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चेतना
कभी नहीं कहती
किसी से
कभी भी
कि ढूंढों,
सभी में कमी।
बल्कि वह तो कमियों को  
दूर करती है,
भीतर और बाहर से
दृढ़ करती है।

चेतना ने
कभी न कहा,
  "चेत ना। "
वह तो हर पल
कहती रहती है,
" रहो चेतन,
ताकि तन रहे
हर पल प्रसन्न।"

सुनो,
सदैव जीवन से निकली
जीवंतता की
ध्वनियों को।

खोजो,
अपनी अन्तश्चेतना की
ध्वनियों को,
ताकि हर पल
चेतना के संग
महसूस कर सको,
आगे बढ़ सको,
जीवन धारा से
निकलीं उमंग भरी
तरंगों को,पल पल,
जीवन धारा की कल कल को
सुनकर
तुम निकल पड़ो
साधना के पथ पर
जीव मर्म,युग धर्म
आत्मसात कर
अंतर्द्वंद्वों से दूर रह
स्वयं को तटस्थ कर
महसूस करो
अंतर्ध्वनियों को,  
चेतना की उपस्थिति को।

अब सब कुछ
भूल भाल कर
ढूंढ लो निज की विकास स्थली।
शक्ति तुम्हारे भीतर वास कर रही।
उस की महता को जानो।
सनातन की महिमा का गुणगान करो।
अपने भीतर को  गेरूआ से रंग दो।
नाचो,खूब नाचो।
अपने भीतर को
अनायास
उजास से भर दो।
साथ ही
जीवन के रंगों से
होली खेलकर
अपनी मातृभूमि को
शक्ति से सज्जित कर दो।
ताकि जीवन बदरंग न लगे!
हर रंग जीवन धारा में फबे!!

१७/०७/२०१६.
4d · 36
Salute
To make life easy and smooth
Parents, guardians are keeping themselves busy from early morning to till late night.
So I salute them all.
Because,they are all in all next to God.They are our true survivors.


Can you heard the mesmerizing sound of wonderful flute?

Answer is in yes or no.
Parent's constantly working ability play  a special role in our lives.
So dear!
Let us salute to
them
for providing rhythm and stability in life.
उस्ताद जी,
माना कि आप अपने काम में व्यस्त रहते हो,
खूब मेहनत करते हो,
जीवन में मस्त रहते हो।
पर कभी कभी तो
अपने कस्टमर की
जली कटी सुनते हो।
आप कारसाज हो,
बड़ी बेकरारी से काम निपटाते हो,
काम बिगड़ जाने पर
सिर धुनते हो, पछताते हो।

ऐसा क्यों?
बड़े जल्दबाज हो।
क्षमा करना जी ।
मेरे उस्ताद हो।
मुआफ करना , चेला करने चला, गुस्ताखी जी।
अब नहीं देखी जाती,खाना  खराबी जी।
काम के दौरान आप बने न शराबी जी।
अब अपनी बात कहता हूं।
दिन रात गाली गलौज सुनता हूं।
कभी कभी तो बिना गलती किए पिटता हूं।
आप के साथ साथ मैं भी सिर धुनता हूं।
अंदर ही अंदर खुद को भुनता हूं।


सुनिए उस्ताद, कभी कभी खाद पानी देने में कंजूसी न करें,
वरना चेला...हाथ से गया समझो ,जी ।
कौन सुने ? ‌‌
रोज की खिच खिच,चील,पों जी।
आप के मेहरबान ने...आफर दिया है जी।

समय कम है उस्ताद
अब जलेबी की तरह
साफ़ साफ़ सीधी बात जी।


जल्दबाजी में न लिया करें
कोई फ़ैसला।
जो कर दे
जीभ का स्वाद कसैला।

हरदम  चेले चपटे  के नट बोल्ट न कसें।
वो भी इन्सान है,,....बेशक कांगड़ी पहलवान है।

सुनो, उस्ताद...
जल्दबाजी काम बिगाड़े
इससे तो जीती बाजी भी हार में बदल जाती है जी।
विजयोन्माद और खुमारी तक उतर जाती है।
उस्ताद साहब,
सौ बातों की एक बात...
जल्दबाजी होवे है अंधी दौड़ जी।
यदि धीमी शुरुआत कर ली जाए,
तो आदमी जीत लिया करता, हार के कगार पर पहुंची बाजी...!

आपका अपना बेटा
भौंदूंमल।
गुनाह
जाने अनजाने हो जाए
तो आदमी करे क्या?
मन पर
बोझ पड़ जाए
तो आदमी करे क्या?
वो पगला जाए क्या??

आदमी
आदमियत का परिचय दे ।
अपने गुनाह
स्वीकार लें
तो ही अच्छा!
समय रहते
अपने आप को संभाल ले,
तो ही अच्छा!
गुनाह
आदमी को
रहने नहीं देते सच्चा।

यह ठीक नहीं
आदमी गुनाह करे
और चिकना घड़ा बन जाए ।
वह कतई न पछताए
बल्कि चोरी सीनाज़ोरी पर उतर आए
तो भी बुरा,
आदमी
बना रहता ताउम्र अधूरा।
अरे भाई!
तुम बेशक गुनाहगार हो,
पर मेरे दोस्त हो।
मित्र वर, सुनो एक अर्ज़
हम भूले न अपने फ़र्ज़
आजकल भूले जा रहे दायित्व
इनको निभाया जाना चाहिए।
सो समय रहते
हम गलती सुधार लें।

सुन, संभलना सीख
यह जीवन नहीं कोई भीख

यह मौका है बंदगी का,
यह अवसर है दरिंदगी से
निजात पाने का ।
परम के आगे शीश नवाने का।
आओ, प्रार्थना कर लें।
जाने अनजाने जो गुनाह हुए हैं हम से ,
उनके लिए आज प्रायश्चित कर लें ।
अपने सीने के अंदर दबे पड़े बोझ को हल्का कर लें।
   ९/६/२०१६.

Written by
वह  
कभी कभी मुझे
इंगित कर कहती है,
" देह में
आक्सीजन की कमी
होने पर
लेनी पड़ती है उबासी।"

पता नहीं,
वह सचमुच सच बोलती है
या फिर
कोतुहल जगाने के लिए
यों ही बोल देती अंटशंट,
जैसे कभी कभार
गुस्सा होने पर,
मिकदार से ज़्यादा पीने पर
बोल सकता है कोई भी।


मैं सोचता हूं
हर बार
आसपास फैले
ऊब भरे माहौल में
लेता है कोई उबासी
तो भर जाती है
भीतर उदासी।

मुझे यह तनिक भी
भाती नहीं।
लगता है कि यह तो
नींद के आने की
निशानी है।
यह महज़
निद्रा के आकर
सुलाने का
इक  इशारा भर है,
जिस से जिंदगी सहज
बनी रहती है।
वह अपना सफ़र
जारी रखती है।


पर बार बार की उबासी
मुझे ऊबा देती है।
यह भीतर सुस्ती भरती है।
मुझे इससे डर लगता है।
लगता है
ज़िंदगी का सफ़र
अचानक
रुक जाएगा,
रेत भरी मुट्ठी में से
रेत झर जाएगा।
कुछ ऐसे ही
आदमी
रीतते रीतते रीत जाता है!
वह उबासी लेने के काबिल भी
नहीं रह जाता है।

चाहता हूं... इससे पहले कि
उबासी मुझे उदास और उदासीन करे ।
मैं भाग निकलूं
और तुम्हें
किसी ओर दुनिया में मिलूं ।

वह
अब मुझे इंगित कर
रह रह कर कहती है,
" जब कभी वह  
अपनी प्राण प्रिय  के सम्मुख
उबासी लेती है, भीतर ऊब भर देती है।
उसके गहन अंदर
अंत का अहसास भरा जाता है।
फिर बस तिल तिल कर,
घुटन जैसी वितृष्णा का
मन में आगमन हो जाता है।
यही नहीं वह यहां तक कह देती है
कि उबासी के वक्त
उसे  सब कुछ
तुच्छ प्रतीत होता है।
जब कभी मुझे यह
उबासी सताती है,
मेरी मनोदशा बीमार सी हो जाती है।
जीने की लालसा
मरने लगती है।"

सच तो यह है कि
उबासी के आने का अर्थ है,
अभी और ज़्यादा  सोने की जरूरत है।
   अतः
पर्याप्त नींद लीजिए।
तसल्ली से सोया कीजिए।
बंधु, उबासी सुस्ती फैलाती है।
सो, यह किसी को भाती नहीं है।
इसका निदान,समय पर ‌सोना और जागना है।
उबाऊ, थकाऊ,ऊब भरे माहौल से भागना है।
३/८/२०१०.
अब
दोस्तों से
मुलाकात
कभी कभार
भूले भटके से
होती है
और
जीवन के बीते दिनों के
भूले बिसरे लम्हों की
आती है याद।

ये भूले बिसरे लम्हे
रचाना चाहते संवाद।
ऐसा होने पर
मैं अक्सर रह जाता मौन ।


आजकल
मैं बना हूं भुलक्कड़
मिलने, याद दिलाने,,..के बावजूद
कुछ ख़ास नहीं रहता याद
नहीं कायम कर पाता संवाद।

हां, कभी-कभी भीतर
एक प्रतिक्रिया होती है,
'हम कभी साथ साथ रहें हैं,
यकीन नहीं होता!
कसमें वादे करने और तोड़ने के जुर्म में
हम शरीक रहे हैं,
दोस्ती में हम शरीफ़ रहे हैं,
यकीन नहीं होता।'

अपने और जमाने की
खुद ग़र्ज हवा के बीच
        यारी  दोस्ती,
गुमशुदा अहसास सी
होकर रह गई है
एकदम संवेदनहीन!
और जड़ विहीन भी।


अब
दोस्तों से
मुलाकात
कभी कभार
अख़बार, रेडियो पर बजते नगमों,
टैलीविजन पर टेलीकास्ट हो रहे
इंटरव्यू के रूप में
होती है।
सच यह है कि
दोस्त की उपलब्धि से जलन,
अपनी  नाकामियों से घुटन,
आलोचक वक्त की मीठी मीठी चुभन,सरीखी
तीखी प्रतिक्रियाएं होती हैं भीतर
पर... अपने भीतर व्यापे शातिरपने की बदौलत,
सब संभाल जाता हूं...
खुद को खड़ा रख पाता हूं,बस!
खुद को समझा लेता हूं,

....कि समय पर नहीं चलता किसी का वश!!
यह किसी को देता यश, किसी को अपयश,बस!!

अब
कभी कभार
दोस्त, दोस्ती का उलाहना देते हुए मिलते हैं,
तो उनके सामने नतमस्तक हो जाता हूं
उन को हाथ जोड़कर,
उन से हाथ मिलाया,
और अंत में
नज़रों नज़रों से
फिर से मिलने के वास्ते वायदा करता हूं
भीतर ही भीतर
न मिल सकने का डर
सतत् सिर उठाता है, इस डर को दबा कर
घर वापसी के लिए
भारी मन से क़दम बढ़ाता हूं।
कभी कभी
दोस्तों से मुलाक़ात
किसी दुस्वप्न सरीखी होती है
एकदम समय की तेज तर्रार छुरी से कटने की मानिंद।
९/६/२०१६.
कम दाम में
बादाम खाने हों
तो बंदा चतुर होना चाहिए।

अधिक दाम दे कर
धक्के खाने हों
तो बंदा अति चतुर होना चाहिए।

एक बात कहूं
बंदा,जो सुन ले, सभी की
करे अपनी मर्ज़ी की ।
वह कतई न ढूंढना चाहे
किसी में ‌कोई भी कमी पेशी।
ऐसा इन्सान
न केवल सम्मान पाता है,
सभी से हंसी-मजाक कर पाता है,
बल्कि सभी की कसौटी पर खरा उतरता है।
ऐसा शख्स आज़ाद परिंदे सरीखा होता है,
जिससे दोस्ती का चाहवान हर कोई होता है।
ऐसा आदमी न केवल भाई की कमी हरता है,
बल्कि उसकी सोहबत से हर कोई खुशी वरता है।
मित्र वर! एक पते की बात कहूं,
वह शख्स मुझे तुम्हारे   जैसा लगता है।


दोस्त,
आज़ाद परिंदों की सोहबत कर
ताकि मिट सकें बेवजह के डर ।
कतई न अपनी आज़ादी
किसी आततायी के पास गिरवी रख ,
ताकि तुम अपनी मंजिल की तरफ़ बेख़ौफ़ सको बढ़ ।

१०/०६/२०१६.
आईना
जो दीवार से सटा था ,
अर्से से उपेक्षित सा टंगा था ।
जिस पर धूल मिट्टी पड़ती रही ,
संगी दीवार से पपड़ियां उतरती रहीं ।
आजकल बेहद उदासीन है ,
उसका भीतर अब हुआ गमगीन है ।
बेशक आसपास उसका बेहिसाब रंगीन है ।

आज बीते समय की याद में खोया है।


रूप
जो मनोहारी था,
मंत्र मुग्ध करता था ।
जो था कभी
सचमुच
आकर्षण से भरा हुआ,
अब हुआ फीका और मटमैला सा ।
तुम:  नाम में क्या रखा है?

मैं :सब कुछ!
   यह अदृश्य पहचान का जो ताज सब के सिर पर रखा है।
    यह नाम ही तो है।
तुम: ‌ठीक ।
  ‌    काम से होती है जिस की पहचान,वह नाम ही तो है।
      यह न मिले तो आदमी रहे परेशान, वाह,नाम ही तो है।
    ‌‌  जो सब को भटकाता है।
      ‌ ‌यह बेसब्री का बनता सबब।
मैं:सो तो है, नाम विहीन आदमी सोता रह जाता है।
‌     उस के हिस्से के मौके कोई अनाम खा जाता है।
      ऐसा आदमी मतवातर भीड़ में खो जाता है।
  तुम: खोया आदमी! सोया आदमी!!
        किसी काम धाम का नहीं जी!
        करो उसकी अस्मिता की खोज जी।
     ‌    कहीं हार न जाए, वह जीवन की बाजी।
   मैं : इससे पहले आदमी भीड़ में खो जाए ।
        उसकी भाड़ में जाए , वाली सोच बदली जाए।
        यही है उस   की मानसिकता में बदलाव लाने का
         तरीक़ा।
    तुम: सब कुछ सच सच कहा जी।
          क्या वह इसके लिए होगा राजी?
      मैं: आदमी जीवन में पहचान बनाने में जुटे ।
         इस के लिए वह अपनी जड़ों से नाता जोड़े ।
           ऐसी परिस्थिति पैदा होने से उसका वजूद बचेगा।
              वरना वह यूं ही मारा मारा भटकता फिरेगा।
कभी-कभी
झूठ मजबूर होकर
बोला जाता है,
उसे कुफ्र की हद तक तोला जाता है।
और कोई जब
इसे सुनने, मानने से
कर देता इन्कार,
तब उस पर  दबाव बनाया जाता है,
शिकंजा कसा जाता है।

ऐसे में
बचाव का
झट  से   एकमात्र उपाय
झूठ का सहारा  नजर आता है ,
ऐसा होने पर,
झूठ डूबते का सहारा होता है।
आदमी
जान हथेली पर रखकर
बेहिसाब दबाव से जूझते हुए
जान लेता है
जीवन का सच!
विडंबना देखिए!!
यह सच
नख से शिखा तक
झूठ से होता है
पूर्णतः सराबोर,
चाहकर भी आप जिसका
ओर छोर पकड़ नहीं पाते ,
भले ही आप कितने रहे हों विचलित।
कभी-कभी
झूठ,सच से ज़्यादा
रसूख और असर रखता है,
जब वह प्राण रक्षक बनता है।
आदमी झूठ का असर महसूस करता है।
ऐसे दौर में
झूठ,सच पर हावी होकर
विवेक तक को धुंधला देता है।
आदमी गिरावट का हो जाता शिकार।

सोचता हूं ...
आजकल कभी कभी
आखिर क्या है आदमी के भीतर कमी?
अच्छा भला, कमाता खाता ,
आदमी क्यों नज़र से गिर जाता है?

रख रहा हूं ,
अपने आसपास का घटनाक्रम।
जब झूठ
सच को
पूर्णतः ढकता है,
आदमी भीतर तक थकता है
और तब  तब
अन्याय का साम्राज्य फलता-फूलता है।

आजकल
लोग लोभी होकर
बहुत कुछ नज़र अंदाज़ करते हैं,
अपने अन्त की पटकथा को निर्देशित करते हैं।
प्यार, विश्वास
रही है हमारी दौलत
जिसकी बदौलत
कर रहे हैं सब
अलग अलग, रंग ढंग ओढ़े
विश्व रचयिता की पूजा अर्चना,
इबादत और वन्दना।

प्यार को हवस,
विश्वास को विश्वासघात
समझे जाने का खतरा
अपने कंधों पर उठाये
चल रहे हैं लोग
तुम्हारे घर की ओर!
तुम्हारे दिल की ओर!!

तू पगले! उन्हें क्यों रोकता है?
अच्छा है, तुम भी उनमें शामिल हो जा ।
अपने उसूलों , सिद्धांतों की
बोझिल गठरी घर में छोड़ कर आ ।
प्यार, विश्वास
रही है हमारी दौलत
जिसकी बदौलत
कर रहे हैं सब मौज ।
तुम भी इसकी करो खोज।
न मढ़ो, अपनी नाकामी का किसी पर दोष।
प्यारे समझ  लें,तू बस!
जीवन का सच
कि अब सलीके से जीना ही
सच्ची इबादत है।
इससे उल्ट चलना ही खाना खराबी है,
अच्छी भली ज़िन्दगी की बर्बादी है।
   ९/६/२०१६.
बिकती देह,
घटता स्नेह
यह सब क्या है?
यह सब क्या है?
शायद
यही स्वार्थ है!
हम निस दिन
करते रहते ढोंग,
कि पाना चाहते हैं परमार्थ।
परन्तु
पल प्रति पल
होते जाते हम उदासीन।
सभ्यता के जंगल में
यह है एक जुर्म संगीन।
जो बिकती देह
और बिखरते स्नेह के बीच
हमें सतत रहा है लील ।
जिसने आज़ादी, सुख चैन,
लिया है छीन।
यह कतई नहीं ठीक
हमारे वजूद के लिए।

मूल्य विघटन के दौर में
यदि संवेदना बची रहे
तो कुछ हद तक
न बिके देह बाजार में,
और न घटे स्नेह संसार में
बने रहें सब इन्सान निःसंदेह।
सच! हरेक को प्राप्त हो तब स्नेह,
जिसकी खातिर वह भटकता आया है
नाना विध ख्वाबों को बुनते हुए
वह स्वयं को भरमाता आया है,
जो रिश्तों को झूठलाया आया है।
और जिस के अभाव में
आज का इन्सान
निज देह और पर देह तक को
टुकड़ों टुकड़ों में
गिरवी रखता आया है !
आज उसने बाजार सजाया है!!
वो व्यापारी बना हुआ गली गली घूमता है।
अपने रिश्तों को नये नये नाम दे,
सरे बाजार बेचता पाया गया है।
मूल्य विहीन सोच वाला होकर
उसने खुद को
खूब सताया है।
उसने खुद को
कहां कहां नहीं
भटकाया है?
आज रिश्ते बिखरे गये हैं,
सभ्यता का मुलम्मा ओढ़े
हम जो निखर गये हैं।
बिखरे रिश्तों के बीच
हम एक संताप
मन के भीतर रखें
जर्जर रिश्तों को ढोते आ रहे हैं,
स्व निर्मित बिखराव में खोते जा रहे हैं,
जागे हुए होते हैं प्रतीत,
मगर सब कुछ समझ कर भी सोये हुए हैं।

  १०/०६/२०१६.
यह ठीक है कि
राजनीति
होनी चाहिए     लोक नीति ।

पर    लोक    तो   बहिष्कृत  हैं ,
राजनीति के      जंगल    में।

कैसे   जुटे...
आज       राजनीति   लोक मंगल   में  ?

क्या   वह    समाजवाद  के  लक्ष्य  को
अपने   केन्द्र   में  रख    आगे    बढे   ?
.....  या   फिर   वह   पूंजीवाद  से  जुड़े  ?
..... या   फिर  लौटे वह सामंती ढर्रे   पर  ?

आजकल  की   राजनीति
राजघरानों  की  बांदी   नहीं  हो   सकती   ।
न  ही  वह  धर्म-कर्म  की  दासी बन  सकती  ।
हां,  वह जन गण    के   सहयोग  से...
अपनी    स्वाभाविक   परिणति     चुने   ।

क्यों  न   वह ‌ ...
परंपरागत  परिपाटी  पर  न   चलकर
परंपरा    और    आधुनिकता  का  सुमेल  बने ‌?
वह  लोकतंत्र   का   सच्चा   प्रतिनिधित्व  करे  ?

काश  !  राजनीति  राज्यनीति  का  पर्याय  बन उभरे  ।
देश भर  में   लगें  न  कभी  लोक  लुभावन   नारे   ।
नेतृत्व   को  न   करने पड़ें जनता  जनार्दन से  बहाने ।
न  ही  लगें   धरने  ,  न  ही  जलें   घर ,  बाजार  ,  थाने ।

   १०/६/२०१६.
हे दर्पणकार! कुछ ऐसा कर।
दर्प का दर्पण टूट जाए।
अज्ञान से पीछा छूट जाए।
सृजन की ललक भीतर जगे।
हे दर्पणकार!कोई ऐसा
दर्पण निर्मित कर दो जी,
कि भीतर का सच सामने आ जाए।
यह सब को दिख जाए जी।

हे दर्पणकार!
कोई ऐसा दर्पण
दिखला दो जी।
जो
आसपास फैले आतंक से
मुक्ति दिलवा दे जी ।

हे दर्पणकार!
अपने दर्पण को
कोई आत्मीयता से
ओतप्रोत छुअन दो
कि यह जादुई होकर
बिगड़ों के रंग ढंग बदल दे,
उनके अवगुण कुचल दे ,
ताकि कर न सकें वे अल छल।
उनका अंतःकरण हो जाए निर्मल।

हे दर्पणकार!
तोड़ो इसी क्षण
दर्प का दर्पण ,
ताकि हो सके  
किसी उज्ज्वल चेतना से साक्षात्कार ,
और हो सके
जन जन की अंतर्पीड़ा का अंत,
इसके साथ ही
अहम् का विसर्जन भी।
सब सच से नाता जोड़ सकें,
जीवन नैया को
परम चेतना की ओर मोड़ सकें।
८/६/२०१६
ज्ञान विज्ञान के पंख लगा कर।
हम बच्चे उड़ेंगे उन्मुक्त होकर।।
    उड़ान से पूर्व,  बंधु
    ‌ करनी पड़ती तैयारी,
   ताकि न पड़े चुकानी
   जीवन में कीमत भारी।
ज्ञान विज्ञान के पंख लगा कर।
हम बच्चे उड़ेंगे उन्मुक्त होकर।।
विद्यालय के प्रांगण में,
गुरुजन करते लक्ष्य स्पष्ट।
जीवन के समरांगन में,
ताकि श्रम न हो नष्ट।।
ज्ञान विज्ञान के पंख लगा कर।
हम बच्चे उड़ेंगे उन्मुक्त होकर।।
शिक्षा आधार जीवन का,
हम इसे नींव बनायेंगे।
यह उत्तम फल जीवन का
इसे जीवन बगिया में उगायेंगे।।
ज्ञान विज्ञान के पंख लगा कर।
हम बच्चे उड़ेंगे उन्मुक्त होकर।।
  विपदा देश पर कभी पड़ी,
  हम एकजुट होंगे सभी।
   मातृभूमि की रक्षा में,
   हम प्राण वार देंगे सभी।।
ज्ञान विज्ञान के पंख लगा कर।
हम बच्चे उड़ेंगे उन्मुक्त होकर।।
   ‌
नाहक
नायक बनने की
पकड़ ली थी ज़िद।
अब
उतार चढ़ाव की तरंगों पर
रहा हूं चढ़ और उतर
टूटती जाती है
अपने होश खोती जाती है
अहम् से
जन्मी अकड़।

निरंतर
रहा हूं तड़प
निज पर से
ढीली होती जा रही है
पकड़।

एकदम
बिखरे खाद्यान्न सा होकर...
जितना भी
बिखराव को समेटने का
करता हूं प्रयास,
भीतर बढ़ती जाती
भूख प्यास!
अंतस में सुनाई देता
काल का अट्टहास!!
  १३/१०/२००६.
शुक्र है ...
संवेदना अभी तक बची है,
मौका परस्ती और नूराकुश्ती ने,
अभी नष्ट नहीं होने दिया
देश और इंसान के
मान सम्मान को।
सो शुक्रिया सभी का,
विशेषकर नज़रिया बदलने वालों का।
देश,दुनिया में बदलाव लाने वालों का।।

शुक्रिया
कुदरत तुम्हारा,
जिसने याद तक को भी
प्यासे की प्यास,
प्यारे के प्यार की शिद्दत से भी बेहतर बनाया।
जिससे इंसान जीव जीव का मर्म ग्रहण कर पाया।

शुक्रिया
प्रकृति(स्वभाव)तुम्हारा
जिसने इंसानी फितरत के भीतर उतार,
उतार,चढ़ाव  भरी जीवन सरिता के पार पहुँचाया।
तुम्हारी देन से ही मैं निज अस्मिता को जान पाया।

शुक्रिया
प्रभु तुम्हारा
जिन्होंने प्रभुता की अलख
समस्त जीवों के भीतर, जगाकर
उनमें पवित्र भाव उत्पन्न कर,जीवन दिशा दिखाई ।
तुम्हारे सम्मोहक जादू ने अभावों की, की भरपाई ।
    

शुक्रिया
इंसान तुम्हारा
जिसने भटकन के बावजूद
अपनी उपस्थिति सकारात्मक सोच से जोड़ दर्शाई।
तुम्हारे ज्ञान, विज्ञान, जिज्ञासा, जिजीविषा ने नित नूतन राह दिखाई।

शुक्रिया! शुक्रिया!! शुक्रिया!!!
शुक्रिया कहने की आदत अपनाने वाले का भी शुक्रिया!
जिसने हर किसी को पल प्रति पल आनंदित किया,
सभी में उल्लास भरा ।
हर चाहत को राहत से हरा भरा किया।

७/६/२०१६.
अब तो बस!
यादों में
खंडहर रह गए।
हम हो बेबस
जिन्दगी में
लूटे, पीटे, ठगे रह गए।
छोटे छोटे गुनाह
करते हुए
वक़्त के
हर सितम को सह गए।

पर...
अब सहन नहीं होता
खड़े खड़े
और
धराशाई गिरे पड़े होने के
बावजूद
हर ऐरा गेरा घड़ी दो घड़ी में
हमें आईना दिखलाए,
शर्मिंदगी का अहसास कराए,
मन के भीतर गहरे उतर नश्तर चुभोए
तो कैसे न कोई तिलमिलाए !
अब तो यह चाहत
भीतर हमारे पल रही है,
जैसे जैसे यह जिंदगी सिमट रही है
कि कोई ऐसा मिले जिंदगी में,
जो हमें सही डगर ले जाए।
बेशक वह
रही सही श्वासों की पूंजी के आगे
विरामचिन्ह,प्रश्नचिन्ह,विस्मयादि बोधक चिन्ह लगा दे ।
बस यह चाहत है,
वह मन के भीतर
जीने ,मरने,लड़ने,भटकने,तड़पने का उन्माद जगा दे।
९/६/२०१६.
जीवन की ऊहापोह और आपाधापी के बीच
किसी निर्णय पर पहुँचना है
यकीनन महत्वपूर्ण।
....और उसे जिन्दगी में उतारना
बनाता है हमें किसी हद तक पूर्ण।

कभी कभी भावावेश में,
भावों के आवेग में बहकर
अपने ही निर्णय पर अमल न करना,
उसे सतत नजरअंदाज करना,
उसे कथनी करनी की कसौटी पर न कसना,
स्वप्नों को कर देता है चकनाचूर ।
समय भी ऐसे में लगने लगता, क्रूर।

कहो, इस बाबत
तुम्हें क्या कहना है?
यही निर्णय क्षमता का होना
मानव का अनमोल गहना है।
यह जीवन को श्रेष्ठ बनाना है।
जीवन में गहरे उतर जाना है ।
जीवन रण में
स्वयं को सफल बनाना है।
   ८/६/२०१६.
मौत को मात
अभी तक
कौन दे पाया?

कोई विरला
इससे पंजे लड़ाकर,
अविचल खड़ा रहकर
लौट आता है
जीवन धारा में
कुछ समय बहने के लिए।

बहुत से सिरफिरे
मौत को मात देना चाहकर भी
इसके सम्मुख घुटने टेक देते हैं।
मौत का आगमन
जीवन धारा के संग
बहने के लिए
अपरिहार्य है!
सब जीवों को
यह घटना स्वीकार्य है!!

कोई इसे चुनौती नहीं दे पाया।
सब इसे अपने भीतर बसाकर,
जीवन की डोर थाम कर ,
चल रहे हैं...अंत कथा के समानांतर ,
होने अपनी कर्मभूमि से यकायक छूमंतर।

महाकाल के विशालकाय समन्दर में
सम्पूर्ण समर्पण और स्व विसर्जन के
अनूठे क्षण सृजित कर रहे ,
जीवन से प्रस्थान करने की घटना का चित्र
प्रस्तुत करते हुए एक अनोखी अंतर्कथा।
मान्यता है यह पटकथा तो
जन्म के साथ ही लिखी जाती है।
इस बाबत आपकी समझ क्या कहती है?
प्रिया!

मैं
तुम्हारे
मन के भावों को चुराकर,
तुम्हारे
कहने से पहले,
तुम्हारे
सम्मुख व्यक्त करना चाहता हूँ।
..... ताकि
तुम्हारी
मुखाकृति पर
होने वाले प्रतिक्षण  
भाव परिवर्तन को
पढ़ सकूँ ,
तुम्हें  हतप्रभ
कर सकूँ ।

तुम्हारे भीतर
उतर सकूँ ।
तुम्हारी और अपनी खातिर ही
बेदर्द ,  बेरहम दुनिया से
लड़ सकूँ ।


तुम्हारा ,
अहसास चोर !!

८/६/२०१६..
सबके भीतर से
बेहतर बहे,
इस के लिए
हर कोई
न केवल दुआ करे,
बल्कि
प्रयास भी करे ,
.....
ताकि
जीवन जीवंत लगे,
जिंदगी
बेहतरी की ओर बढ़े।

हर कोई
दुआ दिल से करे,
न कि खुद और गैरों को छले
ताकि
यह दुनिया
प्यार और विश्वास की
सुरक्षा छतरी बने ।

सब के भीतर से
सच का मोती बहे ,
सब सहिष्णु बनें।
आओ! आज कुछ नया करें।
आशा और विश्वास के संग
जीवन के नित्य नूतन क्षितिज छूएं।
सब सहिष्णु बने।
अब तो सभी पर यह सुरक्षा छतरी तने।
८/६/२०१६.
देवों को,देवियों को,
छप्पन भोग लगाने का
जीवन के मन मंदिर में
रहा है चलन।
उसका वश चले
तो वह फास्ट फूड को भी
इसमें कर ले शामिल।
वह खुद को नास्तिक कहता है,यही नहीं अराजक भी।
वह जन संवेदना को नकार
बना बैठा है एहसासों का कातिल।
जो दुनिया भर पर कब्जा करना चाहता है।
भविष्य का तानाशाह होना चाहता है।
वह कोई और नहीं, तुम्हारे ही नहीं, सब में मौजूद
घना अज्ञान का अंधेरा है।
इससे छुटकारा पा लोगे
तो ही होगा ज्ञान का सूरज उदित।
मन भी रह पाएगा मुदित।
आदमी के लिए
छप्पन भोग
फास्ट फूड से छुटकारा पा लेना है।
देखिए,कैसे नहीं ,उसकी सेहत सुधरती?
बेशक
तुमने जीवन पर्यन्त की है
सदैव नेक कमाई
पर
आज आरोपों की
हो रही तुझ पर बारिश
है नहीं तेरे पास,

कोई सिफारिश
खुद को पाक साफ़
सिद्ध किए जाने की ।
फल
यह निकला
तुम्हें मिला अदालत में आने
अपना बयान दर्ज़ करने के लिए
स्वयं का पक्ष रखने निमित्त
फ़रमान।
अब श्री मान
कटघरे में
पहुँच चुकी है साख।
यहाँ निज के पूर्वाग्रह को
ताक पर रख कर कहो सच ।
निज के उन्माद को थाम,
रखो अपना पक्ष, रह कर निष्पक्ष।
यहाँ
झूठ बोलने के मायने हैं
अदालत की अवमानना
और इन्साफ के आईने से
मतवातर मुँह चुराना,
स्वयं को भटकाना।
मित्र! सच कह ही दो
ताकि/ घर परिवार की/अस्मिता पर
लगे ना कोई दाग़।
आज
कटघरे में
है साख।
न्याय मंदिर की
इस चौखट से
तो कतई न भाग!
भगोड़े को बेआरामी ही मिलती है।
भागते भागते गर्दनें
स्वत: कट जाया करती हैं ,
कटे हुए मुंड
दहशत फैलाने के निमित्त
इस स्वप्निल दुनिया में
अट्टहास किया करते हैं।
आतंक को
चुपचाप
नैनों और मनों में भर दिया करते हैं।
कोई
बरसात के मौसम की तरह
बिना वज़ह
मुझ पर
बरस गया।
सच! मैं सहानुभूति को
तरस गया,
यह मिलनी नहीं थी।
सो मैं खुद को समझा गया,
यहाँ अपनी लड़ाई
अपने भीतर की आग़ धधकाए रख कर
लड़नी पड़ती है।

अचानक
कोई देख लेने की बात कर
मुझे टेलीफ़ोन पर
धमकी दे गया।
मैं..... बकरे सा
ममिया कर रह गया,
जुर्म ओ सितम सह गया।
कुछ पल बाद
होश में आने के बाद
धमकी की याद आने के बाद
एक सिसकी भीतर से निकली।
उस पल खुद को असहाय महसूस किया।

जब तब यह धमकी
मेरी अंतर्ध्वनियों पर
रह रह हावी होती गई,
भीतर की बेचैनी बढ़ती गई।

समझो बस!
मेरा सर्वस्व आग बबूला हो गया।

मैंने उसे ताड़ना चाहा,
मैने उसे तोड़ना चाहा।
मन में एक ख्याल
समय समंदर में से
एक बुलबुले सा उभरा,
...अरे भले मानस !
तुम सोचो जरा,
तुम उससे कितना ही लड़ो।
उसे तोड़ो या ताड़ना दो।
टूटोगे तुम ही।
बल्कि वह अपनी बेशर्म हँसी से
तुम्हे ही रुलाएगा और करेगा प्रताड़ित
अतः खुद पर रोक लगाओ।
इस धमकी को भूल ही जाओ।
अपने सुकून को अब और न आग लगाओ।
वो जो तुम्हारे विरोध पर उतारू है,
सिरे का बाजारू है।
तुम उसे अपशब्द कह भी दोगे ,तो भी क्या होगा?
वो खुद को डिस्टर्ब महसूस कर
ज़्यादा से ज़्यादा पाव या अधिया पी लेगा।
कुछ गालियां देकर
कुछ पल साक्षात नरक में जी लेगा।

तुम रात भर सो नहीं पाओगे।
अगले दिन काम पर
उनींदापन झेलते हुए, बेआरामी में
खुद को धंसा पाओगे।

यह सब घटनाक्रम
मुझे अकलमंद बना गया।

एक पल सोचा मैंने...
अच्छा रहेगा
मैं उसे नजरअंदाज करूँ।
खुद से उसे न छेड़ने का समझौता करूँ ।
यूं ही हर पल घुट घुट कर न मरूं ।
क्यों न मैं
उस जैसी काइयां मानस जात से
परहेज़ करूँ।
२७/०७/२०१०.
E
सूरज के उदय और अस्त के
अंतहीन चक्र के बीच
तितली
जिंदगी को
बना रही है आकर्षक।
यह
पुष्पों, लताओं, वृक्षों के
इर्द गिर्द फैली
सुगन्धित बयार के संग
उड़ती
भर रही है
निरन्तर
चेतन प्राणियों के घट भीतर
उत्साह,उमंग, तरंग
ताकि कोई असमय
ना जाए
जीवन के द्वंद्वों, अंतर्द्वंद्वों से हार
और कर दे समर्पण
जीवन रण में मरण वर कर।

तितली को
बेहतर ढंग से
समझा जा सकता है
उस जैसा बन कर।
जैसे ही जीवन को
जानने की चाहत
मन के भीतर जगे
तो आदमी डूबा दे
निज के पूर्वाग्रह को
धुर गहन समंदर अंदर
अपने को जीवन सरिता में
खपा दे,...अपनी सोच को
चिंतन के समन्दर सा
बना दे।


और खुद को
तितली सा उड़ना
और...
उड़ना भर ही
सिखा दे।

वह
अपने समानांतर
उड़ती तितली से
कल्पना के पंख उधार लेकर
अपने लक्ष्यों की ओर
पग बढ़ा दे।
चलते चलते
स्वयं को
इस हद तक थका दे, वह तितली से
प्रेरणा लेकर
अपने भीतर आगे बढ़ने,
जीवन रण में लड़ने,उड़ने का जुनून भर ले।
अपने अंदर प्रेरणा के दीप जगा ले।
जीवन बगिया में खुद को तितली सा बना ले।
5d · 22
Waiting
Dead bodies are   waiting
for creameation in the battlefield of life.
But nobody is available near them to clean and clear their scattered body parts.
All are busy in their routine activities.
How can they take care of them ?
There is no information regarding their death.There is no rhythm,no movements ,no feelings in their deadly surrounding.
They all are victims.... living or dead...of an insensitive world.


Among them
we also are some ones who have completely  forgotten their sincere efforts and sensitiveness.
We have lost our credibility for them...
who has lost their lives for the petty interests of their countrymen.
तुम लड़ो
व्यवस्था के ख़िलाफ़
पूरे आक्रोश के साथ।
लड़ने के लिए
कोई मनाही नहीं,
बशर्ते तुम उसे एक बार
तन मन से समझो सही।


यकीनन
फिर कभी
होगी अनावश्यक
तबाही नहीं।


तुम लड़ो
अपनी पूरी शक्ति
संचित कर।

तुम बढ़ो
विजेता बनने के निमित्त।
पर, रखो
तनाव को, अपने से दूर
ताकि हो न कभी
घुटने तकने को मजबूर।
करो खुद को
भीतर से मजबूत।


तुम
अपने भीतर व्याप्त
अज्ञान के अंधेरे से लड़ो।
तुम
शोषितों के पक्ष में खड़े रहो।
तुम
अपने अंतर्मन से
करो सहर्ष साक्षात्कार
ताकि प्राप्त कर सको
अपने मूलभूत अधिकार।

लड़ने, कर्तव्य की खातिर
मर मिटने का लक्ष्य लिए
तुम लड़ो,बुराई से सतत।
तुम बांटो नहीं, जोड़ो।

तुम जन सहयोग से
प्रशस्त करो जीवन पथ।
तुम्हारे हाथ में है
संघर्ष रूपी मशाल।
यह सदैव रोशन रहे।
तुम्हारी लड़ाई
परिवर्तन का आगाज़ करे।

तुम लड़ो, कामरेड!
करो खुद को दृढ़ प्रतिज्ञा से
स्थिर, संतुलित,संचक, सम्पूर्ण
कि...कोई टुच्चा तुम्हें न सके छेड़।
कोई आदर्शों को समझे न खेल भर।
तुम सिद्ध करो,
आन ,बान,शान की खातिर
कुर्बानी दे सकने का
तुम्हारे भीतर जज़्बा है,
संघर्ष का तजुर्बा है।
नन्ही सी गुड़िया सल्लू
अपने मामा के हाथ पर हल्के से मार,
"हुआ दर्द?"
"बिल्कुल नहीं। "
सोचा मैंने...
पर यदि वह
मां,बाप,बड़ों का
कहा नहीं मानेगी
तो होगा बेइंतहा दर्द!...

मेरी अपनी बिटिया
गुड्डू पूछती है पापा से
गोदी में चढ़े चढ़े,
"भगवान् बच्चों की
रक्षा करते हैं न पापा?
भगवान् बच्चों की
बातों को मानते हैं न पापा!"
"बिल्कुल ।"
सोचा मैंने...
पर यदि वह
माँ,बाप, बड़ों की
करेगी अवहेलना,
तो जिन्दगी में
उसे अपमान पड़ेगा झेलना।


छोटू सा काकू
मियां प्रणव से
पूछते हैं पापा,
" कितनी चीज़ी लेगा,तू?"
वह कहता है,"दो ।"
सोचता हूँ...
यदि वह करेगा शरारत कभी।
गोविंदा की फिल्म सरीखा होकर
घरवाली, बाहरवाली के चक्कर में पड़
तो जिन्दगी उसे कर देगी बेघर,
अनायास जिन्दगी देगी थप्पड़ जड़।


नन्हा सा पुनीत
उर्फ़ गोलू
अपनी माँ की गोदी में
लेटा हुआ कर रहा दुग्ध पान।

वह अभी शिशु है
बोल सकता नहीं,
अपनी बात रख सकता नहीं।
शायद सब कुछ जान कह रहा हो
चुप रह कर,
"अरे मामा!इधर उधर न भटक
मेरी तरह अपनी आत्मा को शुद्ध रख
ना कि दुनियावी प्रदूषण में हो लिप्त।

समय यह लीला देख समझ मुस्करा कर रह गया।
आसपास की जिन्दगी खामोश हँसी का जलवा दिखाकर मचलने लगी।
बच्चे मस्त थे और...उनसे बातें करने वाला एकदम अनभिज्ञ।
अर्थ
शब्द की परछाई भर नहीं
आत्मा भी है
जो विचार सूत्र से जुड़
अनमोल मोती बनती है!
ये
दिन रात
दृश्य अदृश्य से परे जाकर
मनो मस्तिष्क में
हलचलें पैदा करते हैं,
ये मन के भीतर उतर
सूरज की सी रोशनी और ऊर्जा भरते हैं।


अर्थ
कभी अनर्थ नहीं करता!
बेशक यह मुहावरा बन
अर्थ का अनर्थ कर दे!
यह अपना और दूसरों का
जीना व्यर्थ नहीं करता!!
बल्कि यह सदैव
गिरते को उठाता है,
प्रेरक बन आगे बढ़ाने का
कारक बनता है।
इसलिए
मित्रवर!
अर्थ का सत्कार करो।
निरर्थक शब्दों के प्रयोग से
अर्थ की संप्रेषक
ध्वनियों का तिरस्कार न करो।
अर्थ
शब्द ब्रह्म की आत्मा है ,
अर्थानुसंधान सृष्टि की साधना है ,
सर्वोपरि ये सर्वोत्तम का सृजक है।
ये ही मृत्यु और जीवन से
परे की प्रार्थनाएं निर्मित करते हैं।

तुम अर्थ में निहित
विविध रंगों और तरंगों को पहचानो तो सही,
स्वयं को अर्थानुसंधान के पथ का
अलबेला यात्री पाओगे।
अपने भीतर के प्राण स्पर्श करते हुए
परिवर्तित प्रतिस्पर्धी के रूप में पहचान बनाओगे।
दिन भर की थकी हुई वह बेचारी ,
जी भर कर सो भी नहीं सकती।
पता नहीं,वह पत्नी है या बांदी?
शायद विवाहिता यह सब नहीं सोचती।
6d · 26
तलाश
समय को
तलाश है
उस पीढ़ी की ।
जिसने पकड़ी न हो,
आगे बढ़ने की खातिर
भ्रष्टाचार की सीढ़ी।
जिस्म
सर्द मौसम में
तपती आग को
ढूंढना है चाहता।

जिस्म
गर्म मौसम में
बर्फ़ सरीखी
शीतलता है चाहता।

जिस्म
अपनी मियाद
पूरी होने पर
टूट कर बिखर है जाता।

नष्ट होने पर
उसे जलाओ या दफनाओ,
चील,गिद्ध, कौओं को खिलाओ।
क्या फ़र्क पड़ता है?
क्यों न उसे दान कर पुण्य कमाओ!
क्या फ़र्क पड़ता है?
जगत तो अपने रंग ढंग से
प्रगति पथ पर बढ़ता है ।
शब्द
कुछ कहते हैं सबसे,
हम अनंत काल से
समय सरिता के संग
बह रहे हैं।

कोई
हमें दिल से
पकड़े तो सही,
समझे तो सही।
हम खोल देंगे
उसके सम्मुख
काल चेतना की बही।

कैसे न कर देंगे हम
जीवन में,आमूल चूल कायाकल्प।
भर दें, जीवन घट के भीतर असीम सुख।
२६/१२/२००८.
देह से नेह कर ,
मगर
इस राह में
ख़तरे बहुत हैं !!
यह
कुछ कुछ
मन के परिंदे के
पंख कुतरने जैसा है,
वह उड़ने के दिवास्वप्न ले जरूर,
मगर
परवाज़ पर
पाबंदी लगा दी जाए।

इसलिए
देह से नेह करने पर
नियंत्रण
व्यक्ति के लिए
बेहद ज़रूरी है।
हाँ,यह भी एक सच है
कि देह से नेह रखने पर
उल्लासमय हो जाता है जीवन,
वह
बाहर भीतर से
होता जाता है दृढ़
इस हद तक
कि यदि तमाम सरहदें तोड़ कर
बह निकले
जज़्बात की नदी
तो कर सकता है वह
निर्मित
उस दशा में
अटल रह,
जीवन रण में
जूझने में सक्षम तट बंध
भले ही
देह में नेह रहना चाहे
निर्बंधन !
यानिकि
सर्वथा सर्वथा बन्धन मुक्त!!


देह से नेह
अपनी सोच की सीमा में रह कर,कर।
ताकि झेलना न पड़ें संताप!
करना न पड़े पल प्रति पल प्रलाप!!

वैसे
सच यह है...
यह सब घटित हुआ नहीं, कि तत्काल
मानस अदृश्य बन्धन में बंधता जाता है।
वह
आज़ादी,सुख की सांस लेना तक भूल जाता है।
काल का कपाल उस की चेतना पर हावी होता जाता है।

इसलिए
मनोज और रति का जीवन प्रसंग
हमें अपनी दिनचर्या में
बसाए रखना अपरिहार्य हो जाता है।
नियंत्रित जीवन
देह से नेह में चटक रंग भरता है !
रंगीले चटकीले रंगों से ही यौवन निखरता है!!
   १७/११/२००९.
हे मेरे मन!
अब और न करो निर्मित
बंधनयुक्त घेरे
स्वयं की कैद से
मुझे इस पल
मुक्त करो।
अशांति हरो।

हे मन!
तुमने मुझे खूब भटकाया है,
नित्य नूतन चाहतों को जन्म दे
बहुत सताया है।
अब
मैं कोई
भ्रांति नहीं, शान्ति चाहता हूँ।
जर्जर देह और चेहरे पर
कांति चाहता हूँ।
देश समाज में क्रांति का
आकांक्षी हूँ।

हे मेरे मन!
यदि तुम रहते शांत हो
तो बसता मेरे भीतर विराट है
और यदि रहते कभी अशांत हो
तो आत्म की शरण स्थली में,
देह नेह की दुनिया में
होता हाहाकार है।

हे मन!
सर्वस्व तुम्हें समर्पण!
तुम से एक अनुरोध है
अंतिम श्वास तक
जीवन धारा के प्रति
दृढ़ करते रहो पूर्व संचित विश्वास।
त्याग सकूँ
अपने समस्त दुराग्रह और पूर्वाग्रह ,
ताकि ढूंढ सकूँ
तुम्हारे अनुग्रह और सहयोग से
सनातन का सत्य प्रकाश,
छू सकूँ
दिव्य अनुभूतियुक्त आकाश।

हे मेरे मन!
अकेले में मुझे
कामनाओं के मकड़जाल में
उलझाया न करो।
तुम तो पथ प्रदर्शक हो।
भूले भटकों को राह दिखाया करो।
अंततः तुम से विनम्र प्रार्थना है...
सभी को अपनी दिव्यता और प्रबल शक्ति के
चमत्कार की अनुभूति के रंग में रंग
यह जीवन एक सत्संग है, की प्रतीति कराया करो।
बेवजह अब और अधिक जीवन यात्रा में भटकाया न करो।


हे मेरे मन!
नमो नमः

मन मंदिर में सहजता से
प्रवेश करवाया करो,
सब को सहज बना दरवेश बनाया करो।
सभी का सहजता से साक्षात्कार कराया करो,
हे मन के दरवेश!
अब
कभी कभी
झूठ
बोलने की
खुजली
सिर उठाने
लगी है।
जो सरासर
एक ठगी है।

अक्सर
सोचता हूँ,
कौन सा
झूठ कहूँ?
... कि बने न
भूले से कभी भी
झूठ की खुजली
अपमान की वज़ह।
होना न पड़े
बलि का बकरा बन
बेवजह
दिन दिहाड़े
झूठे दंभ का शिकार।
न ही किसी दुष्ट का
कोप भाजन
पड़े बनना
  और कहीं
लग न जाए
घर के सामने
कोई धरना।

अचानक
उठने लगता है
एक ख्याल,
मन में फितूर बन कर

अतः कहता हूँ...
चुपके से , खुद को ही,
एक नेता जी
जो थे अच्छे भले
मंहगाई के मारे
दिन दिहाड़े
चल बसे!
(बतौर झूठ!!)

आप सोचेंगे
एक बार जरूर
... कि नेता मंहगाई से
लाभ उठाते हैं,
वे भ्रष्टाचार के बूते
माया बटोर कर
मंहगाई को लगाते हैं पर!
फिर वे कैसे
मंहगाई की वज़ह से
चल बसे।

मैं झूठ बोलकर
अपनी खारिश
मिटाना चाहता था
कुछ इस तरह कि...
लाठी भी न टूटे,
भैंस भी बच जाए,
और चोर भी मर जाए।

इस ख्याल ने
रह रह कर सिर उठाया।
मैंने भी मंहगाई की आड़ ले
तथा कथित नेता जी को
जहन्नुम जा पहुंचाया।
कभी कभी
झूठ भी अच्छा लगता है
सच की तरह।
(है कि नहीं?)
बहुत से मंहगाई त्रस्त
जरूर चाहते होंगे कि...
आदमी झूठ तो बोले
मगर उसकी टांगें
छुटभैये नेता के
गुर्गों के हाथों न टूटें!
बल्कि मन को मिले
कैफ़ियत, खैरियत के झूले।


अब जब कभी भी
झूठ बोलने की खुजली
सिर उठाने लगती है,
मुझे बेशर्म मानस को
शिकार बनाने का
करने लगती है इशारा।
मैं खुद को काबू में करता हूँ।
मुझे भली भांति विदित है,
झूठ हमेशा मारक होता है,
भले वह युद्ध के मैदान में
किसी धर्मात्मा के मुखारविंद से निकला हो।
झूठ के बाद की ठोकरें
झूठे सच्चे को सहज ही
अकलबंद से अकलमंद बना देती हैं,
झूठ की खुजली पर लगाम लगा देती हैं।
किसे लिखें ?
अपने हाल ए दर्द की तफ़्सील।
महंगाई ने कर दिया
अवाम का फटे हाल।


पिछले साल तक
चार पैसे खर्च के बावजूद
बच जाते थे!
तीज त्योहार भी
मन को भाते थे!!

अब त्योहार की आमद पर
होने लगी है घबराहट
सब रह गए ठाठ बाठ!
डर दिल ओ दिमाग पर
हावी हो कर, करता है
मन की शांति भंग!
राकेट सी बढ़ती महंगाई ने
किया अब सचमुच नंग!
अब वेतनभोगी, क्या व्यापारी
सब महंगाई से त्रस्त एवं तंग!!
किस से कहें?
अपनी बदहाली का हाल!
अब तो इस महंगाई ने
बिगाड़ दी है अच्छे अच्छों की चाल!
सब लड़खड़ाते से, दुर्दिनों को कोसते हैं
सब लाचारी के मारे हैं!
बहुत जल्दी बन बैठे बेचारे हैं!!
सब लगने लगे थके हारे हैं!!
कोई उनका दामन थाम लो।
कहीं तो इस मंहगाई रानी पर लगाम लगे ।
सब में सुख चैन की आस जगे।
  १६/०२/२०१०.
मूल्य विघटन के
दौर में
नहीं चाहते लोग जागना ,
वे डरते हैं
तो बस
भीतरी शोर से।

बाह्य शोर
भले ही उन्हें
पगला दे!
बहरा बना दे!!
ध्वनि प्रदूषण में
वे सतत इज़ाफ़ा करते हैं।
बिन आई मौत का
आलिंगन करते हैं।
पर नहीं चेताते,
न ही स्वयं जागते,
सहज ही
वे बने
रहते घाघ जी!
मूल्य विघटन के
दौर में
बुराई और खलनायकों का
बढ़ रहा है दबदबा और प्रभाव,
और...
सच, अच्छाई और सज्जनों का
खटक रहा है अभाव।
लोग
डर, भय और कानून
जड़ से भूले हैं,
आदमियत के पहरेदार तक
अब बन बैठे
लंगड़े लूले हैं।
कहीं गहरे तक पंगु!
वे लटक रहे हवा में
बने हुए हैं त्रिशंकु!!
अब
कहना पड़ रहा है
जनता जनार्दन की बाबत,
अभी नहीं जगे तो
शीघ्र आ जाएगी सबकी शामत।
लोग /अब लगने लगे हैं/ त्रिशंकु सरीखे,
जो खाते फिरते
बेशर्मी से धक्के!
घर,बाहर, बाजारों में!!
त्रिशंकु सरीखे लोग
कैसे मनाए अब ?
आदमियत की मृत्यु का शोक!
जड़ विहीन, एकदम संवेदना रहित होंगे
उन्हें  हो गया है विश्व व्यापी रोग!!
   १६/०२/२०१०.
वक़्त से पहले
गुनाहगार
कब जागते हैं?
वे तो निरंतर
जुर्म करने,
मुजरिम बनने की खातिर
दिन रात शातिर बने से भागते हैं।

वक़्त आने पर
वे सुधरते हैं,
नेक राह पर
चलने की खातिर
पल पल तड़पते हैं!

कभी कभी
अपने गुनाहों के साए से
लड़ते हैं,
अकेले में सिसकते हैं।

पर वक़्त
उनकी ज़बान पर
ताला जड़
उन्हें गूंगे बनाए रखता है।
सच सुनने की ताकत से
मरहूम रखकर
उन्हें बहरा करता है।

वक़्त आने पर,
सच है...
वे भीतर तक
खुद को
बदल पाते हैं

अक्सर
वे स्वयं को
अविश्वास से
घिरा पाते हैं।
वे पल पल पछताते हैं,
वे दिन रात एक कर के
पाक दामन शख़्स ढूंढते हैं,
जो उन्हें  मुआफ़ करवा सके,
दिल के चिरागों को
रोशन कर सकें,
जीवन के सफ़र में
साथ साथ चल सकें।
आखिरकार
खुद और खुदा पर यक़ीन करना
उनके भीतर आत्मविश्ववास भरता है
जो क़यामत तक  
उनके भीतर जीवन ऊर्जा
बनाए रखता है,
उन्हें जिंदा रखता है,
ताकि वे जी भर कर पछता सकें!
वे खुद को कुंदन बना सकें !!

२१/०४/२००९
सन २०२३और २०२४ के दौर में राजनीति
नित्य नूतन खेल ,खेल रही है।  
मेरे शब्दकोश में एक नया शब्द " खेला" शामिल हुआ है। समसामयिक परिदृश्य में राजनीति करने वाले सभी दल
उठा पटक के खेल में मशगूल हैं।
सन २००५ में
लिखे शब्द उद्धृत कर रहा हूँ....,
"इन दिनों
एक अजब खेल खेलता हूँ...
जिन्हें/ मैं/दिल से/चाहता नहीं ,
उनके संग/सुबह और शाम
जिंदगी की गाड़ी ठेलता हूँ!
अपनी बाट मेल ता हूँ।"

आप ही बतलाइए
२००५ से लेकर २०२४ में क्या परिवर्तन हुआ है ?
या बस / व्यक्ति,परिवार,समाज और राजनीति में/
नर्तन ही हुआ है ।
उम्मीद है ,यह सब ज़ारी रहने वाला है।
याद रखें,अच्छा समय आने वाला है।
वो अब इतना अच्छा लिखेगा,
कभी सोचा न था।
अब लिख ही लिया है
उसने अच्छा
तो क्यों न उसकी बड़ाई करें!
क्यों क्षुद्रता दिखा कर
उससे शत्रुता मोल लें ?
वो अब इतना अच्छा है कि पूछो मत
हम सब उसके पुरुषार्थ से सौ फ़ीसदी सहमत।
सुनिए,उसका सुनियोजित तौर तरीका और सच ।

अब उसने अपने वजूद को
उनकी झोली में डाल दिया है ।
आतंक भरे दौर में
वे अपने भीतर के डर ,
उसकी जेब में भर
उसे खूब फूला रहें हैं,
उसके अहम के गुब्बारे को
फोड़ने की हद तक ।

पता नहीं!
वो कब फटने वाला है?
वैसे उसके भीतर गुस्सा भर दिया गया है।
वो अब इतना बढ़िया लिखता है,
लगता , सत्ताधीशों पर फब्तियां कसता है।
पता नहीं कब, उसे इंसान से चारा बना दिया जाएगा।
कैसी
नासमझी भरी
सियासत है यह।
भीड़ भरी
दुनिया के अंदर तक
जन साधारण को
महंगाई से भीतर ही भीतर
त्रस्त कर
भयभीत करो
इस हद तक कि
जिंदगी लगने लगे
एक हिरासत भर।


कैसी
नासमझी भरी
हकीकत है यह कि
विकास के साथ साथ
महंगाई का आना
निहायत जरूरी है।

कैसी
शतरंज के बिसात पर
अपना वजूद
जिंदा रखने की कश्मकश के
दौर में
नेता और अफसरशाही की
मूक सहमति से
गण तंत्र दिवस के अवसर पर
बस किराया
यकायक बढ़ा दिया जाता है।
आम आदमी को लगता है कि
उसकी आज़ादी को काबू में करने के लिए
उसकी आर्थिकता पर
अधिभार लगा दिया गया है।

शर्म ओ हया के पर्दे
सत्ता की दुल्हनिया सरीखे
झट से गिराने को तत्पर
नेतृत्व शक्तियां!
किश्तीनुमा टोपियां!!
धूमिल और उज्ज्वल पगडंडियां!!!
कुछ तो शर्म करो।
गणतंत्र के मौके पर
मंहगाई का तोहफ़ा तो न दो।
तोहफ़ा देना ही है
तो एक दिन आगे पीछे कर के दे दो!
ताकि टीस ज़्यादा तीव्र महसूस न हो।
महसूस करना,
शिद्दत से महसूस कराना,
एक अजब तोहफ़ा नहीं तो क्या है?
यहां सियासत के आगे सब सियाह है, स्वाह है जी!
रिश्ते पाकीज़गी के जज़्बात हैं,इनका इस्तेमाल न कर।
पहले दिल से रिश्ता तोड़,फिर ही कोई गुनाह कर ।।
रिश्ते समझो, तो ही,ये जिंदगी में रंग भरते हैं।
ये लफ़्फ़ाज़ी से नहीं बनते,नादान,तू खुद कोआगाह कर।।
दोस्तों ओ दुश्मनों की भीड़ में, खोया न रहे तेरा वजूद ।
जिंदगी में ,इनसे बिछड़ने के लिए,खुद को तैयार कर।।
अपना,अपनों से क्या रिश्ता रहा है,इस जिंदगी में।
इस  पर न सोच,इसे सुलझाने में खुद को तबाह न कर।।
आज तू हमसफ़र के बग़ैर नया आगाज़ करने निकला है।
अकेलापन,तमाम दर्द भूल,आगे बढ़, नुक्ताचीनी ना कर।।
अब यदि किताब ए जिन्दगी के पन्ने भूत बन मंडरा रहे।
तब भी न रुक, ना डर, इन्हें पढ़ने से इंकार ना कर।।
कारवां जिन्दगी का चलता रहेगा,तेरे रोके ये ना रूकेगा।
जोगी तू  भीतर ये यकीं पैदा कर, रिश्ते मरते नहीं मर
कर।।
जिन्दगी भर गुनाह किए ,
फिर भी है चाहत ,
मुझे तेरे दर पर
पनाह मिले।

कर कुछ इनायत
मुझ पर
कुछ इस तरह ,जिंदगी!

अब और न भटकना पड़े,
क़दम दर क़दम मरना न पड़े !
शर्मिंदा हूँ....कहना न पड़े!!
    २१/०४/२००९
जीवन युद्ध
है एक सतत संघर्ष,
इसमें उत्कर्ष भी है,
तो अपकर्ष भी।
अनमोल मोती सा
उत्कृष्ट निष्कर्ष भी।

यदि
आप चाहते हैं कि
जीवन युद्ध रहे ज़ारी।
यह तानाशाह के हाथों में
बने न नासूर सी बीमारी।
...
बनना होगा
भीतर तक निष्पक्ष।
करना होगा
भीतर बाहर संघर्ष।
आप
काले दिन झेलने की
करें प्राण, प्रण से तैयारी।
....और हाँ,खुद को
सच केवल सच
कहने, सुनने के लिए
करें तैयार।
जीवन मोह सहर्ष दें त्याग।
२६/०१/२०१०
जिंदगी ने
मुझे अक्सर
क़दम क़दम पर
झिंझोड़ा है
यह कहकर,
"वक़त तो
अरबी घोड़ा है,
वह सब पर
सवार रहता है,
कोई विरला
उसे
समझ पाता है।
जो समझा,वह कामयाब
कहलाता है,और....
नासमझ उम्रभर
धक्के खाता है,
ज़ुल्म और ज़लालत सहता है।"


यह सुनना भर था कि
बग़ैर देर किए
बरबस मैं
जिन्दगी के साए को महसूस
वक़्त को
संबोधित करते हुए
अदना सी गुस्ताख़ी कर बैठा ,
"तुम भी बाकमाल हो,यही नहीं लाजवाब हो,
हरेक सवाल के जवाब हो ।"
वक़्त ने मुझे घूरा।
फिर अचानक न जाने मैं कह गया,
सितम ए वक़्त सह गया...!,
"तुम सदाबहार सी जिन्दगी के अद्भुत श्रृंगार हो।
यही नहीं तुम एक अरबी घोड़े की रफ्तार सरीखे
मतवातर भाग रहे हो ।तुम चाह कर भी रुक न पाओगे।जानते हो भली भांति कि रुके नहीं कि
धरा पर विनाश, विध्वंस हुआ समझो । "
महसूस कर रहा हूं कि वक़्त एक शहंशाह है ...
और वह एक दरिया सा सब के अंदर बह रहा है...
......

धरा पर वक़्त एक अरबी घोड़े सा भाग रहा है।
हर पल वो , अंतर्मन का आईना बना हुआ
सर्वस्व के भीतर झांक रहा है।

सब को खालीपन के रु ब रु करा रहा है।

११/८/२०२४
आज
फिर से
झूठ बोलना पड़ा!
अपने
सच से
मुँह मोड़ना पड़ा!
सच!
मैं अपने किए पर
शर्मिंदा हूँ,
तुम्हारा गला घोटा,
बना खोटा सिक्का,
भेड़ की खाल में छिपा
दरिंदा हूँ।
सोचता हूँ...
ऐसी कोई मज़बूरी
मेरे सम्मुख कतई न थी
कि बोलना पड़े झूठ,
पीना पड़े ज़हर का घूंट।

क्या झूठ बोलने का भी
कोई मजा होता है?
आदमी बार बार झूठ बोलता है!
अपने ज़मीर को विषाक्त बनाता है!!
रह रह अपने को
दूसरों की नज़रों में गिराता है।

दोस्त,
करूंगा यह वायदा
अब खुद से
कि बोल कर झूठ
अंतरात्मा को
करूंगा नहीं और ज्यादा ठूंठ
और न ही करूंगा
फिर कभी
अपनी जिंदगी को
जड़ विहीन!
और न ही करूंगा
कभी भी
सच की तौहीन!!
१६/०२/२०१०
खाक अच्छा लगता है
जब अचानक बड़ा धक्का लगता है
भीड़ भरे चौराहे पर
जिंदगी यकायक अकेला छोड़ दे !
वह संभलने का मौका तक न दे!!
पहले पहल आदमी घबरा जाता है ,
फिर वह संभल कर,
आसपास भीड़ का अभ्यस्त हो जाता है,
और खुद को संभालना सीख जाता है।
जिंदगी दिन भर तेज रफ्तार से भाग रही है।
आदमी इस भागम भाग से तंग आ कर
क्या जिन्दगी जीना छोड़ दे ?
क्यों ना वह समय के संग आगे बढ़े!
आतंक के साए के निशान पीछे छोड़ दे!
जब तक जीवनधारा नया मोड़ न ले !
जिंदगी की फितरत रही है...
पहले आदमी को भंवरजाल में फंसाना,
तत्पश्चात उसे नख से शिखर तक उलझाना।
सच यह है... आदमी की हसरत रही है,
भीतर के आदमी को जिंदादिल बनाए रखना।
उसे आदमियत की राह पर लेकर जाना।
थके हारे को मंज़िल के पार पहुंचाना।
बड़ा अच्छा लगता है ....
पहले पहल आदमी का लड़खड़ाना,
फिर गिरने से पहले ही, खुद को पतंग सा उठाना
....और मुसीबतों की हवा से लड़ते हुए ... उड़ते जाना।
१५/०२/२०१०.
पिता श्री,
एक दिन अचानक
आपने कहा था जब,
"मैं तुम से
कुछ भी अपेक्षा नहीं करता।
बस तुम्हें
एक काम सौंपना चाहता हूँ।
वह काम है...
जाकर अपनी प्रसन्नता खोजो!"
यह सुनकर
अनायास
तब मैं खिलखिलाकर हंस पड़ा था ।
  

अब महसूस होने लगा है,
जीवन में कुछ ठगा गया है।
अब क़दम दर कदम लगता है कि
आजकल
प्रसन्नता ढूंढ़ी जाती है
चारों ओर....
अंदर क्या बाहर...
सुप्रिया के इर्द गिर्द भंवरे सा मंडरा कर
शेखचिल्ली बन खयाली पुलाव पका कर
अपनों को मूर्ख बना कर


प्रसन्नता ढूंढना अब एक चुनौती बन गई है
सौ,सौ प्रयास के बाद
फिर भी कुछ गारंटी नहीं है कि वह मिले,
मिले तो किसी दिलजले मनचले को जा मिले
अन्यथा.... असफलता का चल पड़ता एक सिलसिला,
आदमी खुद के भंवरजाल में धंसा,
किस से करे शिकवा गिला।
आदमी का अंतर्मानस बन जाता एक शिला!

पिता,
आज अंतर्द्वंद्वों से घिरा
मैं आप के कहे पर करता हूँ सोच विचार
तो लगने लगा है कि
सचमुच प्रसन्नता खोजना,
अपनी खुशी तलाशना,
आखिरकार उसे दिल ओ दिमाग से वरना,
किसी एवरेस्ट सरीखी दुर्गम शिखर पर चढ़ना है ।


तुम्हारा  "अपनी प्रसन्नता खोजो " कहना
आज की युवा पीढ़ी के लिए एक अद्भुत पैग़ाम है।

आज मैं बुध बनना चाहता हूँ।
पर सच है कि मैं इर्द गिर्द की चकाचौंध से भ्रमित
बुद्धू सा हो गया हूँ।
बेशक प्रबुद्ध होने का अभिनय कर
लगातार एक फिरकी बना नाच रहा हूँ।

आपका अंश!
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