Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
Jan 10
न जाने कितने ख्वाब टूटे चलते चलते,
न जाने कितने अपने रूठे चलते चलते,
तेज़ तपिश सिहरन और सावन
न जाने कितने मौसम बदले चलते चलते,

एक याद जो लिपटी रही रात भर बिस्तर से,
न जाने कब शब् गुज़री करवट बदलते बदलते,
वो इक शख्श जो शामिल था मुझमे मेरे वजूद सा,
हिज़्र के कई सुखन दे गया चलते चलते,

उसका इखलास, उसकी वफ़ा, फ़क़त तगालुफ थी,
सब राज़ खुल गए वक़्त के साथ ढलते ढलते,
मैं तो सरसब्ज था क्या हुआ उसके बंज़र होने से,
होंगे नादीम वही, उम्र के साथ चलते चलते।
Arvind Bhardwaj
Written by
Arvind Bhardwaj  Chandigarh
(Chandigarh)   
  160
 
Please log in to view and add comments on poems