Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
Dec 2019
कलयुग

चाहा था उसने,  जीवन में उसके असंख्य फूल खिले;

कौन आखिर चाहता है, खुदको पत्थर और कांटे मिले !

उसने मांगी थी अपनो से छोटी छोटी, थोड़ी खुशी ;

बदले में मिली उसे, सिर्फ बेरुखी और ख़ामोशी ।

कोमल दिल उसका चाहता था बेशुमार प्यार;

उसे न पता था, इस दुनिया में, चलता है सिर्फ व्यापार ।

टूट गया वो नाज़ुक दिल, जब मिली न प्यार की मंज़िल ।

कहां पता था उस, यह कलयुग है, यहां होते हैं पत्थर जैसे दिल;

तोड़ के औरोंके के दिल, और जज्बात लोग बसाते है खुद के लिए महफ़िल

कलयुग में शायद ऐसे ही मिलती है उन्हें, अपनी मंज़िल ।

Armin Dutia Motashaw
60
   Viji Vishwanath
Please log in to view and add comments on poems