भीड़तंत्र में स्वतंत्र एक भेड़िया पहन वस्त्र विचित्र विहीन चरित्र आत्मा मूर्छित वसुधा कुंठित जहरभरी जाह्नवी बिक गया हर कवि धुंदला रवि मदमस्त भस्मासुर गा रहा बहरे श्रोता समझे चीत्कार को मल्हार झूम रहे खाके जड़ी बूटी किसी का सर कुचला किसी की कमर टूटी समय बदलेगा हमेशा बदला है इतिहास ने किसको बख्शा है बख्शीश देने वालों को भी नहीं।