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Hawa
Poems
Oct 2019
हक
जिस हक से कल लेकर गई थी,
उसी हक से आज भी ले जाति,
पर नहीं ले गई,
तो अब यह बहाने क्यों और किसके लिए.
मेरे लिए?
या खुद के लिए?
किस हक की तुम बात कर रहे हो?
मुझे तो कभी पता ही नहीं था
कि मेरा कोई हक है तुम पर.
तुमने कभी पता ही नहीं लगने दिया.
हमेशा एक ही डर था
कि कभी तुमसे कोई बात कह दूं और तुम बोल पढ़ो किस हक से कह रही हो मुझे.
अब इस डर को बहाना ही समझ लो.
पर यही डर था हमेशा.
मेरे लिए
और तुम्हारे लिए.
जितने हक से आज तुमने मुझसे यह सारे सवाल पूछ लिए हैं.
काश! कभी उतने ही हक से यह भी जता दिया होता कि कितना हक है मेरा तुम पर.
मेरे लिए नहीं तो कम से कम सच के लिए ही बोल देते तुम.
Written by
Hawa
26/F
(26/F)
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