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Oct 2015
एक पल भी आरम नही हैं,
जब से बोझ उठाया हैं
जीवन के इस रंग भवर में
फंसता ही चला गया हैं ।

बीत गए दिन खुशियों के इनकी
अब मुश्किल घडियां आइ हैं
पिता जी बाडी मुश्किल से यहॉ
अब दो पैसा कमऐं हैं ।

अपने को परेशान करके
परिवर को उंचा उठाया हैं
एक पल भी आरम नही हैं
जब से बोझ उठाया हैं ।

सुबह उठ है काम पे जाना
पिता का धर्म् हैं इन्हें निभना
रो परती हैं नाजुक आंखियॉ
जब ना सके वें इसे निभना ।

थी मन में आशाऐं अनेंक
पुरा न कियें कोइ भी एक
मार दियें चहत को अपने
तड. दियें सभी अपने सपने ।

एक पल भी आरम नहि हैं
जब से बोझ उठया हैं
जिवन के इस रंग भव्र मे
फंसता ही चला गया हैं ।

      संदीप कुमार सिंह।
Sandeep kumar singh
Written by
Sandeep kumar singh  Nagaon, Assam
(Nagaon, Assam)   
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