Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
May 2019
यह शाम

शाम सुहानी ढल रही है; हवा ठंडी चल रही है ।

तन, मन, रूह को धीरे धीरे सहला रही है ।

पर इस सुहानी शाम, जला रही है, मोरा जिया;

पंखी घर लौट रहे हैं, तुम कब आओगे पिया ?

बस चंद्रमा खिल रहा है, बादलों से आंखमिचौली खेल रहा है ।

पर अमावस मेरी बड़ी लम्बी है, दर्द जुदाई का, लंबा सहा है ।

अब आ भी जाओ, इतना भी न तड़पाओ;

पुकारती हूं दिल से, आओ, आ भी जाओ ।

Armin Dutia Motashaw
  122
 
Please log in to view and add comments on poems