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Mohit mishra Jul 2016
वीरवर लक्ष्मण (मोहित मिश्रा)

एक विर जिसने त्याग को दी नयी पहचान।
एक विर जिसने भ्रातृ-प्रेम को दिया नया आयाम।
वह विर जिसके आदर्शों पर जमी कभी ना धूल ।
इतिहास वृंत पर था खिला एक ऐसा भी फूल ।


रघुकूल वंश का दीपक, दशरथ की आँख का ज्योति ।
अवध का राज दुलारा, सुमीत्रा का प्रियतम मोती ।
जिसने भाई के चलते त्याग दिया राजधानी ।
उस विरवर लक्ष्मण सा कोइ नहीं दुसरा सानी ।

जब जनक ने सभा मध्य में कटु वचन था बोला ।
भरी सभा में लक्ष्मण का उर केवल क्षोभ से डोला ।
सिंह पुत्र सा कर गर्जना कहा विर वो छोटा ।
रघुकूल वंश में नहीं जन्मता कोइ सिक्का खोटा ।

जब परशुधर के तेज से श्रीहत् थे नृप सारे ।
जनकराज भी कांप रहे थे थरथर भय के मारे ।
तब उनके विकराल क्रोध को सौमीत्रे ने रोका ।
उनके दुर्धुष इतिहास को सौ-सौ बार था टोका।

फिर अवध की खुशियों में विष मंथरा घोली ।
उसकी चिकनी बातों में आयीं कैकेयी भोली ।
दशरथ से मांगा की अब भरत बनेगा राजन ।
चौदह सालों के लिए भेजो राम को कानन ।

कहा लखन ने श्री राम से मै भी साथ रहुंगा ।
पथ मे आनेवाले कष्ट को पहले स्वयं सहुंगा ।राम को तो कठीन अरण्य दिया भाग्य ने छलकर ।
पर सुमीत्रा नंदन ने उसको वरण किया था चलकर ।

नयी सुहागन उर्मीला से मांग क्षमा का दान ।
राम सिया के संग लखन ने किया वन्य प्रस्थान।
दिवसावसान पर थककर सारा जग जब सोता था ।
तब लखन की आँख मे कतरा भर नींद ना होता था ।

जब  शुर्पणखा ने कटी नाक से रावण को धिक्कारा ।
लंकापति ने छल-छद्यम का लेकर गलत सहारा ।
राम लखन को पर्णकुटी से बाहर छलकर लाया ।
पर बलवान अशूर वह लक्ष्मण रेखा लांघ न पाया ।

राजमद मे चूर भूलकर सारे वादे अपने ।
किष्कींधा मे देख रहे थे मीठे मीठे सपने ।
लक्ष्मण की एक डाँट पर हृदय कंप हो आया ।
सुग्रीव ने सिया खोज में चहुं ओर दूत पठाया ।


समर आग की लपटें अब बढ चलीं उफानो पर।
रणचण्डी नृत्य कर रहीं मौत की भीषण तानो पर।
तभी मायावी मेघनाथ ने ऐसा युद्ध मचाया ।
रणभुमी के हर कोने मे बिम्ब उसीका छाया ।


निज दल का कष्ट हरने लखन समर मे आ गए ।
दो योद्धाओं के तीर गगन मे चारो ओर से छा गए।
इन्द्रजीत ने माया से एक शक्ति का संधान किया ।
तत्पश्चात बेहोश लखन को मरा हुआ सा जान लिया ।


जब आहत थे वानर भालू राम के करूणा क्रंदन से।
आस बची थी तब बस केवल एक मारूति नन्दन से।
पिकरके संजीवनी जब वह विर होश मे आया ।
श्री राम से विजयाशीश ले शर कोदण्ड उठाया ।


इस बार ऐसा रण कौशल सौमीत्रे ने दिखलाया ।
युद्ध कला की नयी युक्तीयाँ रावणपुत्र को सिखलाया ।
फिर सुमीर राम के चरणों को छोडा तीर प्रचंड ।
मेघनाथ के हो गए एक पल मे दो दो खण्ड ।


ऐसे हीं कितने कष्ट सहे ऐसे हीं कितने कर्म किये ।
राम सिया की सेवा मे ताउम्र वो विर जीये ।
वह योद्धा, थे सन्यासी थे, भक्त थे निष्काम ।
हे लखन आपके कर्म को कोटी कोटी प्रणाम ।

— The End —