धीरे धीरे ही सही पर काफला ये ज़िन्दगी का चलता जा रहा, ज़ख्म की चोट से ख़ामोश थे हम और लोगो को लगा इसका वक़्त बदलता जा रहा,
क्या करें साहेब यहाँ कोई घुट घुट के जी रहा और वहाँ लोगों का काफ़िला वाह वाह करता जा रहा,
हम करते रह गए इन्तेजार मोहब्बत-ए-इज़हार का, और एक वक़्त है जो धीरे धीरे हाथों से फिसलता जा रहा,
खुश्बू जो इन फिज़ाओ में फैली हुई थी कुछ दिनों से, देखो आज वो भी धीरे धीरे सिमटता जा रहा,
यहाँ तो लोग लूटते है अपना बनाकर साहब, कल जो हमारे थे आज उनका चेहरा मुकरता जा रहा,
हमनें भी बनाया था एक खूबसूरत महल रेत का, पर हवाओं के झोंक से वह भी बिखरता जा रहा,
हमनें भी सोचा था कि दिये और बाती की तरह एक मिसाल कायम करेंगे, पर शिकवा किसी से क्या करें जब हवाओं की आगोश में वो बाती पूरी तरह जलता जा रहा, जलता जा रहा.....।