कभी-कभी तो मैं अपने आप पर हंस पढ़ता हूं। इतना ज्ञान प्राप्त कर लिया फिर भी पत्थर की मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हूं। कभी-कभी तो मैं अपने आप पर हंस पढ़ता हूं। सौ चूहे तो हमने भी मारे नमक डालकर भी हमने खाए पर जब हज पर पहुंचे तब पता चला कि वह सब तो व्यर्थ था।
धर्म और भक्तों की यह दोस्ती बड़ी अनोखी हैl बुद्धू पहले वाला बनाता है, दूसरे वाला समझाता है बुद्धू कैसे बनना है। तू जिसे मैंने देखा नहीं बस खाली तेरी बातें ही सुनी है तो अब तू ही बता कि तुझ पर कैसे विश्वास कर लूं? पर तू बताएगा भी कैसे।
कभी-कभी तो मैं यह सोचता हूं कि अगर तू ना होता तो क्या होता? अगर तू है उसका भ्रम ना होता तो यह पक्षपात ना होता तू अलग मैं अलग ऐसा महसूस ना होता इंसान इंसान के बराबर होता। मैंने सुना है कि हर कण में है तू तू तेरे लिए घर बनाने की इतनी जिद क्यों तू क्या नहीं चाहता कि उस जगह एक भव्य विद्यालय बने ?
कुछ मित्र तो मेरे ऐसे भी है कि जब धर्म पर वाद विवाद होता है तो यह सुनाना नहीं भूलते कि उन्होंने यह धर्म ग्रंथ पड़ा है और साथ ही साथ यह भी नहीं बोलते के तु भी यह धर्म ग्रंथ पढ़। अगर कोई धर्म ग्रंथ पढ़ने के बाद अहंकार आता हो तो वह ग्रंथ ना ही पढ़ो तो बेहतर है।
विश्वास की कई परिभाषाएं है जैसे शनिवार को चना, तेल, और चप्पल ना खाया, लगाया और खरीदा जाता है। और जब पूछूं के क्यों तो उत्तर ऐसा मिलता है जिस पर विश्वास नहीं होता।
विश्वास करो तो प्रश्न नहीं, और प्रश्न करो तो तुमको विश्वास नहीं यह कैसा अंधविश्वासी मायाजाल है, जिसमें एक के लिए सूरज नीला है, तो दूसरे के लिए हरा है, तीसरा आंखें खोलने को तैयार नहीं क्योंकि उसे इन दोनों पर विश्वास नहीं।