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RAFIQ PASHA Jul 2020
अगर इन्सान को ना होता पेट
ना कोई मजदूर होता , ना कोई सेठ.
ना कल की चिन्ता होती, ना आज कि फिक्र
मैफिल में बेबसी का ना होता ज़िक्र.
ना गरीब के आँखो से आँसू बहते
ना कोई बीना छत के दूनिया मेँ रहते.
ना इन्सान दौड़ता धन के पीछे
ना गिराता किसी को नीचे.'
दुनिया मेँ कोई जंग ना होती
गुरबत कभी किसी के संग होती .
यह कविता विशेष रूप से मेरे मित्र ‘ओबैद’ के विचारों पर विचार करने के लिए लिखी गई थी।
RAFIQ PASHA Jul 2020
Beneath the clouds, I sat down,
stacks of thoughts in my mind, I found.
None besides me, in a pensive mood,
even trees in howling breeze, firm they stood.

A flying dry leaf, but, on my face it stuck,
just like I feel avoided in the ruck.
Friends had I to name many,
gay were the days, those sunny.

Across my fate what struck down,
thinking this I rubbed, my feet on grassy ground.
Jovial was their company, would empty many a keg,
never once, dreamt I, the ship of friends would wreck.

Now can hear in mishap, only the whispering silence,
heart thaws, at the thought, why friends distance.
Fingers on rosary, with only word I remember ‘forgive’,
many storms on the way, alone to face, I should live.
RAFIQ PASHA Jul 2020
ज़िन्दगी के दौड़ मे, छूट गए वह लम्हे
मैं उन लम्हो को अब, फिर जीना चाहता हूँ

लब्बो तक आकर न जाने कितने पियले  छूट गए
आज मैं उन पियालो से पीना चाहता हूँ

बातिन क्या है , मख़फ़ी क्या है
हर ज़ख्म को अब मैं सीना चहता हूँ

ज़िन्दगी मैं तुझ से अब क्या मांगू
मैं मौत से चन्द पल छीनना चहता हूँ

अब ज़िन्दगी के हर शै का मतलब समझ गया
इस लिए चुपके से सब कुछ पीना चहता हूँ

पता न चले कब सुबह हो कब शाम ढले
हर दिन ऐसा हो मैं वह महीना चहता हूँ

कितने भी रंजीशे हों , इस दुनिया में
सिर्फ मुस्कुराता चैहरा नज़र आए , ऐसा आईना चहता हूँ

— The End —