Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
इस दुनिया में
बहुत से लोग
श्रम करने से कतराते हैं ,
वे जीवन में
बिना संघर्ष किए
पिछड़ जाते हैं ,
फलत: क़दम क़दम पर
पछताते हैं ,
सुख सुविधा, सम्पन्नता से
रह जाते हैं वंचित !
बिना आलस्य त्यागे
कैसे सुख के लिए ,
भौतिक जीवन में उपलब्ध
विलासिता से जुड़े पदार्थ !
जीवन के मूलभूत साधन !
किए जा सकते हैं संचित?
इसीलिए
कर्मठता ज़रूरी है !
कर्मठ होने के लिए श्रम अपरिहार्य है ।
क्या यह जीवन सत्य तुम्हे स्वीकार्य है ?

श्रम करने में
कैसी शर्म ?
यह है जीवन का
मूलभूत धर्म !

आदमी
जो इससे कतराता है ,
वह जीवन पथ पर
सदैव थका हारा ,
हताश व निराश
नजर आता है।

श्रम के मायने क्या हैं ?
यह साधारण काम करना नहीं ,
बल्कि खुद को सही रखते हुए
सतत  कठोर  मेहनत करते रहना है।
यह जिजीविषा , सहानुभूति के बलबूते
जीवंतता और भविष्य को
वर्तमान को
अपनी मुठ्ठी में
बंद करने की कोशिश करना है।
सुख दुःख से निर्लेप रह कर
आगे ही आगे बढ़ना भी है।

श्रम के प्रति अगाध निष्ठा से
जीवन धारा को गति मिलती है !
इस सब की अंतिम परिणति
सद्गति के रूप में
परिलक्षित होती है !!

सही मायने में
श्रम ही जीवन का मर्म है।
यह ही अब युगीन धर्म है।
अतः श्रम करने में
कोई संकोच नहीं होना चाहिए।
इसे करने में नहीं होनी चाहिए
किसी भी किस्म की झिझक और शर्म।

सभी श्रम साधना को
अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाएं !
सहजता से खेल ही खेल में
अपने जीवन को
सुख समृद्धि और सम्पन्नता से
अलंकृत कर जाएं  !!
सभी संभावना को टटोलते हुए
श्रम के आभूषण से
न केवल स्वयं को
बल्कि  अपने आसपास को भी सजाएं !!
सजना संवरना एकदम प्राकृतिक  वृत्ति है।
यदि श्रम करते हुए
जीवन को सजा लिया जाए ,
जीवन को सार्थक बना लिया ‌जाए ,
तो इस जैसा अनुपम आभूषण
कोई दूसरा नहीं ।
जीव इसे अवश्य धारण करें।
जीवन को कृतार्थ  
हर हाल में
श्रम साधना के बलबूते
इसको धारण करें ,
अपने आंतरिक सौंदर्य को द्विगुणित करें,
ताकि मानवता आगे बढ़ती लगे।
यह जीवों को उनके लक्ष्य तक पहुंचा सके।
२४/०४/२०२५.
वर्ल्ड अर्थ डे के दिन
आतंकियों ने
पहलगाम में
पर्यटकों को
मौत की नींद सुला दिया ,
एक बार फिर से
शान्ति की नींद सोए
प्रशासन और व्यवस्था को जगा दिया।
देश दुनिया क्या करे ?
क्या वे इसे विधि का विधान मान कर
चुपचाप ज़ुल्म ओ सितम को सहें ,
या फिर इसका प्रतिकार करें ?
देश दुनिया में आतंक
अर्से से कर रहा है
जन साधारण और खासमखास को तंग।
क्यों न जेहादियों को
शरिया कानून के तहत ही सज़ा दी जाए ?
उनके आकाओं को भी
जिंदा जीते जी बहत्तर हूरों के पास भेजा जाए !
उनको भोग विलास करते करते
लाइव टेलीकास्ट के माध्यम से
दुनिया को प्रतिशोध का रंग दिखाया जाए !!
या फिर पड़ोसियों को उनकी ही भाषा में
संदेश दिया जाए।
एक हत्या के बदले सौ की हत्या से
नृशंसता को प्रदर्शित किया जाए।
कल अचानक अप्रत्याशित ही
विश्व अर्थ डे को
अंततः अनर्थ डे  के रूप में मनाया गया।
इस निर्दोषों पर हुए हमले ने
राष्ट्र को झकझोर दिया।
बहुत से लोगों को भीतर तक तोड़ दिया।
क्या राष्ट्र कायरता का परिचय दे ?
पहले की तरह चुप कर जाए !
या फिर अहिंसा छोड़ कर
हिंसावादियों को
उनकी जानी पहचानी भाषा में
उत्तर देने का मन बनाए ?
अर्जुन सम  बनकर
दृढ़ संकल्प कर
गांडीव को उठाए ?
इसे चेतना का अटूट अंग बनाए ?
ताकि विनम्रता और सहनशीलता को
कोई कायरता न कह पाए।
अब आप ही बता दीजिए कोई उपाय।
२३/०४/२०२५.
लोग
कितना भी
जीवन में
खुलेपन पर
चर्चा परिचर्चा
कर लें ,
उनके हृदय में
कहीं न कहीं
गहरे तक
संकीर्णता रहती है ,
जिससे
जीवन में
व्याप्त खुशबू
फलने फूलने फैलने की
बजाय मतवातर
बदबू में
बदलती रहती है
जो धीरे-धीरे
तड़प में बदल कर
भटकाती है।
आओ ,
हम सब परस्पर
मिलजुल कर रहें।
हम सब जीवन पर्यन्त
संकीर्णता से बचें ,
दिल और दिमाग से
खुलापन अपनाते हुए
समानता से जुड़ें ,
देश दुनिया और समाज में
सुख समृद्धि और शांति के
बलबूते सकारात्मक सोच से
सतत सहर्ष आगे  बढ़ें।
संघर्षरत रहकर
जीवन के सच को
अनूभूत करें,
सब नव्यता का !
भव्यता का !!
आह्वान करें !!
सृजन पथ चुनें,
कभी भी विनाशक न बनें।
हमेशा सत्य के आराधक बनें।
२३/०४/२०२५.
आओ मिल बैठ कर
अपने समस्त
मनभेद और मतभेद
दूर कर लें।
जीवन में
खुशियों को
भर लें।
वरना जड़ता हमें
लड़ाई की ओर
लेकर जाती रहेगी।
हमें मतवातर
कमज़ोर बनाती रहेगी।
फिर कैसे होगा सुधार ?
आओ सर्वप्रथम
हम जड़ता पर करें प्रहार
ताकि हम जागृत हो सकें ,
एक रहकर जीना सीख सकें।
हम जागरूक बनें ,
जड़ता और निष्क्रियता से लड़ें।
सब समय रहते अवरोध दूर करें।
सब निज की जड़ता से डरें
और समय रहते उसका नाश करें।
सब अपने भीतर
सतत सुधार कर
जड़ता पर प्रहार करें !
स्वयं को चेतना युक्त करें !!
२२/०४/२०२५.
लोग सेवानिवृति के
मौके पर
खुशियां मनाते हैं ,
वे पार्टियां देते हैं ,
महफ़िल सजाते हैं।
यह सब बेकार है।
आदमी इस मौके पर
कुछ सार्थक करने की बाबत सोचे।
व्यर्थ ही सोच सोच कर खुद को न नोचे।
अभी कुछ समय पहले
मुझे मिला है
एक दुखद समाचार कि
मेरा एक कॉलेज के दौर का मित्र
सेवानिवृत्ति के कुछेक दिन बाद
गंवा बैठा सेवानिवृत्त
होने के आघात से अपने प्राण।
सोचता हूँ कि
यह सच है
रिटायरमेंट
आदमी को देती है
पहले पहल शोक और धक्का !
काम न होने से
एकाएक निठल्ला होने से
अंतर्मन में मचने लगता है हल्ला गुल्ला !
आदमी रह जाता अकेला
और हक्का बक्का !
इसलिए गुज़ारिश है कि
व्यक्ति सेवानिवृत्ति से पहले ही
अपनी रूचियों पर काम करना शुरू कर दे
ताकि जीवन में कुछ सार्थक करने का जुनून बना रहे ।
आदमी स्वयं को व्यस्त रख सके।
वह अस्त व्यस्त सा न किसी को लगे।
न ही वह थका और चुका बुझा हुआ दिखाई दे।
लगभग मुझे सेवानिवृत्त हुए आठ महीने हो गए हैं ,
मैं अपने को पढ़ने में व्यस्त रखता हूं ,
मन करे तो खुद को भी कला माध्यम से अभिव्यक्त करता हूँ।
मेरे पिता ने भी रिटायरमेंट के बाद
प्राकृतिक चिकित्सा का ज्ञानार्जन करने में खुद को व्यस्त किया था।
उन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धांतों को खुद पर लागू किया था
और एक भरपूर जीवन को जीया है।
अतः आप सब से अनुरोध है ,
आप बेशक सक्रिय हैं,
परंतु आप समय रहते सेवानिवृत्ति की बाबत
किसी योजना पर काम कीजिए
ताकि सेवानिवृत्ति का मौका यादगार बने।
शरीर चिंता से न घुले बल्कि जीवन में संतुष्टि मिले।
सेवानिवृत्ति के बाद का जीवन समाजोपयोगी और सार्थक बने।
२२/०४/२०२५.
अहं जरूरी है
मगर
इतना भी
जरूरी नहीं कि
वह सही को
करने लगे
मटिया मेट।
अहंकार भरा मन
कभी न कभी
आदमी को
औंधे मुंह गिरा देता है ,
वह भटकने के लिए
कभी भी कर सकता है बाध्य।
फिलहाल इसे कर लो सांध्य
ताकि गंतव्य तक
बिना किसी बाधा के
पहुंच सको ,
जीवन धारा के
अंग संग बह सको।
जीवन में
उतार चढ़ाव और कष्टों को
चंचल मन के भीतर
संयम भर कर सह सको।
अहंकार भरे मन पर काबू
सहिष्णु बन कर पाया जाता है ,
सतत प्रयास करते हुए
निज को
जीवन रण में
विजयी बनाया जाता है ,
जीवन को उत्कृष्टता का
संस्पर्श कराया जाता है ,
इसे सकारात्मक और सार्थक दिशा देकर
सुख समृद्धि और सम्पन्नता
भरपूर बनाया जा सकता है।
अंहकार भरा मन
किसी काम का नहीं ,
बल्कि इसे
विनम्रता से
जीवन में आगे बढ़ने की
दो सीख
ताकि यह सके रीत ,
खुद को खाली कर
रख सके स्वयं को ठीक।
वरना पतन निश्चित है !
जीवन में भय का आगमन
कर ही देगा
एक दिन
सर्वस्व को असुरक्षित।
फिर कैसे रख पाएंगे हम सब
संस्कृति व संस्कारों को
संरक्षित और संवर्धित?
२१/०४/२०२५.
अचानक
अप्रत्याशित
कुदरत का कहर
जब तब , कभी टूटता है।
यह सबसे पहले
नास्तिक का गुरूर तोड़ता है।
आस्तिक फिर भी
दुःख के बावजूद
अपने मन को समझाता है।
वह जल्दी से
जीवन को
पुनर्व्यवस्थित
करने में जुट जाता है।
कुदरत के कहर को
सहने के अलावा
क्या हम सब के पास
कोई चारा है ?
आदमी तो बस बेचारा है !
है कि नहीं ?
जीवन में कुदरत से
तालमेल बनाकर चलो ,
ताकि कुदरत के
प्रकोप और कहर से बच सको।
२०/०४/२०२५.
कितना अच्छा हो
सब कुछ सन्तुलन में रहे।
कोई भी अपने आप को
असंतुलित न करे।
इसके लिए
सब अपने मूल को जानें,
भूल कर भी
अज्ञान को चेतना पर
हावी न होने दें।
सब कुछ स्वाभाविक गति से
अपने मंतव्य और गंतव्य की ओर बढ़ें।
सब शांत रहें।
शांति को अपने भीतर समेट
परम की बाबत
चिंतन मनन करें।
सब संत बन कर
सद्भावना से
अपने आस पास को प्रेरित करें।
वे ज्ञान की ज्योति को
सभी के भीतर जागृत करें।
वे सभी को समझाएं कि
इस धरा पर उपस्थित आत्माएं
सब दीप हैं।
सब अपने प्रयासों से
अपने भीतर ज्ञान  का प्रकाश भरें
ताकि अज्ञान जनित भय कुछ तो कम हो सके।
लोग अधिक देर तक सोये न रहें।
वे जागृत होकर सुख समृद्धि और सम्पन्नता को वर सकें।
वे कण कण में परम की उपस्थिति को अनुभूत कर सकें।
वे अपना जीवन सार्थक कर सकें।
वे जीवन सत्य को जान सकें।
वे अपनी मूल पहचान से वंचित न रहें।
वे यथासमय अपनी शक्तियों और सामर्थ्य को संचित कर सकें।
वे संतुलित जीवन को जीना सीख सकें।
वे यह जीवन सत्य समझें कि
जीवन में
यदि संतुलन है
तो ही सुरक्षा है ,
अन्यथा फैल सकती
चहुं ओर अव्यवस्था है।
अराजकता कभी भी
जीवनचर्या को असंतुलित कर सकती है ,
सुख समृद्धि और सम्पन्नता को लील सकती है।
यह शांति के मार्ग को अवरूद्ध कर सकती है।
यह आदमी को आदमी के विरुद्ध खड़ा कर सकती है।
अतः जीवन में संतुलन जरूरी है।
मनुष्य के जीवन में संयम अपरिहार्य है।
जो सबको स्वीकार्य होना चाहिए।
इसके लिए
सभी को अपना अहंकार भुलाकर
संत समाज से जुड़ना होगा
क्यों कि
संत संयमित जीवन को जीते हैं,
वे शांतमय मनोदशा में की निर्मिति करते हैं।
वे मनुष्य को उसकी स्वाभाविक परिणति तक ले जाने में सक्षम हैं।
वे संतुलित
जीवन दृष्टि को
स्पष्ट रूप से
अपनी कथनी और करनी से
एक करते हुए दिखलाते हैं ,
उसे व्यावहारिक बनाते हुए जीवन यात्रा को आगे बढ़ाते हैं।
२०/०४/२०२५.
वक़्फ के मायने क्या हैं ?
वक़्फ हुआ कि बवाल हुआ ?
यह सवाल क्यों अब जेहन में
एक पन्ने सा है फड़फड़ा रहा ?
क्या वाक़िफ है जो वक़्फ का ,
उसे अवाम का अहसास उकसा रहा?
वाक़िफ हो अगर तुम ख़ुदा के
तो उसकी दुनिया में क्यों आग लगा रहे ?
सड़कों पर उतर कर क्यों अराजकता फैला रहे ?
यकीन तुम निज़ाम के फैसलों पर
पहले करो जरा।
निज़ाम अवाम के खिलाफ़ नहीं है ,
वह ज़हालत के खिलाफ़ जरूर है ,
इसने तरक्की की राह में रुकावट खड़ी की हुई है।
वह मुफलिसों को उनके हक़ की बाबत
अहसास कराना चाहता है।
उनके हकों पर
जिन उमरा अमीरों ने
आज तक कब्ज़ा कर रखा है ,
निज़ाम उन्हें आज़ादी का अहसास करवाना चाहता है।
भले उसे कोई बड़ी भारी कुर्बानी देनी पड़े।
बाकी ज़िंदगी ग़ुरबत में बितानी पड़े।
कौम कुर्बानियों से मुस्लसल आगे बढ़ी है।
आज तारीख़ में एक ख्याल जुगनू सा जगमगा कर
चिराग़ तले अंधेरे के सच को ढूंढने निकला है,
आप उसका दिल से एहतराम कीजिए।
वाक़िफ हो  अगर तुम ख़ुदा के
तो उसके बन्दों पर यकीन कीजिए।
खुद को मौकापरस्ती और फिरकपरस्ती के
कैदखानों में हरगिज़ हरगिज़ न बंद कीजिए।
वक़्त की नाजुकता को महसूस कर के कोई फ़ैसला कीजिए।
१९/०४/२०२५.
बेशक
आपकी निगाह
कितनी ही
पाक साफ़ हों ,
जाने अनजाने ही सही
यकायक
यदि कोई गुनाह
हो ही जाए तो
यक़ीनन
मन और तन में
तनाव
मतवातर बढ़ता जाता है ,
इस गुनाहगार होने का वज़न
ज़िन्दगी को असंतुलित
करता जाता है।
सच
बोलने से पहले
अपने आप को तोलने से
गुनाह करने के अहसास से
झुके
मन के पलड़े को
संतुलित
करता जाता है।
यह जिंदगी
बगैर मकसद
एकदम बेकार है।
कर्म करना ,
फल की चिंता न करना
जीवन को सार्थकता की ओर
ले जाता है ,
यह निरर्थकता के
अहसास
और गुनाहगार
बनने से भी बचाता है।
ऐसा जीवन ही
हमें जीवन सत्य से
सतत जोड़ता जाता है ,
जीवन पथ को
निष्कंटक बनाता है।
गुनाह का लगातार अहसास
आदमी को
भटकाता रहा है ,
यह मन पर वज़न बढ़ा कर
आत्मविश्वास को
खंडित कर देता है ,
आदमी को
अपरोक्ष ही
दंडित कर देता है।
इस अहसास का शिकार
न केवल कुंठित हो जाता है
बल्कि वह बाहर भीतर तक
कमजोर पड़कर
जीवन रण में हारता जाता है।
१९/०४/२०२५.
जन्म से अब तक
समय को
खूब खूब
टटोला है
मगर
कभी अपना मुंह
सच के
सम्मानार्थ
नहीं खोला है
बेशक
आत्मा के धुर अंदर
जो समझता रहा
अज्ञानतावश
खुद को
धुरंधर।
अचानक
ठोकरें लगने से
जिसकी आंखें
अभी अभी खुली हैं।
सच से सामना
बेशक सचमुच
कड़वा होता है ,
यह कभी-कभी सुख की सुबह
लेकर आता है ,
जीवन को
सुख समृद्धि और सम्पन्नता भरपूर
कर जाता है।
अब
मेरे भीतर पछतावा है।
कभी कभी
दिखाई देता
अतीत का परछावा है।
मैं खुद को
सुधारना चाहता हूं ,
मैं बिखरना नहीं चाहता हूं।
इसके लिए
मुझे अपने भीतर पड़े
डरों पर
विजय पानी होगी ,
सच से जुड़ने की
उत्कट अभिलाषा
जगानी होगी।
तभी डर कहीं पीछे छूट पाएगा।
वह सच के आलोक को
अपना मार्गदर्शक
बनता अनुभूत कर पाएगा।

दोस्त !
यह सही समय है ,
जब डर से छुटकारा मिले ,
सच से जुड़ने का
संबल और नैतिक साहस
भीतर तक
जिजीविषा का अहसास कराए
ताकि जीवन सकारात्मक सोच से जुड़ सके ,
यह सार्थक दिशा में मुड़ सके,
यह भटकने से बच सके।
ऐसा कुछ कुछ
अचानक
समय ने चेताते हुए कहा ,
और मैं संभल गया ,
यह संभलना ही
अब संभावना का द्वार बना है।

१८/०४/२०२५.
अचानक
यदि कोई किसी को
रंगे हाथ
गड़बड़ी करते हुए
पकड़ ले ,
तो यह अहसास
आदमी के भीतर
उत्पन्न कर देता है
सकपकाहट।
आदमी को
झिझक होने लगती है ,
वह ठीक से
काम करता है ,
और जल्दी से
लापरवाही भी
नहीं करता।
वह समय रहते
है संभल जाता।
उसका जीवन
हैं बदल जाता।
सकपकाना भी
जीवन का हिस्सा है ,
यह सच में
आदमी को
सतर्क करता है ,
ताकि
वह
हड़बड़ी करने से
खुद को
रोक पाए ,
बिना किसी रुकावट
मंजिल तक
पहुंच पाए।
१७/०४/२०२५.
प्रेम उधारी को पसन्द नहीं करता।
कितना अच्छा हो
यदि प्रेम कभी-कभी
उधारी पर मिल जाए,
किसी का काम चल जाए।
आदमी क्या औरत और अन्य की
जरूरत पूरी हो जाए।
वासना उपासना में बदल पाए।

आजकल
दुनिया के बाजार में
प्रेम में उधारी बंद है ,
इसलिए
इसे पाने के लिए
लोग व्यग्र हैं,
हो रहे तंग हैं।
याद रखें
प्रेम की उधारी से
कभी सुख नहीं मिलता।
इससे केवल नैराश्य और आत्महत्या का रास्ता साफ दिखा करता ,
परन्तु इससे बंधा बंदा बंदी बनकर सदैव भटका है करता।
आप भी इससे बचें,
ताकि जीवन धारा को वर सकें।
१६/०४/२०२५.
आजकल
देश दुनिया में
शादी करने से
लोग कतरा रहे हैं ,
वे भगोड़े बन कर
जीवन बिताना चाह रहे हैं।
फिर भी
यदि दाल न गले
तो वे शादी से पहले
लिव इन को अपनाना चाह रहे हैं।
अभी अभी
सच को उजागर करता
एक कार्टून देखा कि
पति यदि काल कवलित हो जाए
तो पत्नी ,
सप्ताह बाद , महीने के बाद ,साल भर बाद भी
पति को याद करती रहती है।
जबकि पति
पत्नी के मरने के बाद
सप्ताह भर याद करता है ,
महीने तक जीवनसाथी तलाश लेता है
और साल बाद
पहली पत्नी को भूल भाल कर
अपनी ही दुनिया में खो जाता है।
यह व्यंग्य चित्र देखकर
मुझे शाहजहां के आखिरी दिनों का ख्याल आया,
जो ताजमहल को देखकर
अपनी बेगम मुमताज को याद करते रहे होंगे।
शाहजहां के लिए
ये दुर्दिन वाले दिन रहे होंगे,
मतवातर निहारने वाले दिन रहे होंगे।
आजकल
लोग जल्दी
वफादारियों और सरदारियों को
भूल जाते हैं,
तभी वे कपड़े बदलने जैसी
मानसिकता के साथ जी पाते हैं ,
वफादारियों और कसमें वायदे दरकिनार कर जाते हैं।
आज स्त्री और पुरुष
पिक, यूज एंड थ्रो कल्चर में
खोते जा रहे हैं ,
अपने खोटेपन को
लग्जरी सॉप की खुशबू में
धोते जा रहे हैं
ताकि किसी को
कुटिलता की भनक न लगे ,
फास्ट लाइफ और लाइफ स्टाइल की
चमक दमक बनी रहे।
बस जीवन की गाड़ी किसी तरह आगे बढ़ती रहे।
१५/०४/२०२५.
आज का आदमी
अपने साथ
डर का पिटारा
लेकर चलता है।
गफलतों ने
असंख्य डर
आदमी के मन की
उर्वर जमीन पर बो दिए हैं ,
जिनकी फसल
वह समय समय पर
लेता रहा है।
सवाल है कि
आज आदमी का
सबसे बड़ा डर क्या है ?
यह डर
असमय
किसी के द्वारा
वजूद पर
एक सवालिया निशान
लगाना है ,
बाकी डर .....
मौत ,  मुफलिसी ,तंगी तुरशी ,
मान सम्मान का अभाव तो
महज़ बहाने हैं,,,
जिनके साथ जीना
आजकल ज़रूरी है ,
यह बन गई मज़बूरी है,
जिसने निर्मित कर दी
हम सब के बीच दूरी है।
यही सबसे बड़ा डर होना चाहिए।
इस बाबत सभी को कुछ करना चाहिए।
१४/०४/२०२५.
Apr 13 · 44
संयोग वश
बहुधा
जिनसे कभी
मिलने की संभावना तक
नहीं होती
वे अचानक
जीवन में आकर
आकर्षण का केंद्र
बनकर
जीवन को
हर्षोल्लास से
भर जाते हैं।
इसलिए
हमें जीवन धारा में
आ गए उतार चढ़ाव से
कभी भी व्यथित होने की
जरूरत नहीं है।
हमारे इर्द गिर्द
बहुत कुछ घटित हो रहा है।
यह संयोग ही है कि
हम इस घटनाक्रम की बाबत
चिंतन मनन कर पा रहे हैं।
संयोग वश
हम मिलते और बिछुड़ते हैं ,
चाहकर भी हम
अपनी मनमर्जी नहीं कर पा रहे हैं।
यह सब क्या है ?
क्या हम सब का
मनुष्य होना
और
कुछ का पशु होना
संयोग नहीं ?
या फिर
कर्मों का खेल है !
संयोग वश ही
हम परस्पर संवाद रचा पाते हैं ,
एक दूसरे को समझ
और समझा पाते हैं ,
फलत: समझौता कर जाते हैं।
आपदा प्रबंधन कर
अनमोल जीवन की रक्षा करने में
सफल हो जाते हैं।
सब जगह संयोग वश
जीवन में  
अदृश्य रूप से
घटनाक्रम घट रहा है,
जिससे सतत् कथाएं बन और मिट रही हैं ।
यही जीवन को दर्शनीय बनाता है।
१४/०४/२०२५.
ਅੱਜ ਅਚਾਨਕ ਕਿਸੇ ਦਾ ਫੋਨ ਆਇਆ ,
ਫੋਨ ਤੇ ਸੁਣਾਈ ਦਿੱਤਾ,
ਵਿਸਾਖੀ ਦੀ ਬਹੁਤ ਬਹੁਤ ਵਧਾਈ ।
ਮਨ ਵਿੱਚ ਖਿਆਲ ਆਇਆ,
ਮੈਂ ਕਿਵੇਂ ਵਿਸਾਖੀ ਨੂੰ ਭੁੱਲ ਗਿਆ ?
ਆਪਣੇ ਕੰਮ ਕਾਰਾਂ ਵਿੱਚ ਰੁੱਝਿਆ ਰਿਹਾ।
ਪਿੰਡ ਵਿੱਚ ਰਹਿੰਦਾ ਸੀ,
ਤਾਂ ਵਿਸਾਖੀ ਦੇ ਮੇਲੇ ਦਾ ਰਹਿੰਦਾ ਸੀ ਇੰਤਜ਼ਾਰ।
ਹੁਣ ਸ਼ਹਿਰ ਦੀ ਨਠ ਭੱਜ ਵਿੱਚ
ਵਿਸਰ ਜਾਂਦਾ ,
ਤੀਜ  ਤਿਉਹਾਰ ।

ਅੱਜ ਪਿੰਡ ਦੇ ਨੇੜੇ
ਸਾਧ ਦੀ ਖੱਡ ਵਿੱਚ
ਮਨਾਇਆ ਗਿਆ ਹੋਵੇਗਾ  
ਵਿਸਾਖੀ ਦਾ ਤਿਉਹਾਰ।
ਉੱਥੇ ਮੇਲਾ ਵੀ ਲੱਗਿਆ ਹੋਵੇਗਾ।
ਮੈਂ ਝਮੇਲਿਆਂ ਵਿੱਚ ਫਸਿਆ ਰਿਹਾ ,
ਨਹਾਉਣ ਤੋਂ ਵੀ ਵਾਂਝਾ ਰਿਹਾ।
ਲੋਕ ਇਸ ਦਿਨ
ਕਰਦੇ ਹਨ  
ਨਦੀਆਂ , ਤਲਾਬਾਂ , ਸਰੋਵਰਾਂ ਵਿੱਚ ਇਸ਼ਨਾਨ।
    
ਅੱਜ ਅਚਾਨਕ ਕਿਸੇ ਦਾ ਫੋਨ ਆਇਆ,
ਫੋਨ ਤੇ ਸੁਣਾਈ ਦਿੱਤਾ ,
ਵਿਸਾਖੀ ਦੀ ਬਹੁਤ ਬਹੁਤ ਵਧਾਈ।
ਫਿਰ ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਮਿੱਤਰ ਪਿਆਰੇ ਨਾਲ
ਇਧਰ ਉਧਰ ਦੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਕੀਤੀਆਂ।
ਇਸ ਮੌਕੇ
ਮੈਨੂੰ ਆਪਣੇ ਉੱਤੇ ਸ਼ਰਮ  ਵੀ ਆਈ।
ਕਿਉਂ ਮੈਂ ਵਿਸਰ ਬੈਠਿਆ
ਵਿਸਾਖੀ ਦਾ ਤਿਉਹਾਰ ?
.....
ਅਤੇ ਇਸ ਦੇ ਨਾਲ ਹੀ
ਆਪਣੇ ਵਿਰਾਸਤੀ ਖੇਤ ਖਲਿਆਣ ,
ਜਿੱਥੇ ਖੇਤਾਂ ਵਿੱਚ ਕੰਮ ਕਰਦੇ ਹਨ ਕਿਸਾਨ।
ਕਿਵੇਂ ਹੋਵੇਗਾ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਕਲਿਆਣ ?

13/04/2025.
आजकल
असुरक्षा के दौर में ,
आगे बढ़ने की होड़ में ,
जीवन में
सुरक्षा से जुड़े
मानकों का
रखा जाना चाहिए  ध्यान ,
ताकि सब सुरक्षित रहें !
कोई भी
असमय मौत का
न बने
कभी शिकार !
सुरक्षित जीवन
सभी का है अधिकार।
पशु  ,पंछी , वनस्पति और मनुष्य ,
सभी के मध्य
समन्वय और तालमेल बने।
इसकी खातिर
मनुष्यों को चाहिए
कि आज से
सब प्रयास करें।
सभी के
इर्द गिर्द ,भीतर और बाहर  
सुरक्षा का बोध जगे ,
इस बाबत सब जागरूक बनें।
सभी सुरक्षित जीवनचर्या को
सतत् अपनाने की ओर बढ़ें ,
ताकि
सुरक्षा की छतरी
सभी पर
तानी जा सके ,
असमय काल कवलित होने से
जीवों को
बचाया जा सके।

आज
सुरक्षित जीवन के हितार्थ
सभी को
न केवल जागरूक होना होगा
बल्कि
साथ साथ
जीवनपथ को
निष्कंटक बनाना होगा ,
तभी यह जीवन और धरा
बची रह पाएगी।
वरना धरा पर
विनाश लीला होती रहेगी ,
प्रकृति भी व्यथित होती रहेगी।
१३/०४/२०२५.
यह जीवन पथ
एक रंगमंच है , जहाँ
जहान तक को
किस्सा कहानी और कहानी का
विषय बनाकर
संवेदना को संप्रेषित करने के
मंतव्य से मन को हल्का करने में सक्षम खेल
नित्य प्रति दिन
हर पल ,
पलपल , हरेक क्षण
खेला जाता है ,
जहाँ पर
खेला हो जाता है !
जीव ठगा सा हतप्रभ
रह जाता है।
जीवन में
बेशक
कभी कभी
अच्छा होने का
नाटक करो
मगर कभी अच्छा होने का
प्रयास भी तो  किया करो
ताकि
दुनियावी झमेलों से
दूर रहकर,
जीवन के मंच पर
असमय
ठोकरें खाने से
बच सकें साधक ।
उनके जीवन में
किसी को
नीचा दिखाने के निमित्त
की गई हँसी ठिठोली
और हास परिहास
बनें न कभी भी बाधक।
सब जीव बन सकें
परम शक्ति के आराधक।
चेतना
समस्त सृष्टि में व्याप्त है ,
इसे जानने के प्रयासों के दौरान
भले ही
जीवन में  
कभी लगने लगे कि
अब सब समाप्ति के कगार पर है ,
मन में निराशा और हताशा भरती लगे ,
पर भूलो नहीं कि
जीवन में
कभी भी
कुछ भी समाप्त होता नहीं है,
बस पदार्थ अपनी अवस्था बदलता है।
कण कण में
जीवन नियंता और प्राणहंता
यहां वहां सब जगह
व्याप्त हैं।
फिर भी सोचो जरा कि
यह जीवन की अनुभूति  
भला हम से कभी
दूर रह पाएगी ?
बल्कि
यह जीवन के साथ भी
और बाद भी
चेतना बनकर
साथ रहेगी ,
जन्म जन्मांतर तक
हम सब को
कर्म चक्र से बांधें रखकर
समृद्ध करती रहेगी !
हमारा होना भी एक नाटक भर है ,
अतः इसे तन और मन से खेलो।
नाटक देखो ही नहीं , इसे जीयो भी ।
यहाँ सब कुशल अभिनेता हैं
और परम हम सब का निर्देशक!
और साथ ही दर्शक भी !
अपनी भूमिका को
निभाओ  दिल से!
जीवन को जीयो जी भर कर !
बेशक कभी कभी
नाटक भी करना पड़े
तो डरो कतई नहीं।
वर्तमान नाटक ही तो है !
अतीत यानिकि व्यतीत भी नाटक ही था!
आने वाले क्षण भी
नाटकीयता से भरपूर रहने वाले हैं !
भूल कर अपने समस्त डर !
निरन्तर आगे बढ़ना ही अब श्रेयस्कर है।
समय समर्थ है!
उसके सामने
कभी न कभी
गुप्त भेद भी प्रकट हो जाते हैं !!
अतः जीवन को भरपूर
नाटकीयता से जी लेना चाहिए।
कोई संकोच या बहानेबाजी से बचना चाहिए।
१३/०४/२०२५.
जीवन में कभी कभी
चल ही जाता है तीर तुक्का !
आदमी हो जाता है अचंभित और हक्का बक्का !!
ऐसा होता है प्रतीत कि
आदमी ने जीवन में मैदान मार लिया हो।
शत्रु को बस
खेल खेल में कर दिया हो चित्त।
पर पता नहीं था
जीतने से पहले
कब होना पड़ जाएगा चारों खाने चित्त ?
१२/०४/२०२५.
ज़िन्दगी में
दुराव छिपाव का
सिलसिला
बहुत पुराना है ,
यदि ये न हो तो
ज़िन्दगी
नीरस हो जाती है ,
सरसता
गायब हो जाती है।

ज़िन्दगी में
भूल कर भी न बनिए
कभी खुली किताब ,
यह खुलापन
कभी कभी किसी को
बेशक
अच्छा लगे ,
पर पीठ पीछे
ख़ूब भद्द पीटे।
अतः दुराव छिपाव
अत्यंत ज़रूरी है ,
इसे
जानने के
चक्कर में पड़कर
जीवन यात्रा में
रोमांच बना रहता है ,
आदमी  क्या औरत तक
जीवन में
परस्पर
एक दूसरे से
नोक झोंक
करते रहते हैं।
वे अक्सर
दुराव छिपाव रख कर
रोमांचित होते रहते हैं।
यदि देव योग से
कभी भेद खुल जाए
तो बहाने बनाने पड़ जाते हैं।
१२/०४/२०२५..
अभी अभी
पढ़ा है कि
देश दुनिया में
फेक न्यूज़ मेकर्स की
भरमार है।
जो अराजकता को
बढ़ावा देते हैं  
और
कर देते हैं
जन साधारण को
भ्रामक जानकारी से
बीमार,
बात बात पर
भड़कने वाले !
लड़ने झगड़ने पर
उतारू!

ऐसी फेक न्यूज़ से
बनते हैं फेक व्यूज़ !
त्रासदी है कि
ग़लत धारणा
बेशक
बाज़ार में
अधिक समय तक
नहीं टिकती ,
यह चेतना की
खिड़की को
कर देती हैं बंद!
आदमी
अपने को
मानता रहता है
चुस्त चालाक व अक्लमंद।
वह इसके सच से
कभी रूबरू नहीं हो पाता,
वह झूठ को ही है
सच समझता रहता।
ऐसे लोगों से कैसे बचा जाए ?
सोचिए समझिए ज़रा
फेक न्यूज को कैसे नकारा जाए ?
ताकि अपने को सच से जोड़े रखा जा सके।
किसी भी किस्म की
भ्रम दुविधा से बचा जा सके।
१२/०४/२०२५.
हार मिलने पर
उदास होना स्वाभाविक है।
यह कभी कभी
जख्मों को
हरा कर देती है।
यह मन में
पीड़ा भी पैदा करती है ,
जिससे बेचैनी देर तक बनी रहती है।
मन के कैनवास पर
अपनी हार को
किस रंग में
अभिव्यक्त करूं ?
इस बाबत जब भी सोचता हूँ ,
ठिठक कर रह जाता हूँ।
क्या हार का रंग
बदरंग होता है ,
जो कभी मातमी माहौल का
अहसास कराता है ,
तो कभी मिट्टी रंगी तितलियों में
बदल जाता है ,
भीतर मंडराता रहता है।
कभी कभी
हार को उपहार देने का मन करता है,
अपनी हरेक हार के बाद
आत्म साक्षात्कार की खातिर
भीतर उतरता हूँ ,
अपने परों की मजबूती को
तोलता हूँ
ताकि फिर से
जीवन संघर्ष कर सकूं
हार के बदरंग के बाद
तितली के रंगों को
मन के कैनवास पर उतार सकूँ !
हार ,जीत , हास परिहास , आम और ख़ास का
कोलाज निर्मित कर सकूँ ,
उस पर एक कल्पना का संसार उतार सकूँ।
क्या सभी के पास
हार का रंग बदरंग होता है या फिर अलग अलग !
जो करता रहा है  आदमी की कल्पना को वास्तविकता से अलग थलग !!
१२/०४/२०२५.
अभी अभी
मोबाइल पर
मैसेज आया कि
आप की प्लान की
वैधता आज समाप्त होनेवाली है।
कृपया रिचार्ज करें।
इसे पढ़ा और सोचा मैंने
कि अवैध की वैधता क्या ?
और करवट बदल कर
मैं सो गया।
अपनी सोच में खो गया !
इस मोबाइल की लत ने
सारी प्राइवेसी छीन ली है।
मेरे डाटा की जानकारी
कहां कहां नहीं पड़ी है ?
कब क्या करता है?
किस किस से चैटिंग करता है ?
किसी ज्योतिषी को
बेशक पता न हो ,
पर सर्विस प्रोवाइडर
सब कुछ जानता है।
मेरा अब कुछ अब खुला है।
अब जो कुछ देखा मैंने,
उसे आधार बना कर
पाठ्य सामग्री मिलती है।
मेरी मर्जी भी अब
घर बाहर कभी कभी चलती है।
आजकल क्या दुनिया
इसी ढर्रे पर आगे बढ़ती है ?
सारी दुनिया ठगी गई लगती है !
निजता ढूंढे नहीं मिलती है !!
११/०४/२०२५.
कितना अच्छा हो
इस उतार चढ़ाव भरे दौर में
हम सब आगे बढ़ते रहें,
हमारे मन प्रदूषण से दूर रहें,
हम परस्पर सहयोग और सहानुभूति से रहें।

जब कभी भी
आदमी के भीतर
थोड़ा सा लोभ, काम,लालच,ईर्ष्या
घर करता है ,
वह जीवन पथ पर
रूकावटें खड़ी कर लेता है।
आदमी और आदमी के बीच
एक दीवार खड़ी हो जाती है ,
वह सब कुछ को
संदेह और शक के
घेरे में लेकर देखने लगता है।
उसके भीतर कुढ़न बढ़ जाती है।
कल तक जो रिश्ते
प्यार और सुरक्षा देते लगते थे
वे घुटन बढ़ाते होते हैं प्रतीत।
सब कुछ समाप्त होता हुआ लगता है ,
जिससे भीतर ही भीतर
डर भरता चला जाता है।
संबंध दरकने लगते हैं।

आओ हम सब अपना जीवन
ईमानदारी और पारदर्शिता से व्यतीत करें ,
ताकि संबंध बचे रहें,
सब निर्द्वंद रहकर
जीवन को गरिमा  
और सुखपूर्वक जीएं।
दीर्घायु होकर सात्विकता के साथ
जीवन यात्रा
निर्विघ्न सम्पन्न करें।
हम सब
संबंधों में जीवन की
खुशबू की अनुभूति कर सकें।
११/०४/२०२५.
मैं जिस कमरे में
बैठा हूँ,
वहाँ प्लास्टिक से बना
बहुत सा सामान पड़ा है ।

इस का प्रयोग
किसी हद तक
कम किया जा सकता है ,
पर इसे बिल्कुल
बंद नहीं किया जा सकता।
प्लास्टिक का बदल हमें ढूंढना होगा ,
वरना वातावरण तबाही की ओर
बढ़ता नज़र आएगा ,
आदमी परेशानी और संकट से
घिरा देखा जाएगा।
हम इसका प्रयोग कम से कम करें।
इसके विकल्पों पर काम करना
समय रहते शुरू करें।
सब से पहले
जूट और पटसन के बैग्स खरीदें
और अपना खरीदा सामान
उसमें रखें।
कम से कम
ये बैग्स
कई बार प्रयुक्त हो
सकते हैं,
हम प्लास्टिक के खिलाफ़
बिगुल बजाने का आगाज कर
आगे बढ़ सकते हैं ,
अपनी इस छोटी सी कमज़ोरी पर
जीत प्राप्त कर सकते हैं।

प्लास्टिक के लिफाफों और दूसरी सामग्री से
सड़क निर्मित करने की शुरुआत कर सकते हैं।
इस सड़क पर
आगे बढ़ कर
प्लास्टिक रहित जीवन की बाबत सोच सकते हैं।
अच्छा रहे
हमारे उद्योग प्लास्टिक निर्मित
वस्तुओं का उत्पादन कम से कम करें।
इन की जगह अन्य धातुओं से निर्मित
पदार्थों का प्रचलन बढ़ाएं
ताकि हम प्लास्टिक प्रदूषण से बचा पाएं।
इसके साथ साथ ही
हम जरूरत भर
पदार्थों का उत्पादन करें।
आवश्यकता से अधिक औद्योगिक उत्पादन भी
प्रदूषण बढ़ाता है ,
इस बाबत भौतिकवादी समाज
क्या कभी रोक लगा पाता है ?
मुझे याद है
पहले घर में दूध
कांच की बॉटल्स में आता था
और अब पॉलिथीन निर्मित
पैकेट्स में,
यही नहीं लस्सी,दही ,और बहुत सी
खाद्य पदार्थ भी
प्लास्टिक और पॉलिथीन निर्मित
पैकेट्स में पैक होकर आते हैं ,
जो शहर और गांवों को
प्रदूषित करते नजर आते हैं ।
लोग भी लापरवाही से
इन्हें इधर उधर फेंकते दिख पड़ते हैं।
क्यों न इन पर भी कानून का डंडा पड़े ?
कम से कम चालान तो प्रदूषण फैलाने वाले का कटे।
आदमी के भीतर तक
अनुशासन होने की आदत बने
ताकि वह प्रदूषित जीवनचर्या के पाप का भागी न बने।
वह दाग़ी न लगे।
मैं जिस कमरे में बैठा हूँ ,
वहाँ प्लास्टिक से निर्मित
बहुत सा सामान पड़ा है,
जिसे टाला जा सकता था।
क्यों न हम लकड़ीऔर लोहे आदि से बने
सामान का प्रयोग बढ़ाए,
ताकि कुछ हद तक
अपने शहरों, कस्बों,गांवों आदि को
प्लास्टिक के प्रदूषण से मुक्त रख सकें !
समय धारा के संग आगे बढ़ कर सार्थकता वर सकें !!
१०/०४/२०२५.
दुनिया
निन्यानवे के फेर में
पड़ कर
आगे बढ़ रही है ,
खूब तरक्की
कर रही है!
जबकि
आदमी
इसी निन्यानवे के
फेर में
फंस कर
अपना सुख और सुकून
गंवा बैठा है ,
वह यह क्या
कर गया है ?
किस सुख की खातिर
शातिर बन गया है ?
जीवन का सच है कि
सुख
धन की तरह
किसी एक को होकर
नहीं रहा,
वह यायावर बना  
सतत्
यात्रा कर रहा।
आज
वह आपके पास
तो हो सकता है कि
कल
वह किसी धुर विरोधी के
पास
अपनी उपस्थिति का
करा रहा
अहसास हो।
वह उड़ा रहा
निन्यानवे के फेर का
उपहास हो।
जीवन में
निन्यानवे के फेर में रहा ,
कभी सुख का
एक पल कभी
जोड़ नहीं सका ,
बेशक सूम बना रहा ,
परिवार की आंख में
किरकिरी बना रहा !
सबको बुरा लगता रहा !
यह दर्द चुपचाप सहता रहा !!
१०/०४/२०२५.
हेट करते करते
डेटिंग
शुरू हो जाए,
इसकी मांगिए
दुआएं !

आज ज़माना
अपना दस्तूर भूला है ,
यहाँ अब सारे रीति रिवाज
उल्टा दिए गए हैं ,
शादी से पहले जो होते थे शेर कभी ,
आज मेमने बना दिए गए हैं !

अभी अभी
रद्दी में फेंक दिए
गए अख़बार में से
पढ़ी है एक ख़बर,
" नौ साल पहले हुई थी लव मैरिज ;
पति लन्दन गया तो....ने नया प्रेमी बनाया ,
लौटने पर हत्या कर पन्द्रह टुकड़े किए "
सोच रहा हूँ
आजकल ऐसा क्या हो गया है ?
लव मैरिज शादी के बाद
बन जाती है
जंग का मैदान !
यह संबंधों को ढोती हुई
जाती है हाँफ !
ज़िन्दगी होती जाती फ्लॉप !
यह एक मिस कैरेज ही तो है ,
जिसमें खुशियों का शिशु
असमय मार दिया जाता है !
वासना के कारण
पति परमेश्वर को
परमेश्वर से मुलाकात के लिए
षडयंत्र कर
भेज दिया जाता है !
ज़मीर और किरदार तक
सस्ते में बेच दिया जाता है !
आप ही बताइए
क्या आप को ऐसा समाज चाहिए ?
जहां वासना जी का जंजाल बन गई है ,
पति-पत्नी ,
दोनों के अहम् के टकराव की
वज़ह से ज़िंदगी नरक बन गई है।
आदमी के चेहरे से
मुस्कान छीनती चली गई है।
जीवन चक्र से
सौरभ और सौंदर्य हो गया है लुप्त !
संवेदना और सहानुभूति भी हैं अब लुप्त !!
किसी हद तक सभी जबरन सुला दिए गए !
संबंध , रिश्ते नाते तक भुला दिए गए !!
०९/०४/२०२५.
समझो !
मान लो कि
आप के  मोबाइल रीचार्ज के खाते में
इंटरनेट कनेक्टिविटी का पैक
हो जाए समाप्त
अचानक।
आप इस स्थिति में भी
नहीं कि झटपट से
डेटा पैक ले सकें ,
आप डेटा लोन भी लेना नहीं चाहते।
लगता है
ऐसे में
खेला हो गया ,
पैक अप हो गया।
सुख सुकून
कहीं खो गया।
अगर आदमी ठान ले
अब और भुलावे में नहीं रहना है,
इस सब झमेले से पिंड छुड़ाना है,
अचानक चमत्कार हो जाता है,
आदमी इंटरनेट कनेक्टिविटी के
जाल से निकल
क्षण भर के लिए
सुख पा जाता है।
परंतु यह क्या ?
आदमी
फिर से
इंटरनेट पैक लेने की
जुगत लड़ाता है।
वह दोबारा से कैदी बन जाता है,
बगैर हथकड़ियों के,
एक खुली कैद का सताया हुआ।
भीतर तक
नेट कनेक्टिविटी के
नशे का शिकार!
नेट के मायने भी
जाल होते हैं,
इस जाल में फंसे
लोग वीडियो देख देख कर ,
वीडियो बना बना कर,
आजकल बहुत खुश होते हैं ,
देखें, हम लाइक्स देख कर
कितने पगला जाते हैं !
आधुनिक जीवन के
मकड़जाल में फंसे रह जाते हैं!
अब छुटकारा मुश्किल है ,
अक्ल पर पर्दा पड़ चुका है।
आदमी भीतर तक थक चुका है।
०८/०४/२०२५.
कुछ हासिल न होने की सूरत में
आदमी की सूरत
बिगड़ जाती है ,
तन मन के भीतर
तड़प होने लगती है,
जो न केवल बेचैनी को बढ़ाती है ,
बल्कि भीतर तक
होने लगता है
अशांत,
जैसे शांत झील में
किसी ने
अचानक
कोई कंकर
भावावेश में आकर
दिया हो फैंक...!
यह सब उदासी के
बढ़ने का बनता है सबब ,
स्वतः प्रतिक्रिया वश
आदमी
उदासीन होता जाता है ,
वह जीवन में
आनंद लेने और देने से
करने लगता है गुरेज़ ,
ऐसा
अक्सर होने पर
वह थकान को
किया  करता है महसूस।
उसके भीतर
असंतुष्टि घर कर जाती है ,
यह अवस्था ही
तड़प बनकर
वजूद के आगे
एक सवाल खड़ा करती है,
उसे कटघरे में खड़ा कर
उद्वेलित किया करती है।

जिजीविषा से युक्त
आदमी  और उसकी मनोवृत्ति
हमेशा इस अज़ाब से
मुक्त
होना चाहते हैं।
उसे जीवन भर
निष्क्रिय रह कर तड़पना
और मतवातर
मरणासन्न होते चले जाने का दंश
झकझोरता है।
उसे कभी भी
तड़प तड़प कर
जीना नहीं मंजूर !
अतः
वह इस तड़पने की
जकड़न से
हर सूरत में
बचना चाहता है ,
वह सार्थक सोच से जुड़कर
सकारात्मक दिशा में
बढ़ना चाहता है।
वह अपनी संभावना को
टटोलना चाहता है।
वह अपनी सीरत को
सतत संघर्ष युक्त कर
बदलना चाहता है ,
ताकि वह जीवन पथ पर
निर्विघ्न बढ़ सके !
और एक दिन
वह स्वयं को पढ़ सके !
और वह भली भांति जान सके कि
आखिर  वह
जीवन धारा से
क्या अपेक्षा करता है ?
कौन है ,
जो उसे उपेक्षित
रखना चाहता है ?
और जो उसकी तड़प की
वज़ह बना है।
वह बस संघर्ष करना चाहता है ,
अपने भीतर
जिजीविषा की
उपस्थिति
और इसकी अनुभूति से  
उत्पन्न संवेदना को
जानना भर चाहता है।
वह तड़प, तड़प कर
अब जिन्दा नहीं रहना चाहता ,
वह जीवन यात्रा में
गंतव्य तक
यथाशीघ्र
पहुंचने का आकांक्षी है बस!
इससे पहले कि...
यह तड़प सर्वस्व कर ले हड़प।
वह दृढ़ निश्चय करके
अपने हालातों का
मूल्यांकन कर जीवन के
उज्ज्वल पक्षों पर
दृष्टिपात कर
अपना स्वतंत्र दृष्टिकोण
विकसित कर जीना चाहता है।
०७/०४/२०२५.
बहुत बार उज्ज्वल भविष्य के
बारे में सोचने और बताने से पहले ही
चाय के प्याले में
तूफ़ान आ गया है ,
सारे पूर्वानुमान
संभावनाओं के नव चयनित जादूगर के
कयास लगभग असफल रहने से
बाज़ार नीचे की तरफ़
बैठ गया है ,
निवेशक को
अचानक धक्का लगा है ,
वह सहम गया है !
कहाँ तो अच्छे दिन आने वाले थे !!
लोग स्वप्न नगरी की ओर उड़ान भरने को तैयार थे !!
अब लोग धरना प्रदर्शन पर उतारू हैं।
क्या आर्थिकता को बीमार करने वाले दिन सब पर भारू हैं ?
इससे पहले कि
कुछ बुरा घटे ,
हम अराजकता की
तरफ़ बढ़ने से
स्वयं को रोक लें ,
ताकि सब
सुख समृद्धि और संपन्नता से
खुद को जोड़ सकें।
०७/०४/२०२५.
सब एक दौड़ में
ले रहे हैं हिस्सा।
कौन किस से आगे जा पाए ?
इसका ढूंढें कैसे उपाय ?
इसकी बाबत सोच सोच कर
बहुत से लोग
भुला बैठे अपना सुख चैन।
चिंता और तनाव से
चिता की राह पर
असमय चल पड़े हैं,
क्या वे स्वयं को नहीं छल रहे हैं ?
यही बनती है अक्सर आदमी की हार की वज़ह।
ढूंढे से भी नहीं मिल पाती इस हारने के दंश की दवा।
ऊपर से दिन रात चलने वाली
एक दूसरे से आगे निकलने , हराने , विजेता कहलाने की होड़ ,
आदमी को सतत् बीमार कर रही है।
आधी से ज्यादा लोगों की आर्थिकता पर
यह व्यर्थ की दौड़ धूप और भागम भाग
चोट कर रही है।
इसकी मरहम भी समय पर नहीं मिल रही है।
यह सारी गतिविधि
आदमी को बेदम करती जा रही है।
दम बचा रहा तो ही हैं हम !
बस ! इस छोटी सी बात को समझ लें हम !
तब ही सब अस्तित्व की लड़ाई जीत पाएंगे हम !
वरना निरंतर हारने की मनोदशा में जाकर हम !
कब तक अपने को सुरक्षित रख पाएंगे हम ?
फिर तो जीवन में
बढ़ता ही जाएगा
कहीं न पहुँचने की टीस से उत्पन्न गम।
इस समस्या की बाबत
ठंडे दिल से सोचो ।
पागलपन की दौड़ से
समय रहते  ख़ुद को बाहर निकालो।
ख़ुद को  
अनियंत्रित हो जाने से रोको।
०७/०४/२०२५.
यह सहानुभूति ही है
जिसने मानवीय संवेदना को
जीवंतता भरपूर रखा है,
रिश्तों को पाक साफ़ रखा है।
वरना आदमी
कभी कभी
वासना का कीड़ा बनकर
लोक लाज त्याग देता है ,
बेवफ़ाई के झूले में
झूलने और झूमने लगता है।

प्रेम विवाह के बावजूद
आजकल बहुधा
पति पत्नी के बीच
तीसरा आदमी निजता को
खंडित कर देता है ,
फलस्वरूप
तलाक़ हलाक़
करने का खेल
चुपके चुपके से
खेलता है,
कांच का नाज़ुक दिल
दरक जाता है।
दुनियादारी से भरोसा उठ जाता है।
इसका दर्द आँखें छलकने से
बाहर आता है।
इस समय आदमी
फीकी मुस्कराहट के साथ
अपने भीतर की कड़वाहट को
एक कराहट के साथ झेल लेता है।
अभी अभी
अख़बार में झकझोर देने वाली खबर पढ़ी है।
तलाकशुदा पत्नी को
जब पहले पति की लाइलाज बीमारी की
बाबत विदित हुआ
तो उसने गुज़ारा भत्ता लेने से
इंकार कर दिया।
यह सहानुभूति ही है
जिसने रिश्ते को
अनूठे रंग ढंग से याद किया ।
अपने रिश्ते की पाकीज़गी की खातिर त्याग किया।
सहानुभूति और संवेदना से
भरा यह रिश्ता
अंधेरे में एक जुगनू सा
टिमटिमाता रहना चाहिए।
वासना की खातिर
जीवनसाथी को छोड़ा नहीं जाना चाहिए।
परस्पर सहानुभूति रखने वालों को
यह सच समझ आना चाहिए।
छोटी मोटी भटकनों को
यदि हो सके तो नजरअंदाज करना चाहिए।
मन ही मन अपनी ग़लती को सुधारने का प्रयास किया जाना चाहिए।
वरना जीवन और घर ताश के पत्तों से निर्मित आशियाने की तरह
थोड़ी सी हवा चलने ,ठेस लगने से बिखर जाता है।
आदमी और उसकी हमसफ़र कभी संभल नहीं पाते हैं।
जीवन यात्रा से सुख और सुकून लापता हो जाता है।
अच्छा है कि हम अपने संबंधों और रिश्तों में सहानुभूति को स्थान दें ,
ताकि समय रहते टूटने से बच सकें
और जीवन में सच की खोज कर सकें।
०६/०४/२०२५.
अन्याय
तन मन में आग
लगाता रहा है ,
यह भीतर को
फूंकता ही नहीं ,
बल्कि आदमी को
हद से ज़्यादा
बीमार और लाचार
बना देता है ,
यह थका देता है।
अन्याय
ज़ोर ज़बरदस्ती
जबरन झुकने के लिए
बाध्य करने वाला
धक्का है ,
यह वह थपेड़ा है,
जिसने यकायक
आदमी को
भीतर तक तोड़ा है।
इसका विरोध
हर सूरत में
होना ही चाहिए।
अन्याय से मुक्ति के लिए
कोई जन आन्दोलन होना ही चाहिए।
कौन सहेगा अन्याय अब
और अधिक देर तक
इस बाबत सब को
समय रहते विरोध की खातिर
खड़ा होना ही चाहिए।
कोई भी व्यक्ति
इसका शिकार नहीं बनना चाहिए।
बस इस की खातिर
सब को स्वयं को
जागरूक बनाना होगा ,
विरोध करने का बीड़ा उठाना होगा ,
समय बार बार नहीं देता
समाज से अन्याय और शोषण जैसी
गन्दगी साफ़ करने का मौका।
अब भी विरोध का सुर
बुलन्द न किया
तो यह निश्चित है
कि भविष्य
अनिश्चित काल तक
धूमिल बना रहेगा,
इसके साथ ही
मिलता रहेगा
सब को क़दम क़दम पर धोखा।
अन्याय का विरोध करना
सब का फ़र्ज़ है ,
विरोध से पीछे हटना और डरना
बन चुका है अब मर्ज़
समाज में।
आज अन्याय को कौन सहे ?
क्यों अब सब
देर तक मौन रहें ?
क्यों न सब
विरोध और प्रतिरोध के
सुर मुखर करें ?
वे अन्याय और शोषण की
ख़िलाफत करें ।
०६/०४/२०२५.
Apr 6 · 54
Frustration
Frustration bursts first peace of mind
and
than it imposes restrictions on human beings,
to feel secure in life.

Frustration is like an invitation for destruction ,
so engage yourself in constructive activities to avoid huge damage in life  for survive.

06/04/2025.
Apr 6 · 102
चमत्कार
इस धरा पर
जीवन धारा का
बह निकलना
अपने आप में
लगता है एक करिश्मा।
मैं भी कभी
चमत्कार में
विश्वास नहीं करता था,
मुझे कार्य कारण संबंध खोजना,
और फिर इस सब की बाबत
अपनी धारणा बनाना अच्छा लगता है।
पिछले कुछ अर्से से
देश दुनिया में
असंभव प्रायः को
जीवन में घटित होते देखता हूँ
तो लगता है ,
कहीं निकट ही
चमत्कार घट रहा है,
जो न केवल विस्मित कर रहा है,
बल्कि सोच को भी बदल रहा है,
जिससे सब कुछ बदलाव की ओर बढ़ता लग रहा है।
जीवन यात्रा में चमत्कार घटित होता महसूस हो रहा है।
असंभव का संभावना में बदल कर
दृश्यमान होना चमत्कार ही तो है
जो बुद्धि पर पड़े पर्दे को हटाकर
कभी कभी  परम की जादुई उपस्थिति का
अहसास करा देता है।
चेतना को जगा देता है।
आदमी की सुप्त चेतना का
अचानक अनुभूति बनकर
अपनी प्रतीति कराना
एक चमत्कार से कम नहीं ,
जो आदमी को रख पाता है संतुलित और सही।
जीवन और मरण के घटनाक्रम का
सतत अस्तित्वमान होना ,
आदमी का दुरूह परिस्थितियों में
जिजीविषा के बूते बचे रहना
किसी चमत्कार से कम नहीं।
अनास्था के विप्लव कारी दौर में
आस्था का बना रहना भी
किसी करिश्मे से कम नहीं है जी ,
जो जीवन में जिजीविषा का आभास कराता है,
मृत प्रायः को जीवन देने का चमत्कार कर जाता है।
०६/०४/२०२५.
वह हठी है
इस हद तक
कि सदा
अपनी बात
मनवा कर छोड़ता है।
उसके पास
अपना पक्ष रखने के लिए
तर्क तो होते ही हैं ,
बल्कि जरूरत पड़ने पर
वह कुतर्क, वाद विवाद का भी
सहारा लेने से
कभी पीछे नहीं हटता।
वह हठी है
और इस जिद्द के कारण
मेरी कभी उससे नहीं बनी है,
छोटी छोटी बातों को लेकर
हमारी आपस में ठनती रही है।
हठी के मुंह लगना क्या ?...
सोच कर मैं अपनी हार मानता रहा हूं।
वह  अपने हठ की वज़ह से
अपने वजूद को
क़ायम रखने में सफल रहा है ,
इसके लिए वह कई बार
विरोधियों से
बिना किसी वज़ह से लड़ा है ,
तभी वह जीवन संघर्ष में टिक पाया है ,
अपनी मौजूदगी का अहसास करा पाया है।
उसकी हठ मुझे कभी अच्छी लगी नहीं ,
इसके बावजूद
मुझे उससे बहस कभी रुचि नहीं।
मेरा मानना है कि वह सदैव
जीवन में आगे बढ़ चढ़ कर
अपने को अभिव्यक्त करता रहे।
उसका बहस के लिए उतावला होना
उसके हठी स्वभाव को भले ही रुचता है ,
मुझे यह अखरता भी जरूर है ,
मगर उसके मुंह न लगना
मुझे उससे क़दम क़दम पर बचाता है।
हठी के मुंह लगने से सदैव बचो।
अपने सुख को
सब कुछ समझते हुए
तो न हरो।
बहस कर के
अपने सुख को तो न सुखाओ ।
इसे ध्यान में रखकर
मैं  उस जैसे हठी के आगे
अकड़ने से परहेज़ करता हूं।
आप भी इसका ध्यान रखें कि
...हठी के मुंह लगना क्या ?
बेवजह जीवन पथ में लड़ भिड़कर अटकना क्या ?
इन से इतर खुद को समझ लो,
खुद को समझा लो,
बस यही काफी है।
कभी कभी
हठी से बहस करने
और उलझने की निस्बत
खुद ही आत्म समर्पण कर देना ,
अपनी हार मान लेना बुद्धिमत्ता है।
०५/०४/२०२५.
हरेक जीव
विशेष होता है
और उसके भीतर
स्वाभिमान कूट कूट कर
भरा होता है।
परंतु कभी कभी
आदमी को मयस्सर
होती जाती है
एक के बाद
एक एक करके
सफलता दर सफलता ,
ऐसे में
संभावना बढ़ जाती है कि
भीतर अहंकार
उत्पन्न हो जाए ,
आदमी की हेकड़ी
मकड़ी के जाल सरीखी होकर
उस मकड़जाल में
आदमी की बुद्धिमत्ता को
उलझाती चली जाए,
आदमी कोई ढंग का निर्णय
लेने में मतवातर पिछड़ता चला जाए।
उसका
एक अनमने भाव से लिया गया
फ़ैसला
कसैला निर्णय बनता चला जाए ,
आदमी जीवन की दौड़ में
औंधे मुंह गिर जाए
और कभी न संभल पाए ,
वह
बैठे बिठाए पराजित हो जाए।
वह
एकदम चाहकर भी
खुद में
बदलाव न कर पाए।
अंतिम क्षणों में
जीत
उसके हाथों से
यकायक
फिसल जाए।
उसकी हेकड़ी
धरी की धरी रह जाए।
उसे अपने बेबस होने का अहसास हो जाए।
हो सकता है
इस झटके से
वह फिर से
कभी संभल जाए
और जड़ से विनम्र होने की दिशा में बढ़कर
सार्थकता का वरण कर पाए।
०५/०४/२०२५.
हाज़िरजवाब
प्रतिस्पर्धी
किसी खुशकिस्मत को
नसीब होता है ,
वरना
ढीला ढाला प्रतिद्वंद्वी
आदमी को
लापरवाह बना देता है ,
आगे बढ़ने की
दौड़ में
रोड़े अटकाकर
भटका देता है ,
चुपके चुपके से
थका देता है।
वह किसी को न ही मिले तो अच्छा ,
ताकि जीवन में
कोई दे कर गच्चा
कर न सके
दोराहे और चौराहे पर
कभी हक्का बक्का।
अच्छा और सच्चा प्रतिद्वंद्वी
बनने के लिए
आदमी सतत प्रयास करता रहे ,
वह न केवल अथक परिश्रम करे ,
बल्कि समय समय पर
समझौता करने के निमित्त
खुद को तैयार करता रहे।
संयम से काम करना
प्रतिस्पर्धी का गुण है ,
और विरोधी को अपने मन मुताबिक
व्यवहार करने को बाध्य करना
कूटनीतिक सफलता है।

प्रतिस्पर्धा में
कोई हारता और जीतता नहीं,
मन में कोई वैर भाव रखना,
यह किसी को शोभा देता नहीं।
प्रतिद्वंद्विता की होड़ में
यह कतई सही नहीं।
आदमी जीवन पथ की राह में
मिले अनुभवों के आधार पर
स्वयं को परखे तो सही ,
तभी प्रतिभा के समन्वय से
प्रतिस्पर्धा में टिका जाता है ,
जीवन के उतार चढ़ावों के बीच
प्रगति को गंतव्य तक पहुंचाया जाता है।
०४/०४/२०२५.
राजनीति में
मुद्दाविहीन होना
नेतृत्व का
मुर्दा होना है।
नेतृत्व
इसे शिद्दत से
महसूस कर गया।
अब इस सब की खातिर
कुछ कुछ शातिर बन रहा है।
यही समकालीन
राजनीतिक परिदृश्य में
यत्र तत्र सर्वत्र
चल रहा है।
बस यही रोना धोना
जी का जंजाल
बन रहा है।
नेता दुःखी है तो बस
इसीलिए कि
उसका हलवा मांडा
पहले की तरह
नहीं मिल रहा है।
उसका और उसके समर्थकों का
काम धंधा ढंग से
नहीं चल रहा है।
जनता जनार्दन
अब दिन प्रतिदिन
समझदार होती जा रही है।
फलत:
आजकल
उनकी दाल
नहीं गल रही है।
समझिए!
ज़िन्दगी दुर्दशा काल से
गुज़र रही है।
राजनीति
अब बर्बादी के
मुहाने पर है!
बात बस अवसर
भुनाने भर की है ,
दुकानदारी
चलाने भर की है।
मुद्दाविहीन
हो जाना तो बस
एक बहाना भर है।
असली दिक्कत
ज़मीर और किरदार के
मर जाने की है ,
हम सब में
निर्दयता के
भीतर भरते जाने की है।
इसका समाधान बस
गड़े मुर्दों को
समय रहते दफनाना भर है ,
मुद्दाविहीन होकर
निर्द्वंद्व होना है
ताकि मुद्दों के न रहने के बावजूद
सब सार्थक और सुरक्षित
जीवन पथ पर चलते रहें।
वे सकारात्मक सोच के साथ
जीवन में दुविधारहित होकर आगे बढ़ सकें ,
आपातकाल में
डटे रहकर संघर्ष कर सकें।
०४/०४/२०२५.
वह कितना चतुर हैं!
झटपट झूठ
परोस कर
बात का रुख
बदल देता है ,
जड़ से समस्या को
खत्म करता है।
यह अलग बात है कि
झूठ को छिपाने की
एक और समस्या को
दे देता है
जन्म !
जो भीतर की
ऊर्जा को करती रहती है
धीरे धीरे कम !
किरदार को
कमजोर करती हुई ,
आदमी को
अंदर तक
इस हद तक
निर्मोही करती हुई
कि उसका वश चले
तो हरेक विरोधी को
जीते जी एक शव में
कर दे तब्दील !
उसे झंड़े की तरह लहरा दे !
उसे एक कंदील में बदल
झूठे सच्चे के स्वागतार्थ
तोरण बना लटका दे !
झूठा आदमी ख़तरनाक होता है।
वह हर पल सच्चे के कत्ल का गवाह
बनने के इरादे में मसरूफ रहता है
और दिन रात
न केवल साजिशें रचता है
बल्कि मतवातर
गड़बड़ियां करता है,
ताकि वह हड़बड़ी फैला सके ,
मौका मिलने पर
हर सच्चे और पक्के को
धमका सके ,
मिट्टी में मिला सके।

०४/०४/२०२५.
आज के तेज रफ़्तार के
दौर में
अंदर व्यापे
अशांत करने वाले
शोर में
अचानक लगे
ट्रैफिक जाम में
धीरे धीरे
वाहनों का आगे बढ़ना
किसी को भी अखर सकता है ,
तेज़ रफ़्तार का आदी आदमी
अपना संयम खोकर
भड़क सकता है।
वह
अचानक
क्रोध में आकर
दुर्घटनाग्रस्त हो ,
जाने पर परेशान हो ,
तनावग्रस्त हो जाता है।
इस दयनीय अवस्था में
आज का आदमी
सचमुच
नरक तुल्य जीवन में फंसकर
अपना सुख चैन गंवा लेता है।
ऐसी मनोस्थिति में
वह क्या करे ?
वह कैसे अपने भीतर धैर्य भरे ?
वह कैसे संयमित होने का प्रयास करे ?
आओ इस बाबत
हम सब मिलकर विचार करें।

संयम के
अभाव में
धीमी गति
असह होती है ,
यह मन में
झुंझलाहट भरती है।
कभी कभी तो यह
आदमी को
बिना उद्देश्य से चलने वाली
एक ब्रेक फेल गाड़ी की तरह
व्यवहार करने को
बाध्य करती है ,
इस अवस्था में
आदमी की बुद्धि के कपाट
बंद हो जाते हैं ।
आदमी
लड़ने झगड़ने पर
आमादा हो जाते हैं।
अच्छी भली ज़िन्दगी में
गतिहीनता का अहसास
पहले से व्याप्त घुटन में
इज़ाफ़ा कर देता है।
आदमी
रुकी हुई जीवन स्थिति का
न चाहकर भी
बन जाता है शिकार!
वह कुंठित होकर
जाने अनजाने
बढ़ा लेता है
अपने भीतर व्यापे मनोविकार,
जिन्हें वह सफ़ाई से
छुपाता आया है,
वे सब मनोविकार
धीरे-धीरे
लड़ने झगड़ने की स्थिति में
होने लगते हैं प्रकट !
जीवन के आसपास
फैल जाता है कूड़ा कर्कट!
धीमी गति से
आज के तेज़ रफ़्तार
जीवन में
स्थितियां परिस्थितियां
बनतीं जाती हैं विकट !
विनाश काल भी
लगने लगता है अति निकट !!
कभी कभी
जीवन में धीमी गति
कछुए को विजेता
बना देती है।
परन्तु
जिसकी संभावना
आज के तेज़ तर्रार रफ़्तार भरे जीवन में
है बहुत कम।
तेज़ रफ़्तार जीवन
आदमी को
न चाहकर भी
बना देता है निर्मम!
और जीवन में व्याप्त  धीमी गति
आदमी को बेशक
दुर्घटनाग्रस्त होने से बचाती है!
यह निर्विवाद सब को
गंतव्य तक पहुंचाती है !
तेज़ रफ़्तार वाले युग का मानस
इस सच को कभी तो समझे !
वह जीवन में
धीमी गति होने के बावजूद
किसी से न उलझे !
बल्कि वह शांत चित्त होकर
अपनी अन्य समस्याओं को सुलझाए।
व्यर्थ ही जीवन को
और  ज़्यादा  उलझाता न जाए।
वह अपने क़दम धीरे धीरे आगे बढ़ाए।
ताकि जीवन में
सुख समृद्धि और शांति को तलाश पाए।
०३/०४/२०२५.
Apr 2 · 115
सुधारना
बिगड़ैल का सुधरना
किसी सुख के मिलने जैसा है ,
किसी का बिगड़ना
विपदा के आगमन जैसा है।
इस बाबत
आप की सोच क्या है ?
बिगड़े हुए को सुधारना
कभी होता नहीं आसान।
वे अपने व्यवहार में
समय आने पर
करते हैं बदलाव।
इसके साथ साथ
वे रखते हैं आस ,
उनकी सुनवाई होती रहे।
वे सुधर बेशक गए ,
इसे भी अहसान माना जाए।
उनका कहना माना जाए।
वरना वे बिगड़ैल उत्पात मचाने
फिर से आते रहेंगे।

कुछ मानस
बिगड़े बच्चों को
लठ्ठ से सुधारना चाहते हैं,
आजकल यह संभव नहीं।
आज भी उनकी सोच है कि डर
अब भी उन सब पर कायम रहना चाहिए।
ऐसी दृष्टि रखने वालों को आराम दे देना चाहिए।
बिगड़ैल को पहले प्यार मनुहार से
सुधरने का मौका देना चाहिए।
फिर भी न मानें वे,
तो उन्हें अपने माता पिता से
मिला प्रसाद दे ही देना चाहिए।
कठोर दंड या तो सुधार देता है
अथवा बदमाश बना देता है।
उन्हें कभी कभी ढीठ बना देता है।
कई बार सुधार के चक्कर में
आदमी खुद को बिगाड़ लेता है।
हरेक ऐसे सुधारवादी पर हंसता है,
चुपके चुपके चुटकियां भरता है,
और कभी कभी अचानक फब्तियां भी कसता है।
किसी किसी समय आदमी को
उसकी सुधारने की जिद्द महंगी पड़ जाती है,
सारी अकड़ धरी धराई रह जाती है,
छिछालेदारी अलग से हो जाती है।
आप बताइए,
ऐसे मानस की इज्ज़त
कहां तक बची रह पाती है ?
०२/०४/२०२५.
कल अख़बार में
एक सड़क दुर्घटना में
मारे गए तीन कार सवार युवकों की
दुखद मौत की बाबत पढ़ा।
लिखा था कि
दुर्घटना के समय
बैलून खुल नहीं पाए थे,
बैलून खुलते तो उन युवाओं के असमय
काल कवलित होने से बचने की संभावना थी।
इसके बाद
एक न्यूज बॉक्स में
ऑटो एक्सपर्ट की राय छपी थी कि
सीट बैल्ट बांधने पर ही
बैलून खुलते हैं , अन्यथा नहीं।
मेरे जेहन में
एक सवाल कौंधा था ,
आखिर सीट बैल्ट बांधने में
कितना समय लगता है ?
चाहिए यह कि
कार की अगली सीटों पर बैठे सवार
न केवल सीट बैल्ट लगाएं
बल्कि पिछली सीट पर
सुशोभित महानुभाव भी
सीट बैल्ट को सेफ़्टी बैल्ट मानकर
सीट बैल्ट को बांधने में
कोई कोताही न करें ।
सब सुरक्षित यात्रा का करें सम्मान ,
ताकि कोई गवाएं नहीं कभी जान माल।
सब समझें जीवन का सच
दुर्घटनाग्रस्त हुए नहीं कि
हो जाएंगे हौंसले पस्त !
साथ ही सपने भी ध्वस्त !!

अतः यह बात पल्ले बांध लो
कि किसी वाहन पर सवार  होते ही
सीट  बैल्ट और अन्य सुरक्षा उपकरणों को पहन लो।
आप भी सुरक्षित रहो ,
साथ ही जनधन भी बचा रहे।
ज़िन्दगी का सफ़र भी आगे बढ़ता रहे।
आकस्मिक दुर्घटना का दंश भी न सहना पड़े।
०२/०४/२०२५.
उम्र बढ़ने के साथ साथ
भूलना एकदम स्वाभाविक है ,
परन्तु अस्वाभाविक है ,
विपरीत हालातों में
आदमी की
जिजीविषा का
कागज़ की पुड़िया की तरह
पानी में घुल मिल जाना ,
उसका लड़ने से पीछे हटते जाना ,
लड़ने , संघर्ष करने की वेला में ,
भीतर की उमंग तरंग का
यकायक घट जाना ,
भीतर घबराहट का भर जाना ,
छोटी छोटी बातों पर डर जाना।
ऐसी दशा में
आदमी अपने को कैसे संभाले ?
क्या वह तमाम तीर
और व्यंग्योक्तियों को
अपने गिरते ढहते ज़मीर पर आज़मा ले ?
क्या वह आत्महंता बन कर धीरू कहलवाना पसंद करे ?
क्यों न वह मूल्यों के गिरते दौर में
धराशाई होने से पहले
खुद को अंतिम संघर्ष के लिए तैयार करे ?
जीवन में अपने आप को
विशिष्ट सिद्ध करने के लिए हाड़ तोड़ प्रयास करे ?

वह जीवन में
लड़ना कतई न भूले ,
वरना सर्वनाश सुनिश्चित है ,
त्रिशंकु बनकर लटके रहना , पछताना भी निश्चित है।
अनिश्चित है तो खुद की नज़रों में फिर से उठ पाना।
ऐसे हालातों से निकल पाने के निमित्त
तो फिर
आदमी अपने आप को
क्यों न जीवन पथ पर लड़ने के काबिल बनाए ?
वह बिना लड़े भिड़े ही क्यों खुद को पंगु बनाए ?
वह अपने को जीवन धारा के उत्सव से जोड़े।
जीवन की उत्कृष्टता के साक्षात दर्शनार्थ
अपने भीतर उत्साह,उमंग तरंग,
अमृत संचार के भाव
निज के अंदर क्यों न समाहित करे ?
वह बस बिना लड़े घुटने टेकने से ही जीवन में डरे।
अतः मत भूलो तुम जीवन में मनुष्योचित लड़ना।
लड़ना भूले तो निश्चित है ,
आदमजात की अस्मिता का
अज्ञानता के नरक में जाकर धंसना।
पल पल मृत्यु से भी
बदतर जीवन को
क़दम क़दम पर अनुभूत करना।
खुद को सहर्ष हारने के लिए प्रस्तुत करना।
भला ऐसा कभी होता है ?
आदमी विजेता कहलवाने के लिए ही तो जीता है !
०२/०४/२०२५.
हरेक क्षेत्र में
हरेक जगह एक मसखरा मौजूद है
जो ढूंढना चाहता
अपना वजूद है
वह कोई भी हो सकता है
कोई ‌मसखरा
या फिर
कोई तानाशाह
जो चाहे बस यही
सब करें उसकी वाह! वाह!
अराजकता की डोर से बंधे
तमाम मसखरे और तानाशाह
लगने लगे हैं आज के दौर के शहंशाह!
जिन्हें देखकर
तमाशबीन भीड़
भरने को बाध्य होगी
आह और कराह!
शहंशाह को सुन पड़ेगी
यह आह भरी कराहने की आवाजें
वाह! वाह!! ...के स्वर से युक्त
करतल ध्वनियों में बदलती हुईं !
तानाशाह के
अहंकार को पल्लवित पुष्पित करती हुईं !!
०१/०४/२०२५.
Apr 1 · 52
हड़कंप
मच गया हड़कंप
जब सत्तासीन हुआ ट्रम्प ,
डोंकी मोंकी रूट हुए डम्प।
यह सब अब तक ज़ारी है।
साधन सम्पन्न देश में अब
राष्ट्र प्रथम की अवधारणा को
क्रियान्वित करने की बारी है।
यह लहर चहुं ओर फैल रही है ,
दुनिया सार्थक परिवर्तन के निमित्त
अब
धीरे धीरे
अपनी सुप्त शक्ति को
करने लग पड़ी है
मौन रहकर संचित,
ताकि सकारात्मक ऊर्जा कर सके
देश दुनिया और समाज को
ढंग से संचालित ,
जिससे कि
निर्दोष न हों सकें
अब और अधिक
कभी भी
अन्याय के शिकार,
वे न हों सकें कभी
किसी जन विरोधी
व्यवस्था के हाथों
असमय प्रताड़ित।
वे श्रम,धन,बल,संगठन से
प्राप्त कर सकें
अपने सहज और स्वाभाविक
मानवीय जिजीविषा से
ओत प्रोत मानवाधिकार।
०१/०४/२०२५.
तुम कभी
बहुत ताकतवर रहे होंगें कभी ,
समय आगे बढ़ा ,
तुम ने भी तरक्की की होगी कभी ,
जैसे जैसे उम्र बढ़ी ,
वैसे वैसे शक्ति का क्षय ,
सामर्थ्य का अपव्यय
महसूस हुआ हो कभी !
बरबस आंखों में से
झरने सा बन कर
अश्रु टप टप टपकने
लगने लगे हों कभी।
अपनी सहृदयता ही
कभी लगने  लगी हो
अपनी कमज़ोरी और कमी।
इसके विपरीत
धुर विरोधियों ने
कमीना कह कर
सतत् चिढ़ाया हो
और भावावेश में आकर
भीतर बाहर
यकायक
गुस्सा आन समाया हो।
इस बेबसी ने
समर्थवान को आन रुलाया हो।

समर्थ के आंसू
पत्थर को
पिघलाने का
सामर्थ्य रखते हैं ,
पर जनता के बीच होने के
बावजूद
ये आंसू
समर्थ को सतत्
असुरक्षित करते रहते हैं ,
सत्तासीन सर्वशक्तिमान होने पर भी
निष्ठुर बने रहते हैं।
वे स्वयं असुरक्षित होने का बहाना
बना लेते हैं ,
वे बस जाने अनजाने
अपना उपहास उड़वा लेते हैं ,
मगर उन पर
अक्सर
कोई हंसता नहीं ,
उन्हें
अपने किरदार की
अच्छे से
समझ है कि
यदि कोई  
स्वभावतया भी हंस पड़ता है
तो झट से धड़
अलग हुआ नहीं ,
सब वधिक को ,
उसके आका को
ठहरायेंगे सही।
समर्थ को सतत् सक्रिय रहकर
आगे बढ़ना पड़ता है ,
क़दम क़दम पर
जीवन के विरोधाभासों से
निरंतर लड़ना पड़ता है।
समर्थ के आंसू
कभी बेबसी का
समर्थन नहीं करते हैं।
ये तो सहजता से
बरबस निकल पड़ते हैं।
हां,ये जरूर
मन के भीतर पड़े
गर्दोगुब्बार को धोकर
एक हद तक शांत करते हैं।
वरना समर्थ जीवन पर्यन्त
समर्थ न बना रहे।
वह अपने अंतर्विरोधों का
स्वयं ही शिकार हो जाए।
आप ही बताइए कि
वह कहां जाए ?
वह कहां ठौर ठिकाना पाए ?
०१/०४/२०२५.
हमने अज्ञानता वश
कर दी है एक भारी भरकम भूल ,
जिस भूल ने
जाने अनजाने
चटा दी है बड़े बड़ों को धूल
और जो बनकर शूल
सबको मतवातर
बेचारगी का अहसास
करवा रही है ,
अंदर ही अंदर
हम सब को
कमजोर
करती जा रही है।

हमने
लोग क्या कहेंगे ,
जैसी क्षुद्रता में फंसे रहकर
जीवन के सच को
छुपा कर रखा हुआ है ,
अपने भीतर
अनिष्ट होने के डर को भर
स्वयं को
सहज होने से
रोक रखा है।
यही असहजता
हमें भटकाती रही है ,
दर दर की ठोकरें खाने को
करती रही है बाध्य ,
जीवन के सच को
छुपाना
सब पर भारी पड़ गया है !
यह बन गया है
एक रोग असाध्य !!
आदमी
आजतक हर पल
सच को झूठलाने की
व्यर्थ की दौड़ धूप
करता रहा है ,
वह
स्वयं को छलता रहा है ,
निज चेतना को
छलनी छलनी कर रहा है !
स्व दृष्टि में
गया गुजरा बना हुआ सा
इधर उधर डोल रहा है ,
चाहकर भी
मन की घुंडी खोल
नहीं  रहा है ,
वह
एक बेबस और बेचारगी भरा
जीवन बिता रहा है ,
और
अपने भीतर पछतावा
भरता जा रहा है।
अतः
यह जरूरी है कि वह
जीवन के
सच को  
बेझिझक
बेरोक टोक
स्वीकार करे ,
जीवन में छुपने छुपाने का खेल
खेलने से गुरेज करे।
वह
इर्द गिर्द फैली
जीवन की खुली किताब को
रहस्यमय बनाने से परहेज़ करे।
इसे सीधी-सादी ही रहने दे।
इसे अनावृत्त ही रहने दे।
ताकि
सब सरल हृदय बने रह कर
इसे पढ़ सकें ,
जीवन पथ पर
आगे बढ़ सकें।
आओ , इस की खातिर
सब चिंतन मनन करें।
जीवन में कुछ भी छिपाना ठीक नहीं,
ताकि हम अपनी नीयत को रख सकें सही।
०१/०४/२०२५.
बाज़ार में
ऋण उपलब्ध करवाने की
बढ़ रही है होड़ ,
बैंक और अन्य वित्तीय संस्थान
ऋण आसानी से
देने के  
कर रहे हैं प्रयास।
लोग खुशी खुशी
ऋण लेकर
अनावश्यक पदार्थों का
कर रहे हैं संचय।
ऋण लेना
सरल है ,
पर उसे
समय रहते
चुकाना भी होता है ,
समय पर ऋण चुकाया नहीं,
तो आदमी को
प्रताड़ना और अपमान के लिए
स्वयं को कर लेना चाहिए तैयार।
ऋण को न मोड़ने की
सूरत में  
ब्याज पर ब्याज लगता जाता है ,
यह न केवल
मन पर बोझ की वज़ह बनता है ,
बल्कि यह आदमी को
भीतर तक
कमजोर करता है,
आदमी हर पल आशंकित रहता है।
उसके भीतर
अपमानित होने का डर भी
मतवातर भरता जाता है।
उसका सुकून बेचैनी में बदल जाता है।

यह तो ऋणग्रस्त आदमी की
मनोदशा का सच है ,
परन्तु ऋणग्रस्त देश का
हाल तो और भी अधिक बुरा होता है,
जब आमजन का जीना दुश्वार हो जाता है,
तब देश में असंतोष,कलह और क्लेश, अराजकता का जन्म होता है,
जो धीरे-धीरे देश दुनिया को मरणासन्न अवस्था में ले जाता है,
और एक दिन देश विखंडन के कगार पर पहुंच जाता है ,
देश का काम काज
ऋण प्रदायक देश और संस्थान के इशारों पर होने लगता है।
यह सब एक नई गुलामी की व्यवस्था की वज़ह बनता जा रहा है ,
ऋण का दुष्चक्र विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को
विकास के नाम पर
विनाश की ओर ले जाता है।
इस बाबत बहुत देर बाद
समझ में आता है ,
जब सब कुछ छीन लिया जाता है,
तब ... क्या आदमी और क्या देश...
लूटे पीटे नज़र आते हैं ,
वे केवल नैराश्य फैलाने के लिए
पछतावे के साये में लिपटे नज़र आते हैं।
वे एक दिन आतंकी
और आतंकवाद फैलाने की नर्सरी में बदलते जाते हैं।
बिना उद्देश्य और जरूरत के
ऋण के जाल में फंसने से बचा जाए।
क्यों न
चिंता और तनाव रहित जीवन को जीया जाए !
सुख समृद्धि और शांति की खातिर चिंतन मनन किया जाए !
सार्थक जीवन धारा को अपनाने की दिशा में आगे बढ़ा जाए !!
ऋण मुक्ति की बाबत समय रहते सोच विचार किया जाए ।
३१/०३/२०२५.
Next page