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May 2019
ख़ता मेरी ही है कि वो गैर हो गये,
कल तक जो आज थे वो बीता दौर हो गये

कैसे भूल जाऊँ तमाम पल वो क़ुरबत के,
वो रूठना - मनाना और शाद फुरकत के

हया की शोखियाँ उनके लबों पे कैसे आती थीँ,
शाम रँगीनियाँ लेके उनके शोख चेहरे से जाती थीँ

तारीफ़ ये कि उन्हेँ भी हमसे चाहत थी,
इश्क़ में उनके बेशुमार इफ़्फ़त थी

बला की सुर्खियाँ लबों पे ख़ुदा ने बख़्शी थी
ज़ुल्फ़ जैसे शब ने घनेरी चादरें ओढ़ रखी थी

उनकी अदाओं में अजब सी एक तल्ख़ी थी
नूर-ऐ-गुल में महज उनकी एक झलकी थी

जब वो छूते थे लबों से मेरी हथेली को
लगे कि रूह मिल रही किसी सहेली को

वो आती थी बारिशें सँग लेकर
घुल जाती थी मुझमें बस मेरी होकर

मैंने कभी वो इश्क़ न समझ पाया
न जाने कैसे वो चाहत मैं कहीँ खो आया
Ankit Dubey
Written by
Ankit Dubey  20/M/New Delhi
(20/M/New Delhi)   
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