क्यों सपनों के विम्ब ,अचानक धुंधले पड़ते जा रहे पीड़ा के पर्वत जीवन राहों पर अड़ते जा रहे क्यों कदमों को नहीं सूझ रही ,राह लक्ष्य पाने की क्यों अस्मिता भीड़ के अन्दर खोती जा रही क्यों आंसू का खारा जल दृग का आंचल धो रहा क्यों अतृप्त भावों से मन व्याकुल हो रहा क्यों लोग वेदना देकर मानस को तड़पा रहे क्यों दुःख की सरिता में प्राण डूबते जा रहे क्यों अब ईमान सरे बाजार बिक रहा क्यों तल्खियों के बीच इन्सान पिस रहा क्यों फूलों का शबनमी सीना ,अब रेगिस्तान बन रहा क्यों व्यथित ह्रदय में करुणा का सिन्धु नहीं उमड़ रहा क्यों नेता अपने श्वेत परिधान में ,आशा के बीज नहीं बो रहा क्यों शीत की शीतता में कृषक संघर्षरत हो रहा क्यों इन्सान अपनों से ही छल कर रहा क्यों युवा अवसाद की गहराइयों में खो रहा 'प्रभात ' क्यों यहाँ पत्तों की रूहें कांप रहीं क्यों मानवता की जड़ें इस सघन धरती से ,रह रह कर कतरा रहीं ||