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Armin Dutia Motashaw
Poems
Jul 2022
वक्तका तकाज़ा
वक्तका तकाज़ा
जो थकते नहीं थे तुम्हे साब-साब करते,
न जाने वो सब आज, कहाँ खो गए
और मैं भी जीने समझती थी अपना, अब बन गए हैं एक सपना;
न जाने वो सब कहाँ खो गए
Shez और Annu के सिवाय, कोई रहा नहीं है अपना, वही रोज़ याद करते हैं; क्या कहु अब; वो अपने, न जाने सब कहाँ खो गए
किसीको भी वक्त नहीं है, सब अपने काममें है मशरूफ; इस लिए,
शायद वो कहीं खो गए है
जो चला गया, उसकी, यानेकि तुम्हारी जिम्मेदारी थी मैं; शायद यह ही है वक्तका तकाज़ा; इसी लिए,
वो सब कहीं न कहीं खो गए
वो ज़माना अलग था, जब अपना कोई अकेला न पड़ जाए यह लोक देखते थे;
न जाने वो ज़माना आज कहाँ खो गया, दूर दूर कहीं चला गया।
वक्त का यह तकाज़ा मुझे मंज़ूर हो न हो; झेलना तो यह गम पड़ेगा;
न जाने वो वक्त कहाँ खो गया
Armin Dutia Motashaw
Written by
Armin Dutia Motashaw
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