जब जीव
आखिर में
जीवन की उठकर पटक ,
भाग दौड़ को भूलकर
अपने मूल की ओर
लौटना है चाहता
मन में तीव्र चाहत उत्पन्न कर,
तब अचानक
अप्रत्याशित
जीवन में जीव के सम्मुख
होता है मृत्यु का आगमन।
ऐसे में
जीवात्मा
रह जाती चुप ,
वह ढूंढ लेती मृत्यु बोध में चरम सुख ,
समाप्त हो ही जाते तमाम दुःख दर्द।

मृत्यु का आगमन
जीवन को सार्थक करने वाला
एक क्षण होता है,
निर्थकता के बोध से लबालब भरा
जीवन शीघ्रातिशीघ्र
समाप्त होता है।
लगता है मानो कोई दीपक
अपना भरपूर प्रकाश फैला कर
गया हो अपने उद्गम की ओर लौट ,
और गया हो बुझ !
जीवन में और बहुत से
दीपकों को ज्योतिर्गमय कर ।

इस बाबत सोचता हूं तो रह जाता चुप।
आदमी सुख की नींद पाकर
पता नहीं कब सो जाता है ?
गूढ़ी नींद सोया ‌ही रहता है ,
जब तक मृत्यु आकर
जीवात्मा को यमलोक की सैर
कराने के लिए
नहीं जगाती।
मृत्यु का आगमन
जीवात्मा को निद्रा सुख से जगाना भर है ,
जीवन धारा अजर अमर है,
जन्म और मरण अलौकिक क्षण भर हैं ।
०३/०८/२००८.
जब से
सच ने अपना
बयान दिया है ,
तब से
दुनिया भर का रंग ढंग
बदल गया है ,
और ज्ञान का दायरा
सतत् बढ़ा है।

अभी अभी
मुझे हुआ है अहसास
कि यह सुविधा भोगी दुनिया
निपट अकेली रह गई है,
उसकी अकड़
समय के साथ बह गई है ।

मुझे हो चुका है बोध
कि दुनिया बाहर से कुछ ओर ,
भीतर से कुछ ओर ।
बाहर से जो देता है दिखाई ,
वह कभी कभी होता है निरा झूठ !
भीतर से जो देता है सुनाई
वह ही होता है सही और सौ फीसदी सच !!

पर
आजकल आदमी
चमक दमक के पीछे भाग रहा है ,
आत्मा को मारकर
धन और वैभव के आगे
नाच रहा है।

जब से
एक दिन
चुपके से
सच ने
अपनी जड़ों से जुड़कर
जीवन में आगे बढ़
यथार्थ को अनुभूत करने की बात कही है,
तब से मैं
खुद को एक बंधन से
बंधा पा रहा हूं ,
मैंने अपनी भूलें
और गलतियां सही की हैं ।

आजकल
मैं कशमकश में हूं ,
कुछ-कुछ असमंजस में पड़ा हुआ हूं ।

बात
यदि सच की मानूं ,
तो आगे दिख पड़ता है
एक अंधेरे से भरा कुंआ,
जिसमें कूद पड़ने का ख़्याल तक
जान देता है सुखा !
और
यदि
झूठ के भीतर रहकर
सुख समृद्धि संपन्नता का वरण करूं
तो दिख पड़ती खाई ,
जिसमें कूदने से लगता है भय
निस्संदेह इसका ख्याल आने तक से
होने लगती है घबराहट
पास आने लगती है मौत की परछाई !!
और जीवन पीछे छूटने की
आहट भी देने लगती है सुनाई !!

मन में कुछ साहस जुटा कर
कभी कभार सोचता हूं --
बात नहीं बनेगी क्रंदन से ,
जान बचेगी केवल आत्म मंथन से
सो अब सर्वप्रथम
स्वयं का
सच से नाता जोड़ना होगा।
इसके साथ ही
झूठ से निज अस्तित्व को
अलगाना होगा।
ताकि
जीवन में
प्रकाश और परछाई का खेल
निरंतर चलता रहे।
आत्म बोध भी समय को
अपने भीतर समाहित करना हुआ
चिरंतन चिंतन के संग
जीवन पथ पर अग्रसर होता रहे।
३०/०६/२००७.
महंगाई
अब जीवन शैली पर
बोझ बढ़ाती जा रही है !
जीवनयापन को
महंगा करती जा रही है।
आमदनी उतनी बढ़ी नहीं ,
जितने रोजमर्रा के खर्चे बढ़े ,
यह सब आदमी के अंदर
मतवातर
तनाव और चिन्ता बढ़ा रही है।
आदमी की सुख चैन नींद उड़ती जा रही है।

महंगाई
जीवन को और अधिक
महंगा न करे।
आओ इस की खातिर कुछ
प्रयास करें।
और इस के लिए
सभी अपने
वित्तीय साधनों को
बढ़ाएं ,
या फिर
अपने बढ़ते खर्चे
घटाएं ।


पूर्ववर्ती जीवन
सादा जीवन, उच्च विचार से
संचालित था
और अब फ़ैशन परस्ती का दौर है,
कर्ज़ लेकर, इच्छा पूर्ति की दौड़ लगी है,
भले ही मानसिक तौर पर होना पड़ जाए बीमार ।
इस भेड़चाल से कैसे मिलेगी निजात ?

अब एक यक्ष प्रश्न
सब के सामने
चुनौती बना हुआ है
कि कैसे महंगाई रुके ?
मांग और आपूर्ति में
कैसे संतुलन बना रहे ?
आदमी तनावरहित रहे!
उसकी औसत आय,उमर, कीमत बढ़े ।

अनावश्यक विकास जनक गतिविधियां
जनता और सरकारों पर बोझ बन जातीं हैं।
यह सब कर्ज़ के बूते ही संभव हो पाता है।
अगर कर्ज़ समय पर न लौटाया जाए
तो यह
सभी के लिए
जी का जंजाल बन जाता है !
सब कुछ सुख चैन,नींद, धन सम्पदा
कर्ज़े के दलदल में धंसता जाता है।
हर कोई /क्या आदमी/क्या देश/क्या प्रदेश
सब आत्मघात करते दिख पड़ते से लगते हैं ।
यह जीवन में चार्वाक दर्शन की
परिणिति ही तो है,
सब कुछ
वक़्त के भंवर में
खो रहा होता प्रतीत है।
यह हमारा अतीत नहीं ,
बल्कि वर्तमान है।
आज महंगाई ने
उठाया हुआ आसमान है!
इसके कारण कभी कभी तो
धराशाई हो जाता आत्मसम्मान है ,
जब व्यक्ति ही नहीं व्यवस्था तक को
मांगनी पड़ जाती है ,
सब इज़्ज़त मान सम्मान छोड़ कर
हर ऐरे गेरे नत्थू खैरे से भीख।
हमारा पड़ोसी देश, इस सबका बना हुआ है प्रतीक ।
क्या हम लेंगे
अपने पड़ोसी देशों में
घटते घटनाक्रम से
कुछ सीख ?
...या मांगते रहेंगे ...
दुनिया भर की अर्थ व्यवस्थाओं से भीख ?

आज
जहां प्रति व्यक्ति आय की
तुलना में
प्रति व्यक्ति कर्ज़
मतवातर बढ़ रहा है,
इस सब से अनजान आम आदमी
खास आदमी की निस्बत राहत महसूस करता है।
चलो कुछ तो विकास हो रहा है।
इसी बहाने कुछ लोगों को रोज़गार मिल रहा है।
वहीं कोई कोई संवेदनशील व्यक्ति
विकास की चकाचौंध और चमक दमक के बीच
खुद को ठगा महसूस करता है,
और हताशा निराशा के गर्त में जा गिरता है।
वह सोचता है रह रह कर
देश समाज पर कर्ज़ रहा है निरन्तर बढ़
कर्जे की बाढ़ और सुनामी
देश की अर्थ व्यवस्था को
विश्व बैंक और इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड की तरफ़
ले जा रही है,
ऐसे में
आम आदमी की चेतना क्यों सोती जा रही है ?
भला किसी को कर्ज़ जाल में फंसना कैसे भा सकता है ?

आज आम आदमी तक
अपने आसपास की चमक दमक में उलझ
ले रहा है सुख समृद्धि के मिथ्या स्वप्न।
यही नहीं
अपने इर्द गिर्द की देखा देखी
अधिक से अधिक कर्ज़ लेकर ,
इसे अनुत्पादक कामों पर खर्च कर
अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है,
अपने को अपंग और लाचार बना रहा है।

आज व्यक्ति हो
या फिर कोई भी साधन सम्पन्न देश
इस कर्ज़ के मकड़जाल ने पैदा किया हुआ है कलह क्लेश।
दुनिया भर में अराजकता का साम्राज्य कर रहा है विस्तार।
सभी कर्ज़ लें जरूर, मगर उसे लौटाएं भी,
अन्यथा कुछ भी नहीं रहेगा सही।
सब कुछ रेत के महल सा
वक़्त के साथ साथ ढेर होता जाएगा।
हरेक कर्ज़ लौटाना होता है,
वरना यह मर्ज़ बन कर
अंदर ही अंदर अर्थ व्यवस्था
और जीवन धारा को कमज़ोर करता रहता है।
एक दिन ऐसा भी आता है,
सब कुछ गिरवी रखना पड़ जाता है,
आदमी तो आदमी देश तक ग़ुलाम बन जाता है।


आज देश में कर्ज़ा माफ़ी की भेड़चाल है।
इसके लिए सारे राजनीतिक दलों ने
लोक लुभावन नीतियों के तहत
कर्ज़ माफ़ी को अपनाने के लिए
विपक्ष में रह कर बनाना शुरू किया हुआ है दबाव।
वे क्यों नहीं समझते कि
कोई भी देश,राज्य और व्यक्ति
अपनी आमदनी के स्रोतों पर कैसे लगा सकता है
रोक,प्रतिबंध,विराम!
यदि परिस्थितियों वश ऐसा होता है
तो क्या यह चिंतनीय और निंदनीय नहीं है ?
ऐसा होने पर
व्यक्ति ,देश और समाज में
अराजकता का होता हे प्रवेश।
यह सर्वस्व को
बदहाल और फटेहाल कर देती है ,
दुनिया इससे द्रवित नहीं होती ,
बल्कि वह इसे मनोरंजन के तौर पर लेती है,
वह खूब हँसी ठठ्ठा करती है।
वह जी भर कर उपहास, हास-परिहास करती है।

इससे देश दुनिया में
असंतोष को बढ़ावा मिलता है ,
बल्कि
देश , समाज , व्यक्ति की
स्वतंत्रता के आगे
प्रश्नचिह्न भी लगता है।
अराजकता के दौर में
महंगाई बेतहाशा बढ़ जाती है,
यह अर्थ व्यवस्था को अनियंत्रित करती है।

कभी-कभी यह
जीवन में
छद्मवेशी गुलामी का दौर
लेकर आती है,
ऐसे समय में
हरेक, आदमी और देश तक !
थके हारे, लाचार बने से
आते हैं नज़र  !
सब कुछ लगने लगता है
वीरान और बंजर  !!
अस्त व्यस्त और तहस नहस !!!
आज के जीवन में
क्या यह विपदा किसी को आती है नज़र?
लगता है कि  
नज़र हमारी हो गई है बेहद कमज़ोर !
यह आने वाले समय में
हमारा हश्र क्या होगा ?
इस बाबत , क्या ‌कभी बता पाएगी ?

आओ, हम सब मिलकर
महंगाई की आग को रोकें ,
न कि विकास के नाम पर
स्वयं को मूर्ख बनाएं।
एक दिन देश दुनिया को
अराजकता के मुहाने पर पहुंचाएं।
यह जोखिम हम कतई न उठाएं।
क्यों न आज  सभी अपने भीतर झांक पाएं ?
अपने अपने अनुभवों के अनुरूप
जीवन में
कुछ सार्थक दिशा में आगे बढ़ जाएं ।
आओ ,हम अपने सामर्थ्य अनुसार
महंगाई पर अंकुश लगाएं।
जीवन पथ पर
स्वाभाविक रूप से गतिमान रह पाएं।

१७/१२/२०२४.
As I entered in an archive of memories,
to search my lost peace of mind.

I heard a sound questioning to me ,
"Where has gone your generosity and kindness these days in life ? "

"Only you need to require the generosity in the life.
And only then you can revive your lost path of the life."

"So , be positive and kind
for attaining sound and strength of the mind ."

As I enter in an archive of memories ,
immediately I felt a strange change in my mind.
I thought " This archive has opened
all of sudden my past history of life."
To feel such an amazing experience ,
I thought , 'What a wonderful and amazing present I had received from the archive of memories. '
16/12/2024.
पूर्णरूपेण
अतिशयोक्ति पूर्ण
जीवन का क्लाइमैक्स
चल रहा है यहाँ !
ढूंढ़ भाई
जीवन में वक्रोक्ति ,
न कि जीवन में
अतिशयोक्ति पूर्ण
अभिव्यक्ति यहाँ ।

बड़े पर्दे वाली
फिल्मी इल्मी दुनिया में
अतिशयोक्ति पूर्ण
जीवन दिखाया जा रहा है।
जनसाधारण को
बहकाया जा रहा है यहाँ।

और
कभी कभी
जीवन
कवि से कहता
होता है प्रतीत...,
तुम अतीत में डूबे रहते हो,
कभी वर्तमान की भी
सुध बुध ले लिया करो।
अपनी वक्रोक्तियों  से न डरो।
ये तल्ख़ सच्चाइयों को बयान करतीं हैं।

अभी तो तुम्हें
महाकवि कबीरदास जी की
उलटबांसियों को आत्मसात करना है ,
फिर इन्हें सनातन के पीछे पड़े
षड्यंत्रकारियों को समझाना है।
तब कहीं जाकर उन्हें अहसास होगा
कि उनके जीवन में
आने वाली परेशानियों के
समाधान क्या क्या हैं?
जो उन्हें मतवातर भयभीत कर रहीं हैं !
बिना डकार लिए उनके अस्तित्व को
हज़्म और ज़ज्ब करतीं जा रहीं हैं !
उनका जीवन जीना असहज करतीं जा रहीं हैं!!

तुम उन्हें सब कुछ नहीं बताओगे।
उन्हें संकेत सूत्र देते हुए जगाना है।
तुम उन्हें क्या की बाबत ही बताओगे ।
क्यों भूल कर भी नहीं।
वे इतने प्रबुद्ध और चतुर हैं,
वे  ...क्यों ...की बाबत खुद ही जान लेंगे!
स्वयं ही क्यों के पीछे छुपी जिज्ञासा को जान लेंगे !
खोजते खोजते अपने ज़ख्मों पर मरहम लगा ही लेंगे!!

यह अतिशयोक्तिपूर्ण जीवन
किसी मिथ्या व भ्रामक
अनुभव से कम नहीं !
यहाँ कोई किसी से कम नहीं!!
जैसे ही मौका मिलता है,
छिपकलियाँ मच्छरों कीड़ों को हड़प कर जाती हैं।

यह अतिश्योक्ति पूर्ण जीवन
अब हमारे संबल है।
जैसे ही अपना मूल भूले नहीं कि देश दुनिया में
संभल जैसा घटनाक्रम घट जाता है।
आदमी हकीक़त जानकर भौंचक्का
और हक्का-बक्का रह जाता है।
बस! अक्लमंद की बुद्धि का कपाट
तक बंद हो जाता है।
देश और समाज हांफने, पछताने लगता है।
देश दुनिया के ताने सुनने को हो जाता है विवश।
कहीं पीछे छूट जाती है जीवन में कशिश और दबिश।

१३/१२/२०२४.
1d · 29
भक्ति
सुध बुध भूली ,
राम की हो ली ,
मन के भीतर
जब से सुनी ,
झंकार रे !
जीवन में बढ़ गया
अगाध विश्वास रे !
यह जीवन
अपने आप में
अद्भुत प्रभु का
श्रृंगार रे!

भोले इसे संवार रे!!
भक्त में श्रद्धा भरी
अपार  रे!
तुम्हें जाना है
भव सागर के पार
प्रभु आसरे रे!
बन जा अब परम का
दास रे!
काहे को होय
अधीर रे!
निज को अब बस
सुधार रे!
यह जीवन
एक कर्म स्थली है
बाकी सब मायाधारी का
चमत्कार रे!
कुछ कुछ एक व्यापार रे!!
2d · 27
हवस
नाभि दर्शना साड़ी पहने
कोई स्त्री देखकर ,
पुरुष का सभ्य होने का पाखंड
कभी कभी खंडित हो जाता है ।
उसकी लोलुपता
उसकी चेतना पर पड़ जाती है भारी।
यह एक वहम भर है या हवस भरी सामाजिक बीमारी ?
इसका फैसला उसे खुद करना है।
उसे कभी तो भटकन के बाद शुचिता को वरना है।
१६/१२/२०२४.
ਸੁਖ ਦੇ ਦਿਨਾਂ ਵਿੱਚ ਲਿਖੀ ਕਵਿਤਾ
ਬਹੁਤ ਕੋਮਲ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ,
ਪਰ ਜਦੋਂ ਕਵਿਤਾ ਰਚੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ,
ਭੁੱਖ ਤੇ ਸੰਘਰਸ਼ ਦੇ ਦਿਨਾਂ ਵਿੱਚ
ਉਦੋਂ ਕਵਿਤਾ ਡੂੰਘੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ।
ਇਹ ਸਾਨੂੰ ਲਗਾਤਾਰ ਸੰਘਰਸ਼ ਕਰਨ ਦੀ
ਪ੍ਰੇਰਨਾ ਦਿੰਦੀ ਰਹਿੰਦੀ ਹੈ ,
ਹਮੇਸ਼ਾ ਚੜ੍ਹਦੀ ਕਲਾ ਵਿੱਚ ਰੱਖਦੀ ਹੈ।

ਕਹਿੰਦਾ ਹੈ ਸਮਾਂ ,
ਜਦੋਂ ਵੀ ਕਵਿਤਾ
ਭੁੱਖ ਤੇ ਦੁੱਖ ਦੀ ਕੁੱਖੋਂ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦੀ ਹੈ,
ਉਦੋਂ ਉਦੋਂ ਕਵਿਤਾ
ਮਜ਼ਲੂਮ ਤੇ ਨਿਮਾਣਿਆਂ ਵਿੱਚ
ਸੰਘਰਸ਼ ਕਰਨ ਤੇ ਜੂਝਣ ਦੀ
ਸਮਰਥਾ ਪੈਦਾ ਕਰਦੀ ਹੈ।

ਵੇਖਿਓ ਇੱਕ ਦਿਨ ਇਹ ਕਵਿਤਾ
ਭੁਖ ਤੇ ਬਦਹਾਲੀ ਨੂੰ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚੋਂ ਕੱਢਣ ਲਈ
ਪ੍ਰੇਰਨਾ ਬਣਦੀ ਰਹੇਗੀ ।
ਇਹ ਹਰੇਕ ਦੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦੇ ਦੁਖ ਦਰਦਾਂ ਨੂੰ ਹਰੇਗੀ ।
ਇਸ ਸਮੇਂ ਸਮੇਂ ਤੇ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਅਗੁਵਾਈ ਵੀ ਕਰੇਗੀ।

ਇਹ ਸਭ ਕਹਿੰਦਾ ਹੈ ਸਮਾਂ,
ਨਾਲ ਹੀ ਉਹ ਮੰਗ ਲੈਂਦਾ ਹੈ ਸਭਨਾਂ ਤੋਂ ਖਿਮਾ ।

ਅੱਜ ਕੱਲ ਦੇ ਸਮੇਂ ਵਿੱਚ
ਸਮੇਂ ਵੀ ਸੋਚ ਸਮਝ ਕੇ ਬੋਲਦਾ ਹੈ,
ਉਹ ਆਪਣੇ ਮਨ ਦੀਆਂ ਘੁੰਡੀਆਂ
ਕਦੇ ਕਦੇ ਹੀ ਖੋਲ੍ਹਣਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹੈ।
16/12/2024.
The future is
knocking at your door
to open the window of a mesmerizing
wonderful world.
But you have engaged yourself in the deep sleep.
It seems me you are in the grip of a horrible dream.
Be awake and aware
the present is the right time to achieve for the betterment of the life.
Nothing is impossible and beyond your reach and access.
Be become a self sufficient and successful person in this  life span.

The future is waiting for your initiatives to execute your plans in forthcoming life.
That is why , he wants to address you.
And you are merely lost in your ambitious life style and dreams.
Awake as soon as possible.
Nothing is impossible in the battlefield of life to achieve or self deceive.
आज  भी ,
कल  भी  ,  और  आगे भी
समाज  में  आग  लगी  रहेगी  न  !
हमारे  यहां  के  समय   में
समाजवाद  का  हो   चुका  है   आगमन  !
दमन  ,  वमन  ,  रमन  , चमन , गबन  और  गमन
आदि  सब  अपने  अपने  काम  धंधों  में  मग्न !
यदि   कोई  निठल्ला बैठा  है  तो  वह  है...
परिवेश  का  कोलाज ,
जो  समाज  और  समाजवादी  रंग  रूप
पर  रह  रह  कर
कहना  चाहता  है   अपवाद   स्वरूप  
कुछ मन के उद्गार!
आप के सम्मुख
रखना चाहता है मन की बात।
सुनिए   इस   बाबत  
आसपास   से   उठनेवाली  कुछ  ध्वनियां  !!

' निजता ' ,
' इज़्ज़त '  गईं   अब   तेल   लेने  !
ये  तो  बड़े  लोगों  की
बांदियां  हैं
और
छोटे-छोटे   लोगों   के   लिए
बर्बादियां  हैं   !!

अब   कहीं   भी   और   कभी   भी
निजता  बचनी   नहीं   चाहिए  ।
कहीं  कोई  इज़्ज़त   करनी  और   इज़्ज़त ‌  करवाने  की
परिपाटी   व  परम्परा   नहीं   होनी   चाहिए  ।


हर   घर   में   रोटी   पानी   चाहिए  ।
ज़िंदगी   में  अमन  चैन   बची  रहनी   चाहिए  ।
जीवन   अपनी   रफ्तार   और   शर्तों  से  
आगे   बढ़ना   चाहिए  ।
जी  भरकर  मनमर्ज़ियां  और  मनमानियां  की  
जानी   चाहिएं  ।
ज़िंदगी   खुलकर  जीनी   चाहिए  ।

अब   समाजवाद   आ   ही  जाएगा  ।
हर  कोई  समाजवादी  बन  ही  जाएगा  ।
जीवन   से  अज्ञानता  का  अंधेरा   छंट  ही  जाएगा  ।

कहीं  गहरे  से  एक  आगाह  करती
अंतर्ध्वनि  सुन  पड़ती  है ...,
'  वह  तो  आया  हुआ  है  जी  ! '
अब   उसे   मैं    क्या   कहूं    ?
रोऊं  या  हंसते हंसते रो पडूं ?

१६/१२/२०२४.
बेकार की बहस
मन का करार लेती छीन
यह कर देती सुख समृद्धि,
धन संपदा को
तहस नहस।
अच्छा रहेगा
बेकार की बहस से
बचा जाए ,
सार्थक दिशा में आगे बढ़ा जाए।
क्यों न बंधुवर!
आज
जीवन धारा को
तर्कों की तुला पर
तोलते हुए
चंचल मन को
मनमर्ज़ियां करने से
रोकते हुए
जीवन खुलकर
जिया जाए
और
स्वयं को
सार्थक कार्यों में
लगाया जाए।

आज मन
सुख समृद्धि का
आकांक्षी है ,
क्यों न इसकी खातिर
ज़िंदगी की किताब को
सलीके से पढ़ा जाए
और
अपने को
आकर्षण भरपूर
बनाए रखने के निमित्त
स्वयं को
फिर से गढ़ा जाए ,
बेकार की बहस के
पचड़े में फंसने से,
जीवन को नरक तुल्य बनाने से
खुद को बचाया जाए।

आज आदमी अपने को
सत्कर्मों में लीन कर लें
ताकि इसी जीवन में
एक खुली खिड़की बनाई जाए,
जिसके माध्यम से
आदमी के भीतर
जीवन सौंदर्य को
निहारने के निमित्त
उमंग तरंग जगाई जाए।

आओ,आज बेकार की बहस से बचा जाए।
तन और मन को अशांत होने से बचाया जाए।
जीवन धारा को स्वाभाविक परिणति तक पहुंचाया जाए। आदमी को अभिव्यक्ति सम्पन्नता से युक्त किया जाए ।

मित्रवर!
बहस से बच सकता है तो बहसबाजी न ही कर।
बहस से तन और मन के भीतर वाहियात डर कर जाते घर।
१५/१२/२०२४.
अच्छा खासा आदमी था,
रास्ता भटक गया।
बहुत देर बाद
मुंह में निवाला पाया था ,
गले में अटक गया ।

थोड़ी तकलीफ़ हुई ,
कुछ देर खांसी हुई ,
फिर सब कुछ शांत हुआ,
अच्छा खासा आदमी परेशान हुआ।
समय बीतते बीतते
थोड़ा पानी पीने के बाद
अटका निवाला
पेट के भीतर ले जाने में सक्षम हुआ ,
तब कहीं जाकर कुछ आराम मिला।
अपनी भटकन
और छाती में जकड़न से  
थोड़ी राहत मिली,
दर्द कुछ कम हुआ,
धीरे-धीरे
मन शांत हुआ, तन को भी सुख मिला।
अपनी खाने पीने की जल्दबाजी से
पहले पहल लगा कि
अब जीवन में पूर्ण विराम लगा,
जैसे मदारी का खेल  
खनखनाते सिक्कों को पाने के साथ बंद हुआ।


अच्छा खासा आदमी था
ज़िंदगी को जुआ समझ कर  खेल गया।
मुझ कुछ पल के लिए
जीवन रुक गया सा लगा,
अपनी हार को स्वीकार करना पड़ा,
इस बेबसी के अहसास के साथ
बहुत देर बाद
निवाला निगला गया था।

अपनी बर्बादी के इस मंजर को देख और महसूस कर
निवाला गले में अटका रह गया था।
सच! उस पल थूक गटक गया था ,
पर ठीक अगले ही पल
भीतर मेरे
शर्मिंदगी का अहसास
भरा गया था।
बाल बाल बचने का अहसास
भीतर एक कीड़े सा कुलबुला रहा था।
मैं बड़ी देर तक अशांत रहा था।
१६/०६/२००७.
झूठ बोलने से पहले
थोड़ा थूक गटक गया
तो क्या बुरा किया ?
कम से कम
मैं एक क्षण के लिए
सच को तो जिया।

यह अलग बात रही--
जिसके खिलाफ
अपने इस सच का
पैंतरा फैंका था ,
वह अपनी अक्लमंदी से बरी हुआ,
मुझे अक्लबंद सिद्ध कर विजयी रहा।


सच्ची झूठी इस दुनिया में
आते हैं बेहिसाब उतार चढ़ाव
आदमी रखे एक अहम हिसाब--
किस राह पर है समय का बहाव ?
जिसने यह सीख लिया
उसने जीवन की सार्थकता को समझ लिया।
उसने ही जीवन को भरपूर शिद्दत से जिया।
और इस जीवन घट में आनंद भर लिया।
१६/०६/२०१७.
आतंक
आग सा बनकर
बाहर ही नहीं
भीतर भी बसता है ,
बशर्ते
आप उसे  
समय रहते
सकें पकड़
ताकि
शांति के
तमाम रास्ते
सदैव खुले रहें ।

आतंक
हमेशा
एक अप्रत्याशित
घटनाक्रम बनकर
जन गण में
भय और उत्तेजना भरकर
दिखाता रहा है
अपनी मौजूदगी का असर ।

पर
जीवन का
एक सच यह भी है कि
समय पर लिए गए निर्णय ,
किया गया
मानवीय जिजीविषा की खातिर संघर्ष ,
शासन-प्रशासन
और जनसाधारण का विवेक
आतंकी गतिविधियों को
कर देते हैं बेअसर ,
बल्कि
ये आतंकित करने वाले
दुस्साहसिक दुष्कृत्यों को
निरुत्साहित करने में रहते हैं सफल।
ये न केवल जीवन धारा में
अवरोध उत्पन्न करने से रोकते हैं,
अपितु विकास के पहियों को
सार्थक दिशा में मोड़ते हैं।
अंततः
कर्मठता के बल पर
आतंक के बदरंगों को
और ज्यादा फैलने से रोकते हैं।


दोस्त,
अब आतंक से मुक्ति की बाबत सोच ,
इससे तो कतई न डरा कर
बस समय समय पर
अपने भीतर व्याप्त उपद्रवी की
खबर जरूर नियमित अंतराल पर ले लिया कर ,
ताकि जीवन के इर्द-गिर्द
विष वृक्ष जमा न सकें
कभी भी अपनी जड़ों को ।

और
किसी आंधी तूफ़ान के बगैर
मानसजात को
सुरक्षा का अहसास कराने वाला
जीवन का वटवृक्ष
हम सब का संबल बना रहे ,
यह टिका रहे , कभी न उखड़े !
न ही कभी कोई
दुनिया भर का
गांव ,शहर , कस्बा,देश , विदेश उजड़े।
न ही किसी को
निर्वासित होकर
अपना घर बार छोड़ने को
बाधित होना पड़े ।
१६/०६/२००७.
दैत्यों से अकेली
लड़ सकती है देवी ।
उसे न समझो कमज़ोर।
जब सभी ओर से
दैत्य उस पर
अपनी क्रूरता
प्रदर्शित करते से
टूट पड़ें ,
तब क्या वह बिना संघर्ष किए
आत्मसमपर्ण  कर दे ?
आप ही बताइए
क्या वह अबला कहलाती रहे ?
अन्याय सहती रहे ?
भीतर तक भयभीत रहे ?
दैत्यों की ताकत से
थर थर थर्राहट लिए
रहे कांपती ... थर थर
बाहर भीतर तक जाए डर ।
और समर्पण कर दे
निज अस्तित्व को
अत्याचारियों के सम्मुख ।
वह भी तो स्वाभिमानिनी है !
अपने हित अहित के बारे में
कर सकती है सोच विचार ,
चिंतन मनन और मंथन तक।
वह कर ले अपनी जीवन धारा को मैली !
कलंकित कर ले अपना उज्ज्वल वर्तमान!
फिर कैसे रह पाएगा सुरक्षित आत्म सम्मान ?

वह अबला नहीं है।
भीरू मानसिकता ने
उसे वर्जनाओं की बेड़ियों में जकड़
कमज़ोर दिखाने की साजिशें रची हैं।
आज वह
अपने इर्द गिर्द व्याप्त
दैत्यों को
समाप्त करने में है
सक्षम और समर्थ।
बिना संघर्ष जीवनयापन करना व्यर्थ !
इसलिए वे
सतत जीवन में
कर रही हैं
संघर्ष ,
जीवन में कई कई मोर्चों पर जूझती हुईं ।
वे चाहतीं हैं जीवन में उत्कर्ष!!
वे सिद्ध करना चाहतीं हैं  स्वयं को उत्कृष्ट!!
उनकी जीवन दृष्टि है आज स्पष्ट!!
भले ही यह क्षणिक जीवन जाए बिखर ।
यह क्षण भंगुर तन और मन भी
चल पड़े बिखराव की राह पर !

देवी का आदिकालीन संघर्ष
सदैव चलता रहता है सतत!
बगैर परवाह किए विघ्न और बाधाओं के!
प्रगति पथ पर बढ़ते जीवनोत्कर्ष के दौर में ,
रक्त बीज सरीखे दैत्यों का
जन्मते रहना
एकदम प्राकृतिक ,
सहज स्वाभाविक है।
यह दैवीय संघर्ष युग युग से जारी है।
१६/०६/२००७.
जब-जब युग
युगल गीत गुनगुनाना
चाहता है
लेकर अपने संग
जनता जनार्दन की उमंग तरंग ,
तब तब
मन का
बावरा पंछी
उन्मुक्त गगन का
ओर छोर
पाना चाहता है !
पर...
वह उड़ नहीं पाता है
और अपने को भीतर तक
भग्न पाता है।

और
यह मसखरा
उन्हें  उनकी  
नियति व बेबसी की
प्रतीति कराने के निमित्त
प्रतिक्रिया वश अकेले ही
शुगलगीत
गाता है,
मतवातर
अपने में डूबना
चाहता है !!

पर
कोई उसे
अपने में डूबने तो दे!
अपने अंतर्करण को
ढूंढने तो दे !
कोई उसे
नख से शिख तक
प्रदूषित न करे !!

२५/०४/२०१०.
आजकल  
ठंड का ज़ोर है
और
काया होती जा रही
कमज़ोर है।

मैं सर्दी में
गर्मी की बाबत
सोच रहा हूँ ।
हीट कनवर्टर
दे रहा है गर्म हवा की सौगात!
यही गर्म हवा
गर्मी में
देती है तन और मन को झुलसा।
उस समय सोचता था
गर्मी ले ले जल्दी से विदा ,
सर्दी आए तो बस इस लू से राहत मिले,
धूल और मिट्टी घट्टे से छुटकारा मिले।

अब सर्दी का मौसम है,
दिन में धूप का मज़ा है
और रात की ठिठुरन देती लगती अब  सज़ा है।
धुंध का आगाज़ जब होता है,
पहले पहल सब कुछ अच्छा लगता है,
फिर यकायक
उदासी मन पर
छा जाती है,
यह अपना घर
देह में बनाती जाती है।
गर्मी के इंतजार में
सर्दी बीतने की चाहत मन में बढ़ जाती है।

मुझे गर्म हवाओं का है इंतज़ार
मैं मिराज देखना चाहता हूँ ,
जब तपती सड़क
दूर कहीं
पानी होने की प्रतीति कराती है,
पास जाने पर  
पानी से दूरी  बढ़ती जाती है।
अपने हिस्से तो
बस
मृगतृष्णा ही आती है।
यह जीवन
इच्छाओं की
मृग मरीचिका से
जूझते जूझते रहा है बीत ।
मन के भीतर बढ़ती जा रही है खीझ।

१४/१२/२०२४.
तन समर्पण,
मन समर्पण,
धन समर्पण,
सर्वस्व समर्पण,
वह भी  
अहंकार को
पालित पोषित करने के निमित्त
फिर कैसे रहेगा शांत चित्त ?
आप करेंगे क्या कभी
अंधाधुंध अंध श्रद्धा को
समर्पित होने का समर्थन ?
समर्पण
होना ‌चाहिए , वह भी
जीवन में गुणवत्ता बढ़ाने के निमित्त।
जिससे सधे
सभी के पुरुषार्थी बनने से
जुड़े सर्वस्व
समर्पण के हित।

अहम् को समर्पण
अहंकार बढ़ाता है ,
क्यों नहीं मानस अपने को
पूर्ण रूपेण जीवन की गरिमा के लिए
समर्पित कर पाता है ?
वह अपने को बिखराव की राह पर
क्यों ले जाना चाहता है ?
वह अपने स्व पर नियंत्रण
क्यों नहीं रख पाता है ?
आजकल  ऐसे यक्ष प्रश्नों से
आज का आदमी
क्यों  जूझना नहीं चाहता है ?
वह स्वार्थ से ऊपर उठकर
क्यों नहीं आत्मविकास के
पथ को अपनाता है ?
१४/१२/२०२४.
4d · 40
Sometimes
Sometimes
natural intelligence
behaves like AI
in emergency only!
It brings a break down during sleep
to take care of diseased family member
or
to watch at midnight
surroundings !
It is ok .
You can keep continue to 💤 💤 💤 sleep!
Now you can enjoy your sound sleep!
Natural intelligence wishes sometimes ....very....very....good...and.....happy good morning !! 🌄 🌞!!
Ha! Ha !! Ha !!!
Performance is utmost important in life.
It plays a vital role in a country 's economic development and stability.
To achieve such realistic and imaginary targets, you must show the ability to absorb tensions and restlessness in the fast changing lives of common country men.
For this  you must learn yourself to read your worker's psychology and needs.
Never put yourself in an adversive circumstances in life while dealing with your subordinates and staff.

Whatever they say regarding the working atmosphere, you have no need to react, only listen their difficulties carefully.

They have right to express their problems .

Respect their attitudes
towards their lives.
You have no need to fear ,and also haven't any way to criticize them.
They are working day and night to achieve targets set by employers.

You have also need to perform in real life.
Be a performer in life like them to attain rhythm in our financial activities.
Here accountability is highly required for all of us to handle our lives.
Otherwise we are living in a topsy turvey  and merciless world.
The presentation
without preparation
always brings humiliation in life.
So , one must observe and understand
the sequence of life 's activities minutely.

Remember and consider it seriously in one's life ,
brother !
Humiliation always
Compels us to cry.

So, let us prepare ourselves first.
Then we can present ourselves with ease and naturally.
If we take the life 's matter lightly,
we put ourselves in a state of perplexing and harmful situation.
In such a miserable postion, people always try to humiliate and tease our existence.

So dear friend,
present yourself humbly in life.
If you are capable to implement this suggestion in life.
Then , people around you , will listen your views regarding life and other issues seriously.
5d · 53
An Interlude
We all are
playing our respective
alloted roles
on a stage of the world.

But here ,
an Interlude exists.

I usually think about the performance of us .

Sometimes
I think while blinking in
the light of present
context of the life
that
who include Interlude
in my life with replacing
his philosophy of life during an ever waiting intermission of dramatic changes in the battlefield of life.

I keep myself silent while thinking about Interlude.
जब
अचानक
क्रोध से
निकली
एक चिंगारी
बड़ी मेहनत से
श्रृंगारी जिन्दगी को
अंदर बाहर से
धधकाकर ,
आदमी की
अस्मिता को झुलसा दे
तब
आप ही बताइए
आदमी कहाँ जाए ?

मन के भीतर
असंतोष की ज्वालाएं
फूट पड़ें
अचानक
......
मन के भीतर की
कुढ़न और घुटन
बेकाबू होकर
मन के अंदर
रोक कर रखे संवेगों को
बरबस
आंखों के रास्ते
बाहर निकाल दें ...!

तब तुम ही बता दो
आदमी क्या करे?
वह कहाँ जाए ?

कभी कभी
यह जिंदगी
एक मरुभूमि के बीच
श्मशान भूमि की
कराने लगती है
प्रतीति ,
तब
रह जाती  
धरी धराई
सब प्रीति और नीति ।

ऐसे में
तुम्हीं बताओ
आदमी कहाँ जाए ?
क्या वह स्वयं के
भीतर सिमटता जाए ?

क्यों न वह !
मन में सहृदयता
और सदाशयता के
लौट आने तक
खुद के मन को समझा ले ।
यह दुर्दिन का दौर भी
जल्दी ही बीत जाएगा।
तब तक वह धैर्य धारण करे।
वह खुद को संभाल ले ।

बेशक आज
निज के अस्तित्व पर
मंडरा रहीं हैं काल की
काली काली बदलियां ,
ये भी समय बीतने के साथ
इधर उधर छिटक बिखर जाएंगी।
सूर्य की रश्मियां
फिर से अपना आभास
कराने लग जाएंगी।
बस तब तक
आदमी ठहर जाए ,
वह अपने में ठहराव लेकर आए ,
तो ही अच्छा।
वह दिख पड़े फ़िलहाल
एकदम
सीधा सादा और सच्चा।

संकट के समय
आदमी
कहीं न भागे ,
न ही चीखे चिल्लाए ,
वह खुद को शांत बनाए रखे,
मुसीबत के बादल
जिन्दगी के आकाश में
आते जाते रहते हैं ,
बस जिन्दगी बनी रहनी चाहिए।
आदमी की गर्दन
स्वाभिमान से तनी रहनी चाहिए।

१३/१२/२०२४.
5d · 249
Helpless
To feel like a puppet makes me sad.
Am I  merely a dependent upon others to exist in life?
I am unable to take decisions regarding my life.
This indecisiveness in life makes me miserable in my own eyes.
That' s why ?
A puppet cry always silently !

To feel like a puppet makes life miserable.
Even inaccessible to self.
All such situations
usually disturbed  the life.
The haunting memories of the past life also disturbed  peace of the mind.
All such shades of time compels me to think myself that I am simply a helpless person living a miserable life.
5d · 14
Deep State
Sir ,
Is deep state is simply a puppet show ?
If you have a visionary idea regarding this.
Then write a thanks letter to supreme authority who is organising this super hit 🎯 show on a massive scale..!
Thanking you.
Sincerely Yours ,
A puppet.
5d · 39
अचानक
कभी कभी
अचानक
हो जाया करता है
धन का लाभ।
इससे हमें
खुश होने की नहीं
है जरूरत ,
हो सकता है कि
इस से होने वाला हो
कोई अनिष्ट।
कोई हमारी उज्ज्वल छवि पर
लगाना चाहे कोई दाग़।
हमें रखना होगा याद
कि कभी अचानक
गंदगी के ढेर से हो
जाता है प्राप्त
कोई चिराग़
जिसे रगड़ने और घिसने से
कोई जिन्न निकले बाहर
और आज्ञाकारी सेवक बनकर
कर दे हमारी तमाम इच्छाएं पूर्ण!
यह भी हमें आधा अधूरा रखने की साज़िश हो सकती है।
अतः हम स्वयं को संतुलित रखने का करें प्रयास,
ताकि निज के ह्रास से बचा जा सके,
जीवन पथ पर ढंग से अग्रसर हुआ जा सके।

यदि कभी अचानक हो ही जाए ,
कोई अप्रत्याशित धन लाभ
तो उसे दीजिए समाज भलाई के लिए
योजनाबद्ध ढंग से बांट।
बांटना और ढंग से धन संपदा को ठिकाने लगाना
बेहद आवश्यक है,
ताकि हमारी कर्मठता पर
न आए कभी आंच।
न हो कभी मंशा को लेकर कोई जांच।
सिद्ध किया जा सके,सांच को आंच नहीं,
यदि सब चलें अपनी राह पर सही , सही, मर्यादा में रहकर।
अप्रत्याशित धन लाभ से रहें सदैव सतर्क।
यदि फंसें किसी मकड़जाल में,
धरे रह जाएंगे सब तर्क वितर्क।

१२/१२/२०२४.
6d · 29
Voices
Some voices always
remain unheard .
These neglected and rejected voices
make us slow and backward in life.
Let us try ourselves to listen these voices from time to time.
So that we can become self-sufficient during our journey of life.
6d · 18
Cleanliness
Let's think about cleanliness in life.
So that we can achieve unparalleled transparency in our self.
To keep intact purity, positivity, prosperity in day to day activities associated with human existence.

Let's keep away from self destructive activities in life for cleanliness of body as well as  mind.
So that we can become psychologically sound and stable, too some extent humble.
Is this possible or merely a imagination only?
Watch ourselves our internal consciousness closely and boldly.
कभी-कभी ज़िंदगी
एक मेला कम
झमेला ज्यादा लगती है ,
जहां मौज मस्ती
बहुत मंहगी पड़ती है ।
कभी कभी
जीवन में
झमेला
झूम झूम झूमकर
झूमता हुआ
एक मदमस्त शराबी
बना हुआ
आन खड़ा होता है
और
यह अचानक
जीवन के
बहुरंगी मेले में
रंग में भंग
डाल देता है ,
चटख रंगों को
हाशिए में
पटक देता है ।

सचमुच ही!
ऐसे में
मन नितांत
क्लांत होकर
उदास होता है ,
भीतर कहीं गहरे तक
सन्न करता सा
सन्नाटा पसर जाता है ।
जीवन की सम्मोहकता का असर
मन के क्षितिज को
धुंधलाता जाता है ।

जीवन में
सुख, समृद्धि, सम्पन्नता का साया
कहीं पीछे छूटता जाता है ।
मन के भीतर
बेचैनी का ग्राफ
उतार-चढ़ाव भरा होकर
घटता, बढ़ता,बदलता
रहता है ।
आदमी
बोझ बने जीवन को
सहता चला जाता है ।


झूम झूम झूमता हुआ
झमेला
इस जीवन के मेले में
ठहराव लाकर
यथास्थिति का भ्रम
पैदा करता है।
यह मन के भीतर
संशय उत्पन्न कर
हृदय पुष्प को
धीरे-धीरे
मुरझाकर
कर देता है
जड़ मूल से नष्ट-भ्रष्ट ।

आदमी
जीवन धारा से कटकर
इस अद्भुत मेले को
झमेला मानने को
हो जाता है विवश !
फीकी पड़ती जाती
जीवन की कशिश !!
‌आदमी
अपने आप ही
जीवन में अकेला
पड़ता जाता है ।
जीवन यापन करना भी
उसे एक झमेला लगने लगता है ।
जीवन पल प्रतिपल
बोझिल लगने लग जाता है।
उसे सुख चैन नहीं मिल पाता है।

१२/१२/२०२४.
तुम
आनन फानन में
लोक के हितार्थ
फैसला सुनना
चाहते हो ।
भला यह
मुमकिन है क्या ?
याद रखो यह तथ्य
बेशक जीवन में व्याप्त है सत्य ,
परन्तु कथ्य की निर्मिति में
लग सकता है कुछ अधिक समय ।
फिर यह तो जग ज़ाहिर है
कि चिंतन मनन में समय लगना
बिल्कुल स्वाभाविक है।

तुम
संवेदनशील मुद्दों को
फ़िलहाल दबा ही रहने दो।
जनता जनार्दन को
कुछ और संघर्षशील बन जाने दो।

जब उपयुक्त समय आएगा ,
दबे- कुचले, वंचितों - शोषितों, पीड़ितों के हक़ में
फैसला भी आ ही जाएगा।
जो न्याय व्यवस्था और न्यायिक प्रक्रिया में
जनता जनार्दन के विश्वास को ,
उत्तरोत्तर दृढ़ करता जाएगा।

बंधुवर !
सही समय आने पर ,
अनुकुलता का अहसास हो जाने पर ,
जन जन के सपनों को , पर लग जाने पर ,
सभी अपनी -अपनी उड़ान भरेंगे !
सभी अपने-अपने सपने साकार करेंगे !!
सभी अपने भीतर अदम्य साहस व ऊर्जा भरेंगे !!!

१२/१२/२०२४.
जीवन धारा भवन,
संसार नगर।
अभी अभी...!

दोस्त ,
इतना भी
सच न कहो ,
आज
तुम से मिलना
तुम से बिछुड़ना हो जाए।
मन के भीतर
कहीं गहरे में कटुता भर जाए।
हम पहले की तरह
खुल कर , निर्द्वंद्व रहकर
कभी न मिल पाएं।

तुम्हारा मित्र ,
विचित्र कुमार ।

१०/०३/२०१७.
A question arises
suddenly
in my mind that
what matters in life 🤔 is
utmost significant
to survive for humans ?

Is it a win or a defeat ?
...Or the repetition of the winning moments as well as loosing moments in a person 's struggle full life ?

The answer I received in the form of the thought was ,...
' It hardily matters in life that
a person is winner or a looser.
It matters more that how he treats himself in the battlefield of the life to exist.

It is simply a state of the mind ,
to review his wins and defeats
from time to time
for the smooth journey of Life.
Contentment and satisfaction always
matters in the struggle of the Life.'
कभी-कभी
जीवन का वृक्ष
अज्ञानी से ज्ञानी
बना रहा लगता है
और
वृक्ष पर पल रहा जीवन
अंकुरित, पुष्पित, पल्लवित
होकर सब को
हर्षित कर रहा लगता है।

मेरे घर के सामने
एक पीपल का वृक्ष
पूरी शान ओ 'शौकत से
एक स्वाभिमानी बुजुर्ग सरीखा
शांत सा होकर
आत्माभिमान से
तना हुआ
जीवन के उद्गम को
कर रहा है
मतवातर  इंगित
और रोमांच से भरपूर !
ऐसा होता है प्रतीत
कि अब जीवन
अपने भीतर जोश भरने को
है उद्यत।
जीवन
समय के सूक्ष्म
अहसासों से
सुंदरतम बन पड़ा है।
ऐसे पलकों को झपकाने के क्षणों में
कोयल रही है कूक
पल-पल
कुहू कुहू कुहू कुहू
करती हुई।
मानो यह सब से
कह रही हो
जीवन का अनुभूत सत्य,
इसे जीवन कथ्य बनाने का
कर रहा हो आग्रह
कि अब रहो न और अधिक मूक ।
कहीं हो न जाए  
जीवन में कहीं कोई चूक।
कहीं जीवन रुका हुआ सा न  बन जाए ,
इसमें से सड़ांध मारती कोई व्यवस्था नज़र आ जाए ।

वृक्ष का जीवन
कहता है सब से
जो कुछ भी देखो
अपने इर्द-गिर्द ।
उसे भीतर भर लो
उसका सूक्ष्म अवलोकन करते हुए ,
अपनी झोली
प्रसाद समझ भर लो।

इधर
पीपल के पेड़ की
एक टहनी पर
बैठी कोकिला
कुहू कुहू कुहू कुहू कर
चहक उठी है  ,
उधर हवा भी
पीपल के पत्तों से
टकराकर
कभी कभार ध्वनि तरंगें
कर रही है उत्पन्न ।
यह हवा छन छन कर
मन को महका रही है।
जीवन को
सुगंधित और सुखमय होने का
अहसास करा रही है।

कोकिला का कुहूकना,
पत्तों के साथ हवा के झोंकों का टकराना ,
मौसम में बदलाव की दे रहा है  सूचना ।
यह सब आसपास, भीतर बाहर
जीवन के एक सम्मोहक स्वरूप का
अहसास करा रहे हैं ,
ऐसे ही कुछ पल जीवन को
जड़ता से दूर ले जाकर
गतिशीलता दे पा रहे हैं।
जीवन के भव्य और गरिमामय
होने की प्रतीति करा रहे हैं।

वृक्ष का जीवन
किसी तपस्वी के जीवन से
कम नहीं है ,
यह अपने परिवेश को
जीवंतता से देता है भर ,
यह आदमी को
अपनी जड़ों से
जुड़े रहने की
देता रहा है प्रेरणा ।
१२/१२/२०२४.
6d · 38
निंदा
आदमी
यदि जानबूझकर
अपनी ज़िद पर
अड़ा रहे ,
दूसरे को जिंदगी के
कटघरे में
खड़ा करे
तो व्यक्ति
क्या करे ?
क्यों न वह
निंदा को
एक हथियार
बनाकर
शक्ति प्रदर्शन करे ?
सोचिए
ज़रा खुले मन से ,
उसको
शर्मिन्दा करने के लिए
थोड़ी सी
निंदा की है ,
कोई
कमीनगी
थोड़ा की है ,
जैसा को तैसा वाली
प्रतिक्रिया
भर की है ।

११/१२/२०२४.
कहां गया ?
वह फिल्मों का
जाना माना खलनायक
जो दिलकश अंदाज में करता था पेश
अपने मनोभावों को  
यह कह,
बहुत हुआ , अब  ,चुप भी करो,
' मोना डार्लिंग ' चलें दार्जिलिंग!
काश! वह मेरे स्वप्न में आ जाए,
अपनी मोना डार्लिंग के संग
मोना को मोनाको की सैर कराता हुआ
नज़र आ जाए !
वह अचानक
अच्छाई की झलक दिखला
मुझे हतप्रभ कर जाए !

ऐसा एक अटपटा ख्याल
मन में आ गया था
अचानक,
ऐसे में
जीवन में
किसी का भी ,
न नायक और न खलनायक,
न नायिका और न खलनायिका, ...न होना
करा गया मुझे न होने की भयावहता का अहसास।
यह जीवन बीत गया।
अब जीवन की 'रील लाइफ'का भी
"द ऐंड" आया समझो!
ऐसा खुद को समझाया था,
तब ही मैं कुछ खिल पाया था।
जीवन का अर्थ
और आसपास का बोध हो गया था ,
मुझ को
अचानक ही
जब एक खलनायक को
ख्यालों में बुलाने की हिमाकत की थी मैंने।
यह जीवन
एक अद्भुत फिल्मी पटकथा ही तो है,
शेष सब
एक हसीन झरोखा ही तो है।
११/१२/२०२४.
तुम उसे पसंद नहीं करते ?
वह घमंडी है।
तुम भी तो एटीट्यूड वाले हो ,
फिर वह भी
अपने भीतर कुछ आत्मसम्मान रखे तो
वह हो गया घमंडी ?
याद रखो
जीवन की पगडंडी
कभी सीधी नहीं होती।
वह ऊपर नीचे,
दाएं बाएं,
इधर उधर,
कभी सीधी,कभी टेढ़ी,
चलती है और अचानक
उसके आगे कोई पहाड़ सरीखी दीवार
रुकावट बन खड़ी हो जाती है
तो वह क्या समाप्त हो जाती है ?
नहीं ,वह किसी सुरंग में भी बदल सकती है,
बशर्ते आदमी को
विभिन्न हालातों का
सामना करना आ जाए।
आदमी अपनी इच्छाओं को
दर किनार कर
खुद को
एक सुरंग सरीखा
बनाने में जुट जाए।
वह घमंडी है।
उसे जैसा है,वैसा बना रहने दो।
तुम स्वयं में परिवर्तन लाओ।
अपने घमंड को
साइबेरिया के ठंडे रेगिस्तान में छोड़ आओ।
खुद को विनम्र बनाओ।
यूं ही खुद को अकड़े अकड़े , टंगे टंगे से न रखो।
फिलहाल
अपने घमंड को
किसी बंद संदूक में
कर दो दफन।
जीवन में बचा रहे अमन।
तरो ताज़ा रहे तन और मन।
जीवन अपने गंतव्य तक
स्वाभाविक गति से बढ़ता रहे।
घमंड मन के भीतर दबा कुचला बना रहे ,
ताकि वह कभी तंग और परेशान न करे।
उसका घमंड जरूर तोड़ो।
मगर तुम कहीं खुद एक घमंडी न बन जाओ ।
इसलिए तुम
इस जीवन में
घमंड की दलदल में
धंसने से खुद को बचाओ।
घमंड को अपनी कथनी करनी से
एक पाखंड अवश्य सिद्ध करते जाओ।
११/१२/२०२४.
7d · 41
गूंगा
इन दिनों
चुप हूं।
जुबान अपना कर्म
भूल गई है।
उसको
नानाविध व्यंजन खाने ,
और खाकर चटखारे लगाने की
लग गई है लत!
फलत:
बद  से बद्तर
होती चली गई है हालत !!

इन दिनों
जुबान दिन रात
भूखी रहती है।
वह सोती है तो
भोजन के सपने देखती है ,
भजन को गई है भूल।

पता नहीं ,
कब चुभेगा उसे कोई शूल ?
कि वह लौटे, ढूंढ़ने अपना मूल।

इन दिनों
चुप हूं ।
चूंकि जुबान के हाथों
बिक चुका हूं ,
इसलिए
भीतर तक गूंगा हूं ।

०६/०३/२००८.
समय की बोली बोलकर
यदि समझे कोई ,
कर्तव्यों से इतिश्री हुई
तो जान  ले वह
अच्छी तरह से
कर गया है वह  ग़लती ,
भले ही
अन्तस को झकझोरता सा
भीतर उत्पन्न हो जाए
कोई तल्ख़ अहसास
बहुत देर बाद
अचानक नींद में।
आदमी को यह बना दे
अनिद्रा का शिकार।

समय की बोली बोलकर ,
सच्चा -झूठा बोलकर ,
यदा-कदा
जीवन के तराजू पर
कम तोलकर ,
समय को धक्का लगाने की
खुशफहमी पाली जा सकती है ,
मन के भीतर
गलतफहमी को छुपाया जा सकता है
कुछ देर तक ही।
जिस सच को हम
अपने जीवन में छुपाने का
करते हैं प्रयास,
पर , वह सच अनायास
सब कुछ कर जाता है प्रकट ,
जिसे छुपाने की
कोशिशें हमने निरंतर जारी  रखीं।
ऐसे में
आदमी रह जाता हतप्रभ।
परन्तु समय रहते
स्वयं को संतुलित रखते हुए
शर्मिंदगी से
किया जा सकता है
इस सब से अपना बचाव ।


समय की बोली बोल रहे हैं
अवसरवादी बड़ी देर से
कथनी और करनी में अंतर करने वाले
लगने लगते हैं
एक समय
कूड़े कर्कट के ढेर से ।

जीवन की गतिविधियों पर
गिद्ध नज़र रखने वालों से
सविनय अनुरोध है कि
वे समय की बोली बोलें ज़रूर
मगर , कुछ कहने से पहले
अपना बयान दें बहुत सोच समझकर
कहीं हो न जाए गड़बड़ !
मन में पैदा हो जाए बड़बड़ !!
अचानक से ठोकर लग जाए!
आदमी घर और घाट का रास्ता भूल जाए !!
जीवन की भूल भुलैया में ,
जिंदगी के किसी अंधे मोड़ पर ,
जीवन में संचित आत्मीयता
कहीं अचानक ! एकदम अप्रत्याशित !!
आदमी को जीवन में अकेला छोड़ कर
कहीं दूर यात्रा पर निकल जाए !
आदमी अकेलेपन
और अजनबियत का हो जाए शिकार।
वह स्वयं की बाबत  करने लगे महसूस
कि वह जीवन में बनकर रह गया है एक 'जोकर' भर ।

२०/०३/२००६.
"समय पर
लग गई ब्रेक
वरना छुट्टी निश्चित थी !
कोर्ट , कचहरी , जेल में
हाज़िरी पक्की थी ! "

ड्राइवर की ,
बस के आगे चलती ...,
मोटरसाइकिल ,
मोटरसाइकिल सवार की
क़िस्मत अच्छी थी कि
समय पर लग गई ब्रेक !
नहीं तो झेलना पड़ता
संताप का सेक !!

आप क्या समझते हैं ?
ड्राइवर ने उपरोक्त से
मिलता जुलता कुछ सोचा होगा ??


मेरा ख्याल है --
शायद नहीं !
न ही ड्राइवर ने ,
न ही मोटरसाइकिलिस्ट ने
कुछ दुर्घटनाग्रस्त होने से
बाल बाल बचने की बाबत सोचा होगा।

सड़क पर
वाहन लेकर उतरना
हमेशा से जोखिम मोल लेना रहा है ।
यहाँ  गंतव्य तक पहुंचने, न पहुंचने  का खेल
चलता रहता है दिन रात ।
यह खेल जिंदगी और मौत के
परस्पर शतरंज की बाज़ी खेलने जैसा है ।
ट्रैफिक लाइटों से लेकर
ट्रैफिक जाम तक
सभी करते हैं एक सवाल
जिसमें छिपा है जीवन का मर्म
जब जीना मरना लगने लगे  
बढ़ते ट्रैफिक की वज़ह से
एक सामान्य घटनाक्रम!
तब कुछ भी
हतप्रभ और
शोकाकुल करने जैसा नहीं।
सड़क भागती है दिन रात अथक
या फिर मोटर गाड़ियां ?
या फिर उनमें बैठी सवारियां, ...!
कौन भागता है सड़क पर ?
लारियां , सवारियां या फिर समय ?


दोस्त , सड़क पर
बहुत कुछ घटित होता है
यहाँ कोई जीतता है तो कोई हारता है।
कोई जिन्दा बच जाता है तो कोई
अपनी जिन्दगी को असमय खो देता है।
कोई सकुशल घर पहुंचता है,
तो कोई अपना अंतिम सफ़र पूर्ण करता है।
इस बाबत कभी नहीं सोचती सड़क, न ही ड्राइवर ।
यह सब कुछ सोचता है...!
वही‌ सोच सकता है
जो निठल्ला है
और अपनी मर्ज़ी का मालिक है ,
कविताएं लिखता है,
वह ताउम्र बस में यात्रा करता है
और हर समय जीवन के रंगों के बारे में सोच सकता है।
वह अपने आसपास से बहुत नज़दीक से जुड़ा होता है।

२०/०३/२००८.
यहाँ
झूठ के सौदागर
क़दम क़दम पर
मिलते हैं !

सच कभी
आसानी से बिकता नहीं ,
सो सब इसे
अपने पास रखने से
डरते हैं !!

सच पास रहेगा
तो कभी काम आएगा
क्या कमी रह गई जीवन में है ?
इसका अहसास कराएगा !
यह किसी विरले को भाएगा !!

यह नितांत सच है
कि यहाँ सच के पैरवीकार भी
मिलते हैं !
जो अपनी जान देने से
कभी पीछे नहीं
हटते हैं !!

झूठ के सौदागर की भी
कभी हार हो ;
इसकी खातिर
क्या तुम तैयार हो ?

तुम सच
अपने पास रखे रहो ।
तुम झूठ बोलने से करो परहेज़
ताकि यह जिन्दगी
बने  न कभी
झूठ , लड़ाई झगड़े की मानिंद
सनसनी खेज़।

दुनिया के बाज़ार में
बेशक झूठ धड़ल्ले से बिकता है!
पर यह भी तो सच है कि
यहाँ सच भी  अनमोल बना रहता है।
वह भला बिक सकता है ?

सच कभी खुद को
बेचने को उद्यत नहीं होता ।
यह कभी छल नहीं करता !
यह आदमी को
कल ,आज और कल के लिए
संयम अपनाने ,
सदैव तैयार रहने ,की खातिर
उद्यम दिन रात करता है।
तभी सच झूठी दुनिया में अपनी मौजूदगी का
अहसास करा पाता है।
वरना सच और सच्चे को
हर कोई हड़पना चाहता है।
२१/१२/२०१७.
उसकी नज़र
लगी कि
जहर भूला ,
अपनी तासीर
ज़िंदगी ,
एक अमृत कलश सरीखी
आने लगती नज़र ।

काश ! उसकी नज़र
सबको आए नज़र
हर कोई चाहता की
भूलभुलैया में खो जाए !
ज़िंदगी एक सतरंगी पींघ पर
झूमने लग जाए !!

उसकी नज़र
चाहत की राहत सरीखी हो जाए ,
आदमी प्रेम धुन गुनगुनाते हुए
समाप्ति की ओर बढ़ता चला जाए ।
उसके चेहरे मोहरे पर
कुछ न करने का मलाल
कभी न आए नज़र ।

उसकी नज़र
इश्क मुश्क की
अनकही इबारत है
जिसकी नींव पर
हरेक निर्मित करना चाहता है ,
भव्यता की पायेदार इमारत ।
भले ही
ज़िंदगी कुछ न करने की
शिकायत करती आए नज़र ।

उसकी नज़र को
किसी की नज़र न लगे कभी भी
उसे महसूस न हो
जीवन में
कोई भी कमी कभी भी ।
उसकी नज़र का ज़हर
पी लेंगे सभी कभी भी ।
अपने भीतर के ज़हर को भूलकर,
तोड़ कर अपने समस्त
सिद्धांत और उसूल !
२२/१२/२०१६.
जो
भटक गए हैं
राह अपनी से
वे सब
अपने भीतर
असंख्य पीड़ाएं समेटे हुए हैं ,
वे मेरे अपने ही बंधु बांधव हैं ,
मैं उन्हें कभी
तिरस्कृत नहीं कर पाऊंगा !
मैं उन्हें कभी
उपेक्षित नहीं रहने देना चाहूंगा !
उनकी आंखों में
रहते आए
सभ्य समाज में विचरकर
और अनगिनत कष्ट सहकर
दिन दूनी रात चौगुनी
तरक्की करने के सपने हैं ।

जो
भटक गए हैं
राह अपनी से
वे सब लौटेंगे
अपने घरों को...एक दिन ज़रूर
अचानक से
यथार्थ के भीतर झांकने की गर्ज़ से ,
वे कब तक भागेंगे अपने फ़र्ज़ से ,
आखिर कब तक ?
उन्हें लड़ना होगा
ग़रीबी, बेरोज़गारी के मर्ज़ से ।
वे कब तक
यायावर बने रहेंगे ?
भुखमरी को झेलते झेलते
कब तक भटकते रहेंगे ?
यह ठीक है कि
वे अपनी अपनी पीड़ाएं
सहने के लिए मजबूर हैं ।
वे कतई नहीं
कहलाना चाहते गए गुज़रे
भला वे कभी ज़िन्दगी के
कटु यथार्थ से
रह सकते दूर हैं !
भले ही वे
सदैव बने  रहे मजदूर हैं।
भला वे कब तक
रह सकते अपने सपनों से दूर हैं ।
उन्हें कब तक
बंधनों में रखा जा सकता है ?
दीन हीन मजबूर बना कर !
आखिरकार थक-हारकर
एक दिन
उन्हें अपने घरों की ओर
लौटना ही होगा ।
सभ्य समाज को
उन्हें उनकी अस्मिता से
जोड़ना ही होगा।

१६/१२/२०१६.
आज
किस से
रखूं आस कि
भूख लगने पर
वह डालेगा घास
मेरे सम्मुख ही नहीं
समय आने पर
खुद के सम्मुख भी...?

सुना है --
सच्चाई छिपती नहीं !
ज़िंदगी डरती नहीं !!

वह सतत अस्तित्व में रहेगी
भले ही मोहरे जाएं बदल !
समय के महारथी तक जाएं पिट !
बेबसी के आलम में
वे हाथ मलते आएं नज़र !
वे पांव पटकते जाएं ग़र्क !!

आज
किस से
रखूं आस कि
प्यास लगने पर
रखेगा कोई मेरे सम्मुख पानी
मेरे आगे ही नहीं ,
खुद के आगे भी...?

देखा महसूसा है --
असंतुष्टि के दौर में
तृप्ति कभी मिलती नहीं ,
तृषा कभी मिटती नहीं ,
तृष्णा कभी संतुष्ट होगी नहीं !
आदमी
खुद को कभी तो
समझे ज़रूर
ताकि तोड़ सके
अपने दुश्मन का गुरूर
आदमी का दुश्मन कोई ग़ैर नहीं
खुद उसका हमसाया है ,
यह भी समय की माया है।
.........
क्यों कि
हम तुम
बने रहते ,  मनचले होकर  , गधे हैं !
जब तक कोई हम पर
चाबुक फटकारता नहीं ,
भला हम सब कभी सधे हैं !
क़दम क़दम पर जिद्दी बनकर
रहते अड़े  और खड़े हैं
कभी न बदलने की ज़िद्द का दंभ पाले हुए।

०२/०८/२००७.
अच्छे का निधन
सबको कर देता है निर्धन !
सोच के स्तर पर
मृत्यु लगा जाती एक नश्तर ।
यही नहीं, वह मानव के कान के पास
अपनी अनुभूति का आभास करा कर
चुपचाप फुसफुसाते हुए कराती है अपनी प्रतीति कि-
" बांध ले भइया! अपना बोरिया बिस्तर ,
आत्मा करना चाहती है , अब धारण नए वस्त्र!"
मौत जीवन की सहचरी है ,
जिसने  जीवन में करुणा भरी है।
यह वह क्षण है ,
जब आत्मा अपने उद्गम की ओर
लौट जाती है।
यह हमें हतप्रभ कर जाती है ।

०६/०१/२०१७.
एक दिन
स्टंट करते-करते
मौत उन्हें लील जाएगी ।
वे तो रोमांच के घोड़े पर सवार थे !
बेशक वह मोटरसाइकिल सवार थे !

उन्हें क्या पता था?
कि रोमांचक स्टंट करते-करते
मौत उनका शिकार करने वाली है।
वह उन्हें धराशायी करने वाली है !
मौत तांडव करते हुए आई ,
और उन्हें अपने साथ
काल के समंदर में डूबा गई।
बेशक !उन्हें मौत की ताकत के बारे में पता नहीं था।
वे तो मौत को जिंदगी की तरह मज़ाक भर समझते थे।

जो लोग उनकी स्टंट बाज़ी को
बड़े ग़ौर से निहार रहे थे ।
वह भी तो सब कुछ से अनजान
उन्हें  स्टंट के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे।
वे भी ख़तरे के खिलाड़ियों के साथ
अपने भीतर रोमांच और उत्तेजना भर रहे थे।
उन्हें भी तो अंज़ाम का कुछ अहसास रहा होगा,
जो जिंदगी और मौत से मज़ाक कर रहे थे ,
और जो उनके करतबों को देख रहे थे।
अपने सामने मौत का तांडव देखकर
तमाशबीनों ने भी तो
अपने भीतर मौत का डर
पाल लिया था ।
अपनी आंखों के सामने
मौत का भयावह मंज़र देख लिया था ।


उन्हें तो अब मौत कभी  न  सता पाएगी ।
पर जिन्होंने मौत का 'लाइव टेलीकास्ट 'देखा ,
उनके भीतर श्वासों की अवधि पूरी होने तक,
मौत मतवातर
जिंदा लोगों में दहशत भरती जाएगी।
मरने का क्षण आने तक,
मृत्यु उन्हें सताएगी।
मौत की परछाइयां
रह रहकर आतंकित कर जाएंगी।
आप भी
दृश्य श्रव्य सामग्री के तौर पर
कभी-कभी
मौत और रोमांच का
ले सकते हैं मज़ा ज़रूर ,
पर रखिए ध्यान
कि यह मज़ा बनाता है आपको क्रूर,
इससे तो नहीं टूटेगा
स्टंटबाज़ों का क्या, किसी का भी गुरूर ।
देख देख कर यह सब मौत का तमाशा,
जाने अनजाने
घटता जाता
आदमी के भीतर और बाहर का नूर ।

आपको क्या पता?
जो कुछ भी आप देखते हैं ,
वह आपके अवचेतन का हिस्सा बन जाता है ।
आपको पता भी नहीं चलेगा कि
कब आप जाने अनजाने स्टंट कर जाएंगे ।
आपको यह भी नहीं पता चलेगा कि
आप मौत से जीत जाएंगे
या फिर इस इस खेल में ढेर हो जाएंगे !
१७/०१/२०१७.
मुझ में
कोई कमी है
तो मुझे बता ,
यूं ही
दुनिया के आगे
गा गा कर ,
ढोल पीट पीट कर
मुझे न सता ।

चुगलखोर!
हिम्मत है तो!
बीच मैदान आ !
अब अधिक बातें  न बना।
अपनी खूबियों और कमियों सहित
दो दो हाथ करके दिखा ,
ताकि बचे रह सकें
हम सब के हित !
हम रह सकें सुरक्षित!!
१७/०१/२०१७.
अगर तुम्हें
इंसाफ़ चाहिए
तो लड़ने का ,
अन्याय से
बेझिझक
जा भिड़ने का
कलेजा चाहिए ।
मुझे नहीं लगता
कि यह तुम में है ।
फिर तुम
किस मुंह से
इंसाफ़ मांगती हो ?
अपने भीतर
क्यों नहीं झांकते हो ?
क्यों किसी इंसाफ़ पसंद
फ़रिश्ते की राह ताकते हो ?
तुम सच की  
राह साफ़ करो।
जिससे सभी को
इंसाफ़ मयस्सर हो।
दोस्त , इस हक़ीक़त के
रू-ब-रू  हो तो सही।
सोचो , तुम किसी
फ़रिश्ते से यक़ीनन कम नहीं।

१७/०१/२०१७.
अब और नहीं
यह दुनिया
मजहबों , धर्मों के बलबूते
बांटो ।

पागलपन को रोको !
भले ही
पागलपन को ,
पागलपन से काटो ।

अब और नहीं
खुद को
मुखौटों में
बांटो।

अब और नहीं
कोई साज़िश
रचो।
कम अज कम
अपनी खुशियों को
वरो।
अब और अधिक
अत्याचार ,
अनाचार
करने से
डरो।

ओ ' तानाशाह!
तुम्हारे पागलपन ने
आज
दुनिया कर दी
तबाह।
१७/०१/२०१७.
विश्वास का टूटना
अप्रत्याशित ही
आदमी का
दुर्घटनाग्रस्त हो जाना है।

और आदमी
यदि जीवन में
विश्वसनीय बना रहे
तो सफलता के पथ पर
आगे बढ़ते जाना है।

हमारे कर्म होने चाहिएं ऐसे
कि विश्वास
कभी विष में न बदले
वरना
अराजकता का दंश
हम सब को
मृतक सदृश बनाएगा।
यह सब के भीतर बेचैनी बढ़ाएगा ।
हमें ही क्या !
प्रकृति के समस्त जीवों को रुलाएगा !

दुनिया - जहान में
सभी की विश्वसनीयता बनी रहे
और हम सब अपनी अंतर्रात्मा की
आवाज़ सुनते रहें ,
ऐसे सब कर्म करते रहें
ताकि चारों ओर
सुख समृद्धि और सम्पन्नता की
बयार बहती रहे।

दोस्त !
अपना और उसका विश्वास
बचा कर रख
ताकि सभी को
मयस्सर हो सके सुख ,
किसी विरले को ही
झेलना पड़े दुःख - दर्द ।

१७/०१/२०१७.
क्या
दुनिया में
सच खोटे सिक्के
सरीखा हो गया है ?

क्या
दुनिया में
झूठ का वर्चस्व
कायम हो गया है ?
परन्तु
सच तो आदमी का
सुरक्षा कवच है ,
कोई विरला ही
इस पर
भरोसा करता है।

तुम सदैव
सच पर
भरोसा करोगे
तो यकीनन जीवन में
शांतिपूर्वक जीओगे।
अतः आज से ही तुम
झूठ बोलने से गुरेज करोगे,
जीवन में ‌शुचिता वरोगे।

बेशक!
आज ही तुम
अपने भीतर
दुनिया भर का  
दुःख दर्द समेट लो।

सच की उम्र
लंबी होती है।
झूठे की चोरी सीनाज़ोरी
थोड़े समय तक ही चलती है,
क्यों कि ज़िन्दगी
अपनी जड़ों से जुड़कर ही
आगे यात्रा पथ पर अग्रसर होती है।
यह कभी भी  
खोटे सिक्कों के सम्मुख
समर्पण नहीं करती है।
१८/०१/२०१७.
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