हाँथो में यहाँ नश्तर है कई,
इक आईना है पत्थर है कई।
ऐ ख़ुदा ये ग़ज़ब का घर है तिरा,
इक माह है फ़क़त अख़्तर है कई।
अब जीना यहाँ मुमकिन ही नहीं,
इक मैं हूँ सफ-ए-लश्कर है कई।
ये जो सीढ़ियों सी है जिंदगी,
उतरिये संभल के ठोकर है कई।
मेरी ख़बर ही न रही यारों को,
कहने को मिरे दिलबर है कई।
रंजन उलझन ये किसपर हो यकीं,
इक राही यहाँ रहबर है कई।
नश्तर--नुकीला खंजर, माह-- चाँद,
अख़्तर-- सितारे, रहबर-- मार्गदर्शक
सफ-लश्कर-- दुश्मन के फौज़ की लाइने
Ghazal