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Apr 2019
मैंने कहा था,  बचाना मेरे वृक्ष हरे भरे घटादार;

इन्हें बचानेकी बिनती की मैंने तुझे बार बार

बनके निडर, रेहते थे कितने पक्षी यहां, नर और नार ।

कोयल कूकती थी, तोते मेना आते थे झुंड में यहा

गिलहरिया हमेशा भागती थी यहां से वहां ।

पर सुनता है तु  हमारे मन की सदा कहां !!

इनकी तेहनिया थी फूलों से लदी हुई ;

भले न थे मेरे आंगन में गुलाब मोगरे या जूही ;

थे इनमें फूल रंग बे रंगी, तो क्या हुआ गर इनमें खुशबू न हुई

देते थे वो प्राण वायु और अनेकों को छाया;

था मुझे उनसे गहरा लगाव और माया

मैंने कभी न समझा था इन्हें पराया ।

इन्सान तो है खुदगर्ज, बेरहम और जुनूनी;

शहीद हो गए वो; तुने क्यों बिनती मेरी नहीं सुनी ?

समझमें आता नहीं हम क्या करें; तूही बता ऐ महागुनी !

Armin Dutia Motashaw
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