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आदमी के पास
एक संतुलित दृष्टिकोण हो
और साथ ही
हृदय के भीतर
प्रभु का सिमरन एवं
स्मृतियों का संकलन भी
प्रवेश कर जाए ,
तब आदमी को
और क्या चाहिए !
मन के आकाश में
भोर,दोपहर,संध्या, रात्रि की
अनुभूतियों के प्रतिबिंब
जल में झिलमिलाते से हों प्रतीत !
समस्त संसार परम का
करवाने लगे अहसास
दूर और पास
एक साथ जूम होने लगें !
जीवन विशिष्ट लगने लगे !!
इससे इतर और क्या चाहिए !
प्रभु दर्शन को आतुर मन
सुगंधित इत्र सा व्याप्त होकर
करने लगता है रह रह कर नर्तन।
यह सृष्टि और इसका कण कण
ईश्वरीय सत्ता का करता है
पवित्रता से ओत प्रोत गुणगान !
पतित पावन संकीर्तन !!
इससे बढ़कर और क्या चाहिए !
वह इस चेतना के सम्मुख पहुँच कर
स्वयं का हरि चरणों में कर दे समर्पण!
१७/०१/२०२५.
आजकल
दुनिया असली से
नकली बनती जा रही है ,
आभासी दुनिया की
चकाचौंध भी
अब सभी को
लुभा रही है ,
यह दिन प्रति दिन
भरमा रही है।

इस दुनिया के
अपने ही ख़तरे हैं,
हम सब आभास करते हैं
कुछ सचमुच का होने का ,
पर यह होता नहीं , कहीं भी।
इसे असल दुनिया में
खोजने लगें
तो हासिल होता कुछ भी नहीं ,
फिर भी लगता सब कुछ ठीक और सही।
मैं आभासी अंतरंगता के
दौर से भी गुजर चुका हूँ,
खुद को खूब थका चुका हूँ।
सब कपोल कल्पित
किस्से कहानियों में वर्णित
रंग बिरंगी दुनिया के
आकर्षक और लुभावने पात्रों की तरह !
इर्द गिर्द मंडराते और घूमते दिखाई देते हैं !!
एक नशीली महिमा मंडित दुनिया की तरह !
जहां असलियत और सच्चाई के लिए
होती नहीं कोई जगह बेवजह।

आभासी दुनिया का सच
कब हो जाए गायब और गुम !
यह कर दे इंसान को गुमसुम !!
कुछ कहा नहीं जा सकता !
बहुत कुछ कभी सहा नहीं जा सकता !!

जैसे ही रीचार्ज खत्म
समझो आभासी दुनिया का तिलिस्म भी हुआ खत्म !
और जैसे ही इंटरनेट कनेक्शन हुआ डिस्कनेक्ट !
वैसे ही समझो अब कुछ खत्म और समाप्त !
समूल सत्यानाश ! सब कुछ तहस नहस !
जीते जी बेड़ा गर्क !
जिन्दगी बन जाती साक्षात नरक !

इस आभासी दुनिया के खिलाड़ी
एक आभासी दुनिया में रहकर संतुष्ट होते हैं !
वे किसी हद तक
स्व निर्मित कैद को भोगने को विवश होते हैं !
क्या कभी कल्पित वास्तविकता
हम सब को हड़प जाएगी ?
हाय!तब हमारी असली दुनिया कहाँ ठौर ठिकाना पाएगी?
१७/०१/२०२५.
ऋण लेकर
घी पीना ठीक नहीं ,
बेशक बहुत से लोग
खुशियों को बटोरने के लिए
इस विधि को अपनाते हैं।
वे इसे लौटाएंगे ही नहीं!
ऋणप्रदाता जो मर्ज़ी कर ले,
वे बेशर्मी से जीवन को जीते हैं।
ऋण लौटाने की कोई बात करे
तो वे लठ लेकर पीछे पड़ जाते हैं।
ऐसे लोगों से निपटने के लिए
बाउंसर्स, वकील, क़ानून की मदद ली जाती है ,
फिर भी अपेक्षित ऋण वसूली नहीं हो पाती है।

कुछ शरीफ़ इंसान अव्वल तो ऋण लेते ही नहीं,
यदि ले ही लिया तो उसे लौटाते हैं।
ऐसे लोगों से ही ऋण का व्यापार चलता है,
अर्थ व्यवस्था का पहिया विकास की ओर बढ़ता है।

ऋण लेना भी ज़रूरी है।
बशर्ते इसे समय पर लौटा दिया जाए।
ताकि यह निरन्तर लोगों के काम में आता जाए।

कभी कभी ऋण न लौटाने पर
सहन करना पड़ता है भारी अपमान।
धूल में मिल जाता है मान सम्मान ,
आदमी का ही नहीं देश दुनिया तक का।
देश दुनिया, समाज, परिवार,व्यक्ति को लगता है धक्का।
कोई भी उन पर लगा देता है पाबंदियां,
चुपके से पहना देता है अदृश्य बेड़ियां।
आज कमोबेश बहुतों ने इसे पहना हुआ है
और वे इस ऋण के मकड़जाल से हैं त्रस्त,
जिसने फैला दी है अराजकता,अस्त व्यस्तता,उथल पुथल।

हो सके तो इस ऋण मुक्ति के करें सब प्रयास !
ताकि मिल सके सभी को,
क्या व्यक्ति और क्या देश को, सुख की सांस !!
सभी को हो सके सुख समृद्धि और संपन्नता का अहसास!!
१७/०१/२०२५.
चोरी चोरी
चुपके चुपके
बहुत कुछ
घटता है छुप छुप के।
अगर अचानक कोई
रंगे हाथों पकड़ा जाता है,
तो उसका प्यार
या फिर लुकाव छुपाव
सबके सामने आ जाता है ,
स्वत: सब कुछ खुल कर
नजर आ जाता है ,
पर्दाफाश हो जाता है।
हरेक शरीफ़ और बदमाश तक
प्रायः इस अनावृत हो जाने की
घबराहट की जद में आ जाता है।
पर्दाफाश होने का डर
आदमी के
समाप्त होने तक
पीछा करता रहता है।
अच्छा रहेगा
आदमी दुष्कर्म न ही करे
ताकि कोई डर
अवचेतन मन में
दु:स्वप्न बनकर
मतवातर पीछा न करे।
16/01/2025.
उन्होंने मुझे देना चाहा
नव वर्ष की शुभ कामनाओं के साथ
एक आकर्षक कैलेंडर
परंतु मैंने शुभ कामनाओं को
अपने पास संभाल कर रख लिया और
कैलेंडर विनम्रता से लौटा दिया।
वज़ह छोटी व साफ़ थी कि
कैलेंडर पर आराध्य प्रभु की छवि अंकित थी।
साल ख़त्म हुआ नहीं कि
कैलेंडर अनुपयोगी हुआ।
वह शीघ्र अतिशीघ्र कूड़े कचरे के हवाले हुआ।
यह संभव नहीं कि उसे फ्रेम करवा कर संभाला जाए।
फिर क्यों जाने अनजाने
अपने आराध्य देवियों और देवताओं का
अपमान किया जाए ?
अच्छा रहेगा कि कैलेंडरों पर
धार्मिक और आस्था के स्मृति चिन्हों को
प्रकाशित न किया जाए।
उन पर रंगीन पेड़ पौधे,पुष्प,पक्षी,पशु और
बहुत कुछ सार्थकता से भरपूर जीवन धारा को
इंगित करता मनमोहक दृश्वावलियों को छापा जाए।
जो जीवन की सार्थकता का अहसास करवाए ,
मन में मतवातर प्रसन्नता के भावों को जगाए ।
१६/०१/२०२५.
सर्दियों की धूप
देती है
देह को,
देह में रहते नेह को
अपार सुख।
यही गुनगुनी धूप आदमी को
जिन्दगी में गुनगुनाने को
करती है मजबूर
कि उसके भीतर की
तमाम उदासी धीरे धीरे
होती जाती दूर।
सर्दियों की धूप भी
क्या होती है ख़ूब !
यह जीवन में
ऊर्जा भर जाती है,
तन और मन में
आशा और सद्भावना के
पुष्प खिला देती है ,
जीवन में संभावना की
महक का अहसास करा देती है।
ठंडी हवा के दौर में
यह धूप न केवल अच्छी लगती है
बल्कि यह भीतर तक
जीवन धारा से
आत्मीयता की ऊष्मा का बोध करवाने लगती है ,
जिससे
जिन्दगी आनंद से भरपूर लगने लगती है।
कभी कभी यह मन को मस्ताने लगती है।

सर्दियों की गुनगुनी धूप का जादू
जब सिर चढ़ कर बोलता है ,
तब आदमी का सर्वस्व आनंदित होता है ,
उसका रोम रोम भीतर तक पुलकित होता है।
ठंड से घिरे आदमियों के जीवन में
इस गुनगुनी धूप का आगमन
किसी वसंत के आने से कम नहीं।
यह जीवनदायिनी बन जाती है,
यह संजीवनी सरीखी होकर
जीवन को ऊष्मा और ऊर्जा से भरपूर कर देती है।
यह मन में सद्भावना का नव संचार भी करती है,
जिससे जीवन में सार्थकता की प्रतीति होने लगती है।
१६/०१/२०२५.
आज असंतोष की आग
हर किसी के भीतर
धधक रही है।
यह आग
दावानल सी होकर
निरन्तर बढ़ती जा रही है
और सुख समृद्धि और संपन्नता को
झुलसाती जा रही है।
यह कभी रुकेगी भी कि नहीं ?
इस बाबत कुछ कहा नहीं जा सकता ;
आदमी का लोभ,लालच, प्रलोभन
सतत दिन प्रति दिन बढ़ रहा है,
फलत: आदमी असंतोष की आग में
झुलसता जा रहा है।
वह इस अग्नि दहन से कैसे बचे ?
उसे कुछ समझ नहीं आ रहा है।
उसके भीतर अस्पष्टता का बादल घना होता जा रहा है।
यह कभी बरसेगा नहीं , यह भ्रम उत्पन्न करता जा रहा है।
असंतोष जनित आग निरन्तर रही धधक।
पता नहीं यह कब अचानक उठे एकदम भड़क ?
कुछ कहा नहीं जा सकता ।
इससे आत्म संयम से ही है बचा जा सकता।
और कोई रास्ता सूझ नहीं रहा।
मनो मस्तिष्क में इस आग से उत्पन्न धुंधलका
अस्पष्टता की हद तक बढ़ता जा रहा।
इस आग की तपिश से हरेक है घबरा रहा।
१६/०१/२०२५.
मन में कोई बात
कहने से रह जाए
तो होती है
कहीं गहरे तक
परेशानी।
कौन करता है
एक आध को छोड़कर
मनमानी ?
असल में है यह
नादानी।
इस दुनिया जहान में
बहुत से हिम्मती
सच का पक्ष
सबके समक्ष
रखने की खातिर
दे दिया करते हैं
अपना बलिदान।
अभी अभी सुनी है
हृदय विदारक
एक ख़बर कि
सच के पुरोधाओं को
पड़ोसी देश में
किया जा रहा है
प्रताड़ित।

यह सुन कर मैं सुन्न रह गया।
अभिव्यक्ति की आज़ादी का पक्षधर
आज चुप क्यों रह गया ?
शायद ज़िन्दगी सबको प्यारी है।
पर यह भी है एक कड़वा सच कि
बिना अभिव्यक्ति की आज़ादी के
सर्वस्व
बन जाया करता
भिखारी है।
यह सब चहुं ओर फैली
अराजकता
क्या व्यक्ति और क्या देश दुनिया
सब पर पड़ जाया करती भारी है।
अभिव्यक्ति की आज़ादी पर बंदिशें लगाना
आजकल बनती जा रही
देश दुनिया भर में व्याप्त
एक असाध्य बीमारी है।
१५/०१/२०२५.
जीवन में बहुत से
अवसर होते हैं मयस्सर सभी को
परन्तु इसके लिए
व्यक्ति को करनी पड़ती है
प्रतीक्षा।

इस जीवन में
प्रतीक्षा करना है बहुत कठिन।
यह एक किस्म से
व्यक्ति के धैर्य की होती है
परीक्षा।
जो इस में सफल रहता है ,
वहीं जीवन में विजयी कहलाता है।
सच!
प्रतीक्षा
किसी परीक्षा से
कम नहीं।
इसे करते समय
मानसिकता होनी चाहिए
जड़ से शिख तक सही।
१५/०१/२०२५.
आजकल संगम तट पर
बेहिसाब आस्था से महिमा मंडित
देश दुनिया से आए
श्रद्धालुओं ने डेरा डाला हुआ है ,
सब इस मंगल अवसर का
उठाना चाहते हैं लाभ
ताकि आत्मा को जागृत किया जा सके ,
अपने भीतर की मैल को
तन और मन से धोया जा सके।
निर्मल हृदय के साथ विश्व कल्याण
और सरबत का भला किया जा सके।
कभी देवताओं और दानवों ने
समुद्र मंथन किया था
परस्पर सहयोग करते हुए
और अमृत कलश पाया था।
वही अमृत तुल्य
आनंद रस सुलभ होने का
अनुपम अवसर आया है
सभी के लिए
प्रयागराज की पावन भूमि पर।


आप बेशक वहां सशरीर
उपस्थित नहीं हो सकते ,
पर यह तो संभव है कि
आप अपने घर पर
स्नान ध्यान करते हुए
इस पावन पर्व का
हृदय से स्मरण कीजिए ,
स्वयं को संतुलित रखने की
अपने अपने इष्टदेव से मंगल कामना कीजिए।
ऐसा करने भर से
आप को संगम स्नान का फल हो
जाता है प्राप्त।
सूक्ष्म रूप से
समस्त ब्रह्माण्ड
परस्पर एक परम चेतना से
जुड़ा हुआ है ,
इसलिए आप किसी भी
देश दुनिया के कोने में रहें ,
किसी भी मज़हब और संप्रदाय से संबंध रखते हों ,
सूक्ष्म रूप से
कहीं भी,
कभी भी,
किसी भी समय
कुंभ स्नान कर सकते हैं,
अपने को सुख समृद्धि और सम्पन्नता से
जोड़ सकते हैं,
आस्थावान बन सकते हैं।
स्वयं को परम चेतना का साक्षात्कार करवाने में
सफल हो सकते हैं।
नैर्मल्य प्राप्त कर सकते हैं।
15/01/2025.
जीवन बेइंतहा दौड़ धूप से
कहीं एक तमाशा न लगने लग जाए ,
इससे पहले ही अपने हृदय के भीतर
आशा के फूल खिलाओ।
ये सुगंधित पुष्प सहज रहने से
जीवन वाटिका में लेते हैं आकार
अतः स्वयं को व्यर्थ की भाग दौड़ से बचाओ।
निज जीवन धारा में निखार लाकर
अपने को मानसिक तौर से भी
स्वच्छ और उज्ज्वल बनाने में सक्षम बनाओ।
इसलिए श्रम साध्य जीवन शैली
और सार्थक सोच को
अपने व्यक्त्तिव के भीतर विकसित करो।
जीवन के उतार चढ़ावों से न डरते फिरो।
अपने आप को सुख समृद्धि
और संपन्नता से भरपूर करो।
जीवन निराशा और हताशा की गर्त में न डूब जाए ,
इसे ध्यान में रखकर अपने जीवन को सार्थक बनाओ।
अपने और दूसरों के जीवन में सहयोग से
जीवन में ऊर्जा, सद्भावना
और जिजीविषा की सुगंध फैलाओ।
सदैव मन में आशा के पुष्प खिलाओ।
१४/०१/२०२५.
घर और परिवार में
न हो कभी क्लेश
इसलिए
वे दोनों
उम्र बढ़ने के साथ साथ
एक दूसरे को
ठेस
पहुंचाने की
पुरानी आदत को
रहे हैं
धीरे धीरे छोड़।
यह उनके जीवन में
आया है एक नया मोड़।

आजकल
दोनों मनमानियाँ
करना
पूर्णरूपेण गए हैं भूल।
बस
दोनों तन्हा रहते हैं,
चुप रहकर
अपना दुखड़ा कहते हैं !
कभी कभी
आमना सामना होने पर
मुस्करा कर रह जाते हैं !!

उनके दाम्पत्य जीवन में
हर क्षण बढ़ रही है समझ ,
वे छोड़ चुके हैं करना बहस।

वे परस्पर
घर तोड़ने की बजाय
चुप रहना पसंद करते हैं ,
शायद इसे ही
समझौता कहते हैं ,
वे पीड़ाओं से घिरे
फिर भी
एक दूसरे की
दिनचर्या को देखने भर को
बुढ़ापे का सुख मानते हैं।

उनकी संवेदना और सहृदयता
दिन पर दिन रही है बढ़।
जीवन में मतवातर
आगे बढ़ने और हवा में उड़ने की ललक
थोड़ी सी गई है रुक।
वे अब अपने में ठहराव देख रहे हैं।
अपने अपने घेरे में सिमट कर रह गए हैं।

घर और परिवार में अब न बढ़े क्लेश
इसलिए अब वे हरदम चुप रहते हैं।
पहले वे बातूनी थे,
पर अब उनके परिचित
उन्हें गूंगा कहते हैं।
वे यह सुन कर, अब जलते भुनते नहीं,
बहरे बन कर रह जाते हैं !
कहीं गहरे तक
अपने आप में डूब जाते हैं !!
वे डांटते नहीं, डांट खाना सीख चुके हैं !!
फलत: खुद को सुखी मानते हैं।
और इसे जीवन में सही मानते भी हैं
ताकि जीवन में वजूद बचा रहे ,
जीवन अपनी गति से आगे बढ़ता रहे।
२९/०४/२००५.
ਅੱਜ ਲੋਹੜੀ ਹੈ
ਦੁੱਲਾ ਭੱਟੀ ਨੂੰ ਯਾਦ ਕਰਨ ਦਾ ਦਿਹਾੜਾ,
ਸਾਡੇ ਪੰਜਾਬੀਆਂ ਦਾ ਰੋਬਿਨ ਹੁੱਡ ।

ਅੱਜ ਲੋੜ ਹੈ
ਇੱਕ ਵਾਰ ਫਿਰ
ਦੁੱਲਾ ਭੱਟੀ ਦੀ ,
ਪੰਜਾਬ ਦੀਆਂ ਧੀਆਂ
ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿੱਚ
ਖਾਂਦੀਆਂ ਪਈਆਂ ਨੇ ਧੱਕੇ ,
ਅੱਜ ਕੱਲ ਦੇ ਔਖੇ ਸਮੇਂ ਵਿੱਚ
ਉਹ ਹੋ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ
ਕਦੇ ਕਦੇ
ਸ਼ੋਸ਼ਣ ਦਾ ਸ਼ਿਕਾਰ
ਉਹ ਭਾਲ ਦੀਆਂ ਨੇ
ਦੁੱਲਾ ਭੱਟੀ ਵਰਗਾ ਪਿਓ
ਜਿਹੜਾ ਰੱਖ ਸਕੇ ਖ਼ਿਆਲ
ਧੀਆਂ ਦਾ
ਔਖੇ ਸਮੇਂ ਵਿੱਚ।
ਅੱਜ ਕੱਲ ਕੁੜੀਆਂ ਦੀਆਂ
ਲੋਹੜੀ ਮਨਾਉਣ ਦਾ
ਵੱਧ ਗਿਆ ਹੈ ਰਿਵਾਜ,
ਪਰ ਜਦੋਂ ਅਗਲੇ ਦਿਨ
ਉਨ੍ਹਾਂ ਨਾਲ ਧੱਕਾ ਹੁੰਦਾ ਵੇਖਦਾ ਹਾਂ
ਤਾਂ ਮਨ ਵਿੱਚ ਉਠੱਣ ਲੱਗ ਪੈਂਦੇ ਹਨ
ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਸਵਾਲ ।
ਇਹ ਸਵਾਲ ਇਕੱਠੇ ਹੋ ਕੇ
ਦਿਲੋਂ ਦਿਮਾਗ ਵਿੱਚ
ਪੈਦਾ ਕਰ ਦਿੰਦੇ ਹਨ ਬਵਾਲ।
ਅੱਜ ਧੀਆਂ ਨੂੰ ਹੈ ਇੰਤਜ਼ਾਰ
ਦੁੱਲਾ ਭੱਟੀ ਦਾ
ਜਿਹੜਾ ਦਿਲਾ ਸਕੇ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਸੁਰੱਖਿਆ ਦਾ ਅਹਿਸਾਸ।
ਅੱਜਕੱਲ੍ਹ ਦੁੱਲਾ ਭੱਟੀ ਵਰਗੇ ਦਿਲਾਵਰ ਅਤੇ ਬਹਾਦਰ
ਬਹੁਤ ਘੱਟ ਨਜ਼ਰ ਆਉਂਦੇ ਹਨ
ਜਿਹੜੇ ਆਪਣੇ ਰਸੂਖ਼ ਦੇ ਕਾਰਨ
ਧੀਆਂ ਦੇ ਵੈਰੀਆਂ ਨੂੰ
ਸੌਖੇ ਤੇ ਸਹਿਜੇ ਹੀ ਧੂੜ ਚੱਟਾ ਸੱਕਣ,
ਉਨ੍ਹਾਂ ਉੱਤੇ ਨਕੇਲ ਪਾਉਣ ਲਈ ਉਪਰਾਲੇ ਕਰ ਸੱਕਣ।

ਬੇਸ਼ੱਕ ਅੱਜ ਲੋਹੜੀ ਹੈ
ਤੇ ਕੱਲ ਲੋਕ ਮਾਘੀ ਵੀ ਮਨਾਉਣਗੇ,
ਪਰ ਕਦੋਂ ਉਹ ਆਪਣਾ ਸੱਚਾ ਸੁੱਚਾ ਕਿਰਦਾਰ ਨਿਭਾਉਣਗੇ ?

ਅਸੀਂ ਚਾਹੁੰਦੇ ਹਾਂ ਕਿ
ਸਭਨਾਂ ਦੀ ਲੋਹੜੀ ਖੁਸ਼ੀਆਂ ਭਰਪੂਰ ਹੋਵੇ ,
ਨਾਲ ਹੀ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਮਨਾਂ ਦੇ ਅੰਦਰ
ਕਦਰਾਂ ਤੇ ਕੀਮਤਾਂ ਦਾ ਅਹਿਸਾਸ ਹੋਵੇ।
13/01/2025.
कभी कभी अज्ञान वश
आदमी एक शव
जैसा लगने लग जाता है
और दुराग्रह ,पूर्वाग्रह की वजह से
करने लगता है
किसी भाषा विशेष का विरोध।
ऐसे मनुष्य से है अनुरोध
वह अपनी भाषा की
सुंदर और प्रभावशाली कृतियों को
अनुवाद के माध्यम से
करे प्रस्तुत और अभिव्यक्त
ताकि जीवन बने सशक्त।
भाषा विचार अभिव्यक्ति का साधन है।
यह सुनने ,बोलने,पढ़ने और लिखने से
अपना समुचित आकार ग्रहण करती है।
सभी को मातृ भाषा अच्छी लगती है ?
पर क्या इस एक भाषा के ज्ञान से
जीवन चल सकता है ?
आदमी आगे बढ़ना चाहता है।
यदि वह रोज़गार को ध्यान में रख कर
और भाषाएं सीख ले तो क्या हर्ज़ है ?
बल्कि आप जितनी अधिक भाषाएं सीखते हैं ,
उतने ही आप प्रखर बनते हैं।
अतः आप व्यर्थ का भाषा विरोध छोड़िए ।
हो सके तो कोई नई भाषा सीखिए।
आपको पता है कि हमारी लापरवाही से
बहुत सी भाषाएं दिन प्रति दिन हो रहीं हैं लुप्त।
उनकी खातिर आप अपने जीवन में
कुछ भूली बिसरीं भाषाएं भी जोड़िए।
ये विस्मृत भाषाएं
आप की मातृ भाषा का
बन सकती हैं श्रृंगार।
इससे क्या आप करेंगे इंकार ?
हो सके तो आप मेरे क्षेत्र विशेष में आकर
अपनी मातृभाषा के जीवन सौंदर्य का परिचय करवाइए।
अपनी मातृभाषा को पूरे मनोयोग से पढ़ाइएगा।
हमें ‌ज्ञान का दान देकर उपकृत कर जाइएगा।
१२/०१/२०२५.
कभी कभी हादसा हो जाता है
जब इर्द गिर्द धुंध फैली हो,
और हर कोई तीव्र गति से
आगे बढ़ना चाहता हो,
मंज़िल पर पहुंचना चाहता हो।
आदमी ही न रहे तो क्या यात्रा का फायदा है ?
अतः धुंध के दिनों में अतिरिक्त सावधानी रखिए।
भले ही गंतव्य पर देरी से पहुंचना पड़े,
सुरक्षित रहने को
अपनी प्राथमिकता बनाइए।
धुंध का पड़ना स्वाभाविक है,
पर इस मौसम में तेज़ी करना
नितांत अस्वाभाविक है।
कभी कभी हादसे से बचने के लिए
यात्रा टालना तक अच्छा होता है।
फिर भी यदि कोई मज़बूरी है
तो जितना हो सके ,
अपनी चाल धीमी कर लें।
जीवन में धीमेपन को स्वीकार कर लें।
अपने भीतर
तनिक धैर्य को धारण कर लें
और अपने दिमाग में
अस्पष्टता की धुंध और कुहासे को
हावी न होने दें ,
ताकि जीवन में जीवंतता बची रहे।
जीवन में वजूद
धुंध और कुहासे के बावजूद
अपना अहसास कराता रहे।
अनमोल जीवन अपनी सार्थकता को वर सके।
१२/०१/२०२५.
आज
आसपास
बहुत से लोग
बोल रहे हैं
नफ़रत की बोली ,
जो लगती है
सीने में गोली सी।
वे लोग
डाल डाल और पात पात पर
हर पल डोलने वाले ,
अच्छे भले जीवन में
विष घोलने वाले ,
देश , समाज और परिवार को
जड़ से तोड़ने में हैं लगे हुए।

उनसे मेरी कभी बनेगी नहीं ,
क्योंकि वे कभी सही होना चाहते नहीं।

वे समझ लें समय की गति को ,
आदमी की मूलभूत प्रगति की लालसा को ।
यदि वे इस सच को समझेंगे नहीं ,
तो उनकी दुर्गति होती रहेगी।
उन्हें हरपल शर्मिंदगी झेलनी पड़ेगी।
जिस दिन वे स्वयं की सोच को
बदलना चाहेंगे।
समय के साथ चलना चाहेंगे।
ठीक उस दिन वे जनता जर्नादन से हिल मिल कर
निश्चल और निर्भीक बन पाएंगे।
वे होली की बोली ख़ुशी ख़ुशी बोलेंगे।
उनकी झोली होली के रंगों से भर जाएगी ।
उन्हें गंगा जमुनी तहज़ीब की समझ आ जाएगी।
वे सहयोग, सद्भावना और सामंजस्य से
जीवन पथ पर अग्रसर हो जाएंगे।
देश , धरा और समाज पर से
संकट के काले बदल छंट जाएंगे।
सब लोग परस्पर सहयोग करते दिख जाएंगे।
११/०१/२०२५.
प्रारब्ध
जीवन और मरण
आरम्भ और अंत
अंत और आरंभ से संप्रकृत
एक घटनाक्रम भर है ,
जो जीवन चक्र का हिस्सा भर है।
यहां अंत में
आरम्भ की संभावना की
खोज करने की लालसा है
और साथ ही
आरम्भ में सुख समृद्धि और संपन्नता की
मंगल कामना निहित रहती है।
सृष्टि में कुछ भी नष्ट नहीं होता है।
महज़ दृष्टि परिवर्तन और ऊर्जा का रूपांतरण होता है।


आदमी की सोच में
उपरोक्त विचार कहां से आते हैं ?
यह सच है कि प्रारब्ध एक घटनाक्रम भर है।
यह सिलसिला है कभी न समाप्त होने वाला
जिससे जुड़े हैं कर्मों के संचित फल और उन्हें भोगना भर ,
कर्मों को भोगते हुए, नए कर्म फलों को निर्मित करना,
सारे कर्म फल एक साथ भोगे नहीं जा सकते ,
ये संग्रहित होते रहते हैं बिल्कुल एक बैंक बैलेंस की तरह।

आरम्भ के अंत की बाबत सोचना
एक आरंभिक स्थिति भर है
और अंत का आरंभ भी एक क्षय का क्षण पकड़ना भर है
प्रारब्ध कथा कहती है कि कुछ नहीं होता नष्ट!
नष्ट होने का होता है आभास मात्र।
प्रारब्ध के मध्य से गुजरने के बाद
जीवात्मा विशिष्टता की ओर बढ़ती है।
यह जीवन यात्रा में उत्तरोत्तर उत्कृष्टता अर्जित करती है।

प्रारब्ध एक घटनाक्रम भर है।
जिसमें से गतिमान हो रहा यह जीवन चक्र है।
११/०१/२०२५.
तुम्हारे साए में
तुम्हारे आने से
परम सुख मिलता है , अतिथि !
हमारा सौभाग्य है कि
आपके चरण अरविंद इस घर में पड़े ।
तुम्हारे आने से इस घर का कण कण
खिल उठा है।
मन परम आनंद से भर गया है।
इस घर परिवार का
हरेक सदस्य पुलकित और आनंदित हो गया है ।

जब आपका मन करे
आप ख़ुशी ख़ुशी यहाँ
आओ अतिथि !
हम सब के भीतर
जोश और उत्साह भर जाओ।
तुम हम सब के सम्मुख
एक देव ऋषि से कम नहीं हो ,बंधु !
हम सब "अतिथि देवो भव: "के बीज मंत्र को
तन मन से शिरोधार्य कर
जीवन को सार्थक करना चाहते हैं , अतिथि !
तुम्हारे दर्शन से ही
हम प्रभु दर्शन की कर पाते हैं अनुभूति,
हे प्रभु तुल्य अतिथि !!

एक बार आप सब
मेरे देश और समाज में
अतिथि बनकर पधारो जी।
आप आत्मीयता से
इस देश और समाज के कण कण को
सुवासित कर जाओ।
आपकी मौजूदगी और भाव वात्सल्य के
जादू से
यह जीवन और संसार
रमणीय बन सका है, हे अतिथि!
आपके आने से ,
आतिथ्य सुख की कृपा बरसाने से ,
इस सेवक की प्रसन्नता और सम्पन्नता
निरंतर बढ़ी है।
जीवन की यह अविस्मरणीय निधि है।
आप बार बार आओ, अतिथि।
आप की प्रसन्नता से ही
यहां सुख समृद्धि आती है।
वरना जिंदगी अपने रंग और ढंग से
अपने गंतव्य पथ पर बढ़ रही है।
यह सभी को अग्रसर कर रही है।
२५/०८/२००५.
जीवन अच्छा लगता है
यदि यह निरन्तर गतिशीलता का
आभास करवाता रहे।
और जैसे ही
यह जड़ता की प्रतीति करवाने लगे
यह निरर्थक और व्यर्थ बने।
जीवन गुलाब सा खिला रहे,
इसके लिए
आदमी निरंतर
संघर्ष और श्रम साध्य जीवन जीए
ताकि स्थिरता बनी रहे।
आदमी कभी भी
थाली का बैंगन सा न दिखे ,
वह इधर उधर लुढ़कता
किसे अच्छा लगता है ?
ऐसे आदमी से तो भगोड़ा भी
बेहतर लगता है।
सब स्थिरता के साथ जीना चाहते हैं,
वे भला कब खानाबदोश जिन्दगी को
बसर करना चाहते हैं ?
सभी स्थिर रहकर सुख ढूंढना चाहते हैं।
१०/०१/२०२५.
दोस्त ,
अंधेरे से डरना ,
अंधेरे में जीना और मरना
अब भाता नहीं है।
मुझे रोशनी चाहिए।
शुभ कर्मों की चांदनी चाहिए।

अब मैं
अंधेरे और उजाले में
ज़िंदगी के रंगों को देखता हूं।
धूप और छाया से सजे
ज़िंदगी के दरख्त को सींचता हूं।

बगैर रोशनी के
खोये हुए
स्मृति चिन्हों को ढूंढ़ना
आजकल मेरा प्रिय कर्म है!
रोशनी के संग
सुकून खोजना धर्म है।
अंधेरे और उजाले के
घेरे में रहकर
जीवन चिंतन करते हुए
सतत् आगे बढ़ना ही
अब बना जीवन का मर्म है।
यह जीव का कर्म है।
जीवंतता का धर्म है।

वैसे तो अंधेरे से डरना
कोई अच्छी बात नहीं है,
परन्तु यह भी सच है कि
आदमी कभी कभी
रोशनी से भी डरने लगता है।
आदमी कहीं भी मरे ,
रोशनी में या अंधेरे में,
बस वह निकल जाए
डर के शिकंजे में से।
मरने वाले रोशनी के
होते हुए भी अंधेरे में खो जाते हैं,
शलभ की तरह नियति पाते हैं।
इससे पहले कि
जीवन ढोने जैसा लगने लगे ,
हम आत्मचिंतन करते हुए
जीवन के पथ पर
अपने तमाम डरों पर
जीत हासिल करते हुए ‌बढ़ें।
अपने भीतर जीवन ऊर्जा भर लें।
२२/०९/२००५.
आज
जीवन के मार्ग पर
निपट अकेले होते जाने का
हम दर्द
झेल रहे हैं
तो इसकी वज़ह
क्या हो सकती है?
इस बाबत कभी
सोचा होगा
आपने
कभी न कभी
और विचारों ने
इंगित किया भी होगा कि
क्या रह गई कमी ?
क्यों रह गई कमी ?

आजकल
आदमी स्वयं की
बाबत संजीदगी से
सोचता है ,
वह पर सुख की
बाबत सोच नहीं
पाता है ,
इस सब स्वार्थ की
आग ने
उसे झुलसा दिया है,
वह अपना भला,
अपना लाभ ही
सोचता है।
कोई दूसरा
जीये या मरे,
रजा रहे या भूखा मरे ,
मुझे क्या?...
जैसी अमानुषिक सोच ने
आज जन-जीवन को
पंगु और अपाहिज कर
दिया है,
बिन बाती और तेल के
दिया कैसे
आसपास को
रोशन कर सकता है ?
क्या कभी यह सब
कभी मन में
ठहराव लाकर
सोच विचार किया है कभी ?
बस इसी कमी ने
आदमी का जीना दुश्वार किया है।
आज आदमी भटकता फिर रहा है।
स्वार्थ के सर्प ने सबको डस लिया है।

मन के भीतर
हद से ज्यादा होने
लगी है उथल-पुथल
फलत: आज
आदमी
बाहर भीतर से
हुआ है शिथिल
और डरा हुआ।
वह सोचने को हुआ है मजबूर !
कभी कभी जीवन क्यों
लगता है रुका हुआ !!
इस मनो व्यथा से
यदि आदमी से
बचना चाहता है
तो यह जरूरी है कि
वह संयमी बने,
धैर्य धन धारण करें।

१०/०१/२०२५.
कुछ सार्थक इस वरदान तुल्य जीवन में वरो।
यूं ही लक्ष्य हीन
नौका सा होकर
जीवन धारा में
बहते न  रहो ।
अरे! कभी तो
जीवन की नाव के
खेवैया बनने का प्रयास करो।
तुम बस अपने भीतर
स्वतंत्रता को खोजने की
दृढ़ संकल्प शक्ति भरो।
स्वयं पर भरोसा करो।
तुम स्व से संवाद रचाओ।
निजता का सम्मान करो।
अपने को जागृत करने के निमित्त सक्षम बनाओ।
स्वतंत्रता की अनुभूति
निज पर अंकुश लगाने पर होती है।
अपने जीवन की मूलभूल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए
दूसरों पर आश्रित रहने से
यह कभी नहीं प्राप्त  होती है।
स्वतंत्रता की अनुभूति
स्वयं को संतुलित और जागरूक रखने से ही होती है।
वरना मन के भीतर निरंतर
बंधनों से बंधे होने की कसक
परतंत्र होने की प्रतीति शूल बनकर चुभती है।
फिर जीवन धारा अपने को
स्वतंत्र पथ पर कैसे ले जा पाएगी ?
यह क़दम क़दम पर रुकावटों से
जूझती और संघर्ष करती रहेगी।
यह जीवन सिद्धि को कैसे वरेगी ?
जीवन धारा कैसे निर्बाध आगे बढ़ेगी ?
१०/०१/२०२५.
जीवन में
सब को लाभ उठाना आना चाहिए ,
सबका भला होना चाहिए।
यह सब स्वत:
कभी होगा नहीं।
इस के लिए
सभी को
सही दिशा में
खुद को आगे बढ़ाना चाहिए।
छोटी-छोटी उपलब्धियों से ही
संतुष्ट नहीं रह जाना चाहिए।
बल्कि सतत् मेहनत करने की आदत
अपने ज़िंदगी में  
अपनानी चाहिए।
लाभ सबका भला करता है ,
यह जीवन में सुख का अहसास भरता है ,
बस अनुचित लाभ कमाना
समाज और देश दुनिया को
निर्धन करता है,
यह जीवन में
असंतोष तक भर सकता है।
सब को  लाभ होना ही चाहिए
परन्तु इसका कुछ अंश भी
समय समय पर
लोक कल्याण के हेतु
निवेश किया जाना चाहिए
ताकि समरसता और समानता का आदर्श
व्यक्ति व समाज में
सहिष्णुता का संस्पर्श करा सके ,
और लाभ
लोक भलाई के आयाम निर्मित कर
उज्ज्वल, उजास , ऊर्जा भरपूर होकर
जीवन धारा को आगे ही आगे बढ़ाता रहे।
जीवन सुख समृद्धि और सम्पन्नता की प्रतीति करा सके।
१०/०१/२०२५.
मुझे
वह हमेशा...
जो कोठे में बंदी जीवन
जी रही है
और
जो दिन में
अनगिनत बार बिकती है,
हर बार बिकने के साथ मरती है,
पल प्रतिपल सिसकती है
फिर भी
लोग कहते हैं
उसे इंगित कर ,
"मनमर्ज़ियां करती है।"
वह मुझे हमेशा से
अच्छी और सच्ची लगती है।
दुनिया बेवजह उस पर ताने कसती है।
जिसे नीचा दिखाने के लिए,
जिसे प्रताड़ित करने के लिए
दुनिया भर ने साज़िशों  को रचा है।
इस मंडी की निर्मिति की है,
जिसमें आदमजात की
सूरत और सीरत बसी है।

वह क्या कभी
किसी क्षण
भावावेगों में बहकर
सोचती है कि
मैं किस घड़ी
उस पत्थर से उल्फत कर बैठी ?
जिसने धोखे से बाज़ार दिया।
और इसके साथ साथ ही
सौगात में
पल पल , तिल तिल कर
भीतर ही भीतर
रिसने और सिसकने की
सज़ा दे डाली।
वह निर्मोही जीवन में
सुख भोगता होगा
और मैं उल्फत में कैद!
एक दुःख, पीड़ा, कष्ट और अजाब झेलती
उम्र कैदी बनी
रही हूं जीवन के
पिंजरे मे पड़ी हुई पछता।

कितना रीत चुकी हूं ,
इसका कोई हिसाब नहीं।
बहुतों के लिए आकर्षण रही हूं ,
भूली-बिसरी याद बनी हूं।
यह सोलह आने सच है कि
पल पल घुट घुट कर जीती हूं ,
दुनिया के लिए एकदम गई बीती हूं।

मेरा चाहने वाला ,
साथ ही बहकाने वाला
क्या कभी अपनी करनी पर
शर्मिंदा होता होगा ?
उसका भीतर
गुनाह का भार
समेटे व्यग्र और रोता होगा ?

शायद नहीं !
फिर वह ही क्यों
बनती रही है शिकार
मर्द के दंभ और दर्प की !

यह भी एक घिनौना सच है कि
आदिकाल से यह सिलसिला
चलता आया है।
जिसने बहुतों को भरमाया है
और कइयों को भटकाया है।
पता नहीं इस पर
कभी रोक लगेगी भी कि नहीं ?
यह सब सभ्य दुनिया के
अस्तित्व को झिंझोड़ पाएगा भी कि नहीं ?
उसके अंदर संवेदनशीलता
जगा भी पाएगा कि नहीं ?
यह जुल्मों सितम का कहर ढाता रहेगा।
सब कुछ को पत्थर बनाता रहेगा।
कफ़न
शब्दों का सतत्
ओढ़ा कर
विचार और व्यवहार पर।
जीवन की गुत्थी
भले ही
समझ
आए न आए ,
खुद को कतई
हताश न कर ।

ज़िंदगी
बढ़ती चली गई है
आगे और आगे ,
फिर हम ही क्यों
जीवन की कटु सच्चाई से भागें ?
क्यों न हम सब
जीवन धारा के संग भ्रमण करें !
क़दम दर क़दम आगे बढ़
निज जीवन शैली में सुधार करें !!
अपने भीतर निखार लाकर
निरंतर आगे बढ़ने के प्रयास करें !!!
आओ , आज सब इस बाबत विचार विमर्श करें।
इसके साथ साथ सब स्वयं के भीतर नया विश्वास भरें।
०६/१२/१९९९.
Jan 9 · 41
विवशता
एक अदद कफ़न का
इस्तेमाल
कुर्ते पाजामा
बनवाने में
कर लिया तो क्या बुरा किया।
अगर कोई गुनाह कर लिया तो कर लिया।
वे देखते हो जिंदा इंसानों के मुर्दा जिस्म ,
जो मतवातर काम करते हुए
एक मशीन बने हैं।
घुट घुट कर जी रहे हैं।

वह देखते हो
अपनी आंखों के सामने
गूंगा बना शख़्श
जो घुट घुट कर जिया,
तिल तिल कर मर रहा ,
अंदर अंदर सुलग रहा।

वह कैसा शान्त नज़र आता है,
वह कितना उग्र और व्यग्र है,
वह भीतर से भरा बैठा है।
उसके अंदर का लावा बाहर आने दो।
उसे अभिव्यक्ति का मार्ग खोजने दो।

आज वह पढ़ा लिखा
बेरोजगारी का ठप्पा लगवाए है,
आगे बढ़ने के सपने भीतर संजोए हुए है।

पिता पुरखों की चांडालगिरी के धंधे में
आने को है विवश ,
एक नए पाजामे की
मिल्कियत का उम्मीदवार
भीतर से कितना अशांत है !!
महसूसो इसे !
सीखो ,इस जीवन की
विद्रूपता और क्रूरता को
कहीं गहरे तक महसूसने से !!
हमारे इर्द-गिर्द कितना
अज्ञान का अंधेरा पसरा हुआ है।
अभी भी हमें आगे बढ़ने के मौके तलाशने हैं।
इसी दौड़ धूप में सब लगे हुए हैं।
०६/१२/१९९९.
अचानक मेरे मनोमस्तिष्क में
कौंधा है एक ख्याल कि
क्या होगा
यदि यह जीवन
पूर्णतः मृत्युहीन हो जाए ?
मन ने तत्क्षण अविलम्ब उत्तर दिया
इस जीवन में बुझ ही जाएगा
आनंद का दिया।
जीवजगत निर्जीवता से
ज़िंदगी को ढ़ोता नज़र आएगा।
जीना साक्षात नर्क में रहने जैसा लगेगा।
सर्वस्व का आंतरिक विकास
जड़ से रुक जाएगा।
जीवन उत्तरोत्तर बोझिल होता जाएगा।
जीना दुश्वार हो जाएगा।
समस्त वैभव
अस्त व्यस्त ,‌ तहस नहस
बिखरा हुआ दिखाई देगा।
जीवंतता का अहसास तक लुप्त होगा।
जीवन में सर्वांग सुप्तावस्था की प्रतीति कराएगा।
मृत्युशैयाविहीन जीवन
भले ही
मृत्युहीनता का अहसास कराए ,
यह जीवन को निर्थकता से भर जाएगा।
जहां हर कोई त्रिशंकु होगा ,
अधर में लटका हुआ।
०८/०१/२०२५.
धर्म क्या है ?
यह जीवन में अच्छे और सच्चे
मूल्यों को धारण करना है ,
स्वयं को संतुलित रखना
और शुचिता के पथ पर अग्रसर करना है।
आप निरपेक्ष रहकर
जीवन में
भले ही आगे बढ़ने का
भ्रम पाल लें ,
भले ही मन को
समझा लें
कि आप सुरक्षित हैं ,
असलियत है कि
आप धर्मनिरपेक्षता के
आवरण में
पहले की निस्बत
अधिक असुरक्षित हैं।

आज
धर्म निरपेक्षता का
छद्म मुखौटा ओढ़े
लोग और दल
देश दुनिया और समाज को
दलदल में धकेल रहे हैं ,
अपनी रोजी रोटी ढूंढ रहे हैं।
यह मुखौटा ओढ़ने से
किसी भी मामले में ‌कम नहीं।
यह कतई सही नहीं है।
आप मुखौटा कब ओढ़ते हैं ?
आप मुखौटा क्यों ‌ओढ़ते हैं ?
अपनी ‌पहचान छुपाने के लिए !
किसी मकसद को हासिल करने के लिए !!
या कभी कभी विशुद्ध मनोरंजन करने के लिए !!!

मुखौटा ओढ़ कर
इधर उधर विचरण करना
खुद और सबसे
धोखा देना नहीं है क्या ?
यह सच से छिपना नहीं है क्या ?

धर्म निरपेक्षता एक छलावा है।
पंथ निरपेक्षता जीवन धारा को देना बढ़ावा है।
आदमी पंथ निरपेक्ष बने,
ताकि वह रोजमर्रा के जीवन में
निरंतर निर्विघ्न आगे बढ़ सके।
धर्म निरपेक्षता के सच को उजागर कर सके।
इतिहास के संदर्भ में धर्म निरपेक्षता को समझ सके।
०८/०१/२०२५.
आजकल
चापलूसी काम नहीं करती।
इस बाबत
आप क्या सोचते हैं ?
ज़रा खुल कर अपनी बात कहिए।
चापलूसी या खुशामद से
जल्दी दाल नहीं गलती।
इससे तो मायूसी हाथ आती है।
आदमी की परेशानी उल्टे बढ़ जाती है।

आज शत्रु के
सिर पर
यदि कोई
छत्र रखना चाहे ,
उसे मान सम्मान की
प्रतीति कराना चाहे
तो क्या यह
संभावना बन
सकती है ?
क्या वह आसानी से
उल्लू बन सकता है ?
कहीं वह तुम्हें ही न छका दे।
चुपके चुपके चोरी चोरी
मिट्टी में न मिला दे।
मन कहता है कि
पहले तो शत्रुता ही न करो,
अगर कोई गलतफहमी की वज़ह से
शत्रु बन ही जाता है
तो सर्वप्रथम उसकी गफलत दूर करने के
भरसक प्रयास करो।
फिर भी बात न बने
तो अपने क़दम पीछे खींच लो।
अपने जीवन को साधना पथ की ओर बढ़ाओ।
सुपात्र को शत्रु से निपटने के लिए
काम पर लगाओ ,
वह किसी भी तरह से
शत्रु से निपट लेगा।
साम ,दाम , दण्ड, भेद से
दुश्मन को अपने पाले में कर ही लेगा।
सुपात्र को सुपारी देने से
यदि कार्य होता है सिद्ध
तो सुपारी दे ही देनी चाहिए।
बस उसे युक्तिपूर्वक काम करने की
हिदायत दे दी जानी चाहिए,
ताकि लाठी भी न टूटे
और काम भी हो जाए।
०८/०१/२०२५.
Jan 7 · 39
ਮੁਕਾਮ
ਮੁੱਕਿਆ ਕੰਮ ,
ਹੁਣ ਕੁਝ ਮਿਲਿਆ ਆਰਾਮ।
ਪਰ ਰੁਕੀਂ ਨਾ ਮਿੱਤਰਾ !
ਹਾਸਿਲ ਨਹੀਂ ਹੋਇਆ
ਹੁਣ ਤੱਕ ਮੁਕਾਮ।
ਕੰਮ ਨੇ ਤਾਂ ਮੁੜ ਘਿਰ ਫਿਰ ਕੇ
ਫਿਰ ਆ ਜਾਣਾ ਹੈ ,
ਬੰਦਾ ਆਪਣੇ ਕੰਮਾਂ ਵਿੱਚ
ਹਮੇਸ਼ਾ ਰੁਝਿਆ ਰਹਿਗਾ,
ਆਖਿਰ ਕਦੋਂ ਉਹ
ਆਪਣੀਆਂ ਰੀਝਾਂ ਤੇ ਸੱਧਰਾਂ ਨੂੰ
ਪੁਰਾ ਕਰੇਗਾ ?
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਅੱਗੇ ਵਧੇਗਾ।
ਆਪਣੇ ਮੁਕਾਮ ਨੂੰ
ਹਾਸਿਲ ਕਰਨ ਲਈ
ਵੱਧ ਚੜ੍ਹ ਕੇ ਕੰਮ ਕਰੇਗਾ।
ਉਹ ਕਦੀ ਅਵੇਸਲਾ ਨਹੀਂ ਬਣੇਗਾ।
ਉਹ ਵਿਹਲੜ ਰਹਿ ਕੇ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਭਟਕਦਿਆਂ ਹੋਇਆ
ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਖੁਸ਼ੀਆਂ ਤੋਂ
ਵਾਂਝਾ ਨਹੀਂ ਕਰੇਗਾ।
07/01/2025.
हमारे यहां
अज्ञान के अंधेरे को
बदतर
अंधा करने वाला
माना जाता है।
फिर भी
कितने लोग अपने भीतर
झांककर
उजास की
अनुभूति कर पाते हैं ?
बल्कि वे जीवन में
मतवातर
भटकते रहते हैं।
अचानक रोशनी जाने से
मैं अपने आस पास को ढंग से
देख नहीं पाया था,
फलत: मेरा सिर
दीवार से जा टकराया था।
कुछ समय तक
मैं लड़खड़ाया था,
बड़ी मुश्किल से
ख़ुद को संभाल पाया था।
बस इस छोटी सी चूक से
मुझे अंधेरा अंधा कर देता है ,
जैसा खयाल मनो मस्तिष्क में
कौंध गया था।
इस पल मैं सचमुच
चौंक गया था।
यह सच है कि
घुप अंधेरा सच में
आदमी की देखने की सामर्थ्य को
कम कर देता है।
वह अंधा होकर
अज्ञान की दीवार से
टकरा जाता है।
इस टकरा जाने पर
उठे दर्द से
वह चौकन्ना भी हो जाता है।
वह संभलने की कोशिश कर पाता है।
यकीनन एक दिन वह
गिरकर संभलना सीख जाता है।
वह अथक परिश्रम के बूते आगे बढ़ पाता है।
०७/०१/२०२५.
समय को किसने देखा ?
समय दिखता नहीं ,
पर इसे किया जा सकता है महसूस।
रेत पर पड़ जाते हैं
पाँवों के निशान
और उन का अनुसरण करते हुए
पहुँचा जा सकता है
एक नतीजे पर ,
एक मंज़िल पर ,
किया जा सकता है एक सफ़र
सिफ़र होने तक।
यह सब समय रेखा तक
पहुँचने की
हो सकती है एक कोशिश ,
जिसमें छिप जाए
कभी कभी  
समय को जानने पहचानने की कशिश।

हर आदमी ,देश,दुनिया, समाज, घटना,दुर्घटना,
और बहुत कुछ
जुड़ी हुई है
समय रेखा से।
इसे देश धर्म के विकास और पतन के केन्द्र में
किया जा सकता है
विवेचित और व्याख्यायित।
समय चेतना , समायोचित क़दम बढ़ाना है।
और समयरेखा निर्मित करना समय को
समझने बुझने का एक सुंदर पैमाना है।
०७/०१/२०२५.
महाभारत में कौन थी मत्स्य कन्या
जिसने किया था विवाह
राजा शांतनु से और
जिसका संबंध
भीष्म पितामह से
आजीवन ब्रह्मचर्य  का पालन करने
और कुरु वंश  का संरक्षक बने रहने के
वचन लेने से
जोड़ा जाता
है ?
इस बाबत मुझे सूचित कीजिए !
मेरे भीतर व्याप्त भ्रम को  तनिक दूर कीजिए !!
हो सकता है कि  मैं गलत हूं।
मां सत्यवती के बारे में
मेरी जिज्ञासा शान्त कीजिए।

मरमेड की बाबत आपने सुना होगा।
अपने जीवन में भी एक जलपरी की खोज कीजिए।
सतरंगी इंद्रधनुषी मछली
और
गिप्पी मछली के बारे में भी
कुछ खोजबीन कीजिए ,
अपनी सोच में
एक मीन को भी जगह दीजिए।
शायद कोई मीन जैसी आंखों वाली
कोई गुड़िया दिख जाए।
जीवन के प्रति आकर्षण बढ़ जाए।
जीवन में धरा पर ही नहीं जीवन है ,
बल्कि यह आकाश और जल में भी पनपता है ,
इस बाबत भी सोचिए।
उनके लिए भी सोचिए
जो धरा से इतर
जल और वायु में श्वास ले रहे हैं !
जीवन को आकर्षक बनाने में भरपूर योगदान दे रहे हैं!!
०७/०१/२०२५.
कल ख़बर आई थी कि
शहर में
अचानक
सुबह सात बजे
एक इमारत
धराशाई हो गई
गनीमत यह रही कि
प्रशासन ने
एक सप्ताह पूर्व
इस इमारत को
असुरक्षित घोषित
करवा दिया था
वरना जान और माल का
हो सकता था
बड़ा भारी भरकम नुक्सान।

आज इस बाबत
अख़बार में ख़बर पढ़ी
यह महफ़िल रेस्टोरेंट वाली
इमारत थी
वहीं पास की इमारत में
मेरे पिता नौकरी करते थे।
इस पर मुझे लगा कि
कहीं मेरे भीतर से भी
कुछ भुर-भुरा कर
झर रहा है ,
समय बीतने के साथ साथ
मेरे भीतर से भी
इस कुछ का झरना  
मतवातर बढ़ता जा रहा है ,
यह तन और मन भी
किसी हद तक धीरे धीरे
खोखला होता जा रहा है।
जीवन में से कुछ
महत्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दों का कम होना
जीवन में  खालीपन को भरता जा रहा है।
मुझे यकायक अहसास हुआ कि इर्द-गिर्द
कुछ नया बन रहा है ,
कुछ पुराना धीरे-धीरे
मरता जा रहा है ,
जीवन के इर्द-गिर्द कोई
चुपचाप मकड़जाल बुन रहा है।

ज्यों ज्यों शहर
तरक्की कर रहा है,
त्यों त्यों बाज़ार
अपनी कीमत बढ़ा रहा है।
यह इमारत भी कीमती होकर
तीस करोड़ी हो चुकी थी।
आजकल इस के भीतर
रेनोवेशन का काम चल रहा था।
वह भी बिना किसी से
प्रशासनिक अनुमति लिए।

प्रशासन ने बगैर कोई देरी किए
शहर भर की पुरानी पड़ चुकी इमारतों का
स्ट्रक्चरल आडिट करवाने का दे दिया है आदेश।

मैं भी एक पचास साल से भी
ज़्यादा पुराने मकान में रह रहा हूं ,
मैं चाहता हूं कि
बुढ़ाते शहर की पुरानी इमारतों को
स्ट्रक्चरल आडिट रिपोर्ट के
नियम के तहत लाया जाए ।
असमय शहरी जनसंख्या को
दुर्घटनाग्रस्त होने से बचाया जाए।

और हां, यह बताना तो
मैं भूल ही गया कि मेरा शहर
भूकम्प की संभावना वाली
एक अतिसंवेदनशील श्रेणी में आता है।
फिर भी यहां बहुत कुछ
उल्टा-सीधा होता नज़र आता है ,
यहां का सब कुछ भ्रष्टाचार से मुक्त होना चाहता है।
पर विडंबना है कि अचानक इमारत के
गिरने जैसी दुर्घटना के इंतजार में
इस शहर की व्यवस्था
आदमी के असुरक्षित होने का
हरपल अमानुषिक अहसास करवाती है।
क्यों यहां सब कुछ ,
कुछ कुछ अराजकता के
यत्र तत्र सर्वत्र व्यापे  होने का
बोध करा रहा है ?
क्या यहां सब कुछ  
मलियामेट होने के लिए सृजित हुआ है ?
कभी कभी यह शहर
अस्त व्यस्त और ध्वस्त जैसे
अनचाहे दृश्य दिखाता दिखाई देता है ,
चुपके से मन को ठेस पहुंचा देता है।
०७/०१/२०२५.
Jan 6 · 30
दौड़
साला
कोल्हू का बैल
खेल गया खेल !
नियत समय पर
आने की कहकर
हो गया रफूचक्कर !!
आने दो
बनाता हूँ उसे घनचक्कर!
यह सब एक दिन
कोल्हू के बैल के
मालिक ने यह सब सोचा था।
पर कोल्हू का बैल
बड़ी सफ़ाई से
खुद को बचा गया था।
आज वह अपने मालिक को
वक़्त की गति को पूर्णतः
गया है समझ
कि विश्व गया है बदल
अतः उसे भी अब बदलना होगा।
जैसे की तैसे वाली नीति पर चलना होगा।
अब वह मालिक को सबक
सिखाना चाहता है
और मालिक से सीख लेने की बजाय
मालिक को भीख और
अनूठी सीख देना चाहता है।

आज मिस्टर बैल तो
आगे बढ़ा ही है, उसका मालिक भी
अभूतपूर्व गति से गया है बढ़ !
वह कोल्हू के बैल से और सख्ती से लेता है काम।

कोल्हू का बैल
सोचता रहता है अक्सर कि
क्या खरगोश और कछुए की दौड़ में
आज कछुआ जीत भी पाएगा ?
साले खरगोश ने तो
अब तक अपनी यश कथा
पढ़ी ही नहीं होगी,
बल्कि उस दुर्घटना से
जीवन सीख भी ले ली होगी कि
दौड़ में रुके नहीं कि गए काम से !
फिर तो ज़िन्दगी भर रोते रहना आराम से !!
यह सोच वह मुस्कराया और जुट गया
अपने काम में जी जान से।
उसे भी जीवन की दौड़ में
पीछे नहीं रहना है।
समय के बहाव में बहना है।
१४/११/१९९६.
Jan 6 · 32
Topsy Turvey World
In an illusionary world
how can a person keep
stablise his mind to revive the peace and calmness in daily life.
When everything here is positioned in a topsy turvey state.
Than how can a person keep his promises to execute in life?
So that the life reflects it' s glory in present  scenario of the human society.
To maintain the rhythm of life in a topsy turvey state of mind is very essential for all to sustain the peace of mind.
मन की गति बड़ी तीव्र है !
इसे समझना भी विचित्र है!
मन का अधिवास है कहां ?
शायद तन के किसी कोने में!
या फिर स्वयं के अवचेतन में!
मन इधर उधर भटकता है !
पर कभी कभी यह अटकता है!!
यह मन , मस्तिष्क में वास करता है।
आदमी सतत इस पर काबू पाने के
निमित्त प्रयास करता रहता है।
यदि एक बार यह नियंत्रित हो जाए ,
तो यह आदमी के भीतर बदलाव लाता है।
आदमी बदला लेना तक भूल जाता है।
उसके भीतर बाहर ठहराव जो आ जाता है।
यह जीव को मंत्र मुग्ध करता हुआ
जीवन के प्रति अगाध विश्वास जगाता है।
यह जीवंतता की अनुभूति बन कर
मतवातर जीवन में उजास भरता जाता है
आदमी अपने मन पर नियंत्रण करने पर
मनस्वी और मस्तमौला बन जाता है।
वह हर पल एक तपस्वी सा आता है नज़र,
उसका जीवन  और दृष्टिकोण
आमूल चूल परिवर्तित होकर
नितांत जड़ता को चेतनता में बदल देता है।
वह जीवन में उत्तरोत्तर सहिष्णु बनता चला जाता है।
मन हर पल मग्न रहता है।
वह जीवन की संवेदना और सार्थकता का संस्पर्श करता है।
मन जीवन के अनुभवों और अनुभूतियों से जुड़कर
सदैव
क्रियाशील रहता है।
सक्रिय जीवन ही मन को
स्वस्थ और निर्मल बनाता है।
इस के लिए
अपरिहार्य है कि
मन रहे हर पल कार्यरत और मग्न ,
यह एक खुली किताब होकर
सब को सहज ही शिखर की और ले जाए।
इस दिशा में
आदमी कितना बढ़ पाता है ?
यह मन के ऊपर
स्व के नियंत्रण पर निर्भर करता है ,
वरना निष्क्रियता से मन बेकाबू होकर
जीवन की संभावना तक को
तहस नहस कर देता है।
कभी कभी मन की तीव्र गति
अनियंत्रित होकर जीवन में लाती है बिखराव।
जो जीवन में तनाव की बन जाती है वज़ह ,
फलस्वरूप जीवन में व्याप्त जाती है कलह और क्लेश।
इस मनःस्थिति से बचना है तो मन को रखें हर पल मग्न।


०६/०१/२०२५.
ਸੁਣਿਆ ਹੈ ,ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੇ ਧਰਨਾ ਲਗਾਇਆ ਹੋਇਆ ਹੈ ।
ਇਹ ਨੌਬਤ ਕਿਉਂ ਆਈ ?
ਕਿਸਾਨ ਇਨ੍ਹਾਂ ਵੀ ਗ਼ਰੀਬ ਤੇ ਮਜ਼ਬੂਰ ਨਹੀਂ ਸੀ ਕਿ
ਉਹ ਸਾਰੇ ਕੰਮ ਧੰਦੇ ਛੱਡ ਕੇ
ਆਪਣਾ ਵਿਰੋਧ ਪ੍ਰਗਟ ਕਰਨ ਲਈ
ਧਰਨਿਆਂ ਮੁਜ਼ਾਰਿਆਂ ਦਾ ਆਸਰਾ ਲਵੇ
ਇਹ ਸਭ ਕੁੱਝ ਵਾਪਰਿਆ ਹੈ
ਤਾਂ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੀ ਆਪਣੀਆਂ ਗ਼ਲਤੀਆਂ ਦੇ ਕਾਰਨਾਂ ਕਰਕੇ
ਮੈਨੂੰ ਜਾਪਦਾ ਹੈ ਕਿ ਹੁਣ ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੂੰ
ਨਿੱਕੇ ਨਿੱਕੇ ਬੱਚਿਆਂ ਵਾਂਗੂੰ
ਜੀਵਨ ਦੀ ਪ੍ਰੀਖਿਆ ਵਿੱਚ
ਸਫ਼ਲ ਹੋਣ ਦੇ ਲਈ
ਖ਼ੁਦ ਹੀ ਦੇਣਾ ਪੈ ਰਿਹਾ ਹੈ  ਪੇਪਰ,
ਉਹ ਅੱਜ ਤੇ ਕੱਲ੍ਹ ਵੀ
ਪ੍ਰੀਖਿਆਵਾਂ ਦਿੰਦੇ ਰਹਿਣਗੇ ,
ਧਰਨਿਆਂ ਮੁਜ਼ਾਰਿਆਂ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦਾ ਇਮਤਿਹਾਨ ਦਿੰਦੇ ਰਹਿਣਗੇ।
ਜਦ ਤੱਕ ਉਹ ਸਮਝਣਗੇ ਨਹੀਂ ਆਪਣਾ ਸੱਚ ,
ਉਹ ਆੜਤੀਆਂ ਅਤੇ ਸਰਕਾਰਾਂ ਦੇ ਹੱਥਾਂ ਵਿੱਚ
ਕਠਪੁਤਲੀਆਂ ਬਣੇ ਭਟਕਦੇ ਰਹਿਣਗੇ।
ਭ੍ਰਸ਼ਟ ਵਪਾਰੀਆਂ ਦੇ ਇਸ਼ਾਰਿਆਂ ਤੇ
ਕਠਪੁਤਲੀਆਂ ਬਣੇ ਨੱਚਦੇ ਰਹਿਣਗੇ।
ਉਹ ਆਪਣਾ ਦੁੱਖੜਾ ਕਿਸ ਨੂੰ ਕਹਿ ਸਕਣਗੇ ?
ਉਹ ਤਾਂ ਹਰ ਵੇਲੇ ਆਪਣਿਆਂ ਹੱਥੋਂ ਰੁੱਲਦੇ ਰਹਿਣਗੇ।
ਲਗਾਤਾਰ ਬਿਨਾਂ ਰੁਕੇ ਨੱਚਦੇ ਰਹਿਣਗੇ ।

ਅੱਜ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੂੰ ,
ਉਹ ਸਮਝਣ ਆਪਣੇ ਹਾਲਾਤਾਂ ਨੂੰ ।
ਉਹ ਆਪਣਾ ਆਪ ਸੰਭਾਲੀ ਰਖੱਣ,
ਉਹ ਆਪਣੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦੇ ਜੰਜਾਲ ਵਿੱਚੋਂ
ਨਿਕਲਣ ਦਾ
ਖ਼ੁਦ ਹੀ ਉਪਰਾਲਾ ਕਰਨ।
ਮੁਸੀਬਤ ਵਿੱਚ ਪਇਆ ਹੋਇਆ ਬੰਦਾ
ਸੰਘਰਸ਼ ਕਰਕੇ ਹੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਪਾਰ ਪਾਉਂਦਾ ਰਿਹਾ ਹੈ।
ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਮੰਜ਼ਿਲ ਤੱਕ ਪਹੁੰਚਾਉਂਦਾ ਰਿਹਾ ਹੈ।
05/01/2025.
ਆਦਮੀ ਜਦੋਂ ਮਰਨਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹੈ
ਕੀ ਉਸ ਨੂੰ ਰੋਕਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ
ਮੇਰਾ ਮੰਨਨਾ ਹੈ
ਉਸ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਇੱਛਾ ਪੂਰੀ ਕਰਨ ਦਿਓ
ਜੇਕਰ ਉਹ ਰੱਬ ਦੇ ਚਰਨਾਂ ਚ ਹੀ ਜਾਣਾ ਚਾਹੇਗਾ
ਤਾਂ ਕੀ ਉਹ ਰੱਬ ਨੂੰ ਮਿਲ ਜਾਵੇਗਾ ।
ਰੱਬ ਕਿਥੇ ਹੋਰ ਨਹੀਂ
ਸਾਡੇ ਮਨਾਂ ਵਿੱਚ ਵੱਸਦਾ ਹੈ ,
ਇਸ ਸੱਚ ਨੂੰ ਮੰਨਣ ਵਿੱਚ
ਕਿਉਂ ਹਰ ਕੋਈ ਡਰਦਾ ਹੈ।
ਬੇਵਕਤ ਮਰਨ ਨਾਲੋਂ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਕਸ਼ਟ ਝੱਲਣਾ ਚੰਗਾ ਹੈ।
ਇਸ ਨੂੰ ਸਮਝਦਾ ਨਹੀਂ ਬੰਦਾ ਹੈ ,
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਲੱਗਣ ਲੱਗਦੀ ਇੱਕ ਫੰਦਾ ਹੈ।
ਜਿੰਦਗੀ ਖੁੱਲ ਕੇ ਜੀਓ ,ਐਵੇਂ ਹੀ ਨਾ ਰੋਂਦੇ ਰਹੋ।
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਇੱਕ ਝਮੇਲਾ ਨਹੀਂ
ਇਹ ਇੱਕ ਬਹੂ ਰੰਗੀ ਮੇਲਾ ਹੈ
ਆਓ ਇਸ ਮੇਲੇ ਦਾ ਆਨੰਦ ਮਾਨੀਏ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਪਹਿਚਾਣੀਏ

ਜੇਕਰ ਕੋਈ ਮਰਨਾ ਹੀ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹੈ
ਇੱਕ ਵਾਰ ਰੱਜ ਕੇ ਉਸ ਨਾਲ
ਖੁੱਲੇ ਦਿਲ ਨਾਲ ਵਿਚਾਰ ਵਟਾਂਦਰਾ ਕਰੀਏ।
ਉਸ ਨਾਲ ਜੀ ਭਰ ਕੇ ਗੱਲਾਂ ਕਰੀਏ ,
ਉਸਦੇ ਅੰਦਰ ਚੜਦੀ ਕਲਾ ਚ
ਰਹਿਣ ਦੇ ਵਿਚਰਨ ਦੀ
ਚਾਹਤ ਭਰੀਏ ।
ਮੌਤ ਇੱਕ ਸੱਚਾਈ ਹੈ
ਪਰ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਨੇ ਇਸ ਦੀ
ਆਪਣੀ ਰੰਗਾਂ ਤੇ ਖੂਬਸੂਰਤੀ ਨਾਲ
ਮਰਨ ਦੀ ਕੀਤੀ ਹੋਈ ਭਰਪਾਈ ਹੈ ,
ਸਮੇਂ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਮਰਨ ਦੀ ਇੱਛਾ ਕਰਨਾ
ਇੱਕ ਬਹੁਤ ਵੱਡੀ ਬੁਰਾਈ ਹੈ ।
ਸਮੈ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਮਰਨ ਦੇ ਬਾਬਤ
ਕਦੇ ਵੀ ਨਾ ਸੋਚੋ, ‌ ਬਲਕਿ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਬਾਰੇ
ਇਸ ਨੂੰ ਗੁਲਜ਼ਾਰ ਕਰਨ ਬਾਰੇ ਸੋਚੋ।
ਐਵੇਂ ਨਹੀਂ ਦੁੱਖਾਂ ਭਰੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਨੂੰ ਕੁਰੀਦਦੇ ਰਹੋ।
आज भी
अराजकता के
इस दौर में
आम जनमानस
न्याय व्यवस्था पर
पूर्णरूपेण करता है भरोसा।

बेशक प्रशासन तंत्र
कितना ही भ्रष्ट हो जाए ,
आम आदमी
न्याय व्यवस्था में
व्यक्त करता है विश्वास ,
वह पंच परमेश्वर की
न्याय संहिता वाली आस्था के
साथ दूध का दूध , पानी का पानी होना
अब भी देखना चाहता है
और इसे हकीकत में भी देखता है ,
आज भी आम जन मानस के सम्मुख
कभी कभी न्यायिक निर्णय बन जाते हैं नज़ीर और मिसाल
...न्याय व्यवस्था लेकर बढ़ने लगती है जागृति की मशाल।
उसके भीतर हिम्मत और हौंसला
पैदा करती है न्याय व्यवस्था,
त्वरित और समुचित फैसले ,
जिससे कम होते हैं
आम और खास के बीच बढ़ते फासले।
न्यायाधीश
न्याय करता है
सोच समझ कर
वह कभी भी एक पक्ष के हक़ में
अपना फैसला नहीं सुनाता
बल्कि वह संतुलित दृष्टिकोण के साथ
अपना निर्णय सुनाता है ,
जिससे न्याय प्रक्रिया कभी बाधित न हो पाए।
आदमी और समाज की चेतना सोई न रह जाए।
जीवन धारा अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ पाए।
०५/०१/२०२५.
सब कुछ
मेरे वश में रहे।
यह सब सोच
जीवन में भागता रहा,
बस भागता रहा
और हांफता हुआ
खुद का नुक़सान किया,
भीतर ही भीतर
वेदना झेलता रहा।

मैं भी बस एक मूर्ख निकला।
खुद से ही बस लड़ता रहा ,
मतवातर खुद की
महत्वाकांक्षाओं के बोझ से
दबता रहा , सच कहने से
हरदम बचने की कशमकश में रहकर
भीतर ही भीतर डरता रहा।
जीवन पर्यन्त कायर बना रहा।
लेकिन अब मैं सच कह कर रहूंगा।
अपना तनाव कम करके रहूंगा।
कब तक मैं दबाव सहूंगा ?
ऐसे ही चलता रहा, तो मैं
अपने को खोखला करूंगा।
बस! बहुत हुआ , अब और नहीं ?
मैं खुद को सही इस क्षण करूंगा।
तभी जीवन में आगे बढ़ सकूंगा।
04/01/2025.
दोस्त ,
इस जहान में
नीति निवेशक बहुत हैं ,
जो नीति की बात करते हैं !
अनीति की राह चलते हैं !
कुरीति के ग्राफ को
बढ़ावा देकर
अपनी जेब भरते हैं।
ये दिनोदिन वजनदार
होते जाते हैं,
भारी भरकम
व्यक्तित्व के मालिक
पहली नज़र में दिखाई पड़ते हैं ।
नख से शिख तक
रौबीले दिखाई देते हैं।

ये नीति निवेशक
हज़ार खामियों के बावजूद
हमारे आदर्श बनते जाते हैं।
ये कभी कभी
संचार माध्यम की कृपा से
हमेशा हमारे घरों तक पहुँच कर
हमें सपने दिखलाकर
अपनी रोजी रोटी चलाते हैं।
हमें मूर्ख तक बनाते हैं।
यदा कदा अपनी धूर्तता और विद्रूपता से
जीवन को नर्क बना देते हैं।
हमारे विरोध करने पर अपने तर्क से
कभी कभी हमें चुप भी करा देते हैं।

जब कभी हम
उनकी असलियत को
समझते हैं ,
तब तक हो चुकी होती है देर
हम ढेर
होने की कगार पर
पहुंचने वाले होते हैं।

कभी कभी हम
उन पर
फब्तियां भी कस देते हैं
वे चुप रह कर
अपनी मुस्कुराहट नहीं छोड़ते।
हमारी व्यंग्योक्तियों को
वे नज़र अंदाज़ कर देते हैं।
हमें चुप कराने के निमित्त
वे कुछ निवाले
हमारी तरफ़ फ़ेंक दिया करते हैं
और हम उन्हें बटोर
विरोध भूल जाते हैं।
वे जब कभी हमारी ओर देख मुस्कुराते हैं,
हम उनकी इस मुस्कुराहट से तिलमिला उठते हैं।
वे हमें शर्मिंदगी का अहसास
बराबर करवा कर
हमें बौना ‌महसूस करने को आतुर रहते हैं
और कर देते हैं  हमें विवश एवं लाचार।
वे अपने लक्ष्य को सामने रखकर
जीवन में आगे बढ़ने का करते हैं प्रयास।
वे हमें अकेलेपन की सरहद पर छोड़
यकायक किनाराकशी करते हुए
नवीनतम नीति निवेश हेतु
चल देते हैं ‌अपनी डगर।
वे अपने व्यक्तित्व के अनुरूप
कभी कभी यकायक
हमारी जिंदगी को
मतवातर बनाते रहते हैं विद्रूप
हम उनके इरादों को समझ नहीं पाते।
ज़िंदगी भर नीति निवेशकों के मकड़जाल में फंसकर ,
दिन-रात कसमसाते हुए , रहते हैं पछताते,
पर उन पर
होता नहीं कोई असर।
04/01/2025.
आदमी के भीतर
बहुत सारी संभावनाएं
निहित हैं और उन को उभारना
चरित्र पर करता है निर्भर।
है न !
एक बात विचित्र
बूढ़े आदमी के भीतर
स्मृति विस्मृति के मिश्रण से
निर्मित हो जाता है
एक कोलाज ,
जो जीवन के आज को
दर्शाता है ,
कोई विरला इससे
रूबरू हो पाता है ,
बूढ़े आदमी की व्यथा कथा को
समझ पाता है,
उसके अंदर व्याप्त
समय के आधार पर
वृद्धावस्था की मानसिकता को
कहीं गहरे से जान पाता है।

और इस सबसे ज़रूरी है कि
बूढ़े आदमी के भीतर
सदैव रहना चाहिए
एक मासूमियत से लबरेज़ बच्चा
जो जीवन यात्रा के दौरान
इक्ट्ठा किए झूठ बोलने से हुए निर्मित
धूल मिट्टी घट्टे को झाड़कर
कर सके क़दम दर क़दम
आदमी की जीवन धारा को
साफ़ सुथरा और स्वच्छ।
आदमी दिखाई दे सके
नख से शिख तक सच्चा!
ताकि निश्चिंतता से
आदमी अपनी भूमिका को
ढंग से निभाते हुए
कर सके प्रस्थान!
बिल्कुल उस निश्छलता के साथ
जिसके साथ अर्से पहले
हुआ था उसका आगमन।
अब भी करे वह उसी निर्भीकता से गमन।
भीतर बस आगमन गमन का खेल
लुका छिपी के रहस्य और रोमांच सहित चलता है।
इस मनोदशा में राहत
उनींदी अवस्था में
सपन देख मिलती है।
बूढ़े के भीतर एक परिपक्व दुनिया बसती है।
क्या उसके इर्द-गिर्द की दुनिया
इस सच की बाबत कुछ जानती है ?
या फिर वह बातें बनाने में मशगूल रहती है !
०४/०१/२०२४.
हार के बाद हार फिर एक बार फिर हार
हार को हराना है हमें, फिर से विजेता
स्वयं को बनाना है हमें ।
बस! बहुत हुआ!
अब गिरते , गिरते भी
स्वयं को संतुलित रखना है हमें।
क़दम से क़दम मिलाकर चलना है हमें।
गिरने के दौर में , बुलन्द बनाना है एक दूसरे को हमें।

आज दुर्दिनों का दौर है भले
भीतर निराशा हताशा है भले ही
हमें मतवातर आत्मावलोकन करना है
तत्पश्चात स्वयं को संतुलित और समायोजित करना है,
हमें हर हाल में स्वयं को सिद्ध करना है
लड़े बग़ैर नहीं हार माननी है
हमें विजेता बन कर सब में उत्साह जगाना है,
हार जीत का अहसास बस एक सिलसिला पुराना है।
हमें हर हाल में स्वयं को आगे बढ़ाना है ,
जीत में हार, हार में जीत सरीखी खेलभावना को
अपने जीवन दर्शन में निरंतर आत्मसात करते हुए
खुद को जिताना ही नहीं,वरन सर्वस्व को
विजेता बनाकर दिखाना है।
हार पर प्रहार करते हुए, ‌
विजय पथ पर जीवन यात्रा को आगे बढ़ाना है।
हार के बाद हार,फिर एक हार ,और हार को बेंध जाना है। जीवन धारा को संघर्ष की ओर
मोड़ कर विजयी बनाना है हमें।
अपने भीतर एक विजेता की
जिजीविषा को उभारना है हमें।
हार गया ,पर , गया बीता नहीं हुआ मैं !
अंतर्मन की इस अंतर्ध्वनि को गौर से सब सुनें !!
ताकि सभी की गर्दनें रहें सदैव तनी हुईं।
०३/०१/२०२५.
रिश्ते निभाना सीखते हुए ,
जीवन जाता है बीत।
यह सब को
बहुत
देर में समझ
आते आते आता है,
जीवन का सुनहरी दौर
अति तीव्रता से
जाता बीत।
आदमी
खाली हाथ
मलता रह जाता है ,
वह पछताता हुआ
मन मसोस
कर रह
जाता
है , 
आओ
हम रिश्ते
निभाने की
दिशा में सतर्क
रहते हुए
इस पथ पर आगे बढ़ें।
रिश्तों को न ढोएं ,
बल्कि इसमें
प्यार और दुलार भरें।
इसके लिए
भीतर लगाव के
साथ  जीवन को जीने का
आगाज़ करें,
कभी भी
न लड़ें
अपनी बात
खुलकर कहें
और अपने इर्द-गिर्द
व्याप्त स्वार्थ की
अंधी दौड़ से  
बचें।
हमेशा सच की
राह पर चलें
ताकि  
बुराई से
बच सकें।
अपने भीतर
सुरक्षा,
सुख चैन का अहसास
भरपूर मात्रा में
भर सकें।
निडर बन सकें,
धीरे-धीरे धीरज धरें,
शांत मना बन सकें।
०३/०१/२०२५.
अभी अभी
मोबाइल सन्देश से
पता चला है कि
देश भर में
नवीनतम आंकड़ों के अनुसार  
पहले की तुलना में,
गुरबत में आई है कमी।
कोविड से लड़ने में देश रहा है सफल।
उसका सुफल है देश भर में
ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वालों
की संख्या दिन-प्रतिदिन घट रही है,
फलत: गुरबत में कमी दे
रही है दिखाई ।
आम आदमी की समझ और
जागरूकता
अब तेजी से बढ़ रही है।
अर्थव्यवस्था भी
अब तेजी पकड़ती जा रही है।
ग़रीबों के उत्थान हेतु
सरकार आमजन और सम्पन्न वर्ग के मध्य
एक सेतु की भूमिका निभा रही है।

देश दुनिया और समाज में
कोई कमी न रहे,
देश दुनिया
संसार भर में फैले
भ्रष्टाचार के पोषकों से बचें।
फिर कैसे नहीं लोग
गुरबत छोड़ कर
सुख समृद्धि और सम्पन्नता को वरें ?
इस बाबत हम-सब
सकारात्मक सोच को अपनाकर आगे बढ़ें।
०३/०१/२०२५.
अख़बार के
एक ही पन्ने पर
छपी है  दो खबरें।
दोनों का संबंध
सड़क हादसों से है ,
एक सकारात्मक है
और दूसरी नकारात्मक,
पर ...!

शुरूआत सकारात्मक खबर से,
"देशभर में सड़क हादसों में ११.९ प्रतिशत इजाफा,
चंडीगढ़ में १९ प्रतिशत कमी ।..."
आंकड़ों की इस बाजीगरी को पढ़ और समझ
आया मुझे समय में व्याप्त चेतना का ध्यान,
हम क्यों नहीं करते इस समय बोध का
रोज़मर्रा की दिनचर्या में , सम्मान ?
ताकि सभी सुरक्षित रहें,
काल कवलित होने से बच सकें।
मेरे मन में सिटी ब्यूटीफुल की
ट्रैफिक व्यवस्था के प्रति सम्मान भावना बढ़ गई।
काश! ऐसी ट्रैफिक व्यवस्था देश भर में दिखे ,
जिसने की ट्रैफिक रूल्स की अवहेलना
उसका चेतावनी के साथ चालान भी कटे।
यही नहीं , इस चालान राशि में से
एकत्रित की गई
धन राशि में से
न केवल सड़क सुरक्षा जागरूकता कार्यक्रम को चलाया जाना चाहिए बल्कि इससे
ट्रैफिक व्यवस्था से संबंधित उत्पादों को भी खरीदा जाए बल्कि आम आदमी तक को  
ट्रैफिक संचालन से जोड़ा जाना चाहिए ,
ताकि देश की आर्थिकता को भी बल मिल सके।

इसी पन्ने पर दूसरी ख़बर थोड़ी नकारात्मक है ,
" धुंध में साइन बोर्ड से टकराया बाइक सवार ,
अस्पताल में मौत ।"

क्यों न सड़क सुरक्षा के निमित्त
आसपास निर्मित कर दिए जाएं  बैरियर ?
जो धुंध के समय ट्रैफिक को
स्वत: कम रफ़्तार से आगे बढ़ाएं ,
ताकि बाइक सवार डिवाइडर से टकराने से बच जाएं।
वैसे भी बाइक सवार यदि ड्रेस कोड को भी अपना लें,
तब भी किसी हद तक
हो सकता है  
दुर्घटनाग्रस्त होने से बचाव।
धुंध के समय
ज़रूरी होने पर ही
घर और दफ्तर से निकलें बाहर,
इस समय स्वयं पर
अघोषित कर्फ्यू लगा लेना ही है पर्याप्त।
एक ही पन्ने पर
बहुत कुछ अप्रत्याशित
छप जाता है ,
उसे पढ़ना और गुनना
अपरिहार्य हो जाता है ,
बशर्ते किसी की
पढ़ने लिखने और उसे
अभिव्यक्त करने में रुचि हो।
कभी तो वह
छोटी-छोटी बातों पर
ध्यान केंद्रित करे,
जीवन में आगे बढ़ सके।
०३/०१/२०२५.
नया साल इस बार
अच्छे से तैयार होकर आया है।
सबके लिए सकारात्मक सोच से भरे
नए नए विचारों को जीवन धारा में
संयोजित करने का संकल्प लेकर आया है।
अभी अभी पढ़े है मैंने दो मन के भीतर
भरोसा जगाने वाले दो समाचार।
पहला समाचार कुछ इस प्रकार है कि
"अब जेलों में कैदियों और उनके बच्चों को
शिक्षित करेंगे जेबीटी अध्यापक,
(बेरोज़गारी के दौर में ) १५ को मिली नियमित नियुक्ति "
इससे पहले इन पदों पर अस्थाई नियुक्ति होती थी,
अब हुई है नियमित भर्ती।
उम्मीद है देश दुनिया में कार्यरत सरकारें
ऐसी सकारात्मक सोच और योजनाओं को
अपने यहां भी लागू कर पाएंगी,
बेरोज़गारी के खिलाफ़ अपने नागरिकों में
जन चेतना की अलख जगाएंगी ।
देश दुनिया और समाज को जागरूक करते हुए
' वसुधैव कुटुम्बकम् ' के उज्ज्वल पथ पर आगे बढ़ाएंगी।

दूसरा समाचार भी कुछ इस प्रकार है कि
पंचनद प्रदेश के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे
मिड-डे-मील योजना के तहत
सर्दियों के अवकाश के बाद
जनवरी माह के लिए
कड़ाके की ठंड से बचने को ध्यान में रखते हुए
देसी घी से तैयार हलवे और पौष्टिकता से भरपूर खीर का
लुत्फ़ उठा पाएंगे।
अपने भीतर उमंग तरंग और व्यवस्था के सम्मान भाव
जगाते हुए स्वास्थ्यवर्धक योजना का लाभ उठा पाएंगे।

तीसरा समाचार भी कुछ इस प्रकार रहना चाहिए कि
सभी लोग नख से शिख तक जागरूक हो गए हैं,
वे अपने भीतर लक्ष्य सिद्धि के भाव जगा कर
देश, दुनिया और समाज को
सुख समृद्धि, संपन्नता और सौहार्दपूर्ण माहौल की
निर्मित करने की दिशा में बढ़ रहे हैं।
हालांकि यह समाचार मेरे बावरे मन की उपज है।
यह कपोल कल्पित है ।
क्या पता कोई चमत्कार हो जाए !
एक दिन यह भी सच्चाई में बदल जाए !!
फिर कैसे कोई जीवन धारा में पिछड़ जाए ?.... और...
जीवन में अराजकता की आंधी को फैलाने की सोच पाए ?
काश! सभी अपने भीतर सकारात्मक होने की
लग्न और चाहत जगा पाएं।
इसी जीवन में समरसता के साथ जीवन यापन कर पाएं।
०३/०१/२०२५.
कभी कभी
नींद
देरी से
खुलती है,
दुनिया
जगी होती है।
सुबह सुबह
अख़बार पढ़ने की
तलब उठती है
पर
अख़बार  पढ़ने को
न मिले ,
उसे कोई उठा ले।
अख़बार ढूंढ़ने पर भी न मिल सके
तो मन में
बढ़ जाती है बेचैनी ,
होने लगती है परेशानी।

अख़बार की चोरी
धन बल की चोरी से
लगने लगती है बड़ी ,
दुनिया लगती है रुकी हुई
और ज़िन्दगी होती है प्रतीत
बाहर भीतर से थकी हुई।
ऐसे में
कुछ कुछ पछतावा होता है,
मन में फिर कभी देरी से
न उठने का ख्याल उभरता है,
मन में जो खालीपन का भाव पैदा हुआ था,
वह धीरे-धीरे भरने लगता है ,
जीवन पूर्ववत चलने लगता है।
अख़बार चोरी का अहसास
कम होने लगता है।
०३/०१/२०२५.
आज जब देश दुनिया
अराजकता के मुहाने पर खड़ी है
एक समस्या मेरे जेहन में चिंता बनी हुई है।
सब लोग इतिहास को
फुटबाल बना कर अपने अपने ढंग से खेल रहे हैं।
सब धक्कामुक्की ,  जोर-जबरदस्ती कर
अपनी बात मनवाने में लगे हैं।
सब स्वयं को विजेता सिद्ध करना चाहते हैं।
अपना नैरेटिव गढ़ना चाहते हैं।
वे गड़े मुर्दे कब्रों से निकालना चाहते हैं।
ऐसे हालात में
एक पड़ोसी देश के मान्यनीय मंत्री महोदय ने
सच कह कर बवाल मचा दिया।
हंगामेदार शख़्सों को सुप्तावस्था से जगा दिया।
उन्होंने आक्रमणकारी महमूद गजनवी की
बाबत अपना नज़रिया बताया और
अपने वतनवासियों को चेताया कि
अब सच को छुपाया जाना नहीं चाहिए।
इस की बाबत यथार्थ को स्वीकारा जाना चाहिए।

इतना सुनते ही वहां बवाल हो गया।
इतिहास के बारे में अबूझ सवाल खड़ा हो गया।
इतिहास की अस्मिता के सामने अचानक
अप्रत्याशित रूप से एक प्रश्नचिह्न लगा देखा गया।
मैंने इस घटनाक्रम को लेकर सोचा कि
अब और अधिक देर नहीं होनी चाहिए।
इतिहास का सच जनता जनार्दन के सम्मुख आना चाहिए।
इतिहास के विशेषज्ञों और मर्मज्ञों द्वारा
उपेक्षित इतिहास बोध को पुनर्जीवित करने के निमित्त
इतिहास का पुनर्लेखन किया जाना चाहिए
ताकि इतिहास अतीत का आईना बन सके।
इसके उजास से
अराजकता और उदासीनता को
घर आने से रोका जा सके।
सब अपने को गौरवान्वित महसूस कर सकें।

आखिरकार सच का सूरज
बादलों के बीच से बाहर निकल ही आता है ,
जब संवेदनशील राजनेता
इतिहास की बाबत सच को उजागर कर देता है।
वह जाने अनजाने सबको भौंचक्का कर ही देता है।
इतिहास अब चिंतन मनन का विषय बन गया है।
यह जिज्ञासुओं के दिलों की धड़कन भी बन गया है।
इसके सच की अनुभूति कर गर्व से सीना तन गया है।
०२/०१/२०२५.
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