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भीम के हाथों मदकल,
अश्वत्थामा मृत पड़ा,
धर्मराज ने  झूठ कहा,
मानव या कि गज मृत पड़ा।
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और कृष्ण ने उसी वक्त पर ,
पाञ्चजन्य  बजाया  था,
गुरु द्रोण को धर्मराज ने  ,
ना कोई सत्य बताया था।
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अर्द्धसत्य भी  असत्य से ,
तब घातक  बन जाता है,
धर्मराज जैसों की वाणी से ,
जब छन कर आता है।
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युद्धिष्ठिर के अर्द्धसत्य  को ,
गुरु द्रोण ने सच माना,
प्रेम पुत्र से करते थे कितना ,
जग ने ये पहचाना।
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होता  ना  विश्वास कदाचित  ,
अश्वत्थामा  मृत पड़ा,
प्राणों से भी जो था प्यारा ,
यमहाथों अधिकृत पड़ा।
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मान पुत्र  को मृत द्रोण का  ,
नाता जग से छूटा था,
अस्त्र शस्त्र त्यागे  थे वो ना ,
जाने  सब ये झूठा था।
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अगर पुत्र इस धरती पे  ना ,
युद्ध जीतकर क्या होगा,
जीवन का भी मतलब कैसा ,
हारजीत का क्या होगा?
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यम के द्वारे हीं जाकर किंचित ,
मैं फिर मिल पाऊँगा,
शस्त्र  त्याग कर बैठे शायद ,
मर कामिल हो पाऊँगा।
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धृष्टदयुम्न  के हाथों  ने  फिर  ,
कैसा वो  दुष्कर्म  रचा,
गुरु द्रोण को वधने में ,
नयनों  में ना कोई शर्म  बचा।
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शस्त्रहीन ध्यानस्थ द्रोण का ,
मस्तकमर्दन कर छल से,
पूर्ण किया था कर्म  असंभव ,
ना कर पाता जो बल से।
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अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
द्रोण को सहसा अपने पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु के समाचार पर विश्वास नहीं हुआ। परंतु ये समाचार जब उन्होंने धर्मराज के मुख से सुना तब संदेह का कोई कारण नहीं बचा। इस समाचार को सुनकर गुरु द्रोणाचार्य के मन में इस संसार के प्रति विरक्ति पैदा हो गई। उनके लिये जीत और हार का कोई मतलब नहीं रह गया था। इस निराशा भरी विरक्त अवस्था में गुरु द्रोणाचार्य  ने अपने अस्त्रों और शस्त्रों  का त्याग कर दिया और  युद्ध के मैदान में ध्यानस्थ होकर बैठ गए। आगे क्या हुआ देखिए मेरी दीर्घ कविता दुर्योधन कब मिट पाया के छत्तीसवें भाग में।
जिस मानव का सिद्ध मनोरथ
मृत्यु     क्षण      होता    संभव,
उस मानव का हृदय आप्त ना
हो   होता        ये      असंभव।
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ना   जाने किस   भाँति आखिर
पूण्य   रचा    इन  हाथों       ने ,
कर्ण   भीष्म  न  कर  पाए  वो
कर्म   रचा    निज     हाथों ने।
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मुझको भी विश्वास ना होता
है  पर   सच    बतलाता  हूँ,
जिसकी   चिर   प्रतीक्षा  थी
तुमको  वो बात सुनाता  हूँ।
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तुमसे  पहले  तेरे  शत्रु का
शीश विच्छेदन कर धड़ से,
कटे मुंड  अर्पित  करता हूँ,
अधम शत्रु का निजकर से।
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सुन मित्र की बातें दुर्योधन के
मुख     पे    मुस्कान    फली,
मनो वांछित   सुनने  को   हीं
किंचित उसमें थी जान बची।
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कैसी  भी  थी  काया  उसकी  
कैसी   भी    वो    जीर्ण  बची ,
पर मन  के अंतर तम  में  तो
अभिलाषा  कुछ  क्षीण  बची।
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क्या  कर  सकता  अश्वत्थामा
कुरु  कुंवर  को   ज्ञात    रहा,
कैसे    कैसे    अस्त्र     शस्त्र  
अश्वत्थामा    को   प्राप्त  रहा।
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उभर   चले  थे  मानस पट पे
दृश्य   कैसे   ना    मन   माने ,
गुरु  द्रोण  के  वधने  में  क्या
धर्म  हुआ   था    सब   जाने।
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लाख  बुरा  था  दुर्योधन  पर
सच  पे   ना   अभिमान रहा ,
धर्मराज  सा   सच पे सच में
ना  इतना    सम्मान    रहा।
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जो छलता था दुर्योधन पर
ताल थोक कर हँस हँस के,
छला गया छलिया के जाले
में उस दिन  फँस फँस  के।
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अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
किसी व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य जब मृत्यु के निकट पहुँच कर भी पूर्ण  हो जाता है  तब उसकी  मृत्यु उसे ज्यादा परेशान नहीं कर पाती। अश्वत्थामा भी दुर्योधनको एक शांति पूर्ण  मृत्यु  प्रदान  करने  की  ईक्छा से उसको स्वयं  द्वारा  पांडवों के मारे जाने का समाचार  सुनाता है, जिसके  लिए दुर्योधन ने आजीवन कामना की  थी । युद्ध भूमि में   घायल   पड़ा    दुर्योधन   जब  अश्वत्थामा के मुख से पांडवों के  हनन की बात सुनता है तो  उसके  मानस   पटल  पर सहसा अतित के वो  दृश्य  उभरने लगते हैं जो गुरु द्रोणाचार्य के वध होने के वक्त घटित हुए थे।  अब आगे क्या हुआ , देखते हैं मेरी दीर्घ कविता "दुर्योधन कब मिट पाया" के इस 35 वें भाग में।

— The End —