कल ट्रेन में एक नन्ही सी कली देखी खिलखिलाती उसकी हँसी मन मोहती मासूमियत ज़िन्दगी की झुलसती धुप में वोह एक हवा का झोंका ले आयी मन किया दो पल ठहरने को उसके पलों में अपने भूले बिसरे पल फिर से जीने को यूँ देखो तो उसकी ज़िन्दगी में बहुत दिक्कतें देखी वोह बेपरफा फ़िर भी खुशी से भरपूर मिली यह जादू है बचपन का उम्मीदों से भरता है एक छोटा सा लम्हा ही खुशियों की बहार ले आता है थोड़ी मैंने भी अपनी चादर में लपेट ली बहुत सुकून था उस पल में पर दुसरे ही पल चिंता घिर आयी की इस ज़िन्दगी के मंथन ने सबकी मासूमियत की चुनरी हटा के समझदारी की ओढ़नी उड़ायी है मेरी माँ ने भी कहाँ चाहा ना होगा पर वो भी कहाँ रोक पायी इस परिवर्तन को रिश्तों के भंवर में मासूमियत को उड़ना ही है समझदारी ने फिर हरा दिया बेपरवाही को मेरी मुस्कान फिर उड़ गयी और घिर आयी चुप्पी और मेरा स्टेशन भी आ गया था