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जब जेबें खाली हो गईं,
बैठे बैठे खाते रहे,
कमाया कुछ नहीं,
घरों में बदहाली आ गई,
तब आई
गाँव में रह रहे
सगे संबंधियों की याद।
सोचा, अपनो से जाकर ,
फरियाद
करेंगे,
बंधु बांधवों के सम्मुख ।
चल पड़े जैसे तैसे पैदल
थके हारे, प्रभु आसरे,गिरते पड़ते,
एक के पीछीक सभी लोग,
तज के सारे लालच लोभ ।
बहुत सारे बीच मार्ग में
भूख और लाचारी,
लूटपाट, मारा मारी ,
धोखाधड़ी का बने शिकार ।
ऊपर से कोरोना का भय विकराल,
लगा कर रहे ताण्डव महाकालेश्वर
बाबा भोलेनाथ
सब की परीक्षा ले रहे,
क्रोध में हैं महाकाल।

देख दुर्दशा बहुतों की,
सुख सुविधा वंचित दिन हीनों की,
बहुतों की आँखों में अश्रु आए झर।
उन्होंने मदद हेतु हाथ बढ़ाए,
वे मानवता के सेतु बन पाए ।
देख, महसूस, दुर्दशा,उन सभी की,
बहुतों को रोना आ गया।
सोचते थे घड़ी घड़ी।
यह कैसा आपातकाल आ गया।
यह कैसा समय आ गया।
अकाल मृत्यु का अप्रत्याशित भय
उनकी संवेदना, सहृदयता,
सहयोग, सौहार्द,
सहानुभूति को खा गया।
सब सकते में थे।
यह कैसा समय आ गया।
अकाल मृत्यु का भय
सबके मनों में घर कर गया।मृत्यु का चला
अनवरत सिलसिला
बहुतों के रोजगार खा गया।
सामाजिक सुरक्षा की मज़बूत दीवारों को ढा गया।
रिश्तेदारों ने दुत्कार दिया।
सोचते थे सब तब
अब कैसे प्राप्त होगी सुरक्षा ढाल?
सब थे बेहाल,
बहुत से मजदूर वर्ग के
बंधु बांधव थे फटेहाल।
कौन रखेगा अब
आदमी और उसकी आदमियत का ख्याल ?

आज वह दौर बीत गया है।
बहुत कुछ सब में से रीत गया है।
अब भी
बहुल से लोग
कोरोना का दंश झेल रहे हैं।
उनकी आर्थिकता बिल्कुल चरमरा चुकी है,
अब भी  कभी कभी
बीमारी,लाचारी, हताशा, निराशा ,
उन्हें आत्महत्या के लिए बाध्य करती है,
कमज़ोर हो चुकी मानसिकता
आत्मघात के लिए उकसाती है।
अभी कुछ दिन पहले मेरे एक पड़ोसी ने
रात्रि तीन बजे करोना काल में आई बीमारी, कमज़ोरी के कारण कर लिया था आत्मघात ।
अब भी कभी कभी
पोस्ट करना का दुष्प्रभाव
देखने को मिल जाता है।
इसे महसूस कर
अब भी भीतर
भूकंपन सा होता है,
भीतर तक हृदय छलनी हो जाता है।

करोना महामारी अब भी जिंदा है,
बेशक आज इंसान,देश,दुनिया,समाज
इस महामारी से उभर चुका है।
मानवता  अभी भी शोकग्रस्त और पस्त है।
करोना काल में
बहुत से घरों में
जीवन का सूरज अस्त हुआ था,
वहाँ आज भी सन्नाटा पसरा हुआ है।
वहां बहुत कुछ बिखरा हुआ है,
जिसे समेटा नहीं जा सकता।
जारी,जारी,जारी ,जारी ,जारी है यारो!
अजब ,अजब सी रीतें हैं,इस जहान की।
यहां
ईमानदार
भूखे मरते हैं,
दिन रात
मतवातर
डरते हैं।
अजब-गजब
रवायत है
इस जहान की।
जारी ,जारी ,जारी ,जारी ,जारी है यारो!
अजब ,अजब सी रीते हैं ,इस जहान की।
यहां
बेईमान
राज करते हैं,
दिन रात
जनता के रखवाले
रक्षा करते हैं ,
जबकि
शरारती डराते हैं ,  
और
वे उत्पात मचाने से पीछे नहीं हटते हैं ।
जारी, जारी ,जारी ,जारी ,जारी है यारो!
अजब ,अजब सी रीते हैं, इस जहान की।
अजब
सियासत है ,
इस हिरासत की ।
यहां
कैदी
आज़ादी भोगते हैं
और
दिन रात
गुलामों पर बेझिझक भौंकते हैं ।
जारी ,जारी, जारी ,जारी,जारी है यारो!
अजब ,अजब सी रीते हैं , इस जहान की।
सभी
यहां खुशी-खुशी
देश की खातिर
लड़ते हैं ।
अजब
प्रीत है
इस देश की।
यहां
सभी
अवाम की खातिर
संघर्ष करते हैं।
जारी ,जारी, जारी ,जारी ,जारी है यारो!
अजब ,अजब सी रीतें हैं , इस जहान की।
अजब
अजाब है
इस अजनबियत का।
यहां
सब लोग
नाटक करते हैं।
दिन रात
लगातार
नौटंकी करते हैं।
अजब
नौटंकी जारी है,
पता नहीं
अब किसकी बारी है।
किसने की रंग मंच पर
आगमन की तैयारी है ?
लगता है  
अब हम सब की बारी है।
क्या हम ने कर ली
इसकी खातिर तैयारी है ?
जारी ,जारी ,जारी ,जारी , जारी नौटंकी जारी है।
अजब ,अजब, अजब सी रीतें हैं इस जहान की।
अजब
नौटंकी जारी है।
लगता है ,
अब हम सब की बारी है।
गुप्त
देर
तक

गुप्त न रहेगा!
यह नियति है !!
विचित्र स्थिति है!
वह सहजता से  
होता है प्रकट
अपनी संभावना को खोकर।


गुप्त
भेद खुल जाने पर
हो जाता है
लुप्त!
न!न! असलियत यह है कि
वह
अपने भेदों को
मतवातर छुपाता आया है
आज अचानक भेद खुलने से
उसका हुआ है अवसान।  
सारे भेद हुए प्रकट यकायक।
भीतर तक शर्मसार!!
अस्तित्व झिंझोड़ा गया!!लगा दंश!!
कोई अंत की सुई चुभोकर,
कर गया बेचैन।
जगा गया गहरी नींद से,
और स्वयं सो गया गहरी  नींद में।
वह मेरा प्रतिबिंब आज अचानक खो गया है ,
जिसे गुप्त के अवसान के
नाम से नई पहचान दे दी तुमने
जाने अनजाने ही सही,हे मेरे मन!
तुम्हें मेरा सर्वस्व समर्पण।! ,हे मेरे प्यारे , न्यारे मन!
दंगा
दंग नहीं
तंग करता है,
यह मन की शांति को
भंग करता है।
दंगाई
बेशक  
अक्ल पर पर्दा पड़ने से
जीवन के रंगों को
न केवल
काला करता है ,
बल्कि वह खुद को
एक कटघरे में खड़ा करता है।

उसकी अस्मिता पर
लग जाता है प्रश्नचिह्न।
दंगे के बाद
भीतर उठे प्रश्न भी मन को
कोयले सरीखा
एक दम स्याह काला
कर देते हैं
कि वहां उजाला पहुंचना
नामुमकिन हो जाता है,
फिर दंगाई
कैसे उज्ज्वल हो सकता है ?
वो तो
समाज के चेहरे पर
स्याही पोतने का काम करता है।
उसके कृत्यों से  
उसका हमसफ़र भी घबराता है।
वह धीरे-धीरे
दंगाई से कटता जाता है।
बेशक वह लोक दिखावे की वज़ह से
साथ निभाता लगे।

दंगा
मानव के चेहरे से
नक़ाब उतार देता है
और असलियत का अहसास कराता है।
दंगाई न केवल नफ़रत फैलाता है,
बल्कि उसकी वज़ह से
आसपास कराहता सुन पड़ता है।

इस कर्कश
कराहने के पीछे-पीछे
विकास के विनाश का
आगमन होता है ,
इसे दंगाई कहां
समझ पाता है?
यह भी सच है कि
दंगा
सुरक्षा तंत्र में सेंध लगाता है।
दंगा
अराजकता फैलाने की
ग़र्ज से प्रायोजित होता है।
इसके साथ ही
यह
समाज का असली चेहरा दिखाता है
और आडंबरकारी व्यवस्था की  
असलियत को
जग ज़ाहिर कर देता है।

भीड़ तंत्र का  
अहसास है दंगा,
जो यदा-कदा व्यक्ति और समाज के
डाले परदे उतार देता है ,साथ ही नक़ाब भी।
यह देर तक
इर्द-गिर्द  बेबसी की दुर्गन्ध बनाये रखता है ,
सोई हुई चेतना को जगाये रखता है।
सुनो उपभोक्ता!
बाजार का सच ।
आज
बाजार की गिद्ध नज़र
तुम्हारी जेब पर है।


हे उपभोक्ता जी,
अपनी जेब संभालो ,
उसमें बची खुची रेज़गारी भी डालो ।
भले ही
रेज़गारी को
आप नजरअंदाज करें,
इसे महत्व  न दें, लेकिन ना भूलें,
बूंद बूंद से घट भर जाता है,
व्यापारी भान जोड़कर ही  
धन कमाने का हुनर जान पाता है,
जब कि बहुत बार उपभोक्ता
अठन्नी जैसी रेज़गारी छोड़ देता है।
दिन भर की बीस अठन्नियां जुड़े,
तो दस रुपए की कीमत रखतीं हैं।
मत भूलो,
कभी-कभी खोटा सिक्का भी खुद को
कारगर साबित कर जाता है।  
कंगाली में नैया पार लगा देता है,
इज़्ज़त भी बचा देता है।

सुनो उपभोक्ता!
तुम उपभोग्य सामग्री तो कतई न बनना।
तुम उपभोगवादी सभ्यता में
जन्मे, पले-बढ़े,चमके हो,
उपभोग संयम से करो।
बाजार को
अपनी ताकत का अहसास करा दो।
उसे अपने चौकन्नेपन से चौंका दो ।

व्यापारी भ्रष्टाचार के पंख
आपसी मिली-भगत से फैला न पाएं ,
तुम्हारी जागरूकता है ,इस समस्या का सटीक उपाय।
बाजार का गणित
यानि अर्थशास्त्र
मांग और पूर्ति के सिद्धांत पर चलता है।
इन दोनों में रहे संतुलन तो बाजार फलता-फूलता है।
ध्यान रहे,मांग और पूर्ति का संतुलन
उपभोक्ता के चित्त पर निर्भर करता है।
तुम्हारा चित्त डोला नहीं
कि बाजार तुम पर हावी हुआ।
बाजार में चोरी  , मक्कारी,
मंहगाई ,लूट खसोट,
हेराफेरी का दुष्चक्र शुरू हुआ।
भाई मेरे,
किसी के मकड़जाल
और उसके चालाकी से
निर्मित घेरे में न फंसना।
तुम फंसे नहीं कि
बाजार बहुत बड़ा खेल, खेल देगा।
इसे आजकल खेला (वस्तुत: झमेला)
कह  दिया जाता है।
ऐसे में
सुख ,सुरक्षा का भरोसा
छिन्न भिन्न होता है।
उपभोक्ता ठगा सा महसूस करता है,
और थक हार कर,सिर पकड़ कर बैठ जाता है,
उसका माथा ठनकता है,
वह हतप्रभ हुआ,हताश, निराश हुआ
स्वयं को अकेला करता जाता है।

कुछ ऐसा ही
खेला शेयरों में, सट्टेबाजी में भी है ,
जिस में
अनाड़ी से लेकर खिलाड़ी तक
भरे पड़े हैं।
कल तक
जो हवा में उड़ रहे थे,
वे आज औंधे मुंह गिरे हुए पत्ते जैसा महसूस कर रहे हैं।
सुनो उपभोक्ता!
इस दुनिया के बाजार में
सब गोलमाल है।
यहां सतर्क रहना जरूरी है।
अन्यथा मन में
अंतर्कलह होने से
आदमी अन्यमनस्क हो जाता है।
वह खुद को रुका हुआ
और रूठा हुआ पाता है ।
उसे कहीं ठौर नहीं मिलता है,
वह भीतर तक
इस हद तक
हिल जाता है,
जैसे किसी ने उसे दिया हो
अचानक , अप्रत्याशित  घटनाक्रम बनकर
झकझोर और झिंझोड़,
ऐसे में
धरी की धरी रह जाती मरोड़।
सुनो उपभोक्ता, मेरी बात गौर से सुनो,
इस पर अमल भी करो
ताकि ठगे न जाओ।

बाजार से सामान लेने के बाद
सुरक्षित घर पहुंच पाओ।

डिजिटल खरीददारी भी
सोच समझकर करो ,
अपने भेद अपने भीतर रखो,
निडर,सतर्क रहना तुम्हारा दायित्व है,
कोई क्या करे, मामला वित्त और चित्त का है।१२/०८/२०२०.
अब हमें
दबंगों को,
कभी-कभी
दंगाइयों के संग
और
दंगा पीड़ितों को
दबंग, दंगाइयों के साथ
रखना चाहिए ,
ताकि
सभी परस्पर
एक दूसरे को जान सकें,
और भीतर के असंतोष को खत्म कर
खुद को शांत रख सकें,
ढंग से जीवन यापन कर सकें,
जीवन पथ पर
बिखरे बगैर
आगे ही आगे बढ़ सकें,
ज़िंदगी की किताब को
अच्छे से पढ़ सकें,
खुद को समझ और समझा सकें।


देश में दंगे फसाद ही
उन्माद की वजह बनते हैं,
ये जन,धन,बल को हरते हैं,
इन की मार से बहुत से लोग
बेघर हो कर मारे मारे भटकते हैं।

जब कभी दंगाई
मरने मारने पर उतारू हों
तो उन्हें निर्वासित कर देना चाहिए।
निर्वाचितों को भी चाहिए कि
उनके वोटों का मोह त्याग कर
उन्हें तड़ीपार करने की
सिफारिश प्रशासन से करें
ताकि दंगाइयों को  
कारावास में न रखकर
अलग-अलग दूरस्थ इलाकों में
कमाने, कारोबार करने,सुधरने का मौका मिल सके।
यदि वे फिर भी न सुधरें,
तो जबरन परलोक गमन कराने का रास्ता
देश की न्यायिक व्यवस्था के पास होना चाहिए।
आजकल के हालात
बद्तर होते-होते
असहनीय हो चुके हैं।
अंतोगत्वा
सभी को,
दबंगों को ही नहीं,
वरन दंगाइयों को भी
अपने  अनुचित कारज और दुर्व्यवहार
से गुरेज करना चाहिए
अन्यथा
उन सभी को
होना पड़ेगा
निस्संदेह
व्यवस्था के प्रति
जवाबदेह।
सभी को अपने दुःख, तकलीफों की
अभिव्यक्ति का अधिकार है,
पर अनाधिकृत दबाव बनाने पर ,
दंगा करने और करवाने पर
मिलनी चाहिए सज़ा,
साथ ही बद्तमीजी करने का मज़ा।

देश के समस्त नागरिकों को
अपराधी बनने पर
कोर्ट-कचहरी का सामना करना चाहिए,
ना कि दहशत फैलाने का कोई प्रयास ।


दंगा देश की
अर्थ व्यवस्था के लिए घातक है,
यह प्रगति में भी बाधक है,
इससे दंगाइयों के भी जलते हैं।
पर वे यह मूर्खता करने से
कहां हटते हैं?
वे तो सब को मूर्ख और अज्ञानी समझते हैं।
१२/०८/२०२०.
एक पत्ता
पेड़ से गिरा ही था कि
मुझे हुआ अहसास,
कोई अपना पता भूल गया है,
उसे तो सृजनहार से मिलने जाना था।
जाने अनजाने ही!
शायद गिरने के बहाने से ही!!

सोचता हूं...
वो कैसे
उस सृजनहार को
अपना मुख दिखला पाएगा।
कहीं वह भी तो नहीं
डाल से गिरे पत्ते जैसा हो जाएगा।
कभी मूल तक न पहुंच पाएगा।
१४/०५/२०२०.
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