Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
मनुष्य का
इस धरा पर आगमन
किस लिए हुआ ?
यह अकारण नहीं ,
क्या इस में कुछ रहस्य छिपा ?
मनुष्य
योनियों के एक मायाजाल से
उभरकर
विशेष प्रयोजनार्थ
लेता है जन्म।
उसमें
अन्य जड़ पदार्थों
और चेतन प्राणियों की
तुलना में
कुछ विशेष चेतना
धीरे धीरे
काल के समंदर से गुज़र कर
है विकसित हुई
ताकि वह चेतन की अनुभूति कर सके !
निरर्थकता से ऊपर उठकर
जीवन की सार्थकता को अनुभूत कर सके !
हमारे यहां सनातन में
कर्म चक्र के प्रति आस्था व्यक्त की गई है ,
कर्म फल यानी कार्य कारण संबंध !
कुछ भी नष्ट नहीं !
महज़ ऊर्जा का रूपांतरण !!
इस आस्था के साथ जनम !
जीवन धारा को
चेतना बनकर
आत्मा में प्रवेश करने का
साक्षात निमंत्रण!
आवागमन का चक्र
इस सृष्टि में चल रहा है।
मनुष्य की चेतना में एक ख्याल कि
वह इस धरा पर क्यों जन्मा ?
क्या मनुष्य को छोड़कर
किसी अन्य जीव में आ सकता है ?
इस बाबत भी
कभी फ़ुर्सत में
विचार कीजिए?
अपनी दृष्टि को आधार दीजिए !
जीव जगत के बाबत
अपना दृष्टिकोण विकसित कीजिए !!
अपनी जगत में उपस्थिति को
दर्शन की पैनी धार दीजिए !
स्वयं को आत्म बोध करने की
दिशा में अग्रसर कीजिए !!
२२/०२/२०२५.
यदि आदमी कभी
अपनी जेहादी मानसिकता को भूल जाए ,
तो कितना अच्छा हो
उसका रोम रोम भीतर तक
कमल सा खिल जाए !
वह बगैर किसी कुंठा और तनाव के
जीवन पथ पर आगे बढ़ पाए !
कितना अच्छा हो
आदमी बस खुद को समझ जाए ,
तो उसका जीवन स्वयंमेव सुधर जाए।
वह निर्मलता का मूल जान जाए ।
वह मन की मलिनता को दूर कर पाए।
वह बाहर और भीतर के प्रदूषण से लड़ पाए।
वह जीवन में कुंदन बन जाए।
२१/०२/२०२४.
मेरा पुत्र
जो है पूरा देसी
पर नाम है जिसका
अंग्रेज सिंह।
कुछ समय पहले
ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जाने की
थी जिसकी ख्वाइश!
बहुत सारा धन कमाने का
था जिसका ख्वाब!
घर पर अपने ही ढंग से रहता था ।
जिस का रहन सहन
उसके मां बाप को तनिक नहीं भाता था।
आजकल थोड़ा अक्लमंद बन गया है।

जब से अमेरिका से
मेरे भारतीय भाई लोग
डोनाल्ड ट्रंप की
अमेरिका फर्स्ट की
नीति की वज़ह से
भारत वापसी को हुए हैं
मजबूर !
जो अच्छे मज़दूर और
कामयाब व्यापारी बनने की
योग्यता रखते हैं !
उम्मीद है
वे अब सही राह चलेंगे ,
भारत की तरक्की के लिए
दिन रात उद्यम करेंगे !
भारत को
भारत प्रथम की नीति पर
चलने की राह दिखा कर
फिर से
सुख , समृद्धि और संपन्नता की
ओर ले जाने का प्रयास करेंगे।

अंग्रेज सिंह
अब भारत में रहकर
अपना काम धंधा जमाना चाहता है,
वह ज़माने के पीछे न भाग
अपना दिमाग लगा
जीवन में
कुछ करना चाहता है ,
मेहनत कर के कुछ निखरना चाहता है।

अपने अंग्रेज सिंह के
दादा स्वदेश सिंह
अब उसे कहते हैं कि
अंग्रेज !तुम इतना धन संचित करो
कि डोनाल्ड ट्रंप के देश ही नहीं ,
दुनिया भर के देशों में
टूरिस्ट बन सैर सपाटा करो।
उनकी आर्थिकता को अपने ढंग से बढ़ाओ।
यह नहीं कि विदेश से शर्मिंदा हो कर
अपने देश में लौट के आओ।
बल्कि अपने साथ
एक विदेशी नौकर
मेहनत मशक्कत करने के लिए
लेकर आओ।
भारत का आदर और सम्मान
फिर से बढ़ाओ।
२०/०२/२०२५.
आज गुड़िया
पहली बार जा रही है
गुरु की नगरी
अमृतसर
वहां वह अपने साथियों के साथ
भगत पूर्ण सिंह की
कर्मस्थली जाएगी।
अपने भीतर
वंचितों , शोषितों , अपाहिजों के
प्रति करुणा और सद्भावना की
अमृत बूंदें लेकर आएगी ,
अपने भीतर संवेदना का
अमृत संचार लेकर आएगी।

पहली बार
जब मैं दरबार साहिब गया था
तो मुझे वहां दिव्य अनुभूति हुई थी।
उम्मीद है कि
गुड़िया वहां से दिव्य दृष्टि लेकर आएगी ,
सच्चा इंसान बनकर
अपना जीवन सेवा कार्यों में लगाएगी।

वहीं जालियां वाला बाग भी है
देश की आज़ादी में
एक विलक्षण घटना का साक्षी।
एक देशभक्तों का वध स्थल
जिसने देश समाज और दुनिया को
दिया था झकझोर !
और फिर जल्दी आई थी
आज़ादी की भोर !

वहीं पास ही है
दुर्ग्याना मंदिर
जहां बहता है
आस्था का सैलाब
जिससे जीवन में
आ सकता है ठहराव
आदमी समय के बहाव को
महसूस कर
जीवन में
आगे बढ़ने का निश्चय कर
बना सकता है स्वयं को
समाजोपयोगी और निडर।

गुड़िया
आज अभी अभी गई है
पावन नगरी
अमृतसर।
उम्मीद है कि
वह जीवन के लिए
वहां से
उपयोगी
जीवन दृष्टि संचित करके आएगी,
अपने जीवन को सार्थकता से
जोड़ पाएगी ,
स्वयं को सकारात्मक बनाएगी।
२०/०२/२०२५.
जब चाहकर भी
नींद नहीं आती,
सोचिए जरा
उस समय
क्या जिन्दगी में
कुछ अच्छा लगता है ?
जिन्दगी का पल पल
थका थका सा लगता है।
नींद की चाहत
शेयर मार्केट की तेज़ी सी
बढ़ जाती है।
ऐसे समय में
सोना अर्थात नींद की चाहत
सोने से भी
अधिक मूल्यवान लगने लगती है।
आंखों की पलकों पर
नींद की खुमारी दस्तक
देने लगे तो सब कुछ
अच्छा अच्छा लगता है।
समय पर सो पाना ही
जीवन में सच्चा
और आनन्ददायक ,
सुख का अहसास
होने की प्रतीति कराने लगता है।
समुचित नींद न मिल पाए
तो सचमुच आदमी को
झटका लगता है ,
उसे जीवन में
सब कुछ भटकाता हुआ ,
खोया खोया सा लगता है।
पल पल मन में कुछ खटकता है।
जीवन यात्रा में भीतर धक्का लगता सा लगता है।
नींद का इंतज़ार बढ़ जाता है।
आदमी को कुछ भी नहीं भाता है ,
भीतर का सुकून कहीं लापता हो जाता है।
१९/०२/२०२५.
ਇਹ ਦਰਦ ਦਾ ਅਹਿਸਾਸ ਹੀ ਹੈ
ਜੋ ਸਾਨੂੰ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਬਣਾਉਂਦਾ ਹੈ ਖ਼ਾਸ।
ਰਿਸ਼ਤਾ ਦਰਦ ਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਅਜੀਬੋ ਗ਼ਰੀਬ
ਜਿੰਨਾ ਦਰਦ ਵੱਧਦਾ ਹੈ ,
ਇਨਸਾਨ ਆਉਂਦਾ ਹੈ ਹਕੀਕਤ ਦੇ ਕਰੀਬ।
ਭਾਵੇਂ ਦਰਦ ਦਿਲ ਦਾ ਹੋਵੇ ਜਾਂ ਪਿੱਠ ਦਾ ਹੋਵੇ ,
ਇਹ ਆਪਣਾ ਇਲਾਜ ਲੱਭ ਲੈਂਦਾ ਹੈ,
ਜੀਵਨ ਵਿੱਚ ਅੱਗੇ ਵਧਣ ਦੀ ਰਾਹ ਲੱਭ ਲੈਂਦਾ ਹੈ।
ਬੁੜਾਪੇ ਵਿੱਚ ਦਰਦ ਉਦਾਸੀ ਦੀ ਵਜ੍ਹਾ ਬਣ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ,
ਜਵਾਨੀ ਵਿੱਚ ਦਰਦ ਸਾਨੂੰ ਦਾਰਸ਼ਨਿਕ ਬਣਾਉਂਦਾ ਹੈ ,
ਬਚਪਨ ਦਾ ਦਰਦ ਸੁਪਨਿਆਂ ਵਿੱਚ ਆ ਆ ਕੇ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਜਿਉਣ ਦੀ ਵਿਉਂਤ ਦੱਸਦਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ।
ਦਰਦ ਇਨਸਾਨ ਦਾ ਦੁਸ਼ਮਣ ਨਹੀਂ ਦੋਸਤ ਹੈ ,
ਇਹ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦੀ ਰਾਹਾਂ ਵਿੱਚ ਅਕਲਮੰਦ ਬਣਾਉਂਦਾ ਹੈ।
ਇਹ ਸੁੱਖ ਦੀ ਭਾਲ ਕਰਨ ਦੀ ਪ੍ਰੇਰਨਾ ਬਣ ਕੇ
ਜੀਵਨ ਯਾਤਰਾ ਨੂੰ ਅੱਗੇ ਵਧਾਉਂਦਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ।
ਇਹ ਦਰਦ ਹੀ ਹੈ
ਜਿਹੜਾ ਇਨਸਾਨ ਨੂੰ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦਾ ਸਾਹਮਣਾ ਕਰਨਾ ਸਿਖਾਉਂਦਾ ਹੈ ,
ਇਹ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਮੰਜ਼ਿਲ ਤੱਕ ਪਹੁੰਚਾਉਂਦਾ ਹੈ।

ਕਈ ਵਾਰੀ ਦਰਦ ਦਾ ਰਿਸ਼ਤਾ
ਇਨਸਾਨਾਂ ਦੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ
ਇੱਕ ਦਵਾ ਬਣ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ,
ਇਹ ਅੰਦਰੋਂ ਟੁੱਟੇ ਹੋਏ ਇਨਸਾਨਾਂ ਦੇ ਅੰਦਰ
ਜਿਉਣ ਦੀ ਤਾਂਘ ਪੈਦਾ ਕਰ
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਸੰਚਾਰ ਕਰ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ,
ਦਰਦ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਜੀਵਨ ਜਾਂਚ ਸਿਖਾਉਂਦਾ ਹੈ।
ਦਰਦ ਸਿਰਜਣਾ ਦਾ ਮੂਲ ਹੈ ,
ਕਦੀ ਕਦੀ ਇਸ ਦੇ ਅੱਗੇ
ਸਾਰੇ ਸੁੱਖ ਤੇ ਆਰਾਮ
ਲੱਗਣ ਲੱਗਦੇ ਸਮੇਂ ਦੀ ਧੂੜ ਹਨ।
18/02/2025.
आदमी
दुनिया में
अकेला न रहे
इसके लिए
वह खुद को
अपने जीवन में
छोटे छोटे कामों में
व्यस्त रखने का
प्रयास करता रहे
ताकि जीवन में
अकेलापन
दोधारी तलवार सा होकर
पल प्रति पल
काटता हुआ सा न लगे।

अभी अभी
अखबार में
एक हृदय विदारक
ख़बर पढ़ी है कि
शहर के एक वैज्ञानिक ने
अपने आलीशान मकान में
अकेलपन को न सहन कर
आत्महत्या कर ली है।
परिवार विदेश में रहता है
और वह अकेले अपने घर में
एक निर्वासित जीवन कर
रहे थे बसर,
वे जीवन में
निपट अकेले होते चले गए ,
फलत: मौत को गले लगा गए।

हम कैसी
सुख सुविधा और संपन्नता भरपूर
जीवन जीने को हैं बाध्य
कि जीवन बनता जा रहा है कष्ट साध्य ?
आदमी सब कुछ होते हुए भी
दिनोदिन अकेला पड़ता जा रहा है।
वह खुल कर खुद को
अभिव्यक्त नहीं कर पा रहा है।
वह भीतर ही भीतर
अपनी तन्हाई से घबराकर
मौत को गले लगा रहा है।

हमारे यहां
कुछ जीवन शैली
इस तरह विकसित होनी चाहिए
कि आदमी अकेला न रहे ,
वह अपने इर्द गिर्द बसे
मानवों से हँस और बतिया सके।
कम से कम अपने मन की बात बता सके।
१८/०२/२०२५.
आदमी के इर्द गिर्द
जब अव्यवस्था फैली हो
और उसने विकास को
लिया हो जड़ से जकड़।
हर पल दम घुट रहा हो
तब आदमी के भीतर
गुस्सा भरना जायज़ है ।
उसे प्रताड़ित करना
एकदम नाजायज़ है।

देश अति तीव्र गति से
सुधार चाहता है ,
इस दिशा में
संकीर्ण सोच और स्वार्थ
बन जाते बहुत बड़ी बाधाएं हैं,
जिन्हें लट्ठ से ही साधा जा सकता है।

नाजायज़ खर्चे
अराजकता को
बढ़ावा देते हैं ,
ये विकास कार्यों को
रोक देते हैं।
अर्थ व्यवस्था की
श्वास को
रोकने का
काम करते हैं ,
ये व्यर्थ के अनाप शनाप ख़र्चे
न केवल देश को  
मृत प्रायः करते हैं ,
बल्कि
ये देश को निर्धन करते हैं।
ये देश दुनिया को निर्धन रखने का
दुष्चक्र रचते हैं ,
इसे रोकने का
प्रयास किया जाना चाहिए ,
ताकि देश
विपन्नावस्था से
बच सके ,
आर्थिक दृष्टि से
मजबूती हासिल कर सके।


देश हर हाल में
सुख सुविधा, संपन्नता और समृद्धि को बढ़ाए
इसके लिए सब यथा शक्ति प्रयास करें ,
अन्यथा जीवन नरक तुल्य लगने लगेगा
इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
बस इस डर से
आम और ख़ास आदमी का
गुस्सा करना एकदम जायज़ है,
इस सच से आँखें मूंदे रहना ठीक नहीं।
समय रहते नहीं चेतना , सोए रहना नाजायज है।

अव्यवस्था और अराजकता
अब किसी को बरदाश्त नहीं।
इससे पहले की गुस्सा विस्फोटक बने ,
सब समय रहते अपने में सुधार करें
ताकि देश और समाज पतन के गड्ढे में गिरने से बच सकें।
सब गुस्सा छोड़ शांत मना होकर जीवन पथ पर बढ़ सकें।
१७/०२/२०२५.
चोरी करना
नहीं है कोई आसान काम।
यह नहीं कि
कोई चीज़ देखी और चोरी कर ली।
चोरी के लिए जुगत लड़ानी पड़ती है ,
कभी कभी
चोरी और सीनाज़ोरी की नौबत भी
आ जाती है।
इसके लिए
हर ढंग और तरीका अपनाना पड़ता है ,
यही नहीं
घोर अपमान तक सहना पड़ता है।
फिर जाकर
चोरी की वारदात
सफल हो पाती है ,
कभी कभी तो जान भी
सूखती लगती है,
सच में
चोरी करते हुए
कभी कभी तो
उलझन भी होती है।

आज चोरी के क्षेत्र में
बहुत ज़्यादा
प्रतिस्पर्धा हो गई है ,
इसलिए हर पल
चौकस और चौकन्ना
रहना पड़ता है,
तब कहीं जाकर
सफलता होती है मयस्सर।
कभी कभी इसमें रह जाती है कौर कसर ,
मन के भीतर पनपने लगता है डर।
आज चोर को शिकायत है कि
अब बड़े बड़े लोग भी इसमें उतर रहे हैं ,
अपनी किस्मत आजमा रहे हैं।
वे नए नए हथकंडे आजमा रहे हैं।
चोर की भी अपनी एक नैतिकता होती है ,
वे इस पर खरा नहीं उतर पा रहे हैं।
चोरी करने वाले कभी कभी बेवज़ह पकड़े जा रहे हैं,
बस शक की गुंजाइश की वज़ह से !
बेवज़ह की ज़ोर आजमाइश की वज़ह से !
सभी चोर इस बाबत सतर्क हो जाएं !
कभी भी आसानी से पकड़ में न आएं !!
१७/०२/२०२५.
तुम अपने शत्रु को
जड़ से
मिट्टी में मिलाना चाहते हो।
पर हाथ पर हाथ
धरे बैठे हो।
क्या बिना लड़े हार
मान चुके हो ?
तुम
बदला ज़रूर लो
पर कुछ अनूठे रंग ढंग से !
पहले रंग दो
उसे अपने रंग में ,
उसे अपनी सोहबत का
गुलाम बना दो ,
फिर उसे अपने मन माफ़िक
लय और ताल पर
नाचने के काम पर लगा दो।
तुम बदला ले ही लोगे
पर बदले बदले रंग ढंग से !
तुम मारो उसे, प्रेम से,चुपके चुपके!
वह जिंदा रहे पर जीए घुट घुट के !

या फिर एक ओर तरीका है,
आज की तेज़ तरार दुनिया में
यही एक मुनासिब सलीका है कि
दे दो किसी सुपात्र को
सुपारी शत्रु के खेमे में
सेंधमारी करने की
चुपके चुपके।
इसमें भी नहीं है कोई हर्ज़
यदि दुश्मन का
बैठे बिठाए
निकल जाए अर्क।

इसके लिए
मन सबको
सबसे पहले सुपात्र और विश्वासपात्र को
चुनने की
रखता है शर्त,
ताकि शत्रु को
उसके अंजाम तक
पहुंचाया जा सके।
जीवन की रणभूमि में
मित्रों को प्रोत्साहित
किया जाए
और शत्रुओं को
निरुत्साहित।
जैसे को तैसा ,
सरीखी नीति को
अमल में लाया जाए।
तुम कूटनीति से
शत्रु को पराजित
करना चाहते हो।
इसके लिए
क्या शत्रु के सिर पर
छत्र धर कर
उसे अहंकारी बनाना चाहते हो ?
फिर चुपके से
उसे विकट स्थिति में ले जाकर
चुपके चुपके गिराना चाहते हो !
उसे उल्लू बनाना चाहते हो !!

पर याद रखो , मित्र !
आजकल की दुनिया के
रंग ढंग हैं बड़े विचित्र !
कभी कभी सेर को सवा सेर टकर जाता है,
तब ऐसे में लेने के देने पड़ जाते हैं।
सोचो , कहीं
तुम्हारा शत्रु ही
तुम्हें मूर्ख बना दे।
चुपके चुपके चोरी चोरी
करके सीनाज़ोरी
आँखों में धूल झोंक दे !
उल्टा प्रतिघात कर मिट्टी में रौंद दे !!
अतः बदला लेने का ख्याल ही छोड़ दो।
अपनी समस्त ऊर्जा को
सृजनात्मकता की ओर मोड़ दो।
१६/०२/२०२५.
आदमी की सोच
सच की खोज से
जुड़ी रहनी चाहिए।
इस दिशा में बढ़ने से
पहले उसे अपने भीतर
हिम्मत संचित करनी चाहिए।
आदमी अपनी सोच का दायरा
जितना हो सके , उतना बढ़ाए
ताकि कोई भी बाधा उसे
दुःख न पहुँचा पाए।
वह खुद को
एक दिन समझ पाए ,
जीवन पथ पर
निरन्तर बढ़ता जाए ,
हमेशा सच की
समझ भीतर विकसित कर पाए।
वह सोच समझ कर
जीवन के उतार चढ़ावों के संग
सामंजस्य स्थापित कर पाए।
उसकी सोच का दायरा
तंग दिली से
सतत बाहर उसे निकाल कर
उन्मुक्त गगन की सैर कराए।
१६/०२/२०२५.
6d · 29
खेल
बच्चे
हरेक स्थिति में
ढूंढ़ लेते हैं
अपने लिए ,
कोई न कोई
अद्भुत खेल !

यदि तुम भी
कभी वयस्कता भूल
बच्चे बन पाओ ,
अपना मूल ढूंढ पाओ ,
तो अपने आप
कम होते जाएंगे
कहीं न पहुँचने की
मनोस्थिति से
उत्पन्न शूल।
जीवन यात्रा
स्वाभाविक गति से
आगे बढ़ेगी।
चेतना भी
जीवन में उतार चढ़ावों को
सहजता से स्वीकार करेगी।
मन के भीतर
सब्र और संतोष की
गूँज सुन पड़ेगी।
कभी कहीं कोई कमी
नहीं खलेगी।

बच्चों के
अलबेले खेल से
सीख लेकर
हम चिंता तनाव कम
कर सकते हैं,
अपने इर्द गिर्द और भीतर से
खुशियाँ तलाश सकते हैं ,
जीवन को खुशहाल कर सकते हैं।
१६/०२/२०२५.
काल सोया हुआ
होता है
कभी कभी महसूस,
परंतु
वह चुपके चुपके
बहुत सूक्ष्म गतिविधियों को
लेता है अपने में
समेट।
इतिहास
काल की चेतना को
रेखांकित करने की चेष्टा भर है,
इसमें आक्रमणकारियों ,
शासकों ,
वंचितों शोषितों ,
शरणार्थियों इत्यादि की
कहानियां छिपी रहती हैं ,
जो काल खंड की
गाथाएं कहती हैं।

सभ्यताओं और संस्कृतियों पर
समय की धूल पड़ती रही है ,
जिससे आम जन मानस
अपनी नैसर्गिक चेतना को विस्मृत कर बैठा है ,
आज के अराजकतावादी तत्व
आदमी की इस अज्ञानता का लाभ उठाते हैं ,
उसे भरमाते और भटकाते हैं ,
उसे निद्रा सुख में मतवातर बनाए रखते हैं
ताकि वे जन साधारण को उदासीन बनाए रख सकें।

आज देश दुनिया में
जागरूकता बढ़ रही है ,
समझिए इसे कुछ इस तरह !
काल अब करवट ले रहा है !
आम आदमी सच के रूबरू हो रहा है !
वह जागना चाहता है !
अपनी विस्मृत विरासत से
राबता कायम करना चाहता है !
आदमी का चेतना ही
काल का करवट लेना है
ताकि आदमी जीवन की सच्चाई से जुड़ सके ,
निर्लेप, तटस्थ, शांत रहकर काल चेतना को समझ सके ,
समय की धूल को झाड़ सके ,
अतीत में घटित षडयंत्रों के पीछे
निहित कहानी को जान सके ,
अपनी चेतना के मूल को पहचान सके।

काल जब जब करवट लेता है ,
आदमी का अंतर्मानस जागरूक होता है ,
समय की धूल यकायक झड़ जाती है ,
आदमी की सूरत और सीरत निखरती जाती है।
१६/०२/२०२५.
प्यार क्या है ?
इस बाबत कभी तो
सोच विचार
या फिर
चिंतन मनन किया होगा।
प्यार हो गया बस !
इस अहसास को जी भर के जीया होगा।
भीतर और बाहर तक
इसकी संजीदगी को महसूसा होगा।
प्यार जीवन की ऊर्जा से साक्षात्कार करना है।
जीवन में यह परम की अनुभूति को समझना है।

प्यारे !
प्यार एक बहुआवर्ती अहसास है,
जो इंसान क्या सभी जीवों को
जीवन में बना देता खास है।
इसकी तुलना
कभी कभी
प्याज की परतों के साथ की
जा सकती है ,
यदि इसे परत दर परत
खोला जाए तो हाथ में कुछ भी नहीं आता है !
बस कुछ ऐसा ही
प्यार के साथ भी
घटित होता है।
प्यार की प्यास हरेक जीव के भीतर
पनपनी चाहिए,
यह क़दम क़दम पर
जीवन को रंगीन ही नहीं ,
बल्कि भाव भीना और खुशबू से
सराबोर कर देता है ,
यह चेतना को नाचने गाने के लिए
बाध्य कर देता है,
कष्ट साध्य जीवन जी रहे
जीव के भीतर
यह जिजीविषा भर देता है।
यह किसी अमृतपान की अनुभूति से कम नहीं,
बशर्ते आदमी जीवन में
आगे बढ़ने को लालायित रहे ,
तभी इसकी खुशबू और जीवन का तराना
सभी को जागृत कर प
पाता है ,
जीवन को सकारात्मकता के संस्पर्श से
सार्थकता भरपूर बना देता है ,
सभी को गंतव्य तक पहुँचा देता है।
इसकी प्रेरणा से जीवन सदैव आगे बढ़ता रहा है,
प्यार का अहसास
किसी सच्चे और अच्छे मित्र सरीखा होकर
मार्ग दर्शन का निमित्त बनता है,
जिसमें सभी का चित्त लगता है।
प्रत्येक जीव
इस अहसास को पाने के लिए
आतुर रहा है।
वे सब इस दिशा में
सतत अग्रसर रहे हैं।
इस राह चलते हुए
सभी ने उतार चढ़ाव देखे हैं !
जीवन पथ पर आगे बढ़े हैं !!
२५/०२/२०२५.
दुनिया
सेंट वेलेंटाइन के सद्कर्मों की स्मृति को
जन जन में याद कराने ,
विस्मृतियों से बाहर निकाल कर
स्मृति में बसाने की गर्ज़ से
उनकी याद में
वेलेंटाइन डे
मनाती है ,
पर
मेरे देश में
कई बार
इस दिन
अचानक
छुप छुप कर
मिलने वाले
प्रेमी युगलों की
शामत आ जाती है।
इस बार भी
कुछ ऐसा घटित हो सकता है,
प्रेम की आकांक्षाओं से भरे
युवा और वृद्ध दिल
टूट सकते हैं
वह भी संस्कृति को
बचाने के नाम पर।
शायद
वे अजंता एलोरा की
कंदराओं में
दर्ज़
काम और अध्यात्म के
जीवन्त दस्तावेज़ो को
भूल जाते हैं ,
जहां जीवन का मूल
कलात्मक अभिव्यक्ति पाता है।
हमारे मंदिरों में प्रेम का उदात्त स्वरूप
देखने को मिलता है ,
हमारे पुरखे काम के महत्व को
गहराई तक आत्मसात कर
जीवन का ताना बाना बुनने में
सिद्धहस्त रहे हैं।
फिर हम क्यों जीवन के इस वैभव से मुँह चुराएं ?
क्यों न हम
इस वेलेंटाइन डे पर
प्रेम भाव का प्रचार प्रसार करने में
पहल करें !
कम से कम
हम प्रेम के कोमल भावों को
नफ़रत की कठोरता में
बदलने से गुरेज़ करें ,
बेशक हम अपने मन की शांति के लिए
अपनी संततियों को
संस्कारों की ऊर्जा से
जीवन्त करने का प्रयास करें ,
बस प्रेम में आकंठ डूबे
प्रेमीजनों को अपमानित करने का
दुस्साहस न करें,
उनका उपहास न करें।
आज सुबह एक युवा स्त्री को
बस सफ़र के दौरान इंग्लिश बुक हेट पढ़ते देखा
तो मुझे मूवी हेट स्टोरी का ख्याल आया।
मैंने शहर और गांव में भटकते हुए
वेलेंटाइन डे मनाया।
आप भी कभी जी भर कर
उच्छृंखल होकर
जीवन जीने का प्रयास करें,
क्या पता कुछ अचरज़ भरा घटित हो जाए !
इस दिन कोई जीवन में नया मोड़ आ जाए !!
तन और मन में से तनाव कम हो जाए!
आदमी निडर होकर सलीके से जीना सीख पाए।
१४/०२/२०२५.
कभी कभी
सच्ची और खरी बातें
समझ से परे होती हैं।
खासकर जब
ये देश हितों पर
कुठाराघात करती हैं ,
ऐसे में ये
आम आदमी के
भीतर असंतोष
पैदा करती हैं।

बात करने वाला
बेशक अभिव्यक्ति की आज़ादी के
नाम पर मानवीयता भरपूर
बातें कह जाता है ,
ये बातें मन को अच्छी लगती हैं।
इन्हें क्रियान्वित करना व्यावहारिक नहीं ,
देश समाज में घुसपैठ करने वाला
देश विशेष के नागरिकों के विशेषाधिकार
हासिल करने का अधिकारी नहीं।
पता नहीं क्यों
देश का
बुद्धिजीवी वर्ग
इस सच को समझता ?
कभी कभी बुद्धि पर पर्दा पड़ जाता है।
आम और खास आदमी तक
भावुकता में पड़ कर
देश हित को नज़र अंदाज़ कर जाता है ,
जिसका दुष्परिणाम
भावी पीढ़ियों को भुगतना पड़ता है।
देश समाज के हितों का हमेशा ध्यान रखा जाना चाहिए
नाकि मानवाधिकार के नाम पर
अराजकता की ओर अग्रसर होना चाहिए।
कभी कभी
समझ से परे के फैसले
चेतना को झकझोर देते हैं !
ये निर्णय यकीनन
देश समाज की अस्मिता की
गर्दन मरोड़ देते हैं ,
इंसानों को अनिश्चितता के
भंवर में छोड़ देते हैं ,
असुरक्षित और डरने के लिए !
ऐसे लोगों की बुद्धिमत्ता का
क्या करें ?
क्यों न उन्हें
उनकी भाषा में उत्तर दें ,
उनको गहरी नींद से जगाएं !
देश दुनिया और समाज के हितों को बचाएं !!
१४/०२/२०२५.
हे मन!
तुम कुछ अच्छा नहीं कर सकते
तो क्या हुआ ?
बुरा तो कर सकते हो ?
बस !
एक काम करना।
वह है !
हरेक बुरे काम के बाद
विष्णु का नाम लेना !
यहां तक कि
अपने परिवारजनों के नाम भी
विष्णु के सहस्रों नामों पर रखना !
अपने मित्रों और दुश्मनों के नाम भी
मन ही मन बदल देना ,
उनके नाम भी विष्णु जी के
प्रचलित नामों पर रखना!
और हां!
दिन रात उठते बैठते
चलते फिरते
सोते जागते
हरि हरि करना !
तब स्वयंमेव बदल जाओगे !
अपने को जान जाओगे !
हे मन !
तुम तम के समंदर को
लांघ जाओगे !
अपनी क्षुद्रताओं को
भस्मित कर पाओगे !
मन के गगन के ऊपर
स्वचेतना को हर पल
पुलकित होते पाओगे।
अपनी क्षमता को
जान जाओगे।
१३/०२/२०२५.
अचानक
दादा को अपने पोते की
आठ पासपोर्ट साइज तस्वीरें
फटी हुई अवस्था में
मिल गईं थीं।
उन्हें यह सब अच्छा नहीं लगा
कि जिसे बड़े प्यार से,
भाव भीने दुलार से जीवन में
खेलाया और खिलाया हो ,
उसकी तस्वीरें
जीर्ण शीर्ण
लावारिस हालत में पड़ीं हों।
उन्हें यह सब पसंद नहीं था ,
सो उन्होंने अपने पुत्र को बुलाया।
एक पिता होने के कर्त्तव्य के बाबत समझाया
और तस्वीरों को जोड़ने का आदेश सुनाया।
फिर क्या था
पिता काम पर जुट गया
और उसने उन तस्वीरों को जोड़ने का
किया चुपके चुपके से प्रयास।
किसी हद तक
तस्वीरें ठीक ठाक जुड़ भी गईं।
उसने अपने पिता को दिखाया और कहा,
" अब ये काम में आने से रहीं ।
बेशक ये जुड़ गईं हैं,
फिर भी फटी होने की गवाही देती लगती हैं।"
यह सुन कर
दादा ने अपने पोते की बाबत कहा ,
"बेशक अब वह बड़ा हो गया है।
स्कूल के दौर की ये तस्वीरें
उसे बिना किसी काम की
और बेकार लगातीं हों।
फिर भी उसे इन्हें फाड़ना नहीं चाहिए था।
तस्वीरों में भी बीते समय की पहचान होती है।
ये जीवन के एक पड़ाव को इंगित करतीं हैं।
अतः इन्हें समय रहते संभाला जाना चाहिए ,
बेकार समझ फाड़ा नहीं जाना चाहिए।
अच्छा अब इन्हें एक मोटी पुस्तक के नीचे दबा दे ,
ताकि ये तस्वीरें ढंग से जुड़ सकें।"

पुत्र ने पिता की बात मान ली।
तस्वीरों को एक मोटी पुस्तक के नीचे दबा दिया।
पुत्र मन में सोच रहा था कि
दादा को मूल से ज़्यादा ब्याज से
प्यार हो जाता है।
वह भी इस हद तक कि
पोते की जीर्ण शीर्ण तस्वीर तक
दादा को आहत करती है।
उन्हें भविष्य की आहट भी
विचलित नहीं कर पाती
क्योंकि दादा अपना भावी जीवन
पोते के उज्ज्वल भविष्य के रूप में जीना चाहता है।
उन्हें भली भांति है विदित
कि प्रस्थान वेला अटल है
और युवा पीढ़ी का भविष्य निर्माण भी
अति महत्वपूर्ण है।

सबसे बढ़ कर जीवन का सच
एक समय बड़े बुजुर्ग
न जाने कब
बन जाते हैं सुरक्षा कवच !
यही नहीं
उनमें अनिष्ट की आशंका भी भर जाती है,
पर वे कहते कुछ नहीं ,
हालात अनुसार
जीवन के घटनाक्रम को
करते रहते हैं मतवातर सही।
यही उनकी दृष्टि में जीवन का लेखा जोखा।
बुजुर्गों की सोच को  
सब समझें
और दें जीने का मौका ;
न दें उन्हें भूल कर भी धोखा।
बहुत से बुजुर्गों को
वृद्धाश्रम में निर्वासित जीवन जीने को
बाध्य किया जाता है।
उनका सीधा सादा जीवन कष्ट साध्य बन जाता है।
किसी हद तक
जीर्ण शीर्ण तस्वीर की तरह!
इसे ठीक ठाक कर पटरी पर लाया जाना चाहिए।
जीवन को गंतव्य पथ पर
सलीके से बढ़ाया जाना चाहिए।
१३/०२/२०२५.
यदि कोई काम कम करे
और शोर ज़्यादा ,
तो उसका किसी को
है कितना फ़ायदा ?
ऐसे कर्मचारी को
कौन नौकर रखना चाहेगा ?
मौका देख कर
उसे बहाने से
कौन नहीं निकालना चाहेगा ?
अतः काम ज़्यादा करो
और बातें कम से कम
ताकि सभी पर अच्छा प्रभाव पड़े।
सभी ऐसे कर्मचारी की सराहना करें।
जीवन में कद्र
काम की होती है ,
आलोचना अनावश्यक
आराम करने वाले की होती है।
सचमुच ! एक मज़दूर की जिन्दगी
बेहद कठिन और कठोर होती है।
बेशक यह दिखने में सरल लगे ,
उसकी जीवन डगर संघर्षों से भरी होती है
और उसके मन मस्तिष्क में
कार्य कुशलता व हुनर की समझ
औरों की अपेक्षा अधिक होती है।
तभी उसकी पूछ हर जगह होती रही है।
काम ज़्यादा और बातें कम करना
आदमी को दमदार बनाता है ,
ऐसा मानस ही आजकल खुद्दार बना रहता है।
ऐसा मनुष्य ही उपयोगी बना रहता है ,
और स्वाभिमान ऐसे कर्मचारी की
अलहदा पहचान बना देता है।
१३/०२/२०२५.
आदमी की नियति
अकेला रहना है।
यदि आदमी अकेलापन अनुभूत न करे,
तो वह कभी जीवन पथ पर आगे न बढ़े।
वह प्रेम पाश में बंधा हुआ
जीवन की स्वाभाविक गति को रोक दे ।

मुझे कभी अपना अकेलापन खटकता था,
अब प्रेम फांस में हूँ ...
तो जड़ हूं , अर्से से अटका हुआ हूँ ,
अपनी जड़ता तोड़ने के निमित्त
कहां कहां नहीं भटका हूँ ?
कामदेव की कृपा दृष्टि होने पर
आदमी अकेला न रहकर
दुकेला हो जाता है ,
स्वतंत्र न रहकर परतंत्र हो जाता है।

पहले पहल
आदमी प्रेम में पड़कर
आनन्दित होता है ,
फिर इसे पाकर
कभी कभी परेशान होता है।
उसे यह सब एक झमेला प्रतीत होता है।

प्रेम से मुक्ति पाने पर
आदमी नितांत अकेला रह जाता है ,
जीवन का मर्म समय रहते समझ जाता है ,
फिर वह इस प्रेम पाश
और जी के जंजाल से बचना चाहता है ,
इसी कशमकश में
वह जीवन में उत्तरोत्तर अकेला पड़ता जाता है !
एक दिन अचानक से जीवन का पटाक्षेप हो जाता है !!आदमी अकेला ही कर्मों का लेखा जोखा करने
धर्मराज के दरबार में हाज़िर हो जाता है !
वहाँ भी वह अकेला होता जाता है !!
पर अजीब विडंबना है ,
वह यहां अकेलापन कतई नहीं चाहता है,
किसी का साथ हरदम चाहता है !!
१२/०२/२०२५.
Feb 12 · 35
श्राप
किसी की आस्था से
खिलवाड़ करना
ठीक नहीं है ,
यह न केवल
पाप कर्म है ,
बल्कि
यह अधर्म है ।
यदि ऐसा करने पर
सुख मिलता ,
तो सभी इस में
संलिप्त होते ,
वे जीवन के अनुष्ठान में
भाग न लेकर
भोग विलास में
लिप्त होते।

किसी की आस्था पर
चोट करना सही नहीं ,
बेशक
तुम बुद्धि बल से
जीवन संचालित करने के
हो पक्षधर ,
तुम आस्थावादी के
मर्म पर अकारण
न करो चोट ,
न पहुंचाओ कोई ठेस,
न करो पैदा किसी के भीतर क्लेश।
यदि कोई अनजाने दुःखी होकर
कोई दे देता है बद्दुआ,
समझो कि
अपने पैरों पर
कुल्हाड़ी मार ली ,
अपने भीतर
देर सवेर बेचैनी को
हवा दी ,
अपने सुख समृद्धि और संपन्नता को
अग्नि के हवाले कर दिया ,
अपना जीवन श्राप ग्रस्त कर लिया।
किसी के विश्वास पर
जान बूझ कर किया गया आघात
है बरदाश्त से बाहर ।
यही मनोस्थिति श्राप की वजह बनती है।
भीतर की संवेदनशीलता
अंदर ही अंदर
पछतावा भरती है ,
जो किसी श्राप से कम नहीं है।
अतः आस्था पर चोट न करना बेहतर है ,
अच्छे और सच्चे कर्म करना ही
मानव का होना चाहिए ,
कर्म क्षेत्र है।
आस्था के विरुद्ध किया कर्म अधर्म है ,
न केवल यह पाप है ,
बल्कि तनावयुक्त करने वाला एक श्राप है,
मानवता के खिलाफ़ किया गया अपराध है।
12/02/2025.
Feb 11 · 42
आकर्षण
जीव के भीतर
जीवन के प्रति
बना रहना चाहिए आकर्षण
ताकि जीवन के रंगों को देखने की
उत्कंठा
जीव , जीव के भीतर
स्पष्टता और संवेदना के
अहसासों को भरती रहे ,
उन्हें लक्ष्य सिद्धि के लिए
प्रेरित करती रहे ,
मन में उमंग तरंग बनी रहे।

कभी अचानक
जीवन में
अस्पष्टता का
हुआ प्रवेश कि
समझो
जीवन की गति पर
लग गया विराम।
देर तक
रुके रहने से
जीवन में
मिलती है असफलता ,
जो सतत चुभती है ,
असहज करती है ,
व्यथित करती है ,
व्यवहार में उग्रता भर देती है।
यह जिन्दगी को कष्टदायक कर देती है।

अक्सर
यह आदमी को
असमय थका देती है ,
उसे झट से बूढ़ा बना देती है।

यह सब न केवल
जीवन में रूकावटें पैदा करती है ,
बल्कि यह जिन्दगी में
निराशा और हताशा भर कर
समस्त उत्साह और उमंग को
लेती है छीन ,
भीतर का संबल
आत्मबल होता जाता क्षीण।
आदमी धीरे धीरे होने लगता समाप्त।
वह अचानक छोड़ देता करने प्रयास।
फलत: वह जीवन की दौड़ में से हो जाता बाहर ,
वह बिना लड़े ही जाता , जीवन रण को हार।
यही नहीं वह भीतर तक हो जाता भयभीत
कि पता नहीं किस क्षण
अब उड़ने लगेगा उसका उपहास !
यही सोच कर वह होने लगता उदास !!
जीवन का आकर्षण महज एक तिलिस्म लगने लगता !
धीरे धीरे निरर्थकता बोध से जनित
जीवन में अपकर्षण बढ़ने है लगता !!
११/०२/२०२५.
हरेक के भीतर
हल्के हल्के
धीरे धीरे
जब निरर्थकता का
होने लगता है बोध
तब आदमी को
निद्रा सुख को छोड़
जीवन के कठोर धरातल पर
उतरना पड़ता है,
सच का सामना
करना पड़ता है।
हर कदम अत्यन्त सोच समझ कर
उठाना पड़ता है,
खुद को गहन निद्रा से
जगाना पड़ता है।

उदासी का समय
मन को व्याकुल करने वाला होता है,
यही वह क्षण है,
जब खुद को
जीवन रण के लिए
आदमी तैयार करे ,
अपनी जड़ता और उदासीनता पर
प्रहार करे
ताकि आदमी
जीवन पथ पर बढ़ सके।
वह जीवन धारा को समझ पाए ,
और अपने  मन में
सद्भावना के पुष्प खिला जाए ,
जीवन यात्रा को गंतव्य तक ले जाए।

११/०२/२०२५.
यह उदासी ही है
जो जीवन को कभी कभी
विरक्ति की ओर ले जाती है ,
आदमी को थोड़ा ठहरना,
चिंतन मनन करना सिखाती है।

उस उदासी का क्या करें ?
जो हमें निष्क्रिय करे ,
जीवन धारा में बाधक बने।
क्यों न सब इस उदासी को
जीवन के आकर्षण में बदलने का
सब समयोचित प्रयास करें !
उदासी को देखने की दृष्टि में तब्दील करें !!
११/०२/२०२५.
चारों तरफ
अफरातफरी है।
लोग
प्रलोभन का होकर
शिकार ,
अनाधिकार
स्वयं को
सच्चा साबित
करने का कर
रहें हैं प्रयास।

अनायास
हमारे बीच
अश्लीलता
विवाद का मुद्दा
बन कर
अपनी उपस्थिति का
अहसास कराती है,
यह अप्रत्यक्ष तौर पर
समाज को
आईना दिखाती है।

हमारे आसपास
और मनों में
क्या कुछ अवांछित
घट रहा है ,
हमें विभाजित
कर रहा है।

कोई कुछ नहीं जानता।
यदि जानता भी तो कुछ भी नहीं कहता
क्योंकि
अश्लील कहे जाने का डर
भीतर ही भीतर
सताने लगता ,
जो सृजित हुआ है
उसे मिटाने को
बाध्य करता।

इर्द गिर्द
आसपास फैल
चुका है
मानसिक प्रदूषण
इस हद तक कि
पग पग पर  
साधारण जीवन स्थिति को भी
अश्लीलता के दायरे में
लाए जाने का खतरा
है बढ़ता जा रहा।
सवाल यह है कि
अश्लील क्या है ?
जो मन पर
एक साथ चोट करे ,
मन को गुदगुदाए और लुभाए ,
अंतरात्मा को भड़काए ,
इसके आकर्षण में
आदमी लगातार
फंसता जाए ,
उससे पीछा न छुड़ा पाए ,
अश्लीलता है।
यह टीका टिप्पणी,
गाली गलौज ,
अभद्र इशारे ,
नग्नता और बगैर नग्नता के
अपना स्थान बना लेती है ,
हमारी जागरूकता का
उपहास उड़ा देती है ,
अकल पर पर्दा डाल देती है।
यह अश्लीलता अच्छे भले को
महामूर्ख बन देती है,
आदमी को माफी मांगने ,
दंडित होने के लिए
न्यायालय की पहुँच में
ले जाती है।
कितना अच्छा हो ,
यदि आदमी के पास
मन को पढ़ने की सामर्थ्य होती
तब अश्लीलता इतनी तबाही मचाने में
असफल रहती ,
जितनी आजकल यह
अराजकता फैला रही है,
अच्छी भली जिंदगियां
इसकी जद में आकर
उत्पात मचाने को
आतुर नज़र आ रही हैं।
सच तो यह है कि
अश्लीलता हमारी सोच में
यदि जिन्दा है
तो इसका कारण
हमारे सोचने और जीवनयापन का तरीका है,
यदि हम प्रेमालाप, अपने यौन व्यवहार पर
नियंत्रण करना सीख जाएं
तो अश्लीलता
हमारे मन-मस्तिष्क में
कोई जगह न बना पाए ,
यह सृजन से जुड़
हमारी चेतना का कायाकल्प कर जाए।

अश्लीलता
आदमी के व्यवहार में
जिंदा रहती है,
आदमी
सभ्यता का मुखौटा
यदि शिष्टाचार वश ओढ़ना सीख ले ,
अश्लीलता विवादित न रह
गौण और नगण्य रह जाती है,
यह समाप्त प्रायः हो जाती है।
यह भी सच है कि
कभी कभी
यह हम सब पर हावी हो जाती है,
और हमारी चेतना को
शर्मसार कर जाती है,
हमें खुद की दृष्टि में
विदूषक सरीखा
और नितांत बौना बना देती है,
हमारी बौद्धिकता के सम्मुख
प्रश्नचिह्न अंकित कर देती है।
अश्लीलता
कभी कभी
हमें दमित और कुंठित सिद्ध करती है ,
यह मानव के चेहरे पर
अप्रत्याशित रूप से
तमाचा जड़ती है।
यह आदमी के जीवन में
तमाशा खड़ा कर देती है ,
उसे मुखौटा विहीन कर देती है,
यह बनी बनाई इज़्ज़त को
तार तार कर दिया करती है।
10/02/2025.
सचमुच
पहाड़ पर ‌जिन्दगी
पहाड़ सरीखी होती है
देखने में सरल
पर
उतनी ही कठिन
और संघर्षशील।
पहाड़ी मानस की
दिनचर्या
पहाड़ के वैभव को
अपने में
समेटे रहती है
और पहाड़ भी
पहाड़ी मानस से
बतियाता रहता है
कभी-कभी
ताकि
जीवन ऊर्जा और शक्ति,
जीवन के प्रति श्रद्धा और जिजीविषा
बनी रहे,
पहाड़ी मानस में
संघर्ष का संगीत
सदैव पल पल रचा बसा रहे।
पहाड़ी मानस मस्त मौला बना रहे।
जीवन में हर पल डटा रहे।

मैदान का आदमी
पहाड़ के सौंदर्य और वैभव के प्रति
होता रहा है आकर्षित,
वह पर्यटक बन
पहाड़ को समझना और जानना चाहता है
जबकि पहाड़ी मानस
पहाड़ को अपने भीतर समेटे
घर परिवार और रोज़गार के लिए
सुदूर मैदानों, मरूस्थलों और समन्दरों को ओर जाना।
कुदरत आदमी और अन्य जीवों के इर्द-गिर्द
चुपचाप सतत् सक्रिय रहकर
बुना करती है प्रवास का ताना-बाना,
उसके आगे नहीं चलता कोई ‌बहाना।
सब को किस्मत की सलीब ढोना पड़ती है,
जीवन धारा आगे ही आगे बढ़ती रहती है।
१०/०२/२०२५.
Feb 9 · 30
भोलू
आदमी
आज का
कितनी भी
कर ले चालाकियां ,
वह रहेगा
भोलू का भोलू!
कोई भी अपने बुद्धि बल से
चतुर सुजान तक को
दे सकता है
मौका पड़ने पर धोखा।
भोलू जीवन में
धोखे खाता रहा है,
ठगी ठगौरी का शिकार
बनता रहा है,
मन ही मन
कसमसाकर
रह जाता रहा है ।
एक दिन
अचानक भोलू सोच रहा था
अपनी और दुनिया की बाबत
कि जब तक
वह जिन्दगी के
मेले में था,
खुश था,
मेले झमेले में था ,
उसकी दिनचर्या में था।

भीड़ भड़क्का !
धक्कम धक्का !!
वह रह जाता था
अक्सर हक्का बक्का !!
अब वह इस सब से
घबराता है।
भूल कर भी भीड़ का हिस्सा
बनना नहीं चाहता है।
०८/०२/२०२५.
इस धरा पर
जीवन कहाँ से आया ?
शायद कहीं कायनात में
छिपे उस क्षण से ,
जिससे सृष्टि में
उल्का पिंड और विभिन्न तत्वों के
उत्पन्न होने की
शुरूआत हुई।

सुनता हूँ
इस धरा पर
उल्का पिंडों से
धरा पर
जीवन का आविर्भाव हुआ।

यह भी सुनता हूँ कि
दशावतार की गाथा में
जीवन यात्रा का
छिपा हुआ है उद्गम।
यह सोच बड़ी है सूक्ष्म।
जीवों की जीवन यात्रा में
निहित है
जीवन का मर्म !
इसे समझना और पल्लवित करना
जीवन के उद्गम से लेकर
विकसित होने तक
बना हुआ है जीव धर्म।
हरेक जीव अपने अस्तित्व को
बनाए रखने के लिए
संतति को बढ़ाता है,
जिससे जीवन धारा विकसित होती है,
जीवन यात्रा
उत्तरोत्तर अपने आप
सतत
पीढ़ी दर पीढ़ी
आगे बढ़ती है,
जीवों को
जीवन की सार्थकता की
अनुभूति होती है।

चुपचाप
जीवन की गति
पूर्णता को प्राप्त करती है,
जीवन यात्रा आगे बढ़ती है।
०८/०२/२०२५.
Feb 7 · 37
Passion for Love
Passion for Love is quite natural.
To control over these emotions
makes our life unnatural.
To lead a life without sentiments
brings miseries in life.
It is painful and harsh reality of human existence.
Passion for Love is the best gift 💕 for all.
It makes human beings most powerful.
07/01/2025.
अनंत काल से
दुनिया का नक्शा
राजनीतिक हलचलों की
वज़ह से
बदला गया है
पर जमीन और समन्दर
दिशाएं कौन बदल पाया है ?
कोई सम्राट और विश्व विजेता तक !
सब उन्माद और अभिमान के कारण भटके हुए हैं।
इतिहास की पुस्तकों में अटके हुए हैं।

आज मुझे
अपनी बिटिया के लिए
चार्ट पर
दुनिया का नक्शा
बनाना पड़ा।
मैं उलझ कर रह गया।
दुनिया का नक्शा
मुझे बहुत कुछ कह गया।

देश, समन्दर और जमीन,
नदियां, झीलें, झरने ,
पहाड़, मैदान, मरूस्थल, पठार
सब नक्शे में दर्शाए जाते हैं,
कागज़ के ऊपर बनाए और मिटाए जाते हैं,
मज़ा तो तब है
जब उनकी निर्मिति को
दिल से समझा जाए,
उन्हें बचाया जाए।
उन्हें देखने के लिए  
देश और दुनिया भर में घूमा जाए।
ऐसा चुपके-चुपके
दुनिया के नक्शे ने  
मुझसे गुज़ारिश की ,
मैंने भी मौन रहकर
दुनिया घूमने और मतभेद भुलाने की
आंकाक्षा अपने भीतर भरी,
और चुपचाप
अहसास की दुनिया में बह गया।
सच! दुनिया का नक्शा
मुझसे बरबस संवाद रचा गया।
संवेदना को बचाने के लिए
मूक याचना कर गया।
मुझे चेतन कर गया।
०७/०२/२०२५.
Feb 6 · 99
मौका
आज
लोगों को
कामयाब होने का
मिले
यदि कोई
मौका
तो वे कतई
करें न गुरेज
कुछ भी करने से,
अपनों को
धोखा देने से !
चोरी सीनाज़ोरी करने से !
छीना झपटी करने से !

आज का सच है
जो जितना बड़ा धोखेबाज़ ,
उतना कामयाब !
बेशक यह सही नहीं !
कुछ नासमझ इसे मानते हैं सही !
आगे निकलने का मौका
मयस्सर हो तो सही !
पाप और पुण्य का निकष
मरने के उपरांत देखा जाएगा।
आगे बढ़ने का मौका
कब कब हाथ आएगा ?
असफलता मिली तो जीवन रौंदा जाएगा !
०६/०२/२०२५.
जीवन भरपूर आनंद से जीना
एक स्वप्न सरीखा बन जाता है लोगों के लिए
इसलिए बेहद ज़रूरी है कि
जिंदगी को जीया जाए
जिंदादिल बने रहकर
संघर्षों के बीच
बने रहकर
जिजीविषा सहित
हरेक उतार चढ़ाव के साथ
भीतर और बाहर से
तने रहकर ,
हरपल खिले रहकर ।
यह सब सीखना है
तो गुलाब का जीवन चक्र देखिए ,
इस के रूप ,रंग ,गंध,  मुरझाने ,धरा में मिल जाने की
प्रक्रिया को अपने अहसास में भरकर !
ताकि जीवन यात्रा कर सके
आदमी एकदम से निर्भय होकर !!
कहीं आदमी असमय न मुरझा जाए ,
अतः अपरिहार्य है
जिन्दगी जीनी चाहिए
बंदगी करते हुए !!
अपने तन और मन की गंदगी को
अच्छे से साफ करते हुए !!
सकारात्मकता और स्वच्छता से जुड़ते हुए !!
जीवन पथ पर अग्रसर होकर
सतत सार्थकता का वरण करते हुए !!
ज़िंदगी जीओ बन्दगी करते हुए !!
स्वयं को संतुलित रखते हुए!!
०५/०२/२०२५.
समय
कभी रुक नहीं सकता
वह मतवातर
गतिशील रहता है ,
यदि वह रुक जाए ,
तो जीवन में ठहराव आ जाए।
जीवन का क्रम नष्ट भ्रष्ट हो जाए!
इसलिए
समय कभी
रुकता नहीं,
रुक सकता नहीं।
वह चाहता है
प्रकृति की व्यवस्था को
रखना सही।

आदमी का जीवन में
रुक जाना असहनीय होता है,
रुके रहना जैसा अहसास
जीवन को बोझिल कर देता है,
यह जीव के भीतर
थकावट भर देता है।
उसका सारा उत्साह और उमंग
बिखर जाता है ।
आदमी समय में
शीघ्र विलीन हो जाता है।
यही वज़ह है कि
समय कभी रुकता नहीं ।
वह कभी झुकता नहीं ,
बेशक वह जीवन में
उतार चढ़ाव लाकर
गर्व के उन्माद में डूबे आदमी को
झुकने के लिए बाध्य कर दे !
आदमी का जीवन कष्ट साध्य कर दे !!

काश! समय ठहर पाए!
आदमी को चुनौतियों के लिए
तैयार कर
आगे की राह सुगम बना पाए।
समय बेशक ठहरता नहीं,
इसे जितना जीया जाए , उतना कम है।
इसे सलीके से जीना ही
समय को जानने जैसा अति उत्तम है !
समय का ठहराव महज एक दिशा भ्रम है !!
०४/०२/२०२५.
आज मेरे भीतर अंतर्कलह है
मैं अपने पिता के साथ
सरकारी स्वास्थ्य विभाग द्वारा
संचालित सेवाओं का लाभ उठाने आया हूँ ।
बहुत से लोग सरकारी स्वास्थ्य सेवा से
असंतुष्ट प्राइवेट अस्पताल से
करवाना चाहते हैं इलाज़।
इसका कारण स्पष्ट है कि
उन्हें नहीं है विश्वास,
सरकारी चिकित्सा से
वे कर पाएंगे स्वास्थ्य लाभ।
वे प्राइवेट अस्पताल में
लूटे जाते हैं।
वहाँ के डॉक्टर भी तो
कभी सरकारी स्वास्थ्य केंद्र में
इलाज़ करने की अनुभव प्राप्ति के बाद
प्राइवेट अस्पताल में
चिकित्सा कार्य को निभाते हैं।
अच्छा रहे , यदि आम आदमी समय रहते
सरकारी अस्पताल से
अपने रोग की
चिकित्सा करवाए,
ताकि वह अपनी जिन्दगी में
बेहतर और प्रभावी चिकित्सा विकल्प को तलाश पाए।

मेरे पिता खुद भी एक स्वास्थ्य विभाग से
जुड़े पदाधिकारी रहे हैं,
वे अपने विभाग के कार्यों की गुणवत्ता को
अच्छे से पहचानते हैं।
यदि सभी सरकारी चिकित्सा कार्यों का लाभ उठाएं
तो किसी हद तक आम आदमी
सुरक्षित जीवन की आस रख सकता है ,
सचेत रह कर जीवन में संघर्ष ज़ारी रख सकता है।

इस फरवरी महीने में
मेरे पिता जी नब्बे साल के हो जाएंगे ।
वे बहुत
ज़्यादा बीमार हैं
पर उनके भीतर की जिजीविषा ने
उन्हें जीवन की दुश्वारियों के बावजूद
हौंसले वाला बनाया हुआ है,
मरणासन्न स्थिति में
सकारात्मक विचारों से जोड़ कर
जीवन्त बनाया हुआ है।

उनके जीवन जीने के ढंग ने
मुझे यह सिखाया है कि
बुढ़ापे में कैसे आदमी अपनी कर्मठता से
जीवन को सक्रिय रूप से जी सकता है।
वह जिंदादिली से मौत के ख़ौफ़ को
अपने वजूद से दूर रख
स्वयं को शांत चित्त बनाए रख सकता है,
जबकि आम आदमी जल्दी घबरा जाता है,
वह समय आने से पहले
विचलित, हताश और निराश हो
अपने स्वजनों को दुखी कर देता है,
आप भी कष्ट झेलता है
और परिजनों को भी दुःख,तकलीफ व पीड़ा देता है।

सालों पहले सपरिवार पिता जी के साथ
पहाड़ों की सैर करने गया था।
वहाँ का एक नियम है कि
अगर चलते चलते सांस फूल जाए
तो मतवातर चलने की बजाए
थोड़ा रुक रुक कर आगे बढ़ो।
आज पिता को पहाड़ नहीं ,
मैदान में चलते हुए
उसी नियम का पालन करते देखता हूँ
तो मुझे खरगोश और कछुए की कहानी याद आती है,
लेकिन बदले संदर्भ में
कभी पिता जी खरगोश की तरह
तेज गति से मंज़िल की ओर बढ़ते थे
और आज वे बहुत धीरे धीरे चलते हैं,
सांस फूलने पर रुकते हैं,
दम लेते हैं और आगे बढ़ते हैं।
तकलीफ़ होने पर वे चिल्लाते नहीं,
बल्कि प्रभु का नाम लेते हैं ।
उनके आसपास घर परिवार के सदस्य
समझ जाते हैं कि वे पीड़ा में हैं।
सभी सदस्य चौकन्ने और शांत हो जाते हैं।
वे उनके साथ मन ही मन प्रार्थना करते हैं,
अब जीवन प्रभु तुम्हारे हाथ में है,
आप ही जीवन की डोर को संभालना,
और जीवात्मा को उसकी मंज़िल तक पहुँचा देना।
०३/०२/२०२५.
इस बार का बजट
क्या ग़ज़ब का है जी!
टैक्स देने वालों की मौज हो गई।
उन्हें भारी भरकम छूट मिली।
पहले मैं लाख के करीब टैक्स अदा करता था।
अगले साल यह शून्य पर आ जाएगा।
जीवन में होता है
कभी कभी करिश्मा ।
यह बजट कुछ ऐसा ही
जलवा दिखा गया।
इस बार का बजट
ऐसा कुछ
अहसास करा गया।
लगता है ,
आने वाले चुनावों में
यह भरोसेमंद सत्ता पक्ष के हाथों
ताकतवर विपक्ष की  
विकेट उड़ा गया ,
कहीं भीतर तक
अराजकता की राजनीति में
सहम भर गया !
हारने की आशंका भर गया !!
मुफ़्त के उपहारों से भी
बेहतरीन तोहफ़ा
जन साधारण को दे गया।

उम्मीद है ,
यह बजट विकास को गति देगा।
अगली बार का बजट भी
चुनावों में
मुफ्तखोरी पर
अंकुश लगाएगा।
तभी देश सालों से
चली आ रही
वित्तीय घाटे की रीति  और नीति पर
न चलकर
वित्तीय संतुलन की राह को
अपनाने की परंपरा पर आगे बढ़ पाएगा।
उम्मीद है कि
मेरा जैसा आम व्यक्ति
जो अभी अभी के बजट से
टैक्स मुक्त हुआ है ,
जो टैक्स फ्री नहीं रहना चाहता,
जैसा नागरिक भी
निकट भविष्य में,
आगामी सालों में
टैक्स  फिर से दे पाएगा ,
देश की आर्थिकता में
पहले की तरह
अपना अंशदान दे पाएगा।
साथ ही
यह भी उम्मीद है कि
समाज का सबसे गरीब व्यक्ति भी
जिसे लोग अक्सर
गया गुजरा आदमी  कह देते हैं,
वह भी कभी
आगामी सालों में
अपनी मेहनत से
और अपने वित्तीय कौशल में सुधार कर
निकट भविष्य में
हरेक नागरिक
फिर से टैक्स के दायरे में
आना चाहेगा ,
देश दुनिया और समाज में
सुख समृद्धि संपन्नता का आगमन लाएगा।
इस बार का बजट
किसी अप्रत्याशित घटनाक्रम से कम नहीं,
जिसने सब को
अचरज में ला दिया।
बजट में भरपूर बचत का तड़का लगा दिया।
इस बार के बजट ने
सच में ही
आम और ख़ास तक को चौंका दिया।
०२/०१/२०२५.
साल २०२५-२०२६ का भारत सरकार के वित्तीय बजट पर एक प्रतिक्रिया वश।
देश दुनिया और समाज
खूब तरक्की कर रहा है,
अच्छी बात है
परन्तु चिंतनीय है कि
चारों तरफ़
गन्दगी के ढेर बढ़ रहे हैं,
लोग बीमार होकर
असमय मर रहे हैं।
हमें मुगालता है कि
हम विकास कर रहे हैं।
यह कभी नहीं सोच पाते कि
भीतर तक सड़ रहे हैं,
घुट घुट कर मर रहे हैं।

यही नहीं
आसपास फैला
कूड़ा कर्कट कचरा,
स्वास्थ्य के लिए बना है खतरा।
इस ओर हम अक्सर दे नहीं पाते ध्यान,
जब कोई हमारी आवाज़ नहीं सुनता,
भीतर तक होते परेशान।
चाहते कोई तो करे ,
परेशानियों का समाधान।
आओ हम सब मिलकर
कूड़ा कर्कट प्रबंधन से जुड़ें
ताकि बची रहें
सुख समृद्धि और सम्पन्नता की जड़ें,
सब सकारात्मक जीवन की ओर बढ़ें।

कूड़ा कर्कट प्रबंधन का
है एक सीधा सादा सरल तरीका,
हम अपनाएं जीवन में
सादगीपूर्ण जीवन जीने का सलीका।
हम कूड़ा कर्कट तत्क्षण समेट लें ,
कोई इसे आकर उठाएगा ,
आसपास साफ़ सुथरा बनाएगा।
हम करें न इसका इन्तज़ार,
हम स्वयं ही इसे यथास्थान पहुंचा दें।
यही नहीं, कूड़े कर्कट को भी उपयोगी बनाएं।
इसके लिए समुचित प्रोद्यौगिकी को अपनाएं।
इस सबसे बढ़कर हम
अपने मनोमस्तिष्क को
भूलकर भी कभी कूड़ा दान न बनाएं ,
ताकि आदमी को कचोटे न कभी कोई कमी।
हम सभी अपना ध्यान जीवन में
कूड़ा कर्कट प्रबंधन में लगाएं।
मतवातर
बढ़ता जा रहा
कूड़े कर्कट के ढेर
कभी जी का जंजाल न बन पाएं ,
आदमी कभी तो
सुख का सांस ले पाएं।
०१/०२/२०२५.
ज़िंदगी भर
मैं बगैर सोच विचार किए
बोलता ही गया।
कभी नहीं बोलने से पीछे हटा,
फलत: अपनी ऊर्जा को
नष्ट करता रहा,
निज की राह
बाधित करता रहा।
निरंतर निरंकुश होकर
स्वयं को रह रह कर
कष्ट में डाले रहा।
आज मैं कल की
निस्बत कुछ समझदार हूं।
कल मैं एक क्षण भी
चुपचाप नहीं बैठ सका था ,
मैंने अपना पर्दाफाश
साक्षात्कार कर्त्ता के सम्मुख
कर दिया था।
मैं वह सब भी कह गया
जिसे लोग छिपाते हैं,
और कामयाब कहलाते हैं।
ज़्यादा बोलना
किसी कमअक्ली से
कम नहीं।
यह कतई सही नहीं।
आदमी को चुप रहना चाहिए,
उसे चुपचाप बने रहने का
सतत प्रयास करना चाहिए
ताकि आदमी जीवन की अर्थवत्ता को जान ले,
स्वयं की संभावना को समय रहते पहचान ले।
आज
अभी अभी
बस यात्रा के दौरान
मैंने मौन रहने का महत्व जाना है।
सोशल मीडिया के माध्यम से
मौन के फ़ायदे के बारे में
ज्ञानार्जन किया है,
अपने जीवन में
ज्ञान की बाबत
चिंतन मनन कर
अपने आप से संवाद रचाया है।
अभी अभी
मैंने मौन को
अपनाने का फैसला किया है कि
अब से मैं कम बोलूंगा,
अपनी ऊर्जा से
खिलवाड़ नहीं ‌करूंगा ,
जीवन में मौन रहकर
आगे बढ़ने का प्रयास करूंगा,
कभी तो जीवन में अर्थवत्ता को अनुभूत कर सकूंगा,
सच के पथ पर अग्रसर होने से पीछे नहीं हटूंगा।
जीवन रण में मैं सदैव डटा रहूंगा।
कभी भी भूलकर किसी की शिकायत नहीं करूंगा।
कल और आज के
जीवन में घटित हुए घटनाक्रम ने
मुझे तनिक अक्लमंद बनाया है,
जीवन में अक्लबंद बने रहने के लिए चेताया है।
यही जीवन की सीख है,
जो यात्रा पथ पर
क़दम क़दम पर
अग्रसर होने से मिलती है,
यह आदमी के अंतर्घट में
चेतना की अमृत तुल्य बूंदें भरती है ,
जीवन में आकर्षण का संचार करती है।
३२/०१/२०२५.
Jan 30 · 18
सहसा
सहसा
जब कोई अचानक
भीतर ही भीतर
कसमसाकर
पल पल टूटता जाए ,
जीवन से रूठता जाए ,
साहस कहीं पीछे छूटता जाए ,
तब आप ही बताइए
आदमी क्या करे ?
क्या वह जीवन में स्वयं को
आगे बढ़ने से रोक ले ?
क्यों न वह निज में बदलाव करे ?
और वह अपनी समस्त ऊर्जा को
लक्ष्य सिद्धि की खातिर
कर्मठ बनने में खपा दे ,
जब तक वह निज को न थका दे ।
जीवन में साहसी बनकर
सुख समृद्धि की ओर बढ़ा जा सकता है ,
जीवन पथ की दुश्वारियों से लड़ा जा सकता है ,
सहसा साहस भीतर भर कर डटा जा सकता है।
जीवन पथ पर संकट के बादल मंडराते रहते हैं।
साहस और सहजता से उनका सामना किया जाता है , संघर्ष के दौर में टिके रह कर विजेता बना जा सकता है।
३०/०१/२०२५.
आज के दिन  
तीस जनवरी की तारीख को
अचानक
देशवासियों को
झेलना पड़ा था आघात ,
जब किसी ने
राजनीति के चाणक्य को
दिया था
चिर निद्रा में सुला ,
सत्य अहिंसा और सत्ता के
केन्द्रबिन्दु रहे
महात्मा पर
गोलियां चला ।
वज़ह
स्पष्ट थी ,
आदमी के भीतर बसी ,
अकड़ और हठधर्मिता ,
छीन लेती है
आदमी का विवेक।

दोनों पक्ष
स्वयं को
मानते हैं सही।  
वे नहीं चाहते करना
अपने दृष्टिकोण में
समयोचित सुधार करना,
फलत: झेलते हुए पीड़ा,
दोनों ही समाप्त हो जाते हैं,
अपने आगे बढ़ने की संभावना के सम्मुख
प्रश्नचिह्न अंकित कर जाते हैं।

राजनीति के चाणक्य की
सलाह
कभी भी राजनीतिज्ञों ने
दिल से मानी नहीं,
फलत:
महात्मा को कुर्बानी देनी पड़ी।

आज देश
अराजकता के मुहाने पर खड़ा है।
देश अपनी टीस को भूलकर
तीस जनवरी को
सायरन की आवाज़ के साथ  
मौन श्रद्धांजलि देने को होता है उद्यत।
सब शीघ्रातिशीघ्र आदर्शों को भूलकर
अपनी जीवनचर्या में व्यस्त हो जाते हैं ।
वे ‌फिर से नव वर्ष के आगमन
और तीस जनवरी के इंतजार में रहते हैं
ताकि फिर से महात्मा को याद किया जा सके,
उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी जा सके।
मुझे क्या सभी को
तीस जनवरी का व्यग्रता से
रहता है इंतज़ार
ताकि महात्मा को याद कर सकें ,
बेशक उनके आदर्शों से सब मुंह मोड़े रहें।
३०/०२/२०२५.
,
Jan 29 · 36
कुंठा
आदमी के पीछे
यदि कुंठा
किसी पिशाच सरीखी होकर
पड़ जाए तो आदमी
कहां जाए ?
उसे हरेक दिशा में
अंधेरा नज़र आए !
मन के भीतर
मतवातर
सन्नाटा पसरता जाए !!
कुंठित आदमी
अपने आसपास
नागफनी सरीखी
कांटेदार वनस्पति को
जाने अनजाने रोपता है।
उसका संगी साथी भी
भय के आवरण से भीतर तक
जकड़ा हुआ
उसे अत्याचार करने से
रोक नहीं पाता है।
वह अपार कष्ट सहता जाता है !
कभी मन की बात नहीं कह पाता है !!
मित्रवर ! जीवन को सहजता से जीयो।
असमय कुंठित होकर स्वयं को न डसो।
२९/०१/२०२५.
सुख में वृद्धि कैसे हो ?
दुःख में कमी कैसे हो ?
सुख और दुःख में
आदमी कैसे तटस्थ रहे ?
वह जीवन धारा में ‌बहकर
लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु
स्वयं को संतुलित कैसे करे ?

जब कभी इस बाबत सोचता हूं
तो आता है नज़र ,
आज का आदमी है प्रखर।
वह नींद में भी
कभी कभी सोच विचार कर
अत्यधिक चिंतित और विचारमग्न रहकर
कर लेता है खुद को बीमार।
वह नींद में चलने फिरने लगता है।
उसके जीवन में चोट लगने की
संभावना बढ़ जाती है।
जागने पर वह बहुत कुछ भूला रहता है।

नींद में चलना कतई ठीक नहीं।
यह आदमी को कहीं भी पहुंचा देता है।
यह आदमी को कभी कभार नुकसान पहुंचा देता है।
इस पर काबू पाया जा सकता है।
आदमी को जीवन में ठोकर लगने से पहले ही
सजग करते हुए बचाया जा सकता है।

वैसे नींद में चलना कोई ख़तरनाक बीमारी नहीं।
यह किसी को भी हो सकती है,
बचपन में ज्यादा और वयस्कों में बहुत कम।
यदि किसी को
नींद में चलने की बाबत
बताया जाता है
तो वह हैरान रह जाता है,
जब तक उसे प्रमाणित किया जाता नहीं।
और यह है भी सही,
कौन नींद में चलने के आरोप को सहे ?
वैसे सच है कि अज्ञान की नींद में सोया हुआ
व्यक्ति और समाज तक
तकलीफ़ के बावजूद
मतवातर आगे बढ़ते देखे गए हैं।
नींद में चलने वाला आदमी भी  
अचेतावस्था में आगे बढ़ता है।
बेशक ‌जागने पर
वह अपनी इस अवस्था की बाबत
सिरे से इंकार करे।
नींद में चलना बिल्कुल स्वाभाविक है,
बेशक यह चेतन व्यक्ति को अच्छा न लगे।
जीवन धारा हरेक अवस्था में आगे बढ़ी है,
यह रोके से न कभी रुकी है।
यह सोई ही कब थी ?
जो अपनी नींद से जगने पर
हड़बड़ाए आदमी सी जगी है।
नींद में चलना स्वप्न में जीवन जीने जैसा है।
स्वप्न भंग हुआ नहीं कि
सब कुछ नष्ट प्रायः और भूल-भुलैया में खोने सरीखा ,
कुछ कुछ फीका
और
कुछ कुछ तेज़ मिर्ची सा तीखा और तल्ख।
२९/०१/२०२५.
आदमी का दंभ
जब कभी कभी
अपनी सीमा लांघ जाता है,
तब वह विद्रूपता का
अहसास कराता है,
यह न केवल उसे जीवन में
भटकने को बाध्य करता है,
बल्कि उसे सामाजिक ताने-बाने से
किसी हद तक बेदखल कर देता है।
यह उसे जीवन में उत्तरोत्तर
अकेला करता चला जाता है,
आदमी दहशतज़दा होता रहता है।
वह अपना दर्द भी
कभी किसी के सम्मुख
ढंग से नहीं रख पाता है।

कोई नहीं होना चाहता
अपने जीवन में
विद्रूपता के दंश का शिकार,
पर अज्ञानता के कारण
जीवन के सच को जान न पाने से,
अपने विवेक को लेकर
संशय से घिरा होने की वज़ह से  
वह समय रहते जीवन में
ले नहीं पाता कोई निर्णय
जो उसे सार्थकता की अनुभूति कराए ,
उसे निरर्थकता से निजात दिलवा पाए ,
उसे विद्रूपता के मकड़जाल में फंसने से बचा जाए।

विद्रूपता का दंश
आदमी की संवेदना को
लील लेता है,
यह उसे क्रूरता के पाश में
जकड़ लेता है,
आदमी दंभी होकर
एक सीमित दायरे में
सिमट जाता है ,
फलत: वह अपने मूल से
कटता जाता है ,
अपनी संभावना के क्षितिज
खोज नहीं पाता है !
दिन रात भीतर ही भीतर
न केवल
हरपल कराहता रहता है,
बल्कि वह अंतर्मन को
आहत भी कर जाता है।
उसका जीवन तनावयुक्त
बनता जाता है ,
वह शांत नहीं रह पाता है !
असमय कुम्हला कर रह जाता है !!
२८/०१/२०२५.
Jan 28 · 43
तलाश
सच की तलाश में
इधर उधर
भटकना
कोई अच्छी बात नहीं,
आदमी
समय रहते
स्वयं को
ढंग से तराश ले,
यही पर्याप्त है।

बहुत से लोग
सोचते कुछ
और करते कुछ हैं ,
इन की वज़ह से
सुख की तलाश में
निकले जिज्ञासुओं को
भटकना पड़ता है ,
अपने जीवन में
कष्टों से जूझना पड़ता है।
यदि आदमी की
कथनी और करनी में
अंतर न रहे ,
तो सुख समृद्धि और शांति की
तलाश में और अधिक
भटकना न पड़े ,
उसे सुख चैन सहज ही मिले ,
उसका अंतर्मन सदैव खिला रहे !
वह अपने अंदर  के आक्रोश से
और
असंतोष की ज्वाला से
कभी भी न झुलसे ,
बल्कि वह समय-समय पर
अपने को जागृत रखने का प्रयास करता रहे
ताकि वह सहजता पूर्वक
अपनी मंजिल को तलाश सके।
वह जीवन में आगे बढ़ कर न केवल
अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सके ,
बल्कि तनावमुक्त जीवन धारा में ‌बहकर
समय रहते
स्वयं की संभावना को
सहज ही खोज सके।
वह जीवन में
सार्थकता की अनुभूति कर सके ,
सहजता से
उसे निरर्थकता के अहसास से मुक्ति मिल सके।
२८/०१/२०२५.
हम कितनी ही फराखदिली
और सहिष्णुता की बात
आपस में कर लें ,
हमारे मन में
मान सम्मान जैसी
मानवीय कमज़ोरी
अवचेतन में
पड़ी रह जाती है,
जब जीवन में
उपेक्षित रह जाने का दंश
दर्प को ठोकर
अचानक अप्रत्याशित ही
दे जाता है
तब मानव सहज नहीं रह पाता है ,
वह भीतर तक तिलमिला जाता है ,
वह प्रतिद्वंद्वी को झकझोरना चाहता है।

इस समय मन में गांठ पड़ जाती है
जो आदमी के समस्त ठाट-बाठ को
धराशायी कर जाती है ,
यह सब घटनाक्रम
आदमी के भीतर को
अशांत और व्यथित कर जाता है।
वह प्रतिद्वंद्वी को
नीचा दिखाने की ताक में लग जाता है।

विनाश काल , विपरीत बुद्धि वाले
दौर में विवेक का अपहरण हो जाता है,
आदमी अपना बुरा भला तक सोच नहीं पाता है।
ऐसा अक्सर सभी के साथ होता है ,
इस नुकसान की भरपाई की चेष्टा करते हुए
दिन रात सतत प्रयास करने पड़ते हैं ,
तब भी वह पहले जैसी बात नहीं बनती है ,
मन के भीतर पछतावे की छतरी रह रह कर तनती है।
यह मनोदशा मरने तक
आदमी को हैरान व परेशान मतवातर करती रहती है।
पर विपरीत परिस्थितियों के आगे किसकी चलती है ?
यह उलझन आदमी का पीछा कभी नहीं छोड़ती है।
२७/०१/२०२५.
जन्म और मरण
इन्सान के हाथ में नहीं।
जैसे जन्मना और मरना
किसी के वश में नहीं।
बीमार -लाचार  
हताश-निराश
आदमी
कभी कभी
मरना चाहता है
पर यह कतई आसान नहीं।
असमय मरने को तुला व्यक्ति
यदि मर भी जाता है
तो वह करता है
किसी पर
कोई अहसान नहीं।
बल्कि वह दुनिया में
कायर ‌कहलाता है,
और उसे भुला दिया जाता है।

आदमी अपने को सक्रिय रखें
ताकि वह सहजता से जीवन पथ पर आगे बढ़े,
अपने अंतर्मन को दृढ़ करते हुए ,
अपनी क्षुद्रताओं से लड़ने का हौसला मन में भरे ,
वह जीवन में संयम से काम लेते हुए
सुख समृद्धि और सम्पन्नता का वरण कर सके।
सक्रियता जीवन है और निष्क्रियता मरण।
कर्मठता से आदमी बन सकता है असाधारण।
मरना और जीना,संघर्ष करते हुए टिके रहना, आसान नहीं।
जीवन को सार्थक दिशा में आगे बढ़ाना ही है सही।
२७/०१/२०२५.
यह सुखद अहसास है कि
उपेक्षित
कभी किसी से
कोई अपेक्षा नहीं रखता क्यों कि उसे
आदमी की फितरत का है
बखूबी पता ,
कोई मांग रखी नहीं कि
समझो बस !
जीवन का सच
समर्थवान शख्स
दाएं बाएं, ऊपर नीचे
होते हुए हो जाएगा
चुपके-चुपके ,चोरी-चोरी
लापता।
उपेक्षित रह जाता बस खड़ा ,
उलझा हुआ,
अपनी बेबसी पर
खाली हाथ मलता हुआ।

इसलिए
उपेक्षित
कभी भी ,
कहीं भी ,
हर कमी और अभाव के बावजूद
हर संभव संघर्ष करता हुआ ,
किसी के आगे
हाथ नहीं फैलाता।
वह कठोर परिश्रम करना  
है भली भांति जानता।
सब तरफ से उपेक्षित रहने के बावजूद
वह अपने बुद्धि कौशल से
सफलता हासिल कर
बनाए रखता है अपना वजूद ।
जीवन के हरेक क्षेत्र में
अपनी मौजूदगी का अहसास
हरपल कराता हुआ
अपनी जिजीविषा बनाए रखता है।
अपनी संवेदना और संभावना को जीवंत रखता है।
चुपचाप सतत् मेहनत कर
अपनी मंजिल की ओर अग्रसर होता है
ताकि वह अपने भीतर व्याप्त चेतना को
जीवन में सार्थक दिशा निर्देश के अनुरूप
ढाल सके,
समाज की रक्षार्थ
स्वयं को एक ढाल में बदल सके ,
तथाकथित सेक्युलर सोच के
अराजक तत्वों से
बदला ले सके ,
उन्हें सार्थक बदलाव के लिए
बाध्य कर सके।
जीवन में सब कुछ  
सर्व सुलभ साध्य कर सके ,
जीवन में निधड़क होकर आगे बढ़ सके।
उपेक्षित स्वयं से परिवर्तन की
अपेक्षा रखता है ,
यही वजह है कि वह अपने प्रयासों में
कोई कमीपेशी नहीं छोड़ता ,
वह संकट के दौर में भी
कभी मुख नहीं मोड़ता,
कभी संघर्ष करना नहीं छोड़ता।
२६/०१/२०२५.
समय समर्थ है
यह सदैव गतिशील रहता है
जीवन में यात्रा करने के दौरान
रुके रहने का अहसास
हद से ज्यादा अखरता है
यह न केवल प्रगति के  न होने का दंश दे जाता है
बल्कि नारकीय जीवन जीने की
प्रतीति भी कराता है।
जीवन में रुके रहने का अहसास
असाधारण उपलब्धियों की प्राप्ति तक को
आम बना देता है।
यह आदमी को
भीतर तक हिला देता है ,
उसे कहीं गहरे तक
थका देता है।

रुके रहने से बेहतर है कि
आदमी स्वयं को गतिशील रखें
ताकि वह असमय न थके,
जीवन में आगे बढ़ कर
अपनी मंजिल को वरता रहे।
२६/०१/२०२५.
आज आदमी ने
बाहर और भीतर को
इतना कर दिया है
प्रदूषण युक्त
इस हद तक
कि कभी कभी
लगने लगता है डर...
पर्यावरण बच पाएगा भी कि नहीं ?
जीवन का दरिया
निर्बाध रूप से
बह पाएगा भी कि नहीं ?
हम सब इस धरा पर
ढंग से रह पाएंगे भी कि नहीं ?
इससे पहले कि
कुछ अवांछित घटे
हम सब
अपने अपने ‌ढंग से
पर्यावरण को सुरक्षित रखने के निमित्त
दिन रात सतत प्रयास करें।
क्यों न हम !
प्रतिदिन
अपना अनमोल समय
परिवेश को सुरक्षित करने के निमित्त
दिन भर चिंतन मनन और व्यवहार में निवेश करें।
हम सब सादा जीवन उच्च विचार को अपनाएं।
जीवन की आपाधापी में
समष्टि के रक्षार्थ
अपनी जीवन शैली को
जंगल ,जल, जमीन, हवा,
धरा, पहाड़,जीवनादि के अनुरूप ढालकर
स्वयं को निरंतर संतुलित और जागृत करते जाएं।
आज जरूरत है
आदमी अपनी संवेदना को
समय रहते बचा पाए।
वह प्रकृति के सान्निध्य में रहकर
पर्यावरण को बचाने के लिए
पुरज़ोर कोशिशें करे
ताकि चेतना परिवेश और पर्यावरण के रक्षार्थ
आदमी को क़दम क़दम पर
न केवल मार्गदर्शन करें
बल्कि वह समय-समय पर
विनाश की चेतावनी भी देती रहे ,
आदमी जागरूक और चौकन्ना बना रहे।
आदमजात अपना विकास
समयबद्ध और सुनियोजित तरीके से करे
ना कि विकास के नाम पर
इस धरा पर
विनाश का तांडव होता रहे !!!
प्रकृति रुदन करती दिखाई दे !!!
आओ हम सब परिवेश के रक्षार्थ
अपने अपने जीवन काल में
किसी न किसी तरह से
समर्थन, समर्पण, संघर्ष करते हुए
तन , मन , धन  का  निवेश  करें
ताकि परिवेश और पर्यावरण को बचाया जा सके,
प्रकृति के सान्निध्य में रहकर
जीवन धारा को स्वाभाविक गति से
आगे बढ़ाया जा सके।
जीवन को सुख ,समृद्धि और सम्पन्नता से
भरपूर बनाया जा सके।
इस जीवन में सार्थकता का आधार
निर्मित किया जा सके ,
ताकि आदमी को
कभी भी अपना जीवन
आधा अधूरा न लगे।
वह पूर्णता का अहसास कर सके।
जीवन में क्षुद्रताओं का त्याग कर सके।
२५/०१/२०२५.
कभी कभी
पतंग किसी खंबे में अटक जाती है,
इस अवस्था में घुटे घुटे
वह तार तार हो जाती है।
उसके उड़ने के ख़्वाब तक मिट्टी में मिल जाते हैं।

कभी कभी
पतंग किसी पेड़ की टहनियों में अटक
अपनी उड़ान को दे देती है विराम।
वह पेड़ की डालियों पर
बैठे रंग बिरंगे पंछियों के संग
हवा के रुख को भांप
नीले गगन में उड़ना चाहती है।
वह उन्मुक्त गगन चाहती है,
जहां वह जी भर कर उड़ सके,
निर्भयता के नित्य नूतन आयामों का संस्पर्श कर सके।

मुझे पेड़ पर अटकी पतंग
एक बंदिनी सी लगती है,
जो आज़ादी की हवा में सांस
लेना चाहती है,
मगर वह पेड़ की
टहनियों में अटक गई है।
उसकी जिन्दगी उलझन भरी हो गई है ,
उसका सुख की सांस लेना,
आज़ादी की हवा में उड़ान भरना
दुश्वार हो गया है।
वह उड़ने को लालायित है।
वह सतत करती है हवा का इंतज़ार ,
हवा का तेज़ झोंका आए
और झट से उसे हवा की सैर करवाए ,
ताकि वह ज़िन्दगी की उलझनों से निपट पाए।
कहीं इंतज़ार में ही उसकी देह नष्ट न हो जाए ।
दिल के ख़्वाब और आस झुंझलाकर न रह जाएं ।
वह कभी उड़ ही न पाए।
समय की आंधी उसको नष्ट भ्रष्ट और त्रस्त कर जाए।
वह मन माफ़िक ज़िन्दगी जीने से वंचित रह जाए।
कभी कभी
ज़िंदगी पेड़ की टहनियों से
उलझी पतंग लगती है,
जहां सुलझने के आसार न हों,
जीवन क़दम क़दम पर
मतवातर आदमी को
परेशान करने पर तुला हो।
ऐसे में आदमी का भला कैसे हो ?
जीवन भी पतंग की तरह
उलझा और अटका हुआ लगता है।
वह भी राह भटके
मुसाफ़िर सा तंग आया लगता है।
सोचिए ज़रा
अब पतंग
कैसे आज़ाद फिजा में निर्भय होकर उड़े।
उसके जीवन की डोर ,
लगातार उलझने
और उलझते जाने से न कटे।
वह  यथाशक्ति जीवन रण में डटे।

२४/०१/२०२५.
धन्य है वह समाज
जहां कन्या पूजन
किया जाता है,
यही है वह दिया
जहां से जीवन शक्ति का
होता है जागरण।
हिंदू समाज पर व्यर्थ ही
नारी अपमान का
लगाया जाता है आक्षेप,
यह वह उर्वर धरा है
जहां से संजीवनी का
उद्भव हुआ है,
मानव ने चेतना को
साक्षात जिया है।
यह वह समाज है
जहां हर पुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम राम
और स्त्री जगत जननी माता सिया है।

२४/०१/२०२५.
Next page