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Joginder Singh Nov 2024
पिता श्री,
एक दिन अचानक
आपने कहा था जब,
"मैं तुम से
कुछ भी अपेक्षा नहीं करता।
बस तुम्हें
एक काम सौंपना चाहता हूँ।
वह काम है...
जाकर अपनी प्रसन्नता खोजो!"
यह सुनकर
अनायास
तब मैं खिलखिलाकर हंस पड़ा था ।
  

अब महसूस होने लगा है,
जीवन में कुछ ठगा गया है।
अब क़दम दर कदम लगता है कि
आजकल
प्रसन्नता ढूंढ़ी जाती है
चारों ओर....
अंदर क्या बाहर...
सुप्रिया के इर्द गिर्द भंवरे सा मंडरा कर
शेखचिल्ली बन खयाली पुलाव पका कर
अपनों को मूर्ख बना कर


प्रसन्नता ढूंढना अब एक चुनौती बन गई है
सौ,सौ प्रयास के बाद
फिर भी कुछ गारंटी नहीं है कि वह मिले,
मिले तो किसी दिलजले मनचले को जा मिले
अन्यथा.... असफलता का चल पड़ता एक सिलसिला,
आदमी खुद के भंवरजाल में धंसा,
किस से करे शिकवा गिला।
आदमी का अंतर्मानस बन जाता एक शिला!

पिता,
आज अंतर्द्वंद्वों से घिरा
मैं आप के कहे पर करता हूँ सोच विचार
तो लगने लगा है कि
सचमुच प्रसन्नता खोजना,
अपनी खुशी तलाशना,
आखिरकार उसे दिल ओ दिमाग से वरना,
किसी एवरेस्ट सरीखी दुर्गम शिखर पर चढ़ना है ।


तुम्हारा  "अपनी प्रसन्नता खोजो " कहना
आज की युवा पीढ़ी के लिए एक अद्भुत पैग़ाम है।

आज मैं बुध बनना चाहता हूँ।
पर सच है कि मैं इर्द गिर्द की चकाचौंध से भ्रमित
बुद्धू सा हो गया हूँ।
बेशक प्रबुद्ध होने का अभिनय कर
लगातार एक फिरकी बना नाच रहा हूँ।

आपका अंश!
कभी कभी
पिता अपना आपा खो
बैठते हैं ,
जब वह अपने लाडले को
निठल्ला बैठे
देखते हैं ।

उनके क्रोध में भी
छिपा रहता है
लाड,दुलार और स्नेह।
पिता के इस रूप से
पुत्र होता है
भली भांति परिचित ,
फलत: वह रह जाता है चुप।
अक्सर वह पिता के आदेश का
करता है निर्विरोध पालन।
बेशक अन्दर ही अन्दर कुढ़ता रहे !
चाहता है पिता का साया हमेशा बना रहे !!

पिता के आक्रोश का क्या है ?
थोड़ी देर बाद एक दम से
ठोस से द्रव्य बन जाएगा !
कभी कभी वह छलक भी जाएगा !
जब पिता अपनी आंखों में दुलार भरकर ,
झट से पुत्र के लिए चाय बना कर
प्रेमपूर्वक लेकर आएगा।
...और जब पिता पुत्र
दोनों एक साथ मिलकर  
चाय और स्नैक्स के साथ
दुनिया भर की बातें
गहन आत्मीयता के साथ करेंगे ,
तब क्रोध और तल्खी के बादल
स्वत: छंटते चले जाएंगे।

पिता अपने आप ही
क्रोध पर
नियंत्रण का करने का करेंगे प्रयास
और
पुत्र पिता की डांट डपट को
यह तो है
महज़
मन के भीतर की गर्द और गुबार
समझ कर भूल जाएगा।
वह और ज़्यादा समझदार बनकर
पिता की खिदमत करता देखा जाएगा।

पिता और पुत्र का रिश्ता
किसी अलौकिक अहसास से कम नहीं।
दोनों ही अपनी अपनी जगह होते हैं सही।
बस उनमें कोई गलतफहमी नहीं होनी चाहिए।
उनमें निरन्तर सहन शक्ति बनी रहनी चाहिए।

२२/०१/२०२५.
कभी कभी
पतंग किसी खंबे में अटक जाती है,
इस अवस्था में घुटे घुटे
वह तार तार हो जाती है।
उसके उड़ने के ख़्वाब तक मिट्टी में मिल जाते हैं।

कभी कभी
पतंग किसी पेड़ की टहनियों में अटक
अपनी उड़ान को दे देती है विराम।
वह पेड़ की डालियों पर
बैठे रंग बिरंगे पंछियों के संग
हवा के रुख को भांप
नीले गगन में उड़ना चाहती है।
वह उन्मुक्त गगन चाहती है,
जहां वह जी भर कर उड़ सके,
निर्भयता के नित्य नूतन आयामों का संस्पर्श कर सके।

मुझे पेड़ पर अटकी पतंग
एक बंदिनी सी लगती है,
जो आज़ादी की हवा में सांस
लेना चाहती है,
मगर वह पेड़ की
टहनियों में अटक गई है।
उसकी जिन्दगी उलझन भरी हो गई है ,
उसका सुख की सांस लेना,
आज़ादी की हवा में उड़ान भरना
दुश्वार हो गया है।
वह उड़ने को लालायित है।
वह सतत करती है हवा का इंतज़ार ,
हवा का तेज़ झोंका आए
और झट से उसे हवा की सैर करवाए ,
ताकि वह ज़िन्दगी की उलझनों से निपट पाए।
कहीं इंतज़ार में ही उसकी देह नष्ट न हो जाए ।
दिल के ख़्वाब और आस झुंझलाकर न रह जाएं ।
वह कभी उड़ ही न पाए।
समय की आंधी उसको नष्ट भ्रष्ट और त्रस्त कर जाए।
वह मन माफ़िक ज़िन्दगी जीने से वंचित रह जाए।
कभी कभी
ज़िंदगी पेड़ की टहनियों से
उलझी पतंग लगती है,
जहां सुलझने के आसार न हों,
जीवन क़दम क़दम पर
मतवातर आदमी को
परेशान करने पर तुला हो।
ऐसे में आदमी का भला कैसे हो ?
जीवन भी पतंग की तरह
उलझा और अटका हुआ लगता है।
वह भी राह भटके
मुसाफ़िर सा तंग आया लगता है।
सोचिए ज़रा
अब पतंग
कैसे आज़ाद फिजा में निर्भय होकर उड़े।
उसके जीवन की डोर ,
लगातार उलझने
और उलझते जाने से न कटे।
वह  यथाशक्ति जीवन रण में डटे।

२४/०१/२०२५.
समझो !
मान लो कि
आप के  मोबाइल रीचार्ज के खाते में
इंटरनेट कनेक्टिविटी का पैक
हो जाए समाप्त
अचानक।
आप इस स्थिति में भी
नहीं कि झटपट से
डेटा पैक ले सकें ,
आप डेटा लोन भी लेना नहीं चाहते।
लगता है
ऐसे में
खेला हो गया ,
पैक अप हो गया।
सुख सुकून
कहीं खो गया।
अगर आदमी ठान ले
अब और भुलावे में नहीं रहना है,
इस सब झमेले से पिंड छुड़ाना है,
अचानक चमत्कार हो जाता है,
आदमी इंटरनेट कनेक्टिविटी के
जाल से निकल
क्षण भर के लिए
सुख पा जाता है।
परंतु यह क्या ?
आदमी
फिर से
इंटरनेट पैक लेने की
जुगत लड़ाता है।
वह दोबारा से कैदी बन जाता है,
बगैर हथकड़ियों के,
एक खुली कैद का सताया हुआ।
भीतर तक
नेट कनेक्टिविटी के
नशे का शिकार!
नेट के मायने भी
जाल होते हैं,
इस जाल में फंसे
लोग वीडियो देख देख कर ,
वीडियो बना बना कर,
आजकल बहुत खुश होते हैं ,
देखें, हम लाइक्स देख कर
कितने पगला जाते हैं !
आधुनिक जीवन के
मकड़जाल में फंसे रह जाते हैं!
अब छुटकारा मुश्किल है ,
अक्ल पर पर्दा पड़ चुका है।
आदमी भीतर तक थक चुका है।
०८/०४/२०२५.
प्यार
जब एक जादूगर
सरीखा
लगने लगता है ,
तब जीवन
अत्यंत मनमोहक और
सम्मोहक
लगने लगता है,
इसका
जीवन में होना
मादकता का
कराने लगता है
अहसास,
आदमी का अपना होना
लगता है
भीतर तक
खासमखास।

किसी के जीवन में
प्यार की बदली
बरसे या न बरसे।
यह सच है कि
यह हरेक को
लगती रही है
अच्छी और सम्मोहक।

अहसास
प्यार का
जीवन घट में
कभी झलके या न झलके।
यह सच है कि
हरेक इस की चाहत
अपने भीतर
रखता रहा है,
यह उदासीनता की
कारगर दवा है।
इसकी उपस्थिति मात्र से
मन का नैराश्य
पलक झपकते ही
होने लगता है दूर !
बल्कि आंतरिक खुशी से
बढ़ जाता है नूर !!
यही वजह है कि सब
इसके लिए
लालायित रहते हैं,
इसकी प्राप्ति की खातिर
सतरंगी स्वप्न बुनते रहते हैं।
कोई कोई
इसकी खातिर ताउम्र
तरसता रह जाता है।
वह प्यार के जादू से
वंचित रह जाता है।
पता नहीं क्यों
प्यार एक जादूगर बनकर
कुछ लोगों के जीवन में
आने से रह जाता है ?
उनके हृदय में
हरदम कोहराम
मचा रहता है।
खुशकिस्मत हो!
जो यह जीवन में
अपनी उपस्थिति का
अहसास करा रहा है ,
तुम्हें और आसपास को
अपनी जादूगरी के रंग ढंग
सिखला रहा है ,
जीवन को सार्थक दिशा में
सतत् ले कर जा रहा है।
३०/०३/२०२५.
(मूल विचार ०७/०७/२००७ ).
प्यार क्या है ?
इस बाबत कभी तो
सोच विचार
या फिर
चिंतन मनन किया होगा।
प्यार हो गया बस !
इस अहसास को जी भर के जीया होगा।
भीतर और बाहर तक
इसकी संजीदगी को महसूसा होगा।
प्यार जीवन की ऊर्जा से साक्षात्कार करना है।
जीवन में यह परम की अनुभूति को समझना है।

प्यारे !
प्यार एक बहुआवर्ती अहसास है,
जो इंसान क्या सभी जीवों को
जीवन में बना देता खास है।
इसकी तुलना
कभी कभी
प्याज की परतों के साथ की
जा सकती है ,
यदि इसे परत दर परत
खोला जाए तो हाथ में कुछ भी नहीं आता है !
बस कुछ ऐसा ही
प्यार के साथ भी
घटित होता है।
प्यार की प्यास हरेक जीव के भीतर
पनपनी चाहिए,
यह क़दम क़दम पर
जीवन को रंगीन ही नहीं ,
बल्कि भाव भीना और खुशबू से
सराबोर कर देता है ,
यह चेतना को नाचने गाने के लिए
बाध्य कर देता है,
कष्ट साध्य जीवन जी रहे
जीव के भीतर
यह जिजीविषा भर देता है।
यह किसी अमृतपान की अनुभूति से कम नहीं,
बशर्ते आदमी जीवन में
आगे बढ़ने को लालायित रहे ,
तभी इसकी खुशबू और जीवन का तराना
सभी को जागृत कर प
पाता है ,
जीवन को सकारात्मकता के संस्पर्श से
सार्थकता भरपूर बना देता है ,
सभी को गंतव्य तक पहुँचा देता है।
इसकी प्रेरणा से जीवन सदैव आगे बढ़ता रहा है,
प्यार का अहसास
किसी सच्चे और अच्छे मित्र सरीखा होकर
मार्ग दर्शन का निमित्त बनता है,
जिसमें सभी का चित्त लगता है।
प्रत्येक जीव
इस अहसास को पाने के लिए
आतुर रहा है।
वे सब इस दिशा में
सतत अग्रसर रहे हैं।
इस राह चलते हुए
सभी ने उतार चढ़ाव देखे हैं !
जीवन पथ पर आगे बढ़े हैं !!
२५/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
आज
बिटिया ने अपना सारा स्नेह
भोजन परोसते समय
प्यार भरी मनुहार के साथ
ढेर सी सब्जी
थाली में डाल कर किया।
मेरे मुख से
बरबस ही
  समस्त स्नेह भाव
एक अद्भुत वाक्य बन प्रस्फुटित हुआ,
" अब सारा प्यार मेरी थाली में
उड़ेल दोगी क्या!"
पास ही उसके पापा बैठे थे, विनोद,
जिन्हें
मैं
कभी-कभी
मनोविनोद के नाम से
संबोधित करता हूं!
यह पल
मुझे
प्यार का सार बता गया।
इसके साथ ही
संसार का सार भी समझा गया।
सच! इस पल को जीकर
मैं भाव विभोर हुआ ।
Joginder Singh Nov 2024
तुम मुझे बार-बार छेड़ते हो ,
क्या है ?
तुम मुझे हाथ में पड़े अखबार की तरह
तोड़ते मरोड़ते हो ,
क्या है ?
तुम मुझे जीवन से
अनुपयोगी समझ कर फेंकना चाहते हो ,
यह सब क्या है ?


पहले तुम मुझे
क़दम क़दम पर
जीवन के रंग
दिखाना चाहते थे ,
और अब एकदम तटस्थ ,
त्रस्त और उदासीन से गए हो ,
यह सब क्या है ?

और अब
तुम्हारे रंग ढंग
कुछ बदले बदले नज़र आते हैं ।
तुम मुझे गीत सुनाते हो।
कभी हंसाते और रुलाते हो ।
कभी अपनी कहानी सुनाते हो।

आखिर तुम चाहते क्या हो ?

मैं तुम्हारे इशारों पर
नाचूं, गाऊं , हंसूं,रोऊं।
तुम ही बता दो , क्या करूं?

मैं अब
'क्या है ? ' नहीं कहूंगी।
यह तुम्हारे जीवन के प्रति
तुम्हारे प्यार और लगाव को दर्शाता है।
मुझे जीवन से जोड़ जाता है।
मेरे जीवन को नया मोड़ दे जाता है।

सच कहूं , तो यह वह सब है ,
जो हर कोई अपने जीवन में चाहता है।
इसकी खातिर अपने मन में कोमलता के भाव जगाता है।

अरे यार!
अब कह भी दो ना !
व्यक्त कर दो मन के सब उदगार।
अब कह ही दो , अपना अनकहा सच ।
मैं तुम्हारे मुख से
कुछ अनूठा और अनोखा
सुनने को  हूं बेचैन ।

अब चुप क्यों हो?
गूंगे क्यों बने हुए हो?
अच्छा जी! अब कितने सीधे सादे , भोले बने हो ।

क्या यही प्यार हे?
इसके इर्द गिर्द घूम रहा संसार है।
यही जीवन की ऊष्मा और ऊर्जा का राज़ है।
ऐसा  कुछ कुछ
एक दिन
अचानक
मेरे इर्द-गिर्द फैली
जीवन धारा ने
मुझे गुदगुदाने की ग़र्ज से कहा।
प्रतिक्रियावश मैं सुख की नींद सो गया !
जीवन के इस सुहाने सपने में खो गया!!
२९/११/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
सब करते हैं
प्यार
किसी  न किसी से।
कोई पैसे से ,
कोई सुंदरता से ,
कोई अपनो से,
कोई कोई गैरों तक से,
कोई खुद से ही बस
मुझे उन सब पर
आता है तरस!

सब
करते हैं प्यार,
गाते हैं मल्हार,
अभिव्यक्ति कर
सकते हैं
लाड दुलार की भी,
पर जो करता है
अपने प्यार की खातिर
सहज ही त्याग भी
उसी के पास रहता है
प्यार का सच्चा आधार जी।

यह हमेशा
करता है गहरी मार जी ।
क्या तुम हो
इस सब के लिए तैयार जी।
सच है,
सब करते हैं प्यार जी।
काश! सब जान पाएं
प्यार के साइड इफेक्ट्स को ,
इन्हें  सहन करने के लिए
खुद को करें तैयार जी।

तभी जान पाएंगे हम
प्यार आकर्षण भर नहीं है,
यह होता है
अंतरंगता से भरपूर
दिली लगाव जी।
इसे पाने के लिए
करना पड़ता है
जीवनपर्यंत त्याग जी।
प्यार असल में है
भावनाओं और संवेदनाओं का फाग जी।
साथ ही दिल का गाया राग भी।

२८/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
कभी प्यार के इर्द-गिर्द
मंडराया करती थीं
मनमोहक ,रंग बिरंगी ,
अलबेली उड़ान भरतीं
तितलियां।
अब वहां बची हैं
तो तल्ख़ियां ही तल्ख़ियां ।

कभी उनसे
मिलने और मिलाने का ,
अखियां मिलाने और छुपाने का
सिलसिला
अच्छा खासा रहा था चल
फिर अचानक हमारे बीच
आ गया था चंचल मन
मचाया था उसने उत्पात
किया था उसने हुड़दंग ।


बस फिर क्या था
यह सिलसिला गया था थम
समझो सब कुछ हुआ खत्म
फिर हमारे बीच तकरार आ गई
यह संबंधों को खा गई
प्यार के वसंत के बाद
अचानक एक काली अंधेरी आ गई
जो मेरे और उनके बीच एक दीवार उठा गई।


अभी हम मिलते हैं,
पर दिल की बात नहीं कह पाते हैं,
अपने बीच एक दीवार,
उस दीवार पर भी एक दरार
देख पाते हैं,
हमें अपने हुजूर के आसपास
मकड़ी के जाले लगे नजर आते हैं,
हम उस मकड़ जाल में फंसते चले जाते हैं।

अब यह दीवार
और ऊंची उठती जा रही है ।
कभी-कभी
मैं इस दीवार के इधर
और वह इस दीवार के उधर
या फिर इससे उल्ट।

जब इस स्थिति  को पलटते हैं ,
तो वह इस दीवार के इधर ,
और मैं इस दीवार के उधर ,
आते हैं नज़र ।
हम ना मिल सकते के लिए
हैं अब अभिशप्त
तो अब हमारे घरों में
तल्ख़ियां आ गईं हैं,
और हम चुप रहते हैं,
अंदर ही अंदर सड़ते रहते हैं ।

आज हमारे जीवन में अब
कहां चली गई है मौज मस्ती ?
अब तो बस हमारे संबंधों में
तल्ख़ियां और कड़वाहट ही बचीं हैं।
जीवन में मौज मस्ती बीती बात हुई।
यह कहीं उम्र बढ़ने के साथ पीछे छूटती गई।
अब तो बस मन में
तल्ख़ियां और कड़वाहटें भरती जा रहीं हैं।
यह हमें हर रोज़ की ज़िंदगी में घुटनों के बल ला  रही हैं ।
हाय ! प्यार में तल्खियां बढ़ती जा रहीं हैं।
यह दिन रात हमारे अस्तित्व को खा रहीं हैं।
मजा
प्यास का तब ही है
जब प्यास लगी हो और पानी
पास न हो !
इसकी तीव्रता
इतनी हो कि बेचैनी
तीव्र से तीव्रतर होती जाए।
आदमी को
वातानुकूलित आबोहवा में
रेगिस्तान का अहसास दिलाए।
काश !
अचानक
कोई सहृदय
पानी लेकर आ जाए ,
बड़े प्यार से पिलाए ,
जीवन की मरूभूमि में
नखलिस्तान के ख़्वाब दिखा जाए।
सच बड़ी शिद्दत की प्यास लगी है ,
शायद कोई साकी जीवन में आ जाए ,
इस बेरहम प्यास से निजात दिला जाए।
यह भी संभावना है कि प्यास को ही बढ़ा जाए।
प्यास को मिराज़ के हवाले कर छूमंतर हो जाए...
...आदमी जीवन की सार्थकता को अनबुझी प्यास की
वज़ह से उड़ती रेत के हवाले होकर दबा दबा सा रह जाए।
२५/०४/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
किसी भी तरह से
किसी किताब पर
लगना नहीं चाहिए
कोई भी प्रतिबंध।
यह सीधे सीधे
व्यक्तिगत आज़ादी पर रोक लगाना है।
बल्कि किताब तो समय के काले दौर को
आईना दिखाना भर है।
यह जरूरी नहीं कि हर कोई
प्रतिबंधित किताब को पढ़ेगा।
कोई जिज्ञासा के वशीभूत होकर इसे पढ़ेगा।
जिज्ञासू कभी नियंत्रण से बाहर नहीं जाएगा।
हां, वह कितना ही अच्छा या फिर बुरा हो,
वह देश ,समाज और दुनिया भर के खिलाफ़
अपनी टिप्पणी का इन्दराज करने से बचना चाहेगा।
कोई किसी के बहकावे और उकसावे में आकर
क्यों अपनी ज़िन्दगी को उलझाएगा ?
अपने शांत और तनाव मुक्त जीवन में आग लगाना चाहेगा।
प्रतिबंधित किताब को पढ़ने की आज़ादी सब को दो।
आदमी के विवेक और अस्मिता पर कभी तो भरोसा करो।
आदमी कभी भी इतना बेवकूफ नहीं रहा कि वह अपना घर-बार छोड़कर आत्मघाती कदम उठा ले।
यदि कोई ऐसा दुस्साहस करे
तो उसे कोई क्या समझा ले ?
ऐसे आदमी को यमराज अपनी शरण में बुला ले।
३१/१२/२०२४.
हाज़िरजवाब
प्रतिस्पर्धी
किसी खुशकिस्मत को
नसीब होता है ,
वरना
ढीला ढाला प्रतिद्वंद्वी
आदमी को
लापरवाह बना देता है ,
आगे बढ़ने की
दौड़ में
रोड़े अटकाकर
भटका देता है ,
चुपके चुपके से
थका देता है।
वह किसी को न ही मिले तो अच्छा ,
ताकि जीवन में
कोई दे कर गच्चा
कर न सके
दोराहे और चौराहे पर
कभी हक्का बक्का।
अच्छा और सच्चा प्रतिद्वंद्वी
बनने के लिए
आदमी सतत प्रयास करता रहे ,
वह न केवल अथक परिश्रम करे ,
बल्कि समय समय पर
समझौता करने के निमित्त
खुद को तैयार करता रहे।
संयम से काम करना
प्रतिस्पर्धी का गुण है ,
और विरोधी को अपने मन मुताबिक
व्यवहार करने को बाध्य करना
कूटनीतिक सफलता है।

प्रतिस्पर्धा में
कोई हारता और जीतता नहीं,
मन में कोई वैर भाव रखना,
यह किसी को शोभा देता नहीं।
प्रतिद्वंद्विता की होड़ में
यह कतई सही नहीं।
आदमी जीवन पथ की राह में
मिले अनुभवों के आधार पर
स्वयं को परखे तो सही ,
तभी प्रतिभा के समन्वय से
प्रतिस्पर्धा में टिका जाता है ,
जीवन के उतार चढ़ावों के बीच
प्रगति को गंतव्य तक पहुंचाया जाता है।
०४/०४/२०२५.
जीवन में बहुत से
अवसर होते हैं मयस्सर सभी को
परन्तु इसके लिए
व्यक्ति को करनी पड़ती है
प्रतीक्षा।

इस जीवन में
प्रतीक्षा करना है बहुत कठिन।
यह एक किस्म से
व्यक्ति के धैर्य की होती है
परीक्षा।
जो इस में सफल रहता है ,
वहीं जीवन में विजयी कहलाता है।
सच!
प्रतीक्षा
किसी परीक्षा से
कम नहीं।
इसे करते समय
मानसिकता होनी चाहिए
जड़ से शिख तक सही।
१५/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
यदि
बनना चाहते तुम ,
सिद्ध करना चाहते तुम
पढ़ें लिखों की भीड़ में
स्वयं को प्रबुद्ध
तो रखिए याद
सदैव यह सच ,
यह याद रखना बेहद जरूरी है
कि अंत:करण बना रहे सदैव शुद्ध ।
अन्यथा व्यापा रहेगा भीतर तम ,
और तुम
अंत:तृष्णाओं के मकड़जाल में फंसकर
सिसकते, सिसकियां भरते रहे जाओगे ।
तुम्हारे भीतर समाया मानव
निरंतर दानव बनता हुआ
गुम होता चला जाएगा ,
वह कभी अपनी जड़ों को खोज नहीं पाएगा ।

वह
लापता होने की हद तक
खुद के टूटने की ,
पहचान के रूठने की
प्रतीति होने की बेचैनी व जड़ता से
पैदा होने के दंश झेलने तक
सतत् एक पीड़ा को अपनाते हुए
जीवन की आपाधापी में खोता चला जाएगा।
वह कभी अपनी प्रबुद्धता को प्रकट नहीं कर पाएगा।
फिर वह कैसे अपने से संतुष्ट रह पाएगा?
अतः प्रबुद्ध होने के लिए
अपने भीतर की
यात्रा करने में सक्षम होना
बेहद जरूरी है।
यह कोई मज़बूरी नहीं है ।
०३/१०/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
प्राप्य को
झुठलाते नहीं ,
उसे दिल से स्वीकारते हैं ।
अगर वह ना मिले तो भी
उसे हासिल करने की
चेष्टा करना ही
मानव का सर्वोपरि धर्म है ।
यह जीवन का मर्म है ।
प्राप्य की खातिर
जीवन में जिजीविषा भरना ,
परम के आगे की गई
एक प्रार्थना है ।


जिसके भीतर
प्राप्य तक
पहुंचने की बसी हुई
संभावना है!!

जीवन अपने आप में
बहुत बड़ी प्राप्ति है,
जन्म और मरण के बीच
नहीं हो सकती
इसकी समाप्ति है ।

अतः आज तुम कर लो
खुद पर तुम यक़ीन
कि यकीनन
जीवन की समाप्ति
असंभव है,
मृत्यु भी एक प्राप्ति ही है
जो मोक्ष का मार्ग है ,
शेष
परमार्थ के धागे से बंधा
इच्छाओं के जाल में
फंसे आदमी का स्वार्थ भर है।
इसे न समझ पाने से
जीवन का नीरस होना
मरना भर है!
अपने अंदर डर भरना भर है !

११/०५/२०२०.
प्रारब्ध
जीवन और मरण
आरम्भ और अंत
अंत और आरंभ से संप्रकृत
एक घटनाक्रम भर है ,
जो जीवन चक्र का हिस्सा भर है।
यहां अंत में
आरम्भ की संभावना की
खोज करने की लालसा है
और साथ ही
आरम्भ में सुख समृद्धि और संपन्नता की
मंगल कामना निहित रहती है।
सृष्टि में कुछ भी नष्ट नहीं होता है।
महज़ दृष्टि परिवर्तन और ऊर्जा का रूपांतरण होता है।


आदमी की सोच में
उपरोक्त विचार कहां से आते हैं ?
यह सच है कि प्रारब्ध एक घटनाक्रम भर है।
यह सिलसिला है कभी न समाप्त होने वाला
जिससे जुड़े हैं कर्मों के संचित फल और उन्हें भोगना भर ,
कर्मों को भोगते हुए, नए कर्म फलों को निर्मित करना,
सारे कर्म फल एक साथ भोगे नहीं जा सकते ,
ये संग्रहित होते रहते हैं बिल्कुल एक बैंक बैलेंस की तरह।

आरम्भ के अंत की बाबत सोचना
एक आरंभिक स्थिति भर है
और अंत का आरंभ भी एक क्षय का क्षण पकड़ना भर है
प्रारब्ध कथा कहती है कि कुछ नहीं होता नष्ट!
नष्ट होने का होता है आभास मात्र।
प्रारब्ध के मध्य से गुजरने के बाद
जीवात्मा विशिष्टता की ओर बढ़ती है।
यह जीवन यात्रा में उत्तरोत्तर उत्कृष्टता अर्जित करती है।

प्रारब्ध एक घटनाक्रम भर है।
जिसमें से गतिमान हो रहा यह जीवन चक्र है।
११/०१/२०२५.
कर्म चक्र
समय से पहले
कभी भी
आगे बढ़ने की
प्रेरणा नहीं देता।
आदमी
कितना ही
ज़ोर लगा लें ,
मन को समझा लें।
मन है कि यह
साधे नहीं सधता।
यह अड़ियल
बना रहता है।
अकारण
तना रहता है ,
खूब नाच नचाता है।

समय आने पर
यह भटकना
छोड़ देता है ,
अटकना और मचलना
रोक कर
यह स्वयं को
अभिव्यक्त करने की
पुरजोर कोशिश करता है ,
अपने भीतर कशिश भरता है।
ठीक इसी क्षण
आदमी के
प्रारब्ध का शुभारंभ होता है।
हर रुका हुआ काम
सम्पन्न होने लगता है ,
जिससे तन मन में
प्रसन्नता भरती जाती है।
यह आगे बढ़ने के
अवसरों को ढंग से
बटोर पाती है।
यह सब कुछ न केवल
आदमी को सतत्
कामयाबी की अनुभूति कराता है ,
बल्कि सुख समृद्धि और सम्पन्नता के
जीवन में आगमन से
व्यक्ति जीवन दिशा  को
भी बदल जाता है।
यही प्रारब्ध का शुभारंभ है ,
जहां सदैव रहते आए
उत्साह ,जोश और उमंग  की तरंगें हैं।
इन्हीं के बीच सुन पड़ती
जीवन की अंतर्ध्वनियां हैं।
३०/०४/२०२५.
प्रेम उधारी को पसन्द नहीं करता।
कितना अच्छा हो
यदि प्रेम कभी-कभी
उधारी पर मिल जाए,
किसी का काम चल जाए।
आदमी क्या औरत और अन्य की
जरूरत पूरी हो जाए।
वासना उपासना में बदल पाए।

आजकल
दुनिया के बाजार में
प्रेम में उधारी बंद है ,
इसलिए
इसे पाने के लिए
लोग व्यग्र हैं,
हो रहे तंग हैं।
याद रखें
प्रेम की उधारी से
कभी सुख नहीं मिलता।
इससे केवल नैराश्य और आत्महत्या का रास्ता साफ दिखा करता ,
परन्तु इससे बंधा बंदा बंदी बनकर सदैव भटका है करता।
आप भी इससे बचें,
ताकि जीवन धारा को वर सकें।
१६/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
आप अक्सर जब
निस्वार्थ भाव से,
अपने प्रियजनों का
पूछते हैं कुशल क्षेम,
तब आप के भीतर
विद्यमान रहता है
प्रेम का सच्चा स्वरूप ।

उसे दिव्यता से जोड़ने पर
मन मन्दिर में
उभरता है
भक्ति की अनुभूति का
सम्मोहक स्वरूप।

और
यही भाव
लौकिकता से
जुड़ने पर  ले लेता है
अपना रंग रूप स्वरूप
कुछ अनोखे अंदाज में
जो होता है
प्रायः आकर्षण से भरपूर।
यहीं से सांसारिक सुख समृद्धि ,
लाड़, प्यार, मनुहार जैसी
भाव सम्पदा से सज्जित
जीवनाधार की शुरुआत होती है,
जहां जीवन हृदय में
कोमल भावनाओं के प्रस्फुटन के रूप में
पोषित, पल्लवित, पुष्पित, प्रफुल्लित होता है।

ऐसी मनोदशा में
प्रेम की शुद्धता और शुचिता का आभास होता है।
यहां 'प्रेम गली अति सांकरी' रहती है।
और जब इस शुचिता में सेंध लग जाती है,
तब यह प्रेम और प्यार का आधार
विशुद्ध वासना और हवस में बदल जाता है।
स्त्री पुरुष का अनुपम जोड़ा भटकता नज़र आता है।
इसके साथ साथ यह अन्यों को भी भटकाता है।
प्रेम, प्यार,लगाव के अंतकाल का , शीघ्रता से ,
घर, परिवार,देश, समाज और दुनिया जहान में ,
आगमन होता है,साथ ही नैतिकता का पतन हो जाता है।
३०/११/२०२४.
मैं जिस कमरे में
बैठा हूँ,
वहाँ प्लास्टिक से बना
बहुत सा सामान पड़ा है ।

इस का प्रयोग
किसी हद तक
कम किया जा सकता है ,
पर इसे बिल्कुल
बंद नहीं किया जा सकता।
प्लास्टिक का बदल हमें ढूंढना होगा ,
वरना वातावरण तबाही की ओर
बढ़ता नज़र आएगा ,
आदमी परेशानी और संकट से
घिरा देखा जाएगा।
हम इसका प्रयोग कम से कम करें।
इसके विकल्पों पर काम करना
समय रहते शुरू करें।
सब से पहले
जूट और पटसन के बैग्स खरीदें
और अपना खरीदा सामान
उसमें रखें।
कम से कम
ये बैग्स
कई बार प्रयुक्त हो
सकते हैं,
हम प्लास्टिक के खिलाफ़
बिगुल बजाने का आगाज कर
आगे बढ़ सकते हैं ,
अपनी इस छोटी सी कमज़ोरी पर
जीत प्राप्त कर सकते हैं।

प्लास्टिक के लिफाफों और दूसरी सामग्री से
सड़क निर्मित करने की शुरुआत कर सकते हैं।
इस सड़क पर
आगे बढ़ कर
प्लास्टिक रहित जीवन की बाबत सोच सकते हैं।
अच्छा रहे
हमारे उद्योग प्लास्टिक निर्मित
वस्तुओं का उत्पादन कम से कम करें।
इन की जगह अन्य धातुओं से निर्मित
पदार्थों का प्रचलन बढ़ाएं
ताकि हम प्लास्टिक प्रदूषण से बचा पाएं।
इसके साथ साथ ही
हम जरूरत भर
पदार्थों का उत्पादन करें।
आवश्यकता से अधिक औद्योगिक उत्पादन भी
प्रदूषण बढ़ाता है ,
इस बाबत भौतिकवादी समाज
क्या कभी रोक लगा पाता है ?
मुझे याद है
पहले घर में दूध
कांच की बॉटल्स में आता था
और अब पॉलिथीन निर्मित
पैकेट्स में,
यही नहीं लस्सी,दही ,और बहुत सी
खाद्य पदार्थ भी
प्लास्टिक और पॉलिथीन निर्मित
पैकेट्स में पैक होकर आते हैं ,
जो शहर और गांवों को
प्रदूषित करते नजर आते हैं ।
लोग भी लापरवाही से
इन्हें इधर उधर फेंकते दिख पड़ते हैं।
क्यों न इन पर भी कानून का डंडा पड़े ?
कम से कम चालान तो प्रदूषण फैलाने वाले का कटे।
आदमी के भीतर तक
अनुशासन होने की आदत बने
ताकि वह प्रदूषित जीवनचर्या के पाप का भागी न बने।
वह दाग़ी न लगे।
मैं जिस कमरे में बैठा हूँ ,
वहाँ प्लास्टिक से निर्मित
बहुत सा सामान पड़ा है,
जिसे टाला जा सकता था।
क्यों न हम लकड़ीऔर लोहे आदि से बने
सामान का प्रयोग बढ़ाए,
ताकि कुछ हद तक
अपने शहरों, कस्बों,गांवों आदि को
प्लास्टिक के प्रदूषण से मुक्त रख सकें !
समय धारा के संग आगे बढ़ कर सार्थकता वर सकें !!
१०/०४/२०२५.
जिन्दगी से मिठास
यकायक चली जाए
तो यह किसे भाए ?
यह फीकी चाय जैसी हो जाए।
कीजिए आप सब
अपने सम्मिलित प्रयासों से
जीवन में मधुरता लाने का उपाय।
जिन्दगी से मिठास
कभी भी यकायक
नहीं जाया करती ,
यह जाने से पहले
दिनचर्या से जुड़े
छोटे छोटे इशारे
अवश्य है किया करती।
यह भी सच है कि
जिन्दगी अपनी रफ़्तार
और अंदाज़ से
है सदैव
आगे बढ़ा करती।
आप से अनुरोध है कि
जीवन में
न किया कीजिए
सकारात्मक सोच का विरोध
बात बात पर
ताकि सहिष्णुता बची रहे ,
जिन्दगी में उमंग तरंग बची रहे।
जीवन की मिठास आसपास बनी रहे।
जीवन यात्रा में सुख समृद्धि की आस बनी रहे।
१३/०३/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
यह ठीक है कि
फूल आकर्षक हैं और
डालियों पर
खिले हुए ही
सुंदर , मनमोहक
लगते हैं।
जब इन्हें
शाखा प्रशाखा से
अलग करने का
किया जाता है प्रयास
तब ये जाते मुर्झा व कुम्हला।
ये धीरे-धीरे जाते मर
और धूल धूसरित अवस्था में
बिखरकर
इनकी सुगन्ध होती खत्म।
इनका डाल से टूटना
दे देता संवेदना को रिसता हुआ ज़ख्म।
कौन रखेगा इन के ज़ख्मों पर मरहम ?

बंधुवर, इन्हें तुम छेड़ो ही मत।
इन्हें दूर रहकर ही निहारो।
इनसे प्रसन्नता और सुगंधित क्षण लेकर
अपने जीवन को भीतर तक संवारो।
अपनी सुप्त संवेदना को अब उभारो।

ऐसा होने पर
तुम्हारा चेहरा खिल उठेगा
और आकर्षण अनायास बढ़ जाएगा।
जीवन का उद्यान
बिखरने और उजड़ने से बच जाएगा।
यह जीवन तुम्हें पल प्रति पल
चमत्कृत कर पाएगा।

यह सच है कि
फूल सुंदरता के पर्याय हैं।
ये पर्यावरण को संभालने और संवारने का
देते रहते हैं मतवातर संदेश।
मगर तुम्हारे चाहने तक ही
वरना हर कोई इन्हें
तोड़ना चाहता है,
जीवन को झकझोरना चाहता है ,
अतः अब से तुम सब
फूलों को डालियों पर खिलने दो !
उन्हें अपने वजूद की सुगन्ध बिखेरने दो !!
इतने भी स्वार्थी न बनो कि
कुदरत हम सब से नाराज़ हो जाए ।
हमारे आसपास प्रलय का तांडव होता नज़र आए ।

११/०१/२००८.
अभी अभी
पढ़ा है कि
देश दुनिया में
फेक न्यूज़ मेकर्स की
भरमार है।
जो अराजकता को
बढ़ावा देते हैं  
और
कर देते हैं
जन साधारण को
भ्रामक जानकारी से
बीमार,
बात बात पर
भड़कने वाले !
लड़ने झगड़ने पर
उतारू!

ऐसी फेक न्यूज़ से
बनते हैं फेक व्यूज़ !
त्रासदी है कि
ग़लत धारणा
बेशक
बाज़ार में
अधिक समय तक
नहीं टिकती ,
यह चेतना की
खिड़की को
कर देती हैं बंद!
आदमी
अपने को
मानता रहता है
चुस्त चालाक व अक्लमंद।
वह इसके सच से
कभी रूबरू नहीं हो पाता,
वह झूठ को ही है
सच समझता रहता।
ऐसे लोगों से कैसे बचा जाए ?
सोचिए समझिए ज़रा
फेक न्यूज को कैसे नकारा जाए ?
ताकि अपने को सच से जोड़े रखा जा सके।
किसी भी किस्म की
भ्रम दुविधा से बचा जा सके।
१२/०४/२०२५.
अपने जीवन में
उतार चढ़ावों के
बीच से गुजरते हुए
फैसला लेना
कतई होता नहीं आसान।
जब आप ले लेते हैं
बहुत सोच विचार के बाद
अपनी बाबत
कोई सटीक फैसला
और वह मुफीद भी बैठता है ,
आप मन ही मन में
होते हैं खुश और संतुष्ट।
समय पर लिया गया
फैसला आदमी के जीवन में
सार्थक बदलाव ला देता है ,
यह किसी हद तक
आप को विशिष्ट बना देता है।
यह सब निर्भर करता है
आपके शैक्षणिक कौशल पर।
यही योग्यता देती है
आदमी को फैसला लेने का हुनर !
तभी तो कहा जाता है कि
शिक्षा ही है इन्सान का सच्चा जेवर !
जिसे यह मिल जाए जीवन में,
उसके देखते ही बनते हैं तेवर।
वह जीवन में सार्थकता का
अहसास पग पग पर कर पाता है।
जीवन में स्वत: आगे बढ़  पाता है।
०९/०३/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
नफ़रत
हसरत की जगह
ले.......ले ,
भला यह कभी
हो सकता है ?
बगैर होंसले
कोई जी सकता है !

अतः
नफ़रत से बच !
यह झूठ को बढ़ावा दे रही है !!
झूठे को बलवान बनाना चाहती है !!!
.... और
सच को करना
चाहती है भस्म ।
नफ़रत
मारधाड़, हिंसा को बढ़ावा देती है।
यह मन की शांति छीन लेती है।
यह अच्छे और सच्चे को
भटकाती रहती है!
यह सच में
अच्छे भलों का जीवन
कष्टप्रद बना देती है।
दोस्त मेरे,
तुम इसके भंवरजाल से
जब तक बच सकता है, तब तक बच ।
यह मानव की सुख समृद्धि, संपन्नता और सौहार्द को
नष्ट करने पर तुली हुई है।
दुनिया इसकी वज़ह से
दुःख, दर्द, तकलीफ़, कष्ट, हताशा , निराशा की
दलदल में फंसी हुई है।
इससे बच सकता है तो बच
ताकि तुम्हारी सोच में बचा रहे सच ,
जो बना हुआ है हम सब के रक्षार्थ  एक सुरक्षा कवच।
१६/१२/२०१६.
Joginder Singh Dec 2024
अवैध संबंध
लत बनकर
जीव को करते हैं
अकाल मृत्यु के लिए बाध्य।

जीव
इसे भली भांति जानता है ,
फिर भी
वह खुद को इन संबंधों के
मकड़जाल में उलझाता है।
असमय
यमदेव को करता है
आमंत्रित।

मरने के बाद
वह माटी होकर भी
शेष जीवन तक ,
मुक्ति होने तक
प्रेत योनि में जाकर
अपनी आत्मा को
भटकाता रहता है।
वह नारकीय
जीवन के लिए
फिर से हो प्रस्तुत!
जन्मने को हो उद्यत!

अवैध संबंध
भले ही पहले पहल
मन के अंदर
भरें आकर्षण।
पर अंततः
इनसे आदमी
मरें असमय,
प्राकृतिक मौत से
कहीं पहले
अकाल मृत्यु का
बनकर शिकार ।
क्यों न वे
अपने भीतर
समय रहते
अपना बचाव करें।

आओ,
हम अवैध संबंध की राह
से बचने का करें प्रयास।
ताकि हम उपहास के
पात्र न बनें।
बल्कि जीवन में
सुख, शांति, संपन्नता की ओर बढ़ें।
क्यों न करें
हम अपना बचाव ?
फिर कैसे नहीं
जीवन नदिया के
मध्य विचरते हुए ,
लहरों से जूझकर
सकुशल पहुंचे,
लक्ष्य और ठौर तक
जीवन की नाव ?
आओ, हम अपना बचाव करें ।
अनचाहे परिणामों और रोगों से
खुद को बचा पाएं ।
संतुलित जीवन जी पाएं ।

१७/०१/२००६.
Joginder Singh Dec 2024
बहस करती है मन की शांति भंग
यह मतवातर भटकाती है जीवन की ऊर्जा को
इस हद तक कि भीतर से मजबूत शख़्स भी
टूटना कर देता है शुरू और मन के दर्पण में
नज़र आने लगती हैं खरोचें और दरारें !
इसलिए कहता हूँ सब से ...
जितना हो सके, बचो बहस से ।
इससे पहले कि
बहस उत्तरोत्तर तीखी और लम्बी हो जाए ,
यह ढलती शाम के सायों सी लंबी से लंबी हो जाए ,
किसी भी तरह से बहसने से बचा जाए ,
अपनी ऊर्जा और समय को सृजन की ओर मोड़ा जाए ,
अपने भीतर जीवन के सार्थक एहसासों को भरा जाए।

इससे पहले कि
बात बढ़ जाए,
अपने क़दम पीछे खींच लो ,
प्रतिद्वंद्वी से हार मानने का अभिनय ही कर लो
ताकि असमय ही कालकवलित होने से बच पाओ।
एक संभावित दुर्घटना से स्वयं को बचा जाओ।
आप ही बताएं
भला बहस से कोई जीता है कभी
बल्कि उल्टा यह अहंकार को बढ़ा देती है
भले हमें कुछ पल यह भ्रम पालने का मौका मिले
कि मैं जीत गया, असल में आदमी हारता है,
यह एक लत सरीखी है,
एक बार बहस में
जीतने के बाद
आदमी
किसी और से बहसने का मौका
तलाशता है।
सही मायने में
यह बला है
जो एक बार देह से चिपक गई
तो इससे से पीछा छुड़ाना एकदम मुश्किल !
यह कभी कभी
अचानक अप्रत्याशित अवांछित
हादसे और घटनाक्रम की
बन जाती है वज़ह
जिससे आदमी भीतर ही भीतर
कर लेता है खुद को बीमार ।
उसकी भले आदमी की जिन्दगी हो जाती है तबाह ,
जीवन धारा रुक और भटक जाती है
जिंदादिली हो जाती मृत प्राय:
यह बन जाती है जीते जी नरक जैसी।
हमेशा तनी रहने वाली गर्दन  
झुकने को हो जाती है विवश।
हरपल बहस का सैलाब
सर्वस्व को तहस नहस कर
जिजीविषा को बहा ले जाता है।
यह मानव जीवन के सम्मुख
अंकित कर देता है प्रश्नचिह्न ?
बचो बहस से ,असमय के अज़ाब से।
बचो बहस से , इसमें बहने से
कभी कभी यह
आदमी को एकदम अप्रासंगिक बनाकर
कर देती है हाशिए से बाहर
और घर जैसे शांत व सुरक्षित ठिकाने से।
फिर कहीं मिलती नहीं कोई ठौर,
मन को टिकाने और समझाने के लिए।
Joginder Singh Dec 2024
अभी अभी पढ़ा है
पत्रिका में प्रकाशित हुआ
संपादकीय
जिसके भीतर बच्चों को चोरी करने
और उन से  हाथ पांव तोड़ भीख मंगवाने,
उन्हें निस्संतान दम्पत्तियों को सौंपने,
उन मासूमों से अनैतिक और आपराधिक कृत्य करवाने का
किया गया है ज़िक्र,
इसे पढ़कर हुई फ़िक्र!

मुझे आया
कलपते बिलखते
मां-बाप और बच्चों का ध्यान।
मैं हुआ परेशान!

क्या हमारी नैतिकता
हो चुकी है अपाहिज और कलंकित
कि समाज और शासन-प्रशासन व्यवस्था
तनिक भी नहीं है इस बाबत चिंतित ?
उन पर परिस्थितियों का बोझ है लदा हुआ,
इस वज़ह से अदालतों में लंबित मामलों का है ढेर
इधर-उधर बिखरे रिश्तों सरीखा है पड़ा हुआ।
स्वार्थपरकता कहती सी लगती है,
उसकी गूंज अनुगूंज सुन पड़ती है , पीड़ा को बढ़ाती हुई,
' फिर क्या हुआ?...सब ठीक-ठाक हो जाएगा।'
मन में पैदा हुआ है एक ख्याल,
पैदा कर देता है भीतर बवाल और सवाल ,
' ख़ाक ठीक होगा देश समाज और दुनिया का हाल।
जब तक कि सब लोग
अपनी दिनचर्या और सोच नहीं सुधारते ?
क्या प्रशासन और न्यायिक व्यवस्था और
बच्चों की चोरी करने और करवाने वालों को
सख़्त से सख़्त सजा नहीं दे सकते ?

मुझे अपने भाई वासुदेव का ध्यान आया था
जो खुशकिस्मत था, अपनी सूझबूझ और बहादुरी से
बच्चों को चुराने वाले गिरोह से बचकर  
सकुशल लौट पाया था,
पर  भीतर व्याप चुके इसके दुष्प्रभाव
अब भी सालों बाद दुस्वप्न बनकर सताते होंगे।

मुझे अपने सुदूर मध्य भारत में
भतीजे के अपहरण और हत्या होने का भी आया ध्यान,
जो जीवन भर के लिए परिवार को असहनीय दुःख दे गया।
क्या ऐसे दुखी परिवारों की पीड़ा को कोई दूर करेगा?

बच्चों को चुराने वाली इस  मानसिकता के खिलाफ़
सभी को देर सवेर बुलन्द करनी होगी अपनी-अपनी आवाज़
तभी बच्चा चोरी का सिलसिला  
किसी हद तक रुक पायेगा।
देश-समाज सुख-समृद्धि से रह रहे नज़र आएंगे।
वरना देश दुनिया के घर घर में
बच्चा - चोर उत्पात मचाते देखे जाएंगे।
फिर भी क्या हम इसके दंश झेल पाएंगे ?

२३/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
नन्ही सी गुड़िया सल्लू
अपने मामा के हाथ पर हल्के से मार,
"हुआ दर्द?"
"बिल्कुल नहीं। "
सोचा मैंने...
पर यदि वह
मां,बाप,बड़ों का
कहा नहीं मानेगी
तो होगा बेइंतहा दर्द!...

मेरी अपनी बिटिया
गुड्डू पूछती है पापा से
गोदी में चढ़े चढ़े,
"भगवान् बच्चों की
रक्षा करते हैं न पापा?
भगवान् बच्चों की
बातों को मानते हैं न पापा!"
"बिल्कुल ।"
सोचा मैंने...
पर यदि वह
माँ,बाप, बड़ों की
करेगी अवहेलना,
तो जिन्दगी में
उसे अपमान पड़ेगा झेलना।


छोटू सा काकू
मियां प्रणव से
पूछते हैं पापा,
" कितनी चीज़ी लेगा,तू?"
वह कहता है,"दो ।"
सोचता हूँ...
यदि वह करेगा शरारत कभी।
गोविंदा की फिल्म सरीखा होकर
घरवाली, बाहरवाली के चक्कर में पड़
तो जिन्दगी उसे कर देगी बेघर,
अनायास जिन्दगी देगी थप्पड़ जड़।


नन्हा सा पुनीत
उर्फ़ गोलू
अपनी माँ की गोदी में
लेटा हुआ कर रहा दुग्ध पान।

वह अभी शिशु है
बोल सकता नहीं,
अपनी बात रख सकता नहीं।
शायद सब कुछ जान कह रहा हो
चुप रह कर,
"अरे मामा!इधर उधर न भटक
मेरी तरह अपनी आत्मा को शुद्ध रख
ना कि दुनियावी प्रदूषण में हो लिप्त।

समय यह लीला देख समझ मुस्करा कर रह गया।
आसपास की जिन्दगी खामोश हँसी का जलवा दिखाकर मचलने लगी।
बच्चे मस्त थे और...उनसे बातें करने वाला एकदम अनभिज्ञ।
इस बार का बजट
क्या ग़ज़ब का है जी!
टैक्स देने वालों की मौज हो गई।
उन्हें भारी भरकम छूट मिली।
पहले मैं लाख के करीब टैक्स अदा करता था।
अगले साल यह शून्य पर आ जाएगा।
जीवन में होता है
कभी कभी करिश्मा ।
यह बजट कुछ ऐसा ही
जलवा दिखा गया।
इस बार का बजट
ऐसा कुछ
अहसास करा गया।
लगता है ,
आने वाले चुनावों में
यह भरोसेमंद सत्ता पक्ष के हाथों
ताकतवर विपक्ष की  
विकेट उड़ा गया ,
कहीं भीतर तक
अराजकता की राजनीति में
सहम भर गया !
हारने की आशंका भर गया !!
मुफ़्त के उपहारों से भी
बेहतरीन तोहफ़ा
जन साधारण को दे गया।

उम्मीद है ,
यह बजट विकास को गति देगा।
अगली बार का बजट भी
चुनावों में
मुफ्तखोरी पर
अंकुश लगाएगा।
तभी देश सालों से
चली आ रही
वित्तीय घाटे की रीति  और नीति पर
न चलकर
वित्तीय संतुलन की राह को
अपनाने की परंपरा पर आगे बढ़ पाएगा।
उम्मीद है कि
मेरा जैसा आम व्यक्ति
जो अभी अभी के बजट से
टैक्स मुक्त हुआ है ,
जो टैक्स फ्री नहीं रहना चाहता,
जैसा नागरिक भी
निकट भविष्य में,
आगामी सालों में
टैक्स  फिर से दे पाएगा ,
देश की आर्थिकता में
पहले की तरह
अपना अंशदान दे पाएगा।
साथ ही
यह भी उम्मीद है कि
समाज का सबसे गरीब व्यक्ति भी
जिसे लोग अक्सर
गया गुजरा आदमी  कह देते हैं,
वह भी कभी
आगामी सालों में
अपनी मेहनत से
और अपने वित्तीय कौशल में सुधार कर
निकट भविष्य में
हरेक नागरिक
फिर से टैक्स के दायरे में
आना चाहेगा ,
देश दुनिया और समाज में
सुख समृद्धि संपन्नता का आगमन लाएगा।
इस बार का बजट
किसी अप्रत्याशित घटनाक्रम से कम नहीं,
जिसने सब को
अचरज में ला दिया।
बजट में भरपूर बचत का तड़का लगा दिया।
इस बार के बजट ने
सच में ही
आम और ख़ास तक को चौंका दिया।
०२/०१/२०२५.
साल २०२५-२०२६ का भारत सरकार के वित्तीय बजट पर एक प्रतिक्रिया वश।
Joginder Singh Nov 2024
आज
एक साथी ने
मुझे
मेरे बड़े कानों की
बाबत पूछा।

मैंने सहज रहकर  
उत्तर दिया,
"यह आनुवांशिक है।
मेरे पिता के भी कान बड़े हैं ।
वे बुढ़ापे के इस दौर में
शान से खड़े हैं।
दिन-रात घर परिवार के
कार्य करते हैं ,
अपने को हर पल
व्यस्त रखते हैं।"


अपने बड़े कानों पर
मैं तरह-तरह की
टिप्पणियां और फब्तियां
सुनता आया हूं।


स्कूल में बच्चे
मुझे 'गांधी' कहकर चिढ़ाते थे।
मुझे उपद्रवी बनाते थे।
कभी-कभी पिट भी जाते थे।
मास्टर जी मुझे मुर्गा बनाते थे।
कोई कोई मास्टर साहब,
मेरे कान
ताले में चाबी लगाने के अंदाज़ से
मरोड़कर
मेरे भीतर
दर्द और उपहास की पीड़ा को
भर देते थे।
मैं एक शालीन बच्चे की तरह
चुपचाप पिटता रहता था,
गधा कहलाता था।



कुछ बड़ा हुआ,
जब गर्मियों की छुट्टियों में
मैं लुधियाना अपने मामा के घर जाता था
तो वहां भी
सभी को मेरे बड़े-बड़े कान नज़र आते थे।
मेरा बड़ा भाई पेशे  से मास्टर गिरधारी लाल
मुझे 'कन्नड़ ' कहता
तो कोई मुझे समोसा कहता ,
किसी को मेरे कानों में 'गणेश' जी नज़र आते,
और कोई सिर्फ़
मुझे हाथी का बच्चा भी कह देता,
यह तो मुझे बिल्कुल नहीं भाता था,
भला एक दुबला पतला ,मरियल बच्चा,
कभी हाथी का बच्चे  जैसा दिख सकता है क्या?
उस समय मैं भीतर से खीझ जाया करता था।
सोचता था, पता नहीं सबको क्यों
मेरे ये कान भाते हैं ?
इतने ही अच्छे लगते हैं,  
तो क्यों नहीं अपने कान भी
मेरी तरह बड़े करवा लेते।
लुधियाना तो डॉक्टरों का गढ़ है,
किसी डॉक्टर से ऑपरेशन करवा कर
क्यों नहीं करवा लेते बड़े , अपने कान?


कभी-कभी
मैं अपने स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के सामने
अपने बड़े-बड़े कान
इस ढंग से हिलाता हूं
कि बच्चे हंसने मुस्कुराने लगते हैं।
इस तरह मैं एक विदूषक बन जाता हूं।
मनोरंजन तो करता ही हूं,
उनके मासूम चेहरों पर
सहज ही मुस्कान ले आता हूं।


मैं एक बड़े-बड़े कानों वाला विदूषक हूं।
पर  विडंबना देखिए ,
आजकल मुझे कानों से सुनने में दिक्कत होती है।
अब मैं इसे सुनने का काम कम ही लेता हूं,
मेरा एक तरफ का कान  तो काम ही नहीं करता,
सो मुझे पढ़ते समय चालाकी से काम लेना पड़ता है।
फिर भी कभी-कभी दिक्कत हो ही जाती है,
बच्चे और साथी अध्यापक मुझे इंगित कर हंसते रहते हैं।
और मैं कुछ-कुछ शर्मिंदा, थोड़ा सा बेचैन हो जाता हूं।
कई बार तो खिसिया तक जाता हूं ।
अब मैं हंसते हंसते दिल
बहलाने का
काम ज़्यादा करता हूं,
और
पढ़ने से ज़्यादा
गैर सरकारी काम ज़्यादा करता हूं,
यहां तक की सेवादार ,चौकीदार भी बन जाता हूं।
आजकल मैं खुद को
'कामचोर 'ही नहीं 'कान चोर 'भी कहता हूं।



कोई यदि मेरे जैसे
बड़े कान वाले का मज़ाक उड़ाता है ,
उसे उपहास का पात्र बनाता है ,
तो मैं भीतर तक
जल भुन जाता हूं ।
उससे लड़ने भिड़ने पर
आमादा हो जाता हूं।



बालपन में
जब मैं उदास होता था,
किसी द्वारा परेशान किए जाने पर
भीतर तक रुआंसा हो जाता था,
तब मेरे पिता जी मुझे समझाते थे ,
"बेटा , तुम्हारे दादाजी के भी कान बड़े थे।
पर वे किस्मत वाले थे,
अपनी कर्मठता के बल पर
घर समाज में इज़्ज़त पाते थे।
बड़े कान तो भाग्यवान होने की निशानी है।"

यह सब सुनकर मैं शांत हो जाता था,
अपने कुंठित मन को
किसी हद तक समझाने में
सफल हो जाता था।


अब मैं पचास के पार पहुंच चुका हूं ।
कभी-कभी मेरा बेटा
मेरे कानों को इंगित कर
मेरा मज़ाक उड़ाता है।
सच कहूं तो मुझे बड़ा मज़ा आता है।


आजकल मैं उसे बड़े गौर से देखा करता हूं,
और सोचता हूं, शुक्र है परमात्मा का, कि
उसके कान मेरे जैसे बड़े-बड़े नहीं हैं।
उस पर कान संबंधी
आनुवांशिकता का कोई असर नहीं हुआ है।
उसके कान सामान्य हैं !
भाग्य भी तो सामान्य है!!
उसे भी मेरी तरह जीवन में मेहनत मशक्कत करनी पड़ेगी।
उसे अपनी किस्मत खुद ही गढ़नी पड़ेगी ।
और यह है भी  कटु सच्चाई ।
जात पात और बेरोजगारी
उसे घेरे हुए हैं,
सामान्य कद काठी,कृश काया भी
उसे जकड़े हुए हैं ।

सच कहूं तो आज भी
कभी-कभी मुझे
लंबे और  बड़े
कानों वाली कुंठा
घेर लेती है,
यह मुझे घुटनों के बल ला देती है,
मेरे घुटने टिकवा देती है।
तुम अपने शत्रु को
जड़ से
मिट्टी में मिलाना चाहते हो।
पर हाथ पर हाथ
धरे बैठे हो।
क्या बिना लड़े हार
मान चुके हो ?
तुम
बदला ज़रूर लो
पर कुछ अनूठे रंग ढंग से !
पहले रंग दो
उसे अपने रंग में ,
उसे अपनी सोहबत का
गुलाम बना दो ,
फिर उसे अपने मन माफ़िक
लय और ताल पर
नाचने के काम पर लगा दो।
तुम बदला ले ही लोगे
पर बदले बदले रंग ढंग से !
तुम मारो उसे, प्रेम से,चुपके चुपके!
वह जिंदा रहे पर जीए घुट घुट के !

या फिर एक ओर तरीका है,
आज की तेज़ तरार दुनिया में
यही एक मुनासिब सलीका है कि
दे दो किसी सुपात्र को
सुपारी शत्रु के खेमे में
सेंधमारी करने की
चुपके चुपके।
इसमें भी नहीं है कोई हर्ज़
यदि दुश्मन का
बैठे बिठाए
निकल जाए अर्क।

इसके लिए
मन सबको
सबसे पहले सुपात्र और विश्वासपात्र को
चुनने की
रखता है शर्त,
ताकि शत्रु को
उसके अंजाम तक
पहुंचाया जा सके।
जीवन की रणभूमि में
मित्रों को प्रोत्साहित
किया जाए
और शत्रुओं को
निरुत्साहित।
जैसे को तैसा ,
सरीखी नीति को
अमल में लाया जाए।
तुम कूटनीति से
शत्रु को पराजित
करना चाहते हो।
इसके लिए
क्या शत्रु के सिर पर
छत्र धर कर
उसे अहंकारी बनाना चाहते हो ?
फिर चुपके से
उसे विकट स्थिति में ले जाकर
चुपके चुपके गिराना चाहते हो !
उसे उल्लू बनाना चाहते हो !!

पर याद रखो , मित्र !
आजकल की दुनिया के
रंग ढंग हैं बड़े विचित्र !
कभी कभी सेर को सवा सेर टकर जाता है,
तब ऐसे में लेने के देने पड़ जाते हैं।
सोचो , कहीं
तुम्हारा शत्रु ही
तुम्हें मूर्ख बना दे।
चुपके चुपके चोरी चोरी
करके सीनाज़ोरी
आँखों में धूल झोंक दे !
उल्टा प्रतिघात कर मिट्टी में रौंद दे !!
अतः बदला लेने का ख्याल ही छोड़ दो।
अपनी समस्त ऊर्जा को
सृजनात्मकता की ओर मोड़ दो।
१६/०२/२०२५.
यह ठीक नहीं कि
बदले माहौल में ,
हम पाला बदल कर
कर दें आत्म समर्पण ,
यह तो कायरता है।
अपना पक्ष जरूर साफ़ करें ,
पर खुद को दिग्भ्रमित न करें।

बिना वज़ह का विरोध ठीक नहीं,
अच्छा रहेगा कि हम खुद में सुधार करें।
अपनी दशा और दिशा को
अपने स्वार्थों से ऊपर उठाकर
निज की जीवन शैली को समय रहते
परिवर्तित कर और प्रतिस्पर्धी बनकर
स्वयं को परिष्कृत करें,
जीवन में ज़्यादा देर न रुके रहकर  
जीवन पथ पर अपनी संवेदना को बढ़ाकर
जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करें।
हम अहंकार और दुराग्रह से पोषित होकर
जीवन की शुचिता का कभी तिरस्कार न करें ।
हम जीवन की शिक्षा को भीतर तक आत्मसात करें।
०१/०१/२०२५.
तोड़ने शत्रुओं का गुरूर
अंदर ही अंदर
देश दुनिया की फिजाओं में
बदस्तूर
ज़ारी है युद्ध का फितूर।
देश कब हमला करेगा ?
करेगा भी कि नहीं ?
इस बाबत कोई भी
निश्चय पूर्वक  
कह नहीं सकता।
सब कुछ भविष्य के
गर्भ में है।
हां ,यह जरूर है कि
देश निश्चिंत हैं ...
शत्रु नाश होकर रहेगा।
उन्होंने सर्वप्रथम
कायराना हमला किया था।
देश भी निश्चय ही
पलटवार
अपना समय लेकर
अपने ढंग से करेगा,
शत्रु पक्ष
आगे से कुछ
करने से पहले
गहन सोच-विचार करेगा।
वह निश्चय ही कभी न कभी
बिन आई मौत मरेगा।
भीतर ही भीतर
देर तक डरता रहेगा।
खुद-ब-खुद
शत्रु को
उसका अपना ही आंतरिक डर
सर्पदंश सरीखा जख्म दे देगा।
फिर वह कैसे जीवित  रहेगा ?
असंतोष और असंयम ही
अब  उसकी पराजय की वज़ह बनेगा।
फिर कैसे वह लड़ने की हिमाकत करेगा ?
०४/०५/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
कभी कभी
बब्बन
भूरो भैंस को
पानी पिलाया
और चारा खिलाया
करता है बड़े प्यार से।
बब्बन
लगातार
दो साल से
परीक्षा में
अनुत्तीर्ण हो रहा है ,
फिर भी
वह करता है
'भूरो देवी' की देखभाल
और सेवा बड़े प्यार से।

बब्बन
कभी कभी
उतारता है अपनी खीझ
पेड़ पर
बिना किसी वज़ह
पत्थर मारकर ,
फिर भी मन नहीं भरा
तो खीझा रीझा वह बहस करता है
अपने छोटे भाई से,
अंततः उससे डांट डपट कर,
मन ही मन
अपने अड़ियल मास्टर की तरफ़
मुक्का तानने का अभिनय करता हुआ
उठ खड़ा होता है
अचानक।
परन्तु
नहीं कहता कुछ भी
अपनी प्यारी
मोटी मुटृली भूरों भैंस को।
वह तो बस
उसे जुगाली करते  हुए
चुपचाप देखता रहता है ,
मन ही मन
सोचता रहता है ,
दुनिया भर की बातें ।
और कभी कभी स्कूल में पढ़ी,सुनी सुनाई
मुहावरे और कहावतें ।

बेचारी भूरों देवी
खूंटे से बंधी , बब्बन के पास खड़ी
जुगाली के मज़े लेती रहती है,
थकती है तो बैठ जाती है,
भूख लगे तो चारे में मुंह मारती है ,
थोड़ी थोड़ी देर के बाद
अपनी पूंछ हिला हिला कर
मक्खी मच्छर भगाती रहती है
और गोबर करती व मूतियाती रहती है ,
भूरों भैंस बब्बन के लिए
भरपूर मात्रा में देती है दूध।
बब्बन की सच्ची दोस्त है भूरों भैंस।


सावन में
जीवन के
मनभावन दौर में
झमाझम बारिश के दौरान
भूरों होती है परम आनन्दित
क्यों कि बारिश में जी भर कर भीगने का
अपना ही है मजा।
यही नहीं भूरो बब्बन के संग
जोहड़ स्नान का
अक्सर
लेती रहती है आनंद।
कभी-कभी
दोनों दोस्त बारिश के पानी में भीगकर
अपने  निर्थकता भरे जीवन को
जीवनोत्सव सरीखा बना कर
होते हैं अत्यंत आनंदित, हर्षित, प्रफुल्लित।

जब बड़ी देर तक
बब्बन भूरों रानी के संग
नहाने की मनमानी करता है ,
तब कभी कभी
दादू लगाते हैं बब्बन को डांट डपट और फटकार,
" अरे मूर्ख, ज्यादा भीगेगा
तो हो जाएगा बीमार ,
चढ़ जाएगा ज्वर --
तो भूरों का रखेगा
कौन ख्याल ? "

कभी कभी
बब्बन भूरों की पीठ पर
होकर सवार
गांव की सैर पर
निकल जाता है,
वह भूरों को चरागाह की
नरम मुलायम घास खिलाता है।

और कभी कभी
बब्बन भूरों की पीठ से
कौओं को उड़ाता है ,
उसे अपना अधिकार
लुटता नजर आता है।


सावन में
कभी कभार
जब रिमझिम रिमझिम बारिश के दौरान
तेज़ हो जाती है बौछारें
और घनघोर घटा बादल बरसने के दौर में
कोई बिगड़ैल बादल
लगता है दहाड़ने तो धरा पर पहले पहल
फैलती है दूधिया सफेद रोशनी !
इधर उधर जाती है बिखर !!
फिर सुन पड़ती तेज गड़गड़ाहट!!!

बब्बन कह उठता है
अचानक ,
' अरे ! वाह भई वाह!!
दीवाली का मजा आ गया!'
ऐसे समय में
सावन का बादल
अचानक
अप्रत्याशित रूप से
प्रतिक्रिया करता सा
एक बार फिर से गर्ज उठता है,
जंगल के भूखे शेर सरीखा होकर,
अनायास
बब्बन मियां
भूरो भैंस को संबोधित करते हुए
कह उठता है,
' वाह ! मजा आ गया !!
बादल नगाड़ा बजा गया !
आ , भूरो, झूम लें !
थोड़ा थोड़ा नाच लें !! '

भूरो रहती है चुप ,
उसे तो झमाझम बारिश के बीच
खड़ी रहकर मिल रहा है
परम सुख व अतीव आनंद !!

बब्बन
यदि बादलों की
गर्जन  और गड़गड़ाहट में
ढूंढ सकता है
सावन में ‌दीवाली का सुख
तो उसे क्या !

वह तो ‌भैंस है ,
दुधारू पशु मात्र।
एक निश्चित अंतराल पर
जीवन की बोली बोलती है ,
तो उसकी क्षुधा मिटाने का
किया जाता है प्रबंध !
ताकि वह दूध देती रहे ।
परिवार का भरण-पोषण करती रहे।

वह दूध देने से हटी नहीं,
कि खूंटे से इतर
जाने के लिए
वह बिकी  कसाई के पास
जाने के लिए।

या फिर
उसे लावारिस कर
छोड़ देगा
इधर-उधर फिरने के लिए।

वह भूरो भैंस है
न कि बब्बन की बहन!
दूध देने में असफल रही
तो कर दी जाएगी घर से बाहर !

बब्बन भइया
अनुत्तीर्ण होता भी रहे
तो उसे मिल ही जाएगी
कोई भूरो सी भैंस !
बच्चे जनने के लिए !
वंश वृद्धि करने के लिए !!

०४/०८/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
असंतोष की लपटों से घिरा आदमी
छल प्रपंच,उठा पटक के चलते
क्या कभी ऊपर उठ पाएगा?
वह अपने पैरों पर  खड़ा होने की
क्या कभी हिम्मत वह जुटा पाएगा ?


तुम उसके भविष्य को लेकर
दिन रात चिंतित रहते हो।
यदि तुम उसका भला चाहते हो ,
तो कर दो भय दूर उसके भीतर से।
देखना वह स्वत: साहसी हो जाएगा।
सच्चा साथी बनकर सबको दिखाएगा।
बशर्ते तुम भी उसकी तरह संजीदा रहो।
उस के साथ इंसाफ की आवाज उठाते रहो।
हाथों में थाम कर मशाल
उसके साथ साथ चल सको।
Joginder Singh Dec 2024
बेकार की बहस
मन का करार लेती छीन
यह कर देती सुख समृद्धि,
धन संपदा को
तहस नहस।
अच्छा रहेगा
बेकार की बहस से
बचा जाए ,
सार्थक दिशा में आगे बढ़ा जाए।
क्यों न बंधुवर!
आज
जीवन धारा को
तर्कों की तुला पर
तोलते हुए
चंचल मन को
मनमर्ज़ियां करने से
रोकते हुए
जीवन खुलकर
जिया जाए
और
स्वयं को
सार्थक कार्यों में
लगाया जाए।

आज मन
सुख समृद्धि का
आकांक्षी है ,
क्यों न इसकी खातिर
ज़िंदगी की किताब को
सलीके से पढ़ा जाए
और
अपने को
आकर्षण भरपूर
बनाए रखने के निमित्त
स्वयं को
फिर से गढ़ा जाए ,
बेकार की बहस के
पचड़े में फंसने से,
जीवन को नरक तुल्य बनाने से
खुद को बचाया जाए।

आज आदमी अपने को
सत्कर्मों में लीन कर लें
ताकि इसी जीवन में
एक खुली खिड़की बनाई जाए,
जिसके माध्यम से
आदमी के भीतर
जीवन सौंदर्य को
निहारने के निमित्त
उमंग तरंग जगाई जाए।

आओ,आज बेकार की बहस से बचा जाए।
तन और मन को अशांत होने से बचाया जाए।
जीवन धारा को स्वाभाविक परिणति तक पहुंचाया जाए। आदमी को अभिव्यक्ति सम्पन्नता से युक्त किया जाए ।

मित्रवर!
बहस से बच सकता है तो बहसबाजी न ही कर।
बहस से तन और मन के भीतर वाहियात डर कर जाते घर।
१५/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
बहस
एक बिना ब्रेक की
गाड़ी है ,
यदि यह नियंत्रण से
कभी अचानक
हो जाए बाहर
तो दुर्घटना निश्चित है।
यह निश्चिंत जीवन में
अनिश्चितता का कर देती संचार।
यह संसार तक
लगने लगता सारहीन और व्यर्थ।

बहस
जीवन के प्रवाह को
कर देती है बाधित।
यह इन्सान को
घर व परिवार और समाज के
मोर्चे पर कर देती है तबाह।
अतः इस निगोड़ी
बहस से बचना
बेहद ज़रूरी है ,
इससे जीवन की सुरक्षार्थ
दूरी बनाए रखना
अपरिहार्य है।
क्या यह आज के तनाव भरे जीवन में
सभी को स्वीकार्य है ?
बहस कहीं गहरे तक करती है मार।
इससे बचना स्व विवेक पर निर्भर करता है।
वैसे यह सोलह आने सच है कि
समझदार मानुष इसमें उलझने से बचता है।
२५/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
प्रवास की चाहत
बेशक भीतर छुपी है,
परन्तु प्रयास
कुछ नहीं किया,
जहां था, वहीं रुका रहा।
दोष किस पर लगाऊं?
अपनी अकर्मण्यता पर..?
या फिर अपने हालात पर?
सच तो यह है कि
असफलता
बहानेबाजी का सबब भी बनती है।
सब कुछ समझते बूझते हुए भी
भृकुटी  तनती है।
    १७/१०/२०२४
Joginder Singh Nov 2024
बिकती देह,
घटता स्नेह
यह सब क्या है?
यह सब क्या है?
शायद
यही स्वार्थ है!
हम निस दिन
करते रहते ढोंग,
कि पाना चाहते हैं परमार्थ।
परन्तु
पल प्रति पल
होते जाते हम उदासीन।
सभ्यता के जंगल में
यह है एक जुर्म संगीन।
जो बिकती देह
और बिखरते स्नेह के बीच
हमें सतत रहा है लील ।
जिसने आज़ादी, सुख चैन,
लिया है छीन।
यह कतई नहीं ठीक
हमारे वजूद के लिए।

मूल्य विघटन के दौर में
यदि संवेदना बची रहे
तो कुछ हद तक
न बिके देह बाजार में,
और न घटे स्नेह संसार में
बने रहें सब इन्सान निःसंदेह।
सच! हरेक को प्राप्त हो तब स्नेह,
जिसकी खातिर वह भटकता आया है
नाना विध ख्वाबों को बुनते हुए
वह स्वयं को भरमाता आया है,
जो रिश्तों को झूठलाया आया है।
और जिस के अभाव में
आज का इन्सान
निज देह और पर देह तक को
टुकड़ों टुकड़ों में
गिरवी रखता आया है !
आज उसने बाजार सजाया है!!
वो व्यापारी बना हुआ गली गली घूमता है।
अपने रिश्तों को नये नये नाम दे,
सरे बाजार बेचता पाया गया है।
मूल्य विहीन सोच वाला होकर
उसने खुद को
खूब सताया है।
उसने खुद को
कहां कहां नहीं
भटकाया है?
आज रिश्ते बिखरे गये हैं,
सभ्यता का मुलम्मा ओढ़े
हम जो निखर गये हैं।
बिखरे रिश्तों के बीच
हम एक संताप
मन के भीतर रखें
जर्जर रिश्तों को ढोते आ रहे हैं,
स्व निर्मित बिखराव में खोते जा रहे हैं,
जागे हुए होते हैं प्रतीत,
मगर सब कुछ समझ कर भी सोये हुए हैं।

  १०/०६/२०१६.
Joginder Singh Nov 2024
मैं उन्नीस मार्च को
स्कूल में रसोई घर बंद कर
लौट आया था अपने घर ।
इस सोच के साथ
कि बीस मार्च को पंजाब बंद के बाद
लौटूंगा स्कूल।

इक्कीस, मार्च को स्कूल वापसी के साथ , सालाना नतीजा तैयार करने के लिए
अपने सहयोगियों से करूंगा बात
और सालाना नतीजा चौबीस
मार्च तक कर लूंगा तैयार‌।


पर! अफसोस !!स्कूल में हो गईं
असमय कोरोना काल की  छुट्टियां ही छुट्टियां ।
बाइस मार्च को लग गया जनता कर्फ्यू ।
पच्चीस मार्च से पहला लॉकडाउन ।
फिर एक एक करके पांच बार लॉकडाउन लगे।
लॉकडाउन खुलने के बाद
स्कूल पहुंचा तो अचानक
खबर मिली स्कूल की आया से
कि छुट्टियों के दौरान
एक बिल्ली का  बच्चा (बलूंगड़ा)
उन्नीस मार्च को
स्कूल बंद करते समय
स्कूल के रसोई घर में हो गया था
मानवीय चूक और अपनी ही गलती से
स्कूल के रसोई घर में कैद।
यह सुनकर मुझे धक्का लगा ।
मैं भीतर तक हो गया शोकाकुल‌ ,
सचमुच था व्याकुल ।
एक-एक करके मेरी आंखों के सामने
स्कूल की रसोई में बिल्ली  के बच्चे का बंद होना,
पंजाब बंद का होना ,
जनता कर्फ्यू का लगना ,
और लंबे समय तक लॉकडाउन का लगना,
और बहुत कुछ
आंखों के आगे दृश्यमान  हो गया।
मैं व्याकुल हो गया।
सोच रहा था यह क्या हो गया ?
मेरा जमीर
कहां गया था सो ?
मैं क्यों न पड़ा रो??
सच !मैं एक भारी वजन को भीतर तक  हो रहा था।
बेचारी बिल्ली लॉकडाउन का हो गई थी शिकार।
मैं रहा था खुद को धिक्कार।
उसके मर जाने के कारण ,मैं खुद को दोषी मान रहा था ।
आया बहन जी मुझे कह रही थीं,
सर जी,बहुत बुरा हुआ ।
कई दिनों के बाद
बिल्ली के क्षतिग्रस्त शव को बाहर निकाला गया
तो बड़ी तीखी बदबू आ रही थी।
सच मुझे तो उल्टी आने को हुई थी।
घर जब मैं आई
तो बड़ी देर तक
मृत बिल्ली की तस्वीर
आंखों के आगे नाचती रही
यही नहीं ,कई दिनों तक
वह बिल्ली रह रहकर मेरे सपनों में आती रही।
सर ,सचमुच बड़ी अभागी बिल्ली थी।
अब आगे और क्या कहूं?
यह सब सुन मैं चुप रहा।
भीतर तक कराह रहा था।
उस दिन एक जून था।
मेरी आंखों के आगे तैर रहा खून ही खून था।
दिल के अंदर आक्रोश था।
कुछ हद तक डरा हुआ था, पछतावा मेरे भीतर भरा था ।
मुझे लगा
मैं भी दुनिया के विशाल रसोई घर में
एक बिल्ली की मानिंद हूं कैद ।
क्या कोरोना के इस दौर में
मेरा भी अंत हो जाएगा ?
कोरोना का यह चक्रव्यूह
कब समाप्ति की ओर बढ़ेगा ?
इंसान रुकी हुई प्रगति के दौर में
फिर कब से नया आगाज करेगा।
हां ,कुछ समय तो प्राणी जगत बिन आई मौत मरेगा।
पता नहीं,
मेरी मृत्यु का समाचार,
कभी मेरे दायरे से बाहर,
निकल पाएगा या नहीं निकल पाएगा ।
क्या मेरा हासिल भी,
और साथ ही सर्वस्व
मिट्टी में मिल जाएगा ।
मृत्यु का पंजीकरण भी
बुहान पीड़ितों की तरह
मृतकों के पंजीकरण रजिस्टर में
मेरा नाम भी दर्ज होने से रह जाएगा ।
लगता है यह दुखांत मुझे प्रेत बनाएगा ।
मरने के बाद भी मुझे धरा पर भटकाएगा।
Joginder Singh Dec 2024
यह जीवन किसी को
कभी भीख में
नहीं मिला,
यही रही है
मेरे सम्मुख
बीते पलों की सीख।
अब जो
समय
गुजारना है,
उसमें अपने आप को
संभालना है,
बीते पलों से सीख लेकर
खुद को
अब निखारना है।
आने वाला कल बेशक अनिश्चित है
पर कभी तो अपने भीतर
पड़ेगा झांकना ,
यह करना पड़ेगा अब
हम सब को सुनिश्चित ,
ताकि तलाश सकें सब
भविष्य में सुरक्षित जीवन धारा के
आगमन की मंगलमयी
संभावना को,
तजकर भीतर सुप्तावस्था में पड़ीं
समस्त पूर्वाग्रह और दुराग्रह से ग्रस्त
दुर्भावनाओं को।

आओ हम सब अपनी मौलिकता को
बरकरार रखकर जोड़ें ,
जीवन को, आमूल चूल परिवर्तन की
अपरिहार्य हवाओं से ,
अतीतोन्मुखी जड़ों से ,
ताकि हम सब मिलकर इस जीवन में
अभिन्नता सिद्ध कर सकें
परम्परा और आधुनिकता के समावेश की।
अंतर्ध्वनियां सुन सकें,
अपने बाहर और भीतर व्यापे परिवेश की।
०१/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
कभी कभी
आदमी के विवेक का मर जाना ,
बात बात पर उसके द्वारा बहाने बनाना ,
सारी हदें पार करते हुए
अनैतिकता का बिगुल बजाना
क्या आदमी को है शोभता ?
इससे तो अच्छा है वह
शर्म महसूस करे ।
इधर उधर बेशर्मी से कहकहे न लगाता फिरे ।
जीवन धारा में बहते हुए
आदमी का सारी हदें पार कर जाना
रहा है उसका शुगल पुराना।
इसे अच्छे से समझता है यह ज़माना ।


कितना अच्छा हो ,
आदमी नैतिक मूल्यों के साथ खड़ा हो ।

नैतिकता के पथ पर
मतवातर
आदमी चलने का
सदा चाहवान रहे ।
वह जीवन पथ पर
चलते हुए सदैव
नैतिकता का आधार निर्मित करे।

नैतिक जीवन को अपनाकर
नीति चरित्र को श्रृंगार पाती है ।
अनैतिक आचरण करना
यह आज के प्रखर मानुष को
कतई शोभता नहीं है।
फिर भी उसे कोई शुभ चिंतक और सहृदय
रोकता क्यों नहीं है ?
इसके लिए भी साहस चाहिए ।
जो किसी के पास नहीं ,
बेशक धन बल और बाहुबल भले पास हो ,
पर यदि पास स्वाभिमान नहीं ,
तो जीवन में संचित सब कुछ व्यर्थ !
पता नहीं कब बना पाएगा आदमी स्वयं को समर्थ ?

यह सब आदमी के ज़मीर के
सो जाने से होता है घटित ।
इस असहज अवस्था में
सब अट्टहास लगा सकते हैं ।
वे जीवन को विद्रूप बना सकते हैं।
सब  ठहाके लगा सकते हैं,
पर नहीं सकते भूल से भी रो।
सब को यह पढ़ाया गया है ,
गहरे तक यह अहसास कराया गया है ,
...कि रोना बुजदिली है ,
और इस अहसास ने
उन्हें भीगी बिल्ली बना कर रख दिया है।
ऊपर ऊपर से वे शेर नज़र आते हैं,
भीतर तक वे घबराए हुए हैं।
इसके साथ ही भीतर तक
वे स्व निर्मित भ्रम और कुहासे से घिरे हैं ।
उनके जीवन में अस्पष्टता घर कर गई है।

आज ज़माने भर को , है भली भांति विदित
इन्सान और खुद की बुजदिली की बाबत !
इसलिए वे सब मिलकर उड़ाते हैं
अच्छों अच्छों का उपहास।
एक सच के खिलाफ़ बुनी साज़िश के तहत ।
उन्हें अपने बुजदिल होने का है क़दम क़दम पर अहसास।
फिर कैसे न उड़ाएं ?
...अच्छे ही नहीं बुरे और अपनो तक का उपहास।
वे हंसते हंसते, हंसाते हंसाते,समय को काट रहे हैं।
समय उन्हें धीरे धीरे निरर्थकता के अहसास से मार रहा है।
वे इस सच को देखते हैं, महसूस करते हैं,
मगर कहेंगे कुछ नहीं।
यार मार करने के तजुर्बे ने
उन्हें काइयां और चालाक बना दिया है।
बुजदिली के अहसास के साथ जीना सीखा दिया है।
२७/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
समय की धुंध में
धुंधला जाती हैं यादें !
विस्मृति में की गर्त में
खो जाती हैं मुलाकातें !!
रह रह कर स्मृति में
गूंजती है खोए हुए संगी साथियों की बातें !!!

आजकल बढ़ती उम्र के दौर से गुज़र रहा हूं मैं,
इससे पहले की कुछ अवांछित घटे ,
घर पहुंचना चाहता हूं।
जीवन की पहली भोर में पहुंचकर
अंतर्मंथन करना चाहता हूं !
जिंदगी की 'रील 'की पुनरावृत्ति चाहता हूं !

अब अक्सर कतराता हूं ,
चहल पहल और शोर से।

समय की धुंध में से गुज़र कर ,
आदमी वर लेता है अपनी मंज़िल आखिरकार ।

उसे होने लगता है जब तब ,
रह ,रह कर ,यह अहसास !
कि 'कुछ अनिष्ट की शंका  है ,
जीवन में मृत्यु का बजता डंका है।'
इससे पहले की ज़िंदगी में
कुछ अवांछित घटे,
सब जीवन संघर्ष में आकर जुटें।

यदि यकायक अंदर बाहर हलचल रुकी ,
तो समझो जीवन की होने वाली है समाप्ति ।
सबको हतप्रभ करता हुआ,
समस्त स्वप्न ध्वस्त करता हुआ,
समय की धुंधयाली चादर को
झीनी करता हुआ , उड़ने को तत्पर है पंछी ।

इस सच को झेलता हूं,
यादों की गठरी को
सिर पर धरे हुए
निज को सतत ठेलता हूं !
सुख दुःख को मेलता हूं !!
जीवन के संग खेलता हूं!!!

२२/०१/२०११.
आदमी के भीतर
बहुत सारी संभावनाएं
निहित हैं और उन को उभारना
चरित्र पर करता है निर्भर।
है न !
एक बात विचित्र
बूढ़े आदमी के भीतर
स्मृति विस्मृति के मिश्रण से
निर्मित हो जाता है
एक कोलाज ,
जो जीवन के आज को
दर्शाता है ,
कोई विरला इससे
रूबरू हो पाता है ,
बूढ़े आदमी की व्यथा कथा को
समझ पाता है,
उसके अंदर व्याप्त
समय के आधार पर
वृद्धावस्था की मानसिकता को
कहीं गहरे से जान पाता है।

और इस सबसे ज़रूरी है कि
बूढ़े आदमी के भीतर
सदैव रहना चाहिए
एक मासूमियत से लबरेज़ बच्चा
जो जीवन यात्रा के दौरान
इक्ट्ठा किए झूठ बोलने से हुए निर्मित
धूल मिट्टी घट्टे को झाड़कर
कर सके क़दम दर क़दम
आदमी की जीवन धारा को
साफ़ सुथरा और स्वच्छ।
आदमी दिखाई दे सके
नख से शिख तक सच्चा!
ताकि निश्चिंतता से
आदमी अपनी भूमिका को
ढंग से निभाते हुए
कर सके प्रस्थान!
बिल्कुल उस निश्छलता के साथ
जिसके साथ अर्से पहले
हुआ था उसका आगमन।
अब भी करे वह उसी निर्भीकता से गमन।
भीतर बस आगमन गमन का खेल
लुका छिपी के रहस्य और रोमांच सहित चलता है।
इस मनोदशा में राहत
उनींदी अवस्था में
सपन देख मिलती है।
बूढ़े के भीतर एक परिपक्व दुनिया बसती है।
क्या उसके इर्द-गिर्द की दुनिया
इस सच की बाबत कुछ जानती है ?
या फिर वह बातें बनाने में मशगूल रहती है !
०४/०१/२०२४.
किसी को
किसी के
ख़्वाब बेचना
आजकल
चोरी चकारी
कतई नहीं है,
यह अब एक कला है!
जिससे वह
तथाकथित जीनियस पला है !!
बुरा मत मानना
न ही बुरे को भूले से मनाना
यहाँ मना है ,
यहाँ हर कोई
निर्दोष के खून से सना है।
अब सब यहाँ व्यापारी हैं,
जिनके जेहन में
चोरी सीनाजोरी ही
नहीं बसी है,
वरन रग रग में मक्कारी है।
इस दुनिया के बाज़ार में
शराफ़त पग पग पर हारी है !
चोर चोर मौसेरे भाइयों से
लगा रखी मुनाफाखोरों ने यारी है  !!
मन में कहीं गहरे बसी अय्यारी है  !!
उनका वश चले तो आका को बेच खाएं !
यही नहीं बस ! वे गरीब के घर में भी सेंध लगाएं !
वे हर पल सुविधा ही नहीं ,दुविधा तक को बेचना चाहते हैं !
वे पक्के व्यापारी हैं, हर नायाब और वाहियात चीज़ को बेचने का हुनर रखते हैं !
वे बेचना चाहते हैं सब कुछ !
क्या श्रेष्ठ और क्या तुच्छ !
वे मोटी खाल वाले व्यापारी हैं !
और हम सब उनके मुनाफे की वज़ह !
जिन्हें वे भिखारी और आसान शिकार समझ करना चाहते जिब्ह बेवजह !!
बेचना पड़ेगा सभी को अपना सुख चैन, एक दिन उनके हाथों !
बचा ले अपना ईमान समय रहते ,भाई साधो !
बना न रह देर तक , कभी भी , मिट्टी का माधो !
वे चाहते हैं तुम्हे बेचना ,पर तुम सस्ते में खुद को न कभी बेचना।
बचा कर रख अपने पास ,अपना अनमोल धन चेतना।
अगर यह भी बिक गई तो बचेगी अपने पास महज वेदना।
अपनी संवेदना को आज सहेज कर रखना बेहद ज़रूरी है।
२१/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
बेटियों का श्राप
कोई बाप
अपनी नवजात बेटी को मार कर,
उसे गंदे नाले में फैंककर
चल दे बगैर किसी डर के
और बगैर शर्मोहया के करें दुर्गा पूजन ।
तो फिर क्यों न मिले ?
उसे श्राप
उस नन्ही मृतक बिटिया का ?
कोई पिता
ठंड के मौसम में
छोड़ जाएं अपनी बिटिया को,
मरने के लिए ,
यह सोचकर
कि कोई सहृदय
उसे उठाकर
कर देगा सुपुर्द ,
किसी के सुरक्षित हाथों में !
और वह
कर ही लेगा
गुज़र बसर ।
ताउम्र गुज़ार लेगा
ग़रीबी में ,
चुप रहकर
प्रायश्चित करता हुआ।
पर
दुर्भाग्यवश
वह बेचारी
'पालना घर' पहुंचने से पहले ही
सदा सदा की नींद जाए सो
तो क्यों न !
ऐसे पिता को भी
मिले
नन्ही बिटिया का श्राप?

सोचता हूं ,
ऐसे पत्थर दिल बाप को
समय दे ,दे
यकायक अधरंग होने की सज़ा।
वह पिता
खुद को समझने लगे
एक पत्थर भर!

चाहता हूं,
यह श्राप
हर उस ‌' नपुंसक ' पिता को भी मिले
जो कि बनता है  पाषाण हृदय ,
अपनी बिटिया के भरण पोषण से गया डर ।
उसे अपनी गरीबी पहाड़ सी दुष्कर लगे।

कुछ बाप
अपनी संकीर्ण मानसिकता की वज़ह से
अपनी बिटिया के इर्द गिर्द
आसपास की रूढ़िवादिता से डरकर
नहीं देते हैं
बिटिया की समुचित परवरिश पर ध्यान,
उनको भी सन्मति दे भगवान्।

बल्कि
पिता कैसा भी हो?
ग़रीब हो या अमीर,
कोई भी रहे , चाहे हो धर्म का पिता,
उन्हें चाहिए कि
वे अपनी गुड़ियाओं के भीतर
जीवन के प्रति
सकारात्मक सोच भरें
नाकि
वे सारी उम्र
अपने अपने  डरों से डरें ,
कम से कम
वे समाज में व्याप्त
मानसिक प्रदूषण से
स्वयं और बेटियों को
अपाहिज तो न करें।


चाहता हूं,
अब तो बस
बेटियां
सहृदय बाप की ही
गोद में खिलें
न कि
भ्रूण हत्या,
दहेज बलि,
हत्या, बलात्कार
जैसी अमानुषिक घटनाओं का
हों शिकार ।
आज समय की मांग है कि
वे अपने भीतरी आत्मबल से करें,
अपने अधिकारों की रक्षा।

अपने भीतर रानी लक्ष्मीबाई,
माता जीजाबाई,
इंदिरा,
मदर टैरेसा,
ज्योति बाई फुले प्रभृति
प्रेरक व्यक्तित्वों से प्रेरणा लेकर
अपने व्यक्तित्व को निखारने के लिए
अथक परिश्रम और प्रयास करें
ताकि उनके भीतर
मनुष्योचित पुरुषार्थ दृष्टिगोचर हो,
इसके साथ साथ
वे अपने लक्ष्य
भीतर ममत्व की विराट संवेदना भरकर पूर्ण करें।
वे जीवन में संपूर्णता का संस्पर्श करें।
Joginder Singh Nov 2024
बेबी डॉल
डाल डाल पर
जीवन से
लाड लड़ाती हुई
आँखें झपका रही है।
जीवन में
सुन्दरता, मनमोहकता के
रंग बिखेर रही है।
बेबी डॉल
आकर्षण का जादू
नस नस में
जगा रही है।
वह अपने ही सम्मोहन से
मंत्र मुग्ध हुई
जीवन से संवाद
रचा रही है।

आजकल
वह खोई खोई रहती है!
दिन रात विरह के गीत गाती है!!
दिनों दिन
अकेलेपन में
खोती जाती है।


हमें
एक बेबी डॉल की तलाश है
जिस में बसती जीवन की श्वास हो!
उसके पास ही कहीं
खिला पलाश हो!!
जिसके इर्द गिर्द
मंडराता मधुमास हो!!!
२८/०२/२०१
Joginder Singh Nov 2024
बड़े बुजुर्ग
अक्सर कहते हैं ,
बच्चे मस्तमौला होते हैं,
उनका खेल तो शरारत है,
अगर बचपन में न कोई शरारत की
तो ज़िन्दगी ख़ाक जी!
अभी अभी
एक बंदर
एकदम मस्त खिलंदर
दादा जी के चश्मे को
सलीके से लगा कर इधर उधर देख
उधम मचाने की फिराक में था
कि देख लिया
दादा ने अचानक

वे अपनी छड़ी उठा कर चिल्लाए, बोले," भाग।"
बंदर भी
आज्ञाकारी बच्चे की तरह
भाग गया।
उसने कोई प्रतिकार नहीं किया।
इससे पहले
कई बार उसने
बूढ़े दादू को खूब खिजाया था।
यही नहीं
कई खाद्य पदार्थों को कब्जाया था।
आज
कुछ ख़ास नहीं हुआ।
उसने बस चश्मे को छुआ
और पल भर को आंखों पर लगाया बस!
और दादा की घुड़की सुन भाग गया।
चश्मा नीचे गिरा
और उसके शीशे पर
खरोंच आ गई।
शुक्र है
चश्मा ठीक ही था
दादा जी
अखबार पढ़ने बैठ गए,
बंदर किसी दूसरे मकान की छत पर
धमाचौकड़ी कर रहा था।
पास ही बंदर का बच्चा
अपनी मां की गोद से लिपटा पड़ा था,
बंदरिया उसे साथ लेकर
मकानों की दूसरी कतार की ओर निकल गई थी।
यह घटनाक्रम देख मेरी हँसी निकल गई।
दादा जी ने मुझे घूर कर देखा,
तो मैं सकपका गया।
एक बार फिर से डांट खाने से बच गया।
१३/११/२०२४.
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