निशानी
जब गया तूं, कभी भी न लौटने के लिए, तो मोहन, एक निशानी तो छोड़ जाता !
नैन बिछाये बैठे रहे, मेरा प्यार, शायद तुझे, इस ओर खिंचके लाता
न कोई निशानी छोडी, जिसे हम दिलसे लगाये रखते; बस याद में तेरी रोते रहे
पर तूं तो लौटा ही नहीं, और हम आश लगाये बैठे रहे, बस बैठे ही रहे
तूं कभी वापस न आया; मौसम बदले, सालों बीते, पर तूं लौट के न आया ।
जीना चाहते न थे, पर जीना पडा; तो तेरे मोर पंखको हमने सिने से लगाया ।
वही तुझे बहुत प्यारा था, तो बनाके उसे तेरी निशानी, हम वही उठा लाये
चाहते थे आँसू बहाना पर वोह भी नहीं किया; कही जमुनजी में, बहाड़ न आ जाये!
क्यूँ छोड़ के यह प्यार भरा संसार, बन बैठा तूं द्वार्काधीश, दुर जाके मुझसे ?
पर मोहन मेरे, इस एक पंख के सहारे, यह तेरी राधिका रह नहीं पाती है दुर तुझसे ।
लगाये बैठी हूँ सीनेसे, यह पंख, जो है तेरी निशानी, जो है मुझे जान से प्यारी ।
भले तु माने न माने, बडी मजबुर है यह तेरी राधिका, कब तक चलाएगा तूं, यूह दिल पे मेरे आरी?
Armin Dutia Motashaw