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Joginder Singh Nov 2024
सुना है,
वह धमकी बहादुर है।
उम्मीद है,
पूरा पूरा भरोसा है
वह अपने शब्दों पर
एकदम खरा उतरेगा,
गहरी मार करेगा,
चूंकि वह धमकी बहादुर है,
जिसे वह धमकी दे रहा है,
वह सिरे का कायर हो,
यह भला यकीन से
कैसे कहा जा सकता है?
कभी कभी
शेर को सवा शेर
मिल ही जाया करता है।
जिस से पराजित होने वाला डरता है।
न केवल डरता है, बल्कि दबता भी है।

मुझे यकीन है कि वह
गीदड़ भभकी नहीं दे रहा!
दिल से दहशत को हवा दे रहा !!

अब मेरी भी सुन लीजिए,
धमकी बहादुर को
हवा न दीजिए।
बल्कि उसका सामना कीजिए।
सौ बातों की एक बात कर रहा हूँ,
न कि भीतर डर भर रहा हूँ।
यहाँ
सब स्वाभिमानी हैं,
समय आने पर बनते बलिदानी हैं।
प्रतिक्रिया स्वरूप
हम भी
धमकी बहादुर और उसके गुर्गों पर
करना चाहते प्रबल प्रहार ।
हम उन पर
करेंगे
दिमाग से
घात प्रतिघात
और संहार...!
लौटाएंगे
उनको उनका उपहार
उनके ही अंदाज़ में।
हम उनसे उनकी बोली में
करेंगे संवाद।
निज भाषा का अपना स्वाद!!
हम चाहते हैं करना सामना
अपनी अतीत की पराजय को भूल कर
धमकी बहादुरों की आसुरी शक्तियों से दो दो हाथ।
हमारी रही है कामना,
सदैव शोषितों वंचितों को समय रहते थामना।
हम  मूलतः अहिंसक हैं,
नहीं चाहते मरना और मारना।
न ही चाहते कभी, धमकियों के आकाओं से ...
लड़ना, भिड़ना,मरना,डरना,
अपने सुकून को
खत्म होते देखना, बेशक
कभी धमकियों के बूते आगे बढ़ना पड़े,
कभी कभी समझौता करना पड़े।
१३/०५/२०२०
धर्म क्या है ?
यह जीवन में अच्छे और सच्चे
मूल्यों को धारण करना है ,
स्वयं को संतुलित रखना
और शुचिता के पथ पर अग्रसर करना है।
आप निरपेक्ष रहकर
जीवन में
भले ही आगे बढ़ने का
भ्रम पाल लें ,
भले ही मन को
समझा लें
कि आप सुरक्षित हैं ,
असलियत है कि
आप धर्मनिरपेक्षता के
आवरण में
पहले की निस्बत
अधिक असुरक्षित हैं।

आज
धर्म निरपेक्षता का
छद्म मुखौटा ओढ़े
लोग और दल
देश दुनिया और समाज को
दलदल में धकेल रहे हैं ,
अपनी रोजी रोटी ढूंढ रहे हैं।
यह मुखौटा ओढ़ने से
किसी भी मामले में ‌कम नहीं।
यह कतई सही नहीं है।
आप मुखौटा कब ओढ़ते हैं ?
आप मुखौटा क्यों ‌ओढ़ते हैं ?
अपनी ‌पहचान छुपाने के लिए !
किसी मकसद को हासिल करने के लिए !!
या कभी कभी विशुद्ध मनोरंजन करने के लिए !!!

मुखौटा ओढ़ कर
इधर उधर विचरण करना
खुद और सबसे
धोखा देना नहीं है क्या ?
यह सच से छिपना नहीं है क्या ?

धर्म निरपेक्षता एक छलावा है।
पंथ निरपेक्षता जीवन धारा को देना बढ़ावा है।
आदमी पंथ निरपेक्ष बने,
ताकि वह रोजमर्रा के जीवन में
निरंतर निर्विघ्न आगे बढ़ सके।
धर्म निरपेक्षता के सच को उजागर कर सके।
इतिहास के संदर्भ में धर्म निरपेक्षता को समझ सके।
०८/०१/२०२५.
धर्म का अर्थ जीवन को गति देने वाले नियमों और सिद्धांतों को अपनाना है।
उनको बिना किसी विरोध के मानते जाना है।
धार्मिक होना कुछ और ही होना है ,
यह किसी हद तक कांटों के बिछौने पर सोना है।
धार्मिक आदमी कतई सांप्रदायिक नहीं होता है,
उसे कभी इतनी फुर्सत नहीं होती कि किसी शर्त से बंध सके,
समाज में हिंसा और अराजकता फैला कर तनाव भर दे।
उसका रास्ता तो तनाव मुक्ति का पथ अपनाना है।
जो इस राह में रोड़ा बने ,उसे दरकिनार करते हुए अपने को आगे ले जाना है।
इसलिए मैं मानता हूं कि धार्मिक होना सरल नहीं है ,
यह अपने जीते जी जीने की इच्छा का अंत करना है,
यह गरल पीना है और खुल कर खुली किताब बनकर जीना है।
किसी किसी में धार्मिक बनने का जिगरा होता है ,
वरना सांप्रदायिक और अधार्मिक यानिकि नास्तिक हर कोई होता है,
बल्कि कह लीजिए एक भेड़चाल का शिकार होकर
अपने आप को नास्तिक कहना एक फैशन सा हो गया है।
हर प्राणी नचिकेता नहीं हो सकता ,
जो धर्म का मूल जान गया था,
अपने अहंकार को मिटा पाया था,
सच्ची धार्मिक विभूति बन पाया था।
बेशक आज हमें अपने इर्द गिर्द धार्मिकों की भीड़ नहीं जुटानी है,
जीवन धारा आगे गंतव्य पथ पर बढ़ानी है
ताकि आदमी की मनमानी रुके और वह सत्य के सम्मुख ही झुके।
१९/०३/२०२५.
आज के तेज रफ़्तार के
दौर में
अंदर व्यापे
अशांत करने वाले
शोर में
अचानक लगे
ट्रैफिक जाम में
धीरे धीरे
वाहनों का आगे बढ़ना
किसी को भी अखर सकता है ,
तेज़ रफ़्तार का आदी आदमी
अपना संयम खोकर
भड़क सकता है।
वह
अचानक
क्रोध में आकर
दुर्घटनाग्रस्त हो ,
जाने पर परेशान हो ,
तनावग्रस्त हो जाता है।
इस दयनीय अवस्था में
आज का आदमी
सचमुच
नरक तुल्य जीवन में फंसकर
अपना सुख चैन गंवा लेता है।
ऐसी मनोस्थिति में
वह क्या करे ?
वह कैसे अपने भीतर धैर्य भरे ?
वह कैसे संयमित होने का प्रयास करे ?
आओ इस बाबत
हम सब मिलकर विचार करें।

संयम के
अभाव में
धीमी गति
असह होती है ,
यह मन में
झुंझलाहट भरती है।
कभी कभी तो यह
आदमी को
बिना उद्देश्य से चलने वाली
एक ब्रेक फेल गाड़ी की तरह
व्यवहार करने को
बाध्य करती है ,
इस अवस्था में
आदमी की बुद्धि के कपाट
बंद हो जाते हैं ।
आदमी
लड़ने झगड़ने पर
आमादा हो जाते हैं।
अच्छी भली ज़िन्दगी में
गतिहीनता का अहसास
पहले से व्याप्त घुटन में
इज़ाफ़ा कर देता है।
आदमी
रुकी हुई जीवन स्थिति का
न चाहकर भी
बन जाता है शिकार!
वह कुंठित होकर
जाने अनजाने
बढ़ा लेता है
अपने भीतर व्यापे मनोविकार,
जिन्हें वह सफ़ाई से
छुपाता आया है,
वे सब मनोविकार
धीरे-धीरे
लड़ने झगड़ने की स्थिति में
होने लगते हैं प्रकट !
जीवन के आसपास
फैल जाता है कूड़ा कर्कट!
धीमी गति से
आज के तेज़ रफ़्तार
जीवन में
स्थितियां परिस्थितियां
बनतीं जाती हैं विकट !
विनाश काल भी
लगने लगता है अति निकट !!
कभी कभी
जीवन में धीमी गति
कछुए को विजेता
बना देती है।
परन्तु
जिसकी संभावना
आज के तेज़ तर्रार रफ़्तार भरे जीवन में
है बहुत कम।
तेज़ रफ़्तार जीवन
आदमी को
न चाहकर भी
बना देता है निर्मम!
और जीवन में व्याप्त  धीमी गति
आदमी को बेशक
दुर्घटनाग्रस्त होने से बचाती है!
यह निर्विवाद सब को
गंतव्य तक पहुंचाती है !
तेज़ रफ़्तार वाले युग का मानस
इस सच को कभी तो समझे !
वह जीवन में
धीमी गति होने के बावजूद
किसी से न उलझे !
बल्कि वह शांत चित्त होकर
अपनी अन्य समस्याओं को सुलझाए।
व्यर्थ ही जीवन को
और  ज़्यादा  उलझाता न जाए।
वह अपने क़दम धीरे धीरे आगे बढ़ाए।
ताकि जीवन में
सुख समृद्धि और शांति को तलाश पाए।
०३/०४/२०२५.
कभी कभी हादसा हो जाता है
जब इर्द गिर्द धुंध फैली हो,
और हर कोई तीव्र गति से
आगे बढ़ना चाहता हो,
मंज़िल पर पहुंचना चाहता हो।
आदमी ही न रहे तो क्या यात्रा का फायदा है ?
अतः धुंध के दिनों में अतिरिक्त सावधानी रखिए।
भले ही गंतव्य पर देरी से पहुंचना पड़े,
सुरक्षित रहने को
अपनी प्राथमिकता बनाइए।
धुंध का पड़ना स्वाभाविक है,
पर इस मौसम में तेज़ी करना
नितांत अस्वाभाविक है।
कभी कभी हादसे से बचने के लिए
यात्रा टालना तक अच्छा होता है।
फिर भी यदि कोई मज़बूरी है
तो जितना हो सके ,
अपनी चाल धीमी कर लें।
जीवन में धीमेपन को स्वीकार कर लें।
अपने भीतर
तनिक धैर्य को धारण कर लें
और अपने दिमाग में
अस्पष्टता की धुंध और कुहासे को
हावी न होने दें ,
ताकि जीवन में जीवंतता बची रहे।
जीवन में वजूद
धुंध और कुहासे के बावजूद
अपना अहसास कराता रहे।
अनमोल जीवन अपनी सार्थकता को वर सके।
१२/०१/२०२५.
सर्दियों की धूप
देती है
देह को,
देह में रहते नेह को
अपार सुख।
यही गुनगुनी धूप आदमी को
जिन्दगी में गुनगुनाने को
करती है मजबूर
कि उसके भीतर की
तमाम उदासी धीरे धीरे
होती जाती दूर।
सर्दियों की धूप भी
क्या होती है ख़ूब !
यह जीवन में
ऊर्जा भर जाती है,
तन और मन में
आशा और सद्भावना के
पुष्प खिला देती है ,
जीवन में संभावना की
महक का अहसास करा देती है।
ठंडी हवा के दौर में
यह धूप न केवल अच्छी लगती है
बल्कि यह भीतर तक
जीवन धारा से
आत्मीयता की ऊष्मा का बोध करवाने लगती है ,
जिससे
जिन्दगी आनंद से भरपूर लगने लगती है।
कभी कभी यह मन को मस्ताने लगती है।

सर्दियों की गुनगुनी धूप का जादू
जब सिर चढ़ कर बोलता है ,
तब आदमी का सर्वस्व आनंदित होता है ,
उसका रोम रोम भीतर तक पुलकित होता है।
ठंड से घिरे आदमियों के जीवन में
इस गुनगुनी धूप का आगमन
किसी वसंत के आने से कम नहीं।
यह जीवनदायिनी बन जाती है,
यह संजीवनी सरीखी होकर
जीवन को ऊष्मा और ऊर्जा से भरपूर कर देती है।
यह मन में सद्भावना का नव संचार भी करती है,
जिससे जीवन में सार्थकता की प्रतीति होने लगती है।
१६/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
बेशक जीवन में
धूम धड़ाका
सब को अच्छा लगता है
पर इसका आधिक्य
बाधा भी उत्पन्न करता है।
धूम धड़ाका घूम घूम कर
धड़धड़ाता हुआ
कभी कभार
खूनी साका भी
रच जाता है,
यह तबाही के मंज़र भी
दिखला जाता है।

आदमी एक सीमा के बाद
इसे अपने जीवन में करने से बचे।
कम से कम वह अपनी खुशियों का अपहरण
स्वयं तो न करे , वह थोड़ा सा गुरेज़ करे।

कभी कभी
धूम धड़ाके जैसा आडंबर का सांप
चेतना और विवेक को न डस सके।
आदमी सलीके से
अपने स्वाभाविक ढंग से
इस बहुआयामी दुनिया के मज़े
दिल से ले सके।
उसकी राह में कोई अड़चन न पैदा हो सके।
वह अपने परिवार के संग
ख़ुशी ख़ुशी जीवन का आनंद उठा सके।
वह कभी धूम धड़ाका करने के चक्कर में
घनचक्कर न बने।
उसके सभी क्रिया कलाप
समय रहते सध सकें।
इस सब की खातिर
सभी जीवन में
अनावश्यक
धूम धड़ाका करने से पहले
अच्छी तरह से
सोच विचार करें
और इस से
जितना हो सके , उतना बचें ,
ताकि आदमी का चेहरा मोहरा
धूम धड़ाके की कालिख से बचा रहे।
उसकी पहचान धूमिल होने से बची रहे।
२२/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
अचानक
मेरे साथ
धोखा हो गया,जब पता चला,
जिसे मैने अच्छा समझा,
वह पाला बदल कर
ओछा हो गया।
वह दगा बाज़ी कर
प्यार और सुकून को
चुपके चुपके चोरी चोरी ले गया।
सोचता हूँ
यह सब क्यों हुआ ?
मैंने उस पर विश्वास किया
और उसने आघात किया।
जिन्दगी में
अकस्मात
घट जाती है दुर्घटना,
भीतर रह जाती  है वेदना।
धोखेबाजी से बचना
कभी कभी होता है मुश्किल ,
यह अक्ल पर
पर्दे पड़ने पर
संभव हो पाती है,
जीते जी जिंदगी को नरक
बना जाती है।



मेरे साथ धोखा हुआ,
आज अच्छा भी , ओछा बना।
चलो,समझ बढ़ाने का , एक मौका मिला।
किस से करूं ,
इस बाबत कोई शिकवा गिला ?
धोखा मिलना, धोखा देना,
है ज़िन्दगी में न रुकने वाला सिलसिला।
२८/११/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
चलो
सीधी डगर
न करो तुम
अगर मगर।
कौन सच्चा है
और
कौन है झूठा ?
इस बाबत लड़ो न  अब ,
ढूंढो ,खोजो अपना सच ।
सच बने
आज
एक सुरक्षा कवच।
इस के निमित्त
करो तुम और सभी मिलकर
नियमित प्रयास।

करो न अब
कोई बहाना,
समय सरिता में
सभी को है नहाना।


धोकर अपना मैल मन का ,
तन और मन भी
उज्ज्वल करना है,
लेकर साथ सभी का
हमें अपने लक्ष्यों को वरना है।
इस जगत में लगा रहता
जीना और मरना है,
हम सभी को
अपने अपने भीतर
उजास भरना है।
शुचिता का संस्पर्श करना है।
आज सभी को कर्मठ बनना है।
समय के संग संग चलना है।
२७/११/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
बच्चो !
नकल यदि तुम करोगे ,
नकली तुम खुद को करोगे।


देता हूं यदि मैं तुम्हें
असलियत से
कोसों दूर
कभी
नकली प्यार दुलार!
तुम्हें लुभाने की खातिर
मतलब की चाशनी से सराबोर
चमक दमक के आवरण से
लिपटा कोई उपहार
तो समझिए
मैंने दिया आपको धोखा।
छीन लिया है तुमसे कुछ करने का मौका।


बच्चो!
कभी न कभी करता है
सौ सौ पर्दों में छुपा झूठ
स्वयं को प्रकट
तब छल कपट
स्वत:
होते उजागर ।
ऐसे में
पहुंचता मन को दुःख।
सामने आ जाता है यकायक ,
नकली उपहार मिलने का सच।
कैसे न मन को पहुंचे ठेस ?
कैसे ना मन में पैदा हो
कलह और क्लेश ?
इस समय
आदमी ही नहीं,
आदमियत तक
लगने लगती
धन लोलुप सौदागर ।


बच्चो !
यदि नकल तुम करोगे।
नकली तुम बनोगे।

तुम मां-बाप ,
देश और समाज को डसोगे ।

आज
तुम खुद से
करो ये
वायदे कि
कभी भी
भूल से भी
नकल नहीं करोगे ।
जिंदगी में  नकली
कभी न बनोगे ।
सच के पथ पर
हमेशा चलोगे।
जीवन में मतवातर
आगे बढ़ोगे।
कभी आपस में नहीं लड़ोगे
और परस्पर गले मिलोगे।

०१/०३/२०१३.
परीक्षा में नकल करने की प्रवृत्ति को रोकने और इस के दुष्परिणामों से बचने,बचाने के नजरिए से लिखी गई कविता।
Joginder Singh Dec 2024
उसकी नज़र
लगी कि
जहर भूला ,
अपनी तासीर
ज़िंदगी ,
एक अमृत कलश सरीखी
आने लगती नज़र ।

काश ! उसकी नज़र
सबको आए नज़र
हर कोई चाहता की
भूलभुलैया में खो जाए !
ज़िंदगी एक सतरंगी पींघ पर
झूमने लग जाए !!

उसकी नज़र
चाहत की राहत सरीखी हो जाए ,
आदमी प्रेम धुन गुनगुनाते हुए
समाप्ति की ओर बढ़ता चला जाए ।
उसके चेहरे मोहरे पर
कुछ न करने का मलाल
कभी न आए नज़र ।

उसकी नज़र
इश्क मुश्क की
अनकही इबारत है
जिसकी नींव पर
हरेक निर्मित करना चाहता है ,
भव्यता की पायेदार इमारत ।
भले ही
ज़िंदगी कुछ न करने की
शिकायत करती आए नज़र ।

उसकी नज़र को
किसी की नज़र न लगे कभी भी
उसे महसूस न हो
जीवन में
कोई भी कमी कभी भी ।
उसकी नज़र का ज़हर
पी लेंगे सभी कभी भी ।
अपने भीतर के ज़हर को भूलकर,
तोड़ कर अपने समस्त
सिद्धांत और उसूल !
२२/१२/२०१६.
नया साल इस बार
अच्छे से तैयार होकर आया है।
सबके लिए सकारात्मक सोच से भरे
नए नए विचारों को जीवन धारा में
संयोजित करने का संकल्प लेकर आया है।
अभी अभी पढ़े है मैंने दो मन के भीतर
भरोसा जगाने वाले दो समाचार।
पहला समाचार कुछ इस प्रकार है कि
"अब जेलों में कैदियों और उनके बच्चों को
शिक्षित करेंगे जेबीटी अध्यापक,
(बेरोज़गारी के दौर में ) १५ को मिली नियमित नियुक्ति "
इससे पहले इन पदों पर अस्थाई नियुक्ति होती थी,
अब हुई है नियमित भर्ती।
उम्मीद है देश दुनिया में कार्यरत सरकारें
ऐसी सकारात्मक सोच और योजनाओं को
अपने यहां भी लागू कर पाएंगी,
बेरोज़गारी के खिलाफ़ अपने नागरिकों में
जन चेतना की अलख जगाएंगी ।
देश दुनिया और समाज को जागरूक करते हुए
' वसुधैव कुटुम्बकम् ' के उज्ज्वल पथ पर आगे बढ़ाएंगी।

दूसरा समाचार भी कुछ इस प्रकार है कि
पंचनद प्रदेश के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे
मिड-डे-मील योजना के तहत
सर्दियों के अवकाश के बाद
जनवरी माह के लिए
कड़ाके की ठंड से बचने को ध्यान में रखते हुए
देसी घी से तैयार हलवे और पौष्टिकता से भरपूर खीर का
लुत्फ़ उठा पाएंगे।
अपने भीतर उमंग तरंग और व्यवस्था के सम्मान भाव
जगाते हुए स्वास्थ्यवर्धक योजना का लाभ उठा पाएंगे।

तीसरा समाचार भी कुछ इस प्रकार रहना चाहिए कि
सभी लोग नख से शिख तक जागरूक हो गए हैं,
वे अपने भीतर लक्ष्य सिद्धि के भाव जगा कर
देश, दुनिया और समाज को
सुख समृद्धि, संपन्नता और सौहार्दपूर्ण माहौल की
निर्मित करने की दिशा में बढ़ रहे हैं।
हालांकि यह समाचार मेरे बावरे मन की उपज है।
यह कपोल कल्पित है ।
क्या पता कोई चमत्कार हो जाए !
एक दिन यह भी सच्चाई में बदल जाए !!
फिर कैसे कोई जीवन धारा में पिछड़ जाए ?.... और...
जीवन में अराजकता की आंधी को फैलाने की सोच पाए ?
काश! सभी अपने भीतर सकारात्मक होने की
लग्न और चाहत जगा पाएं।
इसी जीवन में समरसता के साथ जीवन यापन कर पाएं।
०३/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
नाहक
नायक बनने की
पकड़ ली थी ज़िद।
अब
उतार चढ़ाव की तरंगों पर
रहा हूं चढ़ और उतर
टूटती जाती है
अपने होश खोती जाती है
अहम् से
जन्मी अकड़।

निरंतर
रहा हूं तड़प
निज पर से
ढीली होती जा रही है
पकड़।

एकदम
बिखरे खाद्यान्न सा होकर...
जितना भी
बिखराव को समेटने का
करता हूं प्रयास,
भीतर बढ़ती जाती
भूख प्यास!
अंतस में सुनाई देता
काल का अट्टहास!!
  १३/१०/२००६.
Joginder Singh Nov 2024
यदि मेरा
फिर से
कोई मेरा नाम रखना चाहे  
तो मुझे अच्छा लगेगा यह नाम ।
चूंकि भाता नहीं मुझे कोई काम।
श्रीमान जी,
रखिए मेरा नाम निखट्टू,सुबह से शाम तक
सुननी पड़ती
तरह तरह की बातें...!

प्रतिक्रिया देना मैने छोड़ दिया है।
गूंगा बन जीना सीख लिया है।
अकलमंद बन समझौता किया है।
फिर भी बहुत सी
अंतर्ध्वनियों ने मुझे ढेर किया है
सो अब निःशब्द हूं।

आप भी कहेंगे
निखट्टू
निशब्द कैसे हो सकता है?
उत्तर है जी,
यह तो वही जानता है।
जो कुछ अच्छा बुरा खोजने पर
प्रतिक्रिया न कर चुप रहना सीख गया है।
जिसके पास संवेदना के बावजूद चुप्पी है,
वह नि:शब्द नहीं तो क्या है?
है कोई प्रत्युत्तर जी??

अब
निखट्टू को
परिभाषित करता हूँ,
ऐसा व्यक्ति
जो देश काल से
निर्लिप्त रहे,
आदेशों के बावजूद
कुछ भी न करे।
कोई उस पर कितना ही चिल्लाए,
पर वह चुप रहने से बाज़ न आए।
...और जो जरूरत के बावजूद
कुछ न करे,
निष्क्रियता की चादर ओढ़कर
देश, घर,दुनिया में कहीं पड़ा रहे।
ऐसे आदमी को निखट्टू कहते हैं।
जिसके वजूद को सब सहने को मजबूर हैं।
कमल देखिए, उसे सारी समझ है,फिर भी चुप है।
वह निखट्टू नहीं तो क्या है?

मुझे विदित है कि निखट्टू
आदतन
लिखती, निखट्टू रह जाते हैं।
वरना,मौका मिले तो वह सब के कान कतर दें।
यदि किसी व्यक्ति  को जीवन में उद्देश्य न मिले,
तो वह धीरे धीरे  एक निखट्टू में तब्दील हो जाता है।
एक दिन चिकना घड़ा बन जाता है,
जिस के कान पर जूं तक नहीं रेंगती।
कोई कितना ही अपनी खीझ उस पर निकाले,
निखट्टू हर दम हंसता मुस्कुराता रहता है।
निखट्टू  तो निखट्टू है,
वह तो बेअसर है।
उसे अपने तरीके से जिंदगी जीनी है, भले ही
किसी को वह एकदम
सिर से पैर तक   ढीठ लगे,
बेशर्मी का ताज उसके सिर ही सजे।
भई वाह!निखट्टू के मजे ही मजे!!
Joginder Singh Nov 2024
निजता को
यदि बचाना है
तो कीजिए एक काम।
मोबाइल तंत्र से
प्रतिदिन
कुछ घंटों के लिए
ले लीजिए विश्राम।
ताकि तनाव भी
तन से दूर रहे,
निज देह में
नेह और संवेदना बनी रहे।
Joginder Singh Nov 2024
वत्स का उत्स
उत्सव में छिपा है!
समय और उसने
कहीं कुछ छिपाया नहीं!!
आगे बढ़ने की ललक
बराबर भीतर बनी रही,
इसे कभी दबाया नहीं।
बस आप इसे समझिए सही।
जीवन में गड़बड़ी न होगी कभी।
००५/२०२०.
Joginder Singh Dec 2024
"समय पर
लग गई ब्रेक
वरना छुट्टी निश्चित थी !
कोर्ट , कचहरी , जेल में
हाज़िरी पक्की थी ! "

ड्राइवर की ,
बस के आगे चलती ...,
मोटरसाइकिल ,
मोटरसाइकिल सवार की
क़िस्मत अच्छी थी कि
समय पर लग गई ब्रेक !
नहीं तो झेलना पड़ता
संताप का सेक !!

आप क्या समझते हैं ?
ड्राइवर ने उपरोक्त से
मिलता जुलता कुछ सोचा होगा ??


मेरा ख्याल है --
शायद नहीं !
न ही ड्राइवर ने ,
न ही मोटरसाइकिलिस्ट ने
कुछ दुर्घटनाग्रस्त होने से
बाल बाल बचने की बाबत सोचा होगा।

सड़क पर
वाहन लेकर उतरना
हमेशा से जोखिम मोल लेना रहा है ।
यहाँ  गंतव्य तक पहुंचने, न पहुंचने  का खेल
चलता रहता है दिन रात ।
यह खेल जिंदगी और मौत के
परस्पर शतरंज की बाज़ी खेलने जैसा है ।
ट्रैफिक लाइटों से लेकर
ट्रैफिक जाम तक
सभी करते हैं एक सवाल
जिसमें छिपा है जीवन का मर्म
जब जीना मरना लगने लगे  
बढ़ते ट्रैफिक की वज़ह से
एक सामान्य घटनाक्रम!
तब कुछ भी
हतप्रभ और
शोकाकुल करने जैसा नहीं।
सड़क भागती है दिन रात अथक
या फिर मोटर गाड़ियां ?
या फिर उनमें बैठी सवारियां, ...!
कौन भागता है सड़क पर ?
लारियां , सवारियां या फिर समय ?


दोस्त , सड़क पर
बहुत कुछ घटित होता है
यहाँ कोई जीतता है तो कोई हारता है।
कोई जिन्दा बच जाता है तो कोई
अपनी जिन्दगी को असमय खो देता है।
कोई सकुशल घर पहुंचता है,
तो कोई अपना अंतिम सफ़र पूर्ण करता है।
इस बाबत कभी नहीं सोचती सड़क, न ही ड्राइवर ।
यह सब कुछ सोचता है...!
वही‌ सोच सकता है
जो निठल्ला है
और अपनी मर्ज़ी का मालिक है ,
कविताएं लिखता है,
वह ताउम्र बस में यात्रा करता है
और हर समय जीवन के रंगों के बारे में सोच सकता है।
वह अपने आसपास से बहुत नज़दीक से जुड़ा होता है।

२०/०३/२००८.
दुनिया
निन्यानवे के फेर में
पड़ कर
आगे बढ़ रही है ,
खूब तरक्की
कर रही है!
जबकि
आदमी
इसी निन्यानवे के
फेर में
फंस कर
अपना सुख और सुकून
गंवा बैठा है ,
वह यह क्या
कर गया है ?
किस सुख की खातिर
शातिर बन गया है ?
जीवन का सच है कि
सुख
धन की तरह
किसी एक को होकर
नहीं रहा,
वह यायावर बना  
सतत्
यात्रा कर रहा।
आज
वह आपके पास
तो हो सकता है कि
कल
वह किसी धुर विरोधी के
पास
अपनी उपस्थिति का
करा रहा
अहसास हो।
वह उड़ा रहा
निन्यानवे के फेर का
उपहास हो।
जीवन में
निन्यानवे के फेर में रहा ,
कभी सुख का
एक पल कभी
जोड़ नहीं सका ,
बेशक सूम बना रहा ,
परिवार की आंख में
किरकिरी बना रहा !
सबको बुरा लगता रहा !
यह दर्द चुपचाप सहता रहा !!
१०/०४/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
कभी कभी
जीवन के मोह में पड़कर
अनियंत्रित हो जाता हूं ,
अपने आप पर काबू खोकर ,
अराजक होकर ,
एक भंवर में खो सा जाता हूं
और  
खुद की
निगाहों में ,
एक कायर
लगने लगता हूं ,
ऐसे में
एक हूक सी उठती है हृदय से
कुछ न कर पाने की ,
अच्छी खासी ज़िंदगी के
बोझ बन जाने की ,
खुद ‌को  न समझ पाने की ।

अचानक
अप्रत्याशित
उपेक्षित
अनपेक्षित घटनाक्रम की
करने लगता हूं
इंतज़ार ,
कभी तो पड़ेगी
समय की गर्द से सनी
मैली हुई देह पर
चेतना के बादल से
निस्सृत
कोई बौछार
मन की मैल धोती हुई ,
जीवन की मलिनता को
निर्मल करती हुई।
मन के भीतर से
कभी कभी सुन पड़ती है
अंतर्मन की आवाज़
जो रह रहकर
अंतर्मंथन की प्रेरणा देती है,
स्वयं से
अंतर्साक्षात्कार ‌के लिए
करती है धीरे धीरे तैयार।
स्वयं पर
नियंत्रण रखने को कहती है।
यह अंतर्ध्वनि
जीवन पथ
सतत् प्रशस्त होते रहने का
देती है आश्वासन।
फिर यह अचानक से अंतर्ध्यान हो जाती है
और वैयक्तिक सोच को
ज़मीनी हक़ीक़त की सच्चाई से
जोड़ जाती है।
सच! इस समय
इंसान को
अपने जीवन की
अर्थवत्ता
समझ में आ जाती है।
उसकी समझ यकायक बढ़ जाती है।
०९/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
जीवन की ऊहापोह और आपाधापी के बीच
किसी निर्णय पर पहुँचना है
यकीनन महत्वपूर्ण।
....और उसे जिन्दगी में उतारना
बनाता है हमें किसी हद तक पूर्ण।

कभी कभी भावावेश में,
भावों के आवेग में बहकर
अपने ही निर्णय पर अमल न करना,
उसे सतत नजरअंदाज करना,
उसे कथनी करनी की कसौटी पर न कसना,
स्वप्नों को कर देता है चकनाचूर ।
समय भी ऐसे में लगने लगता, क्रूर।

कहो, इस बाबत
तुम्हें क्या कहना है?
यही निर्णय क्षमता का होना
मानव का अनमोल गहना है।
यह जीवन को श्रेष्ठ बनाना है।
जीवन में गहरे उतर जाना है ।
जीवन रण में
स्वयं को सफल बनाना है।
   ८/६/२०१६.
Joginder Singh Dec 2024
आदमी
यदि जानबूझकर
अपनी ज़िद पर
अड़ा रहे ,
दूसरे को जिंदगी के
कटघरे में
खड़ा करे
तो व्यक्ति
क्या करे ?
क्यों न वह
निंदा को
एक हथियार
बनाकर
शक्ति प्रदर्शन करे ?
सोचिए
ज़रा खुले मन से ,
उसको
शर्मिन्दा करने के लिए
थोड़ी सी
निंदा की है ,
कोई
कमीनगी
थोड़ा की है ,
जैसा को तैसा वाली
प्रतिक्रिया
भर की है ।

११/१२/२०२४.
दोस्त ,
इस जहान में
नीति निवेशक बहुत हैं ,
जो नीति की बात करते हैं !
अनीति की राह चलते हैं !
कुरीति के ग्राफ को
बढ़ावा देकर
अपनी जेब भरते हैं।
ये दिनोदिन वजनदार
होते जाते हैं,
भारी भरकम
व्यक्तित्व के मालिक
पहली नज़र में दिखाई पड़ते हैं ।
नख से शिख तक
रौबीले दिखाई देते हैं।

ये नीति निवेशक
हज़ार खामियों के बावजूद
हमारे आदर्श बनते जाते हैं।
ये कभी कभी
संचार माध्यम की कृपा से
हमेशा हमारे घरों तक पहुँच कर
हमें सपने दिखलाकर
अपनी रोजी रोटी चलाते हैं।
हमें मूर्ख तक बनाते हैं।
यदा कदा अपनी धूर्तता और विद्रूपता से
जीवन को नर्क बना देते हैं।
हमारे विरोध करने पर अपने तर्क से
कभी कभी हमें चुप भी करा देते हैं।

जब कभी हम
उनकी असलियत को
समझते हैं ,
तब तक हो चुकी होती है देर
हम ढेर
होने की कगार पर
पहुंचने वाले होते हैं।

कभी कभी हम
उन पर
फब्तियां भी कस देते हैं
वे चुप रह कर
अपनी मुस्कुराहट नहीं छोड़ते।
हमारी व्यंग्योक्तियों को
वे नज़र अंदाज़ कर देते हैं।
हमें चुप कराने के निमित्त
वे कुछ निवाले
हमारी तरफ़ फ़ेंक दिया करते हैं
और हम उन्हें बटोर
विरोध भूल जाते हैं।
वे जब कभी हमारी ओर देख मुस्कुराते हैं,
हम उनकी इस मुस्कुराहट से तिलमिला उठते हैं।
वे हमें शर्मिंदगी का अहसास
बराबर करवा कर
हमें बौना ‌महसूस करने को आतुर रहते हैं
और कर देते हैं  हमें विवश एवं लाचार।
वे अपने लक्ष्य को सामने रखकर
जीवन में आगे बढ़ने का करते हैं प्रयास।
वे हमें अकेलेपन की सरहद पर छोड़
यकायक किनाराकशी करते हुए
नवीनतम नीति निवेश हेतु
चल देते हैं ‌अपनी डगर।
वे अपने व्यक्तित्व के अनुरूप
कभी कभी यकायक
हमारी जिंदगी को
मतवातर बनाते रहते हैं विद्रूप
हम उनके इरादों को समझ नहीं पाते।
ज़िंदगी भर नीति निवेशकों के मकड़जाल में फंसकर ,
दिन-रात कसमसाते हुए , रहते हैं पछताते,
पर उन पर
होता नहीं कोई असर।
04/01/2025.
जब चाहकर भी
नींद नहीं आती,
सोचिए जरा
उस समय
क्या जिन्दगी में
कुछ अच्छा लगता है ?
जिन्दगी का पल पल
थका थका सा लगता है।
नींद की चाहत
शेयर मार्केट की तेज़ी सी
बढ़ जाती है।
ऐसे समय में
सोना अर्थात नींद की चाहत
सोने से भी
अधिक मूल्यवान लगने लगती है।
आंखों की पलकों पर
नींद की खुमारी दस्तक
देने लगे तो सब कुछ
अच्छा अच्छा लगता है।
समय पर सो पाना ही
जीवन में सच्चा
और आनन्ददायक ,
सुख का अहसास
होने की प्रतीति कराने लगता है।
समुचित नींद न मिल पाए
तो सचमुच आदमी को
झटका लगता है ,
उसे जीवन में
सब कुछ भटकाता हुआ ,
खोया खोया सा लगता है।
पल पल मन में कुछ खटकता है।
जीवन यात्रा में भीतर धक्का लगता सा लगता है।
नींद का इंतज़ार बढ़ जाता है।
आदमी को कुछ भी नहीं भाता है ,
भीतर का सुकून कहीं लापता हो जाता है।
१९/०२/२०२५.
सुख में वृद्धि कैसे हो ?
दुःख में कमी कैसे हो ?
सुख और दुःख में
आदमी कैसे तटस्थ रहे ?
वह जीवन धारा में ‌बहकर
लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु
स्वयं को संतुलित कैसे करे ?

जब कभी इस बाबत सोचता हूं
तो आता है नज़र ,
आज का आदमी है प्रखर।
वह नींद में भी
कभी कभी सोच विचार कर
अत्यधिक चिंतित और विचारमग्न रहकर
कर लेता है खुद को बीमार।
वह नींद में चलने फिरने लगता है।
उसके जीवन में चोट लगने की
संभावना बढ़ जाती है।
जागने पर वह बहुत कुछ भूला रहता है।

नींद में चलना कतई ठीक नहीं।
यह आदमी को कहीं भी पहुंचा देता है।
यह आदमी को कभी कभार नुकसान पहुंचा देता है।
इस पर काबू पाया जा सकता है।
आदमी को जीवन में ठोकर लगने से पहले ही
सजग करते हुए बचाया जा सकता है।

वैसे नींद में चलना कोई ख़तरनाक बीमारी नहीं।
यह किसी को भी हो सकती है,
बचपन में ज्यादा और वयस्कों में बहुत कम।
यदि किसी को
नींद में चलने की बाबत
बताया जाता है
तो वह हैरान रह जाता है,
जब तक उसे प्रमाणित किया जाता नहीं।
और यह है भी सही,
कौन नींद में चलने के आरोप को सहे ?
वैसे सच है कि अज्ञान की नींद में सोया हुआ
व्यक्ति और समाज तक
तकलीफ़ के बावजूद
मतवातर आगे बढ़ते देखे गए हैं।
नींद में चलने वाला आदमी भी  
अचेतावस्था में आगे बढ़ता है।
बेशक ‌जागने पर
वह अपनी इस अवस्था की बाबत
सिरे से इंकार करे।
नींद में चलना बिल्कुल स्वाभाविक है,
बेशक यह चेतन व्यक्ति को अच्छा न लगे।
जीवन धारा हरेक अवस्था में आगे बढ़ी है,
यह रोके से न कभी रुकी है।
यह सोई ही कब थी ?
जो अपनी नींद से जगने पर
हड़बड़ाए आदमी सी जगी है।
नींद में चलना स्वप्न में जीवन जीने जैसा है।
स्वप्न भंग हुआ नहीं कि
सब कुछ नष्ट प्रायः और भूल-भुलैया में खोने सरीखा ,
कुछ कुछ फीका
और
कुछ कुछ तेज़ मिर्ची सा तीखा और तल्ख।
२९/०१/२०२५.
जब पहले पहल
नौकरी लगी थी
तब तनख्वाह कम थी
पर बरकत ज़्यादा थी।
अब आमदनी भी
पहले की निस्बत ज़्यादा,
पर बरकत बहुत ही कम!
कल थरमस खरीदी,
दाम दिए हजार रुपए से
थोड़े से कम !
पहली नौकरी में
महीना भर काम करने के
उपरांत मिले थे
पगार में लगभग नौ सौ रुपए।
मैं बहुत खुश था !
कल मैं सन्न रह गया था !
निस्संदेह
महंगाई के साथ साथ
संपन्नता भी बढ़ी है।
पर इस नक चढ़ी
महंगाई ने
समय बीतते बीतते
अपने तेवर
दिखाए हैं!
कम आय वर्ग को
ख़ून के आँसू रुलाए हैं !
बहुत से मेहनतकश
बेरहम महंगाई ने
जी भर कर सताए हैं !!
आओ कुछ ऐसा करें!
सभी इस बढ़ती महंगाई का सामना
अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करते हुए करें।
सब ख़ुशी ख़ुशी नौकरी और काम धंधा करें,
वे इस बढ़ती महंगाई को विकास का नतीजा समझें ,
इससे कतई न डरें !
वे महंगाई के साथ साथ
जीवन संघर्ष में जुटे रहें !!
०३/०३/२०२५.
आज भी
अराजकता के
इस दौर में
आम जनमानस
न्याय व्यवस्था पर
पूर्णरूपेण करता है भरोसा।

बेशक प्रशासन तंत्र
कितना ही भ्रष्ट हो जाए ,
आम आदमी
न्याय व्यवस्था में
व्यक्त करता है विश्वास ,
वह पंच परमेश्वर की
न्याय संहिता वाली आस्था के
साथ दूध का दूध , पानी का पानी होना
अब भी देखना चाहता है
और इसे हकीकत में भी देखता है ,
आज भी आम जन मानस के सम्मुख
कभी कभी न्यायिक निर्णय बन जाते हैं नज़ीर और मिसाल
...न्याय व्यवस्था लेकर बढ़ने लगती है जागृति की मशाल।
उसके भीतर हिम्मत और हौंसला
पैदा करती है न्याय व्यवस्था,
त्वरित और समुचित फैसले ,
जिससे कम होते हैं
आम और खास के बीच बढ़ते फासले।
न्यायाधीश
न्याय करता है
सोच समझ कर
वह कभी भी एक पक्ष के हक़ में
अपना फैसला नहीं सुनाता
बल्कि वह संतुलित दृष्टिकोण के साथ
अपना निर्णय सुनाता है ,
जिससे न्याय प्रक्रिया कभी बाधित न हो पाए।
आदमी और समाज की चेतना सोई न रह जाए।
जीवन धारा अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ पाए।
०५/०१/२०२५.
काश! यह जीवन
एक तीर्थ यात्रा समझ कर
जीना सीख पाता
तो नारकीय जीवन से
बच जाता।
इधर उधर न भटकता फिरता।
चिंता और तनाव से बचा रहता।
जीवन के लक्ष्य को भी
हासिल कर लेता।
अब पछतावा भी न होता।
पछतावा
विगत की गलतियों का
परछावा भर है।
आदमी समय रहते
संभल जाए ,
यही इसका हल है।
पछताने और इसकी वज़ह को
समझ कर
समय रहते
निदान करने से
आदमी का बढ़ जाता
आत्मबल है।
जो बनता जीने का
संबल है।
०५/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
समय समर्थ है
और आदमी
उससे ,जब लेने लगता है होड़
तब कभी-कभी
जीत अप्रत्याशित ही
उसका साथ देती छोड़।


अपनी हार
सदैव होती है
बर्दाश्त से बाहर
इससे करेगा कौन इन्कार?


आदमी ने कब नहीं
वजूद की खातिर
किया समझौता स्वीकार ?
पर अंतरात्मा रही है साक्षी,
सांसें रहीं घुटी घुटी।
अंततः होना ही पड़ा
आदमी और आदमियत को
शनै: शनै: हाशिए से बाहर।
आदमी भूलता गया
वसंत का मौसम!
उसे करना पड़ा
पतझड़ का श्रृंगार !


सच! मैं अब
उस समझौता परस्त
आदमी सा होकर
खड़ा हूं बीच बाज़ार,
बिकने की खातिर
एकदम
घर और दफ्तर की चौखट से बाहर।
साथ ही सर्वस्व
हाशिए से बाहर
होते जाने को अभिशप्त है ,
अंदर बाहर तक हड़बड़ाया !!
जो करता रहा है इंतज़ार,
जीवन भर !
बहार का नहीं ,
बल्कि
पतझड़ का,
ताकि
हो सके संभव
पतझड़ का श्रृंगार!!
भले ही वसन्त
देह के करीब से
हवा का झोंका होकर
जाए गुजर ,
पर
छोड़ न पाएं
अपना कोई असर।

सो आदमी करने
लगता है
कभी कभी सीधे ही
जीवन में
वसंत को
छोड़ कर ,
पतझड़ का इंतजार
ताकि
कर सके  वह
पतझड़ का श्रृंगार।
उसके लिए भी वसन्त की ही
करनी पड़ती है प्रतीक्षा,
तभी संभव है
कि आदमी
वसंत ऋतु में
देख ले मन की
आंखों  के भीतर से,
वसन्त कर रही है
चुपचाप
अपने आगमन की
प्रतीति कराकर ,
अपनी उज्ज्वल काया से
पतझड़ का श्रृंगार ।
०६/०१/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
एक पत्ता
पेड़ से गिरा ही था कि
मुझे हुआ अहसास,
कोई अपना पता भूल गया है,
उसे तो सृजनहार से मिलने जाना था।
जाने अनजाने ही!
शायद गिरने के बहाने से ही!!

सोचता हूं...
वो कैसे
उस सृजनहार को
अपना मुख दिखला पाएगा।
कहीं वह भी तो नहीं
डाल से गिरे पत्ते जैसा हो जाएगा।
कभी मूल तक न पहुंच पाएगा।
१४/०५/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
जनाब! बुरा मत मानिएगा।
मारने की ग़र्ज से छतरी नहीं तानिएगा।

बुरा मानने का दौर चला गया ।
पता नहीं ,यह शोर कब थमेगा?

बुरा! बुरा !! बुरा !!!
आजकल हो गया है ।
हमारी सभ्यता का धुरा।

बुरा देखते-देखते
चुप रह जाने की आदत ने
हमें जीती जागती बुराई को
अनदेखा करना सिखा दिया है!
हमें बुराई का पुतला बना दिया है!!

पता नहीं कब राम आएंगे ?
अपने संगी साथियों के संग
बुराई का दहन करने का बीड़ा उठाएंगे।
भारत को राम राज्य के समान बनाएंगे ।
मुझे सच में
पता नहीं था कि
जिगरी यार
कर जाएगा
यार मार।
वह बरगला ले जाएगा
मेरा प्यार।
सच !
अब मुझे
यारी दोस्ती पर
एतबार नहीं रहा।
आजतक
अर्से तक
अंदर ही अंदर
एक अनाम दर्द सहता रहा ,
जब रहा नहीं गया
तो थक हार कर
अपना दुखड़ा कहा।
यार मार
किसी भी मामले में
जज़्बात की हत्या से कम नहीं,
यार मार करने में कोई किसी से कम नहीं।
आज यह बन चुकी रवायत है,
मुझे इस बाबत ही आप सभी से करनी शिकायत है।
दोस्त!
यार मार से बच ,
कभी तो अपना किरदार गढ़
और जीवन धारा में
सार्थक दिशा में बढ़ ,
भूल कर भी
किसी से अपेक्षा न रख ,
न ही अपने भीतर के इन्सान से लड़।
सच से रूबरू होने की खातिर
दिल से प्रयास कर।
ताकि फिर से यार मार करने से बच सके!
जीवन में प्यार के मायने को समझ सके!!
३०/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
यह सच है कि
समय की घड़ी की
टिक टिक टिक के साथ,
वह कभी न चल सका ,
बीच रास्ते हांफने लगा ।
एक सच यह भी है
कि अपनी सफलता को लेकर
सदैव रहा आशंकित और डरा हुआ,
लगता रहा है उसे,
अब घर ,परिवार ,
समाज में
केवल
बचा रह गया है छल कपट ।
दिल और दिमाग में
छाया हुआ है डर ,
जो अंधेरे में रहकर,
मतवातर हो रहा है सघन ।
एक भयभीत करने वाली धुंध
पल प्रति पल कर रही भीतर घर,
बाहर भीतर सब कुछ अस्पष्ट !
वह हरदम है भटकने को विवश!!
फलत: वह है पग पग पर है
हैरान और परेशान !


सोचता हूं कि  
क्या वह
घर से बेघर होकर ,
एक ख़ानाबदोश बना हुआ ,
भटकता  रहेगा जीवन भर ?
क्या यही उसके जीवन का सच है?
क्या कोई बन पाएगा
उसका मुक्ति पथ का साथी ?
जिसे खोजते खोजते सारी उम्र खपा दी !०६/०१/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
यह सच है कि
घड़ी की टिक टिक के साथ
कभी ना दौड़  सका,
बीच रास्ते हांफने लगा।

सच है यह भी कि
अपनी सफलता को लेकर
रहा सदा मैं
आशंकित,
अब केवल बचा रह गया है भीतर मेरे
लोभ ,लालच, मद और अहंकार ।
हर पल रहता हूं
छल कपट करने को आतुर ।
किस विधि करूं मैं अंकित ,
मन के भीतर व्यापे भावों के समुद्र को
कागज़,या फिर कैनवास पर?
फिलहाल मेरे
दिल और दिमाग में
धुंध सा छाया हुआ है डर ,
यह बना हुआ
आजकल
मेरे सम्मुख आतंक ।
मन के भीतर व्यापे अंधेरे ने
मुझे एक धुंधलके में  ला खड़ा किया है।
यह मुझे मतवातर करता है
भटकने को हरदम विवश !
फल स्वरूप
हूं जीवन पथ पर
क़दम दर कदम
हैरान और परेशान !!

कैसे, कब और कहां मिलेगी मुझे मंजिल ?

कभी-कभी
थक हारकर
मैं सोचता हूं कि
मेरा घर से बेघर होना ,
ख़ानाबदोश सा भटकना ही
क्या मेरा सच है?
आखिर कब मिलेगा मुझे
आत्मविश्वास से भरपूर ,एक सुरक्षा कवच ,
जो बने कभी
मुक्तिपथ का साथी
इसे खोजने में मैंने
अपनी उम्र बिता दी।
मुझे अपने जीवन के अनुरूप
मुक्तिपथ चाहिए
और चाहिए जीवन में परमात्मा का आशीर्वाद ,
ताकि और अधिक जीवन की भटकन में
ना मिले
अब पश्चाताप और संताप।
मैं खोज लूं जीवन पथ पर आगे बढ़ते हुए ,
सुख और सुकून के दो पल,
संवार सकूं अपना वर्तमान और कल।
मिलती रहे मुझे जीवन में
आगे बढ़ने की शक्ति और आंतरिक बल।
०६/०१/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
यह हक़ीक़त है कि
जब तक रोशनी है ,
तब तक परछाई है ।
आज तुम
खुद को रोशनी की जद में पहुंचा कर
परछाई से
जी भरकर लो खेल।
अंधेरे ने
रोशनी को
निगला नहीं कि
सब कुछ समाप्त!
सब कुछ खत्म!
पटाक्षेप !


और
है भी एक हक़ीक़त,
जो इस जीवन रूपी आईने का
भी है सच कि
जब तक अंधेरा है,
तब तक एक्स भी नजर नहीं आएगा।
अंधेरा है तो नींद है,
अंधेरे की हद में
आदमी भले ही
देर तक सो ले ,
अंधेरा छंटा नहीं कि
उसे जागना पड़ता है।

अंधेरा छंटा नहीं ,
समझो सच की रोशनी ने
आज्ञा के अंधेरे को निगला कि
सब कुछ जीवित,
जीवन भी पूर्ववत हुआ
अपनी पूर्व निर्धारित
ढर्रे पर लौटता
होता है प्रतीत।

जीवन  वक्त के संग
बना एक हुड़दंगी सा
आने लगता है नज़र।
वह समय के साथ
अपनी जिंदादिल होने का
रानी लगता है
अहसास,
आदमी को अपना जीवन,
अपना आसपास,
सब कुछ लगने लगता है
ख़ास।
बंधुवर,
आज तुम जीवन का खेल समझ लो।
जीवन समय के साथ-साथ
सच  को आग बढ़ाता जाता है ,
जिससे जीवन धारा की गरिमा
करती रहे यह प्रतीति कि
समय जिसके साथ
एक साथी सा बनकर रहता है,
वह जीवन की गरिमा को
बनाए रख पाता है ,
जीवन की अद्भुत, अनोखी, अनुपम,अतुल छटा को
जीवन यात्रा के क़दम क़दम पर  
अनुभूत कर पाता है ,
समय की लहरों के संग
बहता जाता है ,
अपनी मंजिल को पा जाता है ।

घटतीं ,बढ़तीं,मिटतीं, बनतीं परछाइयां
रोशनी और अंधेरे की उपस्थिति में
पदार्थ के इर्द-गिर्द
उत्पन्न कर एक सम्मोहन
जीवन के भीतर भरकर एक तिलिस्म
क़दम क़दम पर मानव से यह कहती हैं अक्सर ,
तुम सब रहो मिलकर परस्पर
और अब अंततः अपना यह सच जान लो कि
तुम भी एक पदार्थ हो,
इससे कम न अधिक... जीवन पथ के पथिक।
मत हो ,मत हो , यह सुनकर चकित ।
सभी पदार्थ अपने जीवन काल को लेकर रहते भ्रमित
कि वे बने रहेंगे इस धरा पर चिरकाल तक।
परंतु जो चीज बनी है, उसका अंत भी है सुनिश्चित।

२०/०५/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
जिन्दगी भर गुनाह किए ,
फिर भी है चाहत ,
मुझे तेरे दर पर
पनाह मिले।

कर कुछ इनायत
मुझ पर
कुछ इस तरह ,जिंदगी!

अब और न भटकना पड़े,
क़दम दर क़दम मरना न पड़े !
शर्मिंदा हूँ....कहना न पड़े!!
    २१/०४/२००९
Joginder Singh Nov 2024
जब संबंध शिथिल हो चुके हैं,
अपनी गर्माहट खो चुके हैं,
तब अर्से से न मिलने मिलाने का शिकवा तक,
हो चुका होता है बेअसर,
खो चुका होता है अपने अर्थ।
ऐसे में लगता है
कि अब सब कुछ है व्यर्थ।
कैसे कहूं  ?
किस से कहूं ?
क्यों ही कहूं?
क्यों न अपने  में सिमट कर रहूं ?
क्यों धौंस पट्टी सब की सहूं ?
अच्छा रहेगा ,अब मैं
चुप रहकर
अकेलेपन का दर्द सहूं।
वक्त की हवा के संग बहूं।


कभी-कभी
अपने मन को समझाता हूं,
यदि मन जल्दी ही समझ लेता है ,
जीवन का हश्र
एकदम से ,
तो हवा में
मैं उड़ पाता हूं !
वरना पर कटे परिंदे सा होकर
पल प्रति पल
कल्पना के आकाश से ,
मतवातर नीचे गिरता जाता हूं ,
जिंदगी के कैदखाने में
दफन हो जाता हूं।


मित्र मेरे,
पर कटे परिंदे का दर्द
परवाज़  न भर पाने की वज़ह से
रह रह कर काटता है मुझे ,
अपनी साथ उड़ने के लिए
कैसे तुमसे कहूं?
इस पीड़ा को
निरंतर मैं सहता रहूं ।
मन में पीड़ा के गीत गुनगुनाता रहूं ।
रह रह कर
अपने पर कटे होने से
मिले दर्द को सहलाता रहूं।
पर कटे परिंदे के दर्द सा होकर
ताउम्र याद आता रहूं।

१०/०१/२००९.
मनुष्य का
इस धरा पर आगमन
किस लिए हुआ ?
यह अकारण नहीं ,
क्या इस में कुछ रहस्य छिपा ?
मनुष्य
योनियों के एक मायाजाल से
उभरकर
विशेष प्रयोजनार्थ
लेता है जन्म।
उसमें
अन्य जड़ पदार्थों
और चेतन प्राणियों की
तुलना में
कुछ विशेष चेतना
धीरे धीरे
काल के समंदर से गुज़र कर
है विकसित हुई
ताकि वह चेतन की अनुभूति कर सके !
निरर्थकता से ऊपर उठकर
जीवन की सार्थकता को अनुभूत कर सके !
हमारे यहां सनातन में
कर्म चक्र के प्रति आस्था व्यक्त की गई है ,
कर्म फल यानी कार्य कारण संबंध !
कुछ भी नष्ट नहीं !
महज़ ऊर्जा का रूपांतरण !!
इस आस्था के साथ जनम !
जीवन धारा को
चेतना बनकर
आत्मा में प्रवेश करने का
साक्षात निमंत्रण!
आवागमन का चक्र
इस सृष्टि में चल रहा है।
मनुष्य की चेतना में एक ख्याल कि
वह इस धरा पर क्यों जन्मा ?
क्या मनुष्य को छोड़कर
किसी अन्य जीव में आ सकता है ?
इस बाबत भी
कभी फ़ुर्सत में
विचार कीजिए?
अपनी दृष्टि को आधार दीजिए !
जीव जगत के बाबत
अपना दृष्टिकोण विकसित कीजिए !!
अपनी जगत में उपस्थिति को
दर्शन की पैनी धार दीजिए !
स्वयं को आत्म बोध करने की
दिशा में अग्रसर कीजिए !!
२२/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
निज के रक्षार्थ
दूर रखिए
स्वयं से स्वार्थ।
कैसे नहीं अनुभूत होगा परमार्थ?
जीवन में
अपने बच्चों को
आज़ादी दे कर
उन्मुक्त रहकर उड़ने दो।
उन्हें जीवन में एक लक्ष्य दो।
फिर उन्हें बगैर हस्तक्षेप
मंज़िल की ओर बढ़ने दो।
उन्हें जी भरकर
अपने रंग ढंग से
जीवनाकाश में
परवाज़ भरने दो।

समय रहते
मोह के बंधनों से
उन्हें मुक्त कर दो
ताकि वे अपने परों को
भरपूर जीवन शक्ति से
खोल सकें,
मन माफ़िक दिशा में
उड़ारी भर सकें।
जीवन यात्रा में
अपनी मंज़िल को
सहर्ष वर सकें।


तनाव रहित जीवन चर्या से
अच्छे से परवाज़ भरी जाती है,
अतः बच्चों के भीतर
आत्मविश्वास भरने दो,
उन्हें अपने सपने साकार करने दो।
उन्हें परवाज़ के लिए खुले छोड़ दो
ताकि उनका जीवन यात्रा पथ के लिए
अपने को कर सके समय रहते तैयार।
वे करें न कभी आप से
कभी कोई शिकवा और शिकायत।
उन्हें मिलनी ही चाहिए
ऊर्जा भरपूर रवायत ,
परवाज़ भरने की !
मंज़िल वरने की !!
११/०३/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
असहिष्णु को
सहिष्णु बनाना
हो सकता है
चुनौतीपूर्ण दुस्साहस !
आप इस बाबत
उड़ा सकते हैं उपहास !
सच यह है , दोस्त !
यह नामुमकिन नहीं ,
बशर्ते आप होना चाहें सही।
आप परिवर्तन को स्वीकारें ,
न कि खुद को
बाहुबली समझें और अंहकारे फिरें ।
मारामारी का दर्प पाल कर ,
मारे मारे फिरें ।
निज के विरोधाभासों से
सदैव रहें घिरे ।
अपने आप से होकर मंत्र मुग्ध !
खोकर अपनी सुध-बुध !
कहीं बन  न जाएं संदिग्ध!

तब आपकी पहचान संदेह के
घेरे में आ जाएगी ।
ज़िंदगी नारकीय हो जाएगी।
परिवर्तन अपरिहार्य है ,
हमें यही स्वीकार्य है।

०९/०४/२०१७.
Joginder Singh Dec 2024
वाह!
परिवर्तन की हवा
देने लगी है
हमारे जीवन में दस्तक ।
आओ , इसके स्वागत के निमित्त
हम खुद को विनम्र बनाएं।
अपने मन और मस्तिष्क के भीतर
सोच की खिड़कियों को खोलें।
स्वयं को भी लें आज टटोल।
हम चाहते क्या हैं ?
फिर बाहर भीतर तक
निष्पक्ष होकर
एक बार स्पष्ट हो लें।
ताकि यह जीवन
परिवर्तन की हवा का स्वागत
अपने विगत के अनुभवों की
रोशनी में
दिल और दिमाग को
खुले रखकर
खुले मन से कर ले।
यही बदलाव की हवा
बनेगी अशांत मनों की
रामबाण दवा।

परिवर्तन की हवा
पहुंचने वाली है
सभी सहृदय मानवों के द्वार पर
आओ हम इस के स्वागत के निमित्त
स्वयं को तैयार कर लें।
अपने मनों से पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों की
मैल को अच्छे से साफ कर लें।
अपने जीवन को तनिक समायोजित कर लें।
अपने भीतर संभावना के दीप जगा लें।
२४/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
सफलता का इंतज़ार
किसी परीक्षा से कम नहीं है।
बड़ी मुश्किल से मुद्दतों इंतज़ार के बाद
सफल कहलाने की घड़ी आती है।
परीक्षा देते देते उम्र बीत जाती है।
०७/१२/२०२४.
चोरी चोरी
चुपके चुपके
बहुत कुछ
घटता है छुप छुप के।
अगर अचानक कोई
रंगे हाथों पकड़ा जाता है,
तो उसका प्यार
या फिर लुकाव छुपाव
सबके सामने आ जाता है ,
स्वत: सब कुछ खुल कर
नजर आ जाता है ,
पर्दाफाश हो जाता है।
हरेक शरीफ़ और बदमाश तक
प्रायः इस अनावृत हो जाने की
घबराहट की जद में आ जाता है।
पर्दाफाश होने का डर
आदमी के
समाप्त होने तक
पीछा करता रहता है।
अच्छा रहेगा
आदमी दुष्कर्म न ही करे
ताकि कोई डर
अवचेतन मन में
दु:स्वप्न बनकर
मतवातर पीछा न करे।
16/01/2025.
आज आदमी ने
बाहर और भीतर को
इतना कर दिया है
प्रदूषण युक्त
इस हद तक
कि कभी कभी
लगने लगता है डर...
पर्यावरण बच पाएगा भी कि नहीं ?
जीवन का दरिया
निर्बाध रूप से
बह पाएगा भी कि नहीं ?
हम सब इस धरा पर
ढंग से रह पाएंगे भी कि नहीं ?
इससे पहले कि
कुछ अवांछित घटे
हम सब
अपने अपने ‌ढंग से
पर्यावरण को सुरक्षित रखने के निमित्त
दिन रात सतत प्रयास करें।
क्यों न हम !
प्रतिदिन
अपना अनमोल समय
परिवेश को सुरक्षित करने के निमित्त
दिन भर चिंतन मनन और व्यवहार में निवेश करें।
हम सब सादा जीवन उच्च विचार को अपनाएं।
जीवन की आपाधापी में
समष्टि के रक्षार्थ
अपनी जीवन शैली को
जंगल ,जल, जमीन, हवा,
धरा, पहाड़,जीवनादि के अनुरूप ढालकर
स्वयं को निरंतर संतुलित और जागृत करते जाएं।
आज जरूरत है
आदमी अपनी संवेदना को
समय रहते बचा पाए।
वह प्रकृति के सान्निध्य में रहकर
पर्यावरण को बचाने के लिए
पुरज़ोर कोशिशें करे
ताकि चेतना परिवेश और पर्यावरण के रक्षार्थ
आदमी को क़दम क़दम पर
न केवल मार्गदर्शन करें
बल्कि वह समय-समय पर
विनाश की चेतावनी भी देती रहे ,
आदमी जागरूक और चौकन्ना बना रहे।
आदमजात अपना विकास
समयबद्ध और सुनियोजित तरीके से करे
ना कि विकास के नाम पर
इस धरा पर
विनाश का तांडव होता रहे !!!
प्रकृति रुदन करती दिखाई दे !!!
आओ हम सब परिवेश के रक्षार्थ
अपने अपने जीवन काल में
किसी न किसी तरह से
समर्थन, समर्पण, संघर्ष करते हुए
तन , मन , धन  का  निवेश  करें
ताकि परिवेश और पर्यावरण को बचाया जा सके,
प्रकृति के सान्निध्य में रहकर
जीवन धारा को स्वाभाविक गति से
आगे बढ़ाया जा सके।
जीवन को सुख ,समृद्धि और सम्पन्नता से
भरपूर बनाया जा सके।
इस जीवन में सार्थकता का आधार
निर्मित किया जा सके ,
ताकि आदमी को
कभी भी अपना जीवन
आधा अधूरा न लगे।
वह पूर्णता का अहसास कर सके।
जीवन में क्षुद्रताओं का त्याग कर सके।
२५/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
जानवरों में
होती है जान!
पेड़ों,पक्षियों, सूक्ष्म जीवों में
होते हैं प्राण!!

आदमी
सरीखे पशु में
रहता आया है
सदियों सदियों से
आत्म सम्मान!


फिर क्यों हम
जीव जन्तुओं के वैरी बने हुए?
क्यों न हम सब
परस्पर सुरक्षित रहने की ग़र्ज से
एक विशालकाय
वानस्पतिक सुरक्षा छतरी बुनें?
आज हम सब पर्यावरण मित्र बनें।


बंधुवर! तुम आज इसी पल
पर्यावरण मित्र बनो
और संगी साथियों के साथ
प्रदूषण के दैत्य से लड़ो।
सच की रोशनी में ही आगे बढ़ो।
  १७/०९/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
पापी था ,
पाप कर गया,
धुर अंदर तक धार्मिक भी था,
इसलिए शीघ्र ही
डर भी गया।
सो मैं आंतरिक चेतना की
भगवत कृपा से ,
पश्चातापी बन गया।
मेरा जीवन नरकमय
होने से बच गया।
चारों ओर बुराइयों को देख
व्यर्थ की बहसबाजी में उलझने से
अच्छा है कि कोई पहल की जाए ,
सोच समझ कर बुराई के हर पहलू को जाना जाए ,
और तत्पश्चात उसे दूर करने के प्रयास किए जाएं।
बुरे को बुरा , अच्छे को अच्छा कहने में
कोई हर्ज़ नहीं , बस सब अपने फ़र्ज़ समझें तो सही।
फ़र्ज़ पर टिके रहना वाला ,
कथनी और करनी का अंतर मिटाने वाला
अक्सर जीवन के कठिन हालातों से जूझ पाता है।
वह जीवन के उतार चढ़ावों के बावजूद
सकारात्मक सोच के साथ पहल कर पाता है।
वह जीवन की भाग दौड़ में विजेता बनकर
नए बदलाव लेकर आता है।
अपनी अनूठी पहल के बूते
पहले स्थान को हासिल कर जाता है।
वह जीवन के संघर्षों में अग्रणी होकर
अपनी पहचान बना जाता है।
पहले पहले पहल करने वाला
जीवन के सत्य को जान लेने से
बौद्धिक रूप से प्रखर बन जाता है।
वह स्वतः मान सम्मान का
अधिकारी बन जाता है।
वह जन जीवन से खुद को जोड़ जाता है।
वह हरदम अपने पर भरोसा करके
अपनी उपस्थिति का अहसास करवाता रहता है।
पहल करने वाला प्रखर होता है ,
वह अपनी संभावना खोजने के लिए
सदैव तत्पर रहता है।
०५/०३/२०२५.
सचमुच
पहाड़ पर ‌जिन्दगी
पहाड़ सरीखी होती है
देखने में सरल
पर
उतनी ही कठिन
और संघर्षशील।
पहाड़ी मानस की
दिनचर्या
पहाड़ के वैभव को
अपने में
समेटे रहती है
और पहाड़ भी
पहाड़ी मानस से
बतियाता रहता है
कभी-कभी
ताकि
जीवन ऊर्जा और शक्ति,
जीवन के प्रति श्रद्धा और जिजीविषा
बनी रहे,
पहाड़ी मानस में
संघर्ष का संगीत
सदैव पल पल रचा बसा रहे।
पहाड़ी मानस मस्त मौला बना रहे।
जीवन में हर पल डटा रहे।

मैदान का आदमी
पहाड़ के सौंदर्य और वैभव के प्रति
होता रहा है आकर्षित,
वह पर्यटक बन
पहाड़ को समझना और जानना चाहता है
जबकि पहाड़ी मानस
पहाड़ को अपने भीतर समेटे
घर परिवार और रोज़गार के लिए
सुदूर मैदानों, मरूस्थलों और समन्दरों को ओर जाना।
कुदरत आदमी और अन्य जीवों के इर्द-गिर्द
चुपचाप सतत् सक्रिय रहकर
बुना करती है प्रवास का ताना-बाना,
उसके आगे नहीं चलता कोई ‌बहाना।
सब को किस्मत की सलीब ढोना पड़ती है,
जीवन धारा आगे ही आगे बढ़ती रहती है।
१०/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
मुझे
पाश्चात्य जगत
आकर्षित
करता रहा है,
अपने अंतर्द्वंद्वों से इतर
वह मुझ में
जीवन चेतना और नैतिकता भी
भर रहा है।
आज वह अद्भुत जगत क्यों
परस्पर लड़ रहा है ?
वह
संपन्नता,खुशहाली की
प्रेरणा बना रहा है,
अब क्यों वह
नफरत कीआग से
जल रहा है?
वहाँ का नेतृत्व
क्या कर  रहा है ?
जन साधारण के भीतर
डर भर रहा है।
वहां भी
यहां की तरह
भाई भाई परस्पर
लड़ रहे हैं।
मानव जीवन नर्क बनता
जा रहा है।
दोस्त! कुछ समझ
आ रहा है ?
यह जीवन अपने
अंतर्द्वंद्वों की वज़ह से
निष्फल बीता जा रहा है।
वैसे तो लोग और देश
आपस में लड़ते हैं,
कभी हारते हैं तो कभी जीतते भी हैं।
मेरा देश आज़ादी के बाद
चार युद्ध लड़ चुका है ,
वह अपने पड़ोसी से शांति चाहता रहा है।
पर उसे अशांति ही मिलती रही है।

अब पांचवीं लड़ाई की तैयारी है ।
यह कभी भी शुरू हो सकती है।
कोई भी देश जीते या फिर हारे।
अवाम हर हाल में बदहाल होगी।
देश की प्रगति दशकों पीछे जाएगी।
फिर भी किसी को सुध बुध नहीं आएगी।
कुछ वर्ष ठहर कर क्या फिर से युद्ध लड़ा जाएगा ?
नेतृत्व का अहम् विकास को धराशाई करता नजर आएगा।
जीता हुआ देश हारे  हुए देश को चिढ़ाएगा।
हमारा अपना देश दुर्दिन और दुर्दशा झेलता देखा जाएगा।
व्यवस्था परिवर्तन के बावजूद किसी के हाथ पल्ले कुछ नहीं आएगा।
०३/०५/२०२५.
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