क्या खोया क्या पाया फिर, जब जीवन मधुर उमंग नहीं,
जिससे पग-पग चलना सिखा, उनका ही जब संग नहीं
क्या खोया क्या पाया फिर,
एक रोज़ इक किरण दिखाकर, आँखों को रौशन था किया,
रंग-बिरंगी चाँदनी से फिर, मंत्रमुग्ध मन भी था किया,
सोचा रात कभी ना होगी, ना होगा कभी सुनापन,
चाँदनी का तो पता नहीं पर, चाँदनी का तो पता नहीं पर,
अब तो साँस भी संग नहीं,
क्या खोया क्या पाया फिर, जब जीवन मधुर उमंग नहीं,
जिससे पग-पग चलना सिखा, उनका ही जब संग नहीं
क्या खोया क्या पाया फिर,
एक सुनहरी शाख देखकर, मन बगिया सजा बैठे ,
चंद अँधेरी ख्वाईशो में सारा जहाँ जला बैठे,
धीरे-धीरे गयी उतरती, स्वर्ण परत फिर शाख की,
वक़्त गुज़रता रहा तो जाना, उसमें अपना रंग नहीं,
क्या खोया क्या पाया फिर, जब जीवन मधुर उमंग नहीं,
जिससे पग-पग चलना सिखा, उनका ही जब संग नहीं
क्या खोया क्या पाया फिर,
लगा समय पर जान गए अब, इस जीवन का राज भी हम,
जो सीधा सीधा दिखता है, है उलझा और भरे हैं ख़म,
जो उलझा उलझा दिखता है, है वृहद् और तंग नहीं ,
क्या खोया क्या पाया फिर, जब जीवन मधुर उमंग नहीं,
जिससे पग-पग चलना सिखा, उनका ही जब संग नहीं
क्या खोया क्या पाया फिर,