मेरी किस्मत मे मेरे ख्वाबों का बसेरा ही नहीं, मेरे अँधेरों पे उजालों का साया ही नहीं, क्यूँ दूर हो जाती है मेरी मंजिल अक्सर , जब भी दीप जलाऊँ तभी आंधियों का मंज़र, किसी की ख्वाहिश लेकिन शायद ये ख्वाहिश ही है, किसी साहिल को क्यूँ तलाश अपने किनारों की है, किनारे आते- आते ही कश्ती डूब जाती है , इश्क मोहब्बत अपने लिए थी ही नहीं यारों, हम तो गुड्डा- गुड़ियों की शादियों मे खुश हुआ करते थे, यूं बना कर ताश के पत्तों के मकां , हवाओं के रूख को देखा करते थे !!