Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
Jun 2018
हम पहले से ही कम थे,
तुमने हमें और अधूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी,
तुम्हारे शब्दवाण से यह अहसास और गहरा और गहरा हो गया,
हम हकलाते थे, एक आंख, एक पैर, चपटी नाक वाले थे,
हम काले थे, छोटे थे, मोटे थे,
हमारी बुनावट की कई अधूरी रेखाएं तुम्हारे ठहाकों के बीच सिमट गईं,
डबडबाई आंखें बंद कमरे में घंटों निहारती रहीं शीशा,
और तुम दिन-प्रतिदिन उड़ाते रहे हमारा माखौल,
अपने रंग-रूप, कद-काठी और बेडौल से चेहरे पर
लबालब प्यार लिए हम कई बार बढ़े तुम्हारी ओर
और हर बार तुम्हारे शब्दों ने लौटा दिया हमें,
सच कहूं, हमपर ठहाके लगाते हुए तुम्हे अंदाजा नहीं था,
तुम खुद कितना संक्षिप्त हो जाया करते थे,
हमने देखा, माखौल उड़ाते हुए संक्षिप्त और संक्षिप्त होते चले गए तुम
स्तब्ध हो गए जब तुमने देखा अपनी अधूरी रेखाओं से
तुम्हारे ठहाकों के बीच हमने खींच दी एक बड़ी परिधि,
रच दिया अपना आकाश, टांक दिया अपना सूरज,
जिसकी चकाचौंध में समा गए तुम,
तुम्हारी फूहड़ हंसी और तुम्हारे ठहाके।।
Avanish maurya
Written by
Avanish maurya  17/M/Delhi
(17/M/Delhi)   
162
 
Please log in to view and add comments on poems