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बेशक
तमाशा देखना
सदैव सुखदाई होता है
परन्तु कभी कभी
तमाशबीन को
तमाचा लग
जाता है
जब कोई
शिकार व्यक्ति
अपनी जगहंसाई से
खफा होकर
प्रतिक्रिया वश
धुनाई कर देता है।
ऐसे में
तमाशबीन
अपने आप में
एक तमाशा
बन जाता है ,
उस पर स्वत:
हालात का
तमाचा पड़ जाता है।
उसका सारा उत्साह
ठंडा पड़ जाता है।
२५/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
समय को
तलाश है
उस पीढ़ी की ।
जिसने पकड़ी न हो,
आगे बढ़ने की खातिर
भ्रष्टाचार की सीढ़ी।
सच की तलाश में
इधर उधर
भटकना
कोई अच्छी बात नहीं,
आदमी
समय रहते
स्वयं को
ढंग से तराश ले,
यही पर्याप्त है।

बहुत से लोग
सोचते कुछ
और करते कुछ हैं ,
इन की वज़ह से
सुख की तलाश में
निकले जिज्ञासुओं को
भटकना पड़ता है ,
अपने जीवन में
कष्टों से जूझना पड़ता है।
यदि आदमी की
कथनी और करनी में
अंतर न रहे ,
तो सुख समृद्धि और शांति की
तलाश में और अधिक
भटकना न पड़े ,
उसे सुख चैन सहज ही मिले ,
उसका अंतर्मन सदैव खिला रहे !
वह अपने अंदर  के आक्रोश से
और
असंतोष की ज्वाला से
कभी भी न झुलसे ,
बल्कि वह समय-समय पर
अपने को जागृत रखने का प्रयास करता रहे
ताकि वह सहजता पूर्वक
अपनी मंजिल को तलाश सके।
वह जीवन में आगे बढ़ कर न केवल
अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सके ,
बल्कि तनावमुक्त जीवन धारा में ‌बहकर
समय रहते
स्वयं की संभावना को
सहज ही खोज सके।
वह जीवन में
सार्थकता की अनुभूति कर सके ,
सहजता से
उसे निरर्थकता के अहसास से मुक्ति मिल सके।
२८/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
अर्से पहले
मेरे मुहल्ले में
आया करते थे कभी कभी
तमाशा दिखलाने
मदारी और बाज़ीगर
मनोरंजन करने
और धन कमाने
ताकि परिवार का
हो सके भरण पोषण।

मैं उस समय बच्चा था
उनके साथ चल पड़ता था
किसी और कूचे गली में
तमाशा देखने के निमित्त।
उस समय जीवन लगता था
एकदम शांत चित्त।
आसपास,देश समाज की हलचलों से अनभिज्ञ।

अब समय बदल चुका है
रंग तमाशे का दौर हो चुका समाप्त।
उस समय का बालक
अब एक सेवानिवृत्त बूढ़ा
वरिष्ठ नागरिक हो चुका है,
एक भरपूर जीवन जी चुका है।

अब गली कूचे मुहल्ले
पहले सी हलचलों से
हो चुके हैं मुक्त,
शहर और कस्बे में,
यहां तक कि गांवों में भी
संयुक्त परिवार  
कोई विरले,विरले बचे हैं
एकल परिवार उनका स्थान ले चुके हैं।
इन छोटे और एकाकी परिवारों में
रिश्ते और रास्ते बिखर गए हैं
स्वार्थ का सर्प अपना फन उठाए
अब व्यक्ति व्यक्ति को भयभीत रहा है कर
और कभी कभी कष्ट,दर्द के रूबरू देता है कर।


आजकल
मेरे देश,घर,समाज, परिवार के सिर पर
हर पल लटकी रहती तलवार
मतवातर कर्ज़,मर्ज का बोझ
लगातार रहा है बढ़
मन में फैला रहता डर
असमय व्यवस्था के दरकने की व्यापी है शंका,आशंका।

ऐसे में
आप ही बताएं,
देश ,समाज , परिवार को
एकजुट, इकठ्ठा रखने का
कोई कारगर उपाय।

डीप स्टेट का आतंक
चारों और फैल रहा है ,
विपक्ष मदारी बना हुआ
खेल रहा है खेल,
रच रहा है सतत साज़िश,
सत्ता पर आसीन नेतृत्व को
धूल चटाने के लिए
कर रहा है षडयंत्र
ताकि रहे न कोई स्वतंत्र
और देश पर फिर से
विदेशी ताकतें करने लगें राज।
वे साधन सम्पन्न लोग
वर्तमान
सत्ता के सिंहासन पर आसीन
नेता का अक्स
एक तानाशाह के रूप में
करने लगे हैं चित्रित।

अब आगे क्या कहूँ?
पीठासीन तानाशाह,
और सत्ता से हटाए तानाशाह की
आपसी तकरार पर
कोई ढंग का फैसला कीजिए।
लोकतंत्र को ठगतंत्र से मुक्ति दिलवाइए।
आओ !सब मिलकर
इन हालातों को अपने अनुकूल बनाएं।
वैसे तानाशाहों का तमाशा ज़ारी है।
लगता है ...
अब तक तो
अपने प्यारे वतन पर
गैरों ने कब्ज़ा करने की,की हुई तैयारी है।
जनता के संघर्ष करने की अब आई बारी है।
उम्मीद है...
इस तमाशे से देश,समाज
बहुत जल्दी बाहर आएगा।
आम आदमी निकट भविष्य में
अपने भीतर सोए विजेता को बाहर लाएगा,
देश और  दुनिया पर
मंडराते संकट से
निजात दिलवाएगा।
कोई न कोई
इस आपातकाल को नेस्तनाबूद करने का
साहस जुटाएगा।
तभी सांस में सांस आएगा।
समय
इस दौर की कहानी
इतिहास का हिस्सा बन
सभी को सुनाएगा ताकि लोग
स्वार्थ की आंधी से
अपने अपने घर,परिवार बचा सकें।
निर्विघ्न कहीं भी आ जा सकें।
ध्यान से सुनें ,
अपने इर्द गिर्द
तामझाम का मुलम्मा
चढ़ाने वाले ,
दिखावे का
महाप्रसाद तैयार करने वाले।
यह सब क्या है ?
इस आडंबर रचने की
वज़ह क्या है ?
इस दिखावे की बीमारी की
दवा कहां है ?
यह सब कुछ क्या है ?
आप सबको हुआ क्या है ?
दिखावे से क्षुब्ध
आदमी के अंदर
बहुत से सवालात
भीतर पैदा होते रहते हैं !
उसे दिन रात सतत
मथते रहते हैं !!
सवालात की हवालात में बंद करके,
उसे बेचैन करते रहते हैं !!
आज आदमी क्या करे ?
किस पर वह अपना आक्रोश निकाले ?
अच्छा हो कि देश दुनिया और समाज
दिखावा करने वालों को
निर्वासित कर दे
ताकि वे अप्रत्याशित ही
किसी साधारण मनुष्य को
कुंठित न कर सकें।
दिखावे और आडंबर के
मकड़जाल में उलझाकर
अशांति और अराजकता को फैलाकर
जीवन को अस्त व्यस्त कर
आदमी के भीतर तक
असंतोष और डर न भर दें।
एक हद तक
तामझाम अच्छा लग सकता है ,
परन्तु इसकी अति होने पर
यह विकास की गति को बाधित करता है।
अच्छा रहे कि लोग इससे बचें।
वे सादगीपूर्ण जीवन जीने की ओर बढ़ें।
बल्कि वे आपातकाल में संघर्षरत रहकर
जीवन धारा को स्वाभाविक रूप से बहने दें !
इस की खातिर
वे स्वयं को संतुलित भी करें ,
ताकि जीवन में सब सहजता से आगे बढ़ ‌सकें।
तामझाम का आवरण
अधिक समय तक
टिक नहीं पाता है ,
यह आदमी ‌को दुर्दशा की तरफ धकेल कर ,
सुख समृद्धि और सम्पन्नता से
वंचित कर देता है ,
भटकने के लिए
अकेलेपन से जूझने के निमित्त
असहाय,दीन हीन अवस्था में छोड़
प्रताड़ित करता है ,
सतत् डर भरकर
आदमी को बेघर करता है।
२८/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
तारीफ की चाशनी
सरीखे तार से बंधी है
यहां हर एक की जिंदगी।

तुम हो कि ...
ना चाह कर भी बंधे हो
सिद्धांत के खूंटे से!
चाहकर भी
तारीफ़ के पुल बांधने से
कतराते हो!!
पल पल कसमसाते हो!!!


तारीफ़ कर
तारीफ़ सुन
नहीं रहेगा कभी भी
गुमसुम !
यह था ग़ैबी हुक्म !!


सो उसे मानता हूं ।
तारीफ़ करता हूं,
जाने अनजाने
रीतों में,
गए बीतों में
खुशियां भरता हूं।
जीव जीव के भीतर के
डर हरता हूं ।
तार तार हो चुके
दिलों से जुड़ता हूं ,
छोटे-छोटे क़दम रख
आगे आगे बढ़ता हूं ।

क्या तुम मेरा
अनुसरण नहीं करोगे ?
स्वयं को
तारीफ़ का पात्र
सिद्ध नहीं करोगे ?
या फिर
स्व निर्मित आतंक के
गड़बड़ झाले से
त्रस्त रहोगे ?
खुद की अस्मिता को
तार तार करते
इधर-उधर
कराहते फिरोगे ?
उद्देश्यविहीन से !
तारीफ के जादुई
तिलिस्म से डरे डरे !!


दोस्त !
तारीफ़ का तिलिस्म वर!!
एक नई तारीख का
इंतज़ार निरंतर कर !!

०५/०२/२०१३.
जीवन में कभी कभी
चल ही जाता है तीर तुक्का !
आदमी हो जाता है अचंभित और हक्का बक्का !!
ऐसा होता है प्रतीत कि
आदमी ने जीवन में मैदान मार लिया हो।
शत्रु को बस
खेल खेल में कर दिया हो चित्त।
पर पता नहीं था
जीतने से पहले
कब होना पड़ जाएगा चारों खाने चित्त ?
१२/०४/२०२५.
दो देशों के
युद्ध विराम में राष्ट्रीय प्रवक्ता के
प्रेस विज्ञप्ति देने से पूर्व ,
प्रेस वार्ता में कुछ कहने से पहले
किसी तीसरे राष्ट्र के
राष्ट्रपति ने युद्ध विराम की बाबत
ट्वीट कर दिया
और सारा श्रेय
ख़ुद लेने का प्रयास किया।
इस बाबत
आप क्या सोचते हैं ?
क्या यह सही है ?
मेरे यहां कुछ कहावतें हैं...
दाल भात में मूसल चंद..!
परायी शादी में अब्दुल्ला दीवाना...!
इस तीसरे कौन के संबंध में
हम सब को
नहीं रहना चाहिए मौन
वरना हमारी हैसियत
होती जाएगी गौण।
हमें मूसल चंद और अब्दुल्ला के
हस्तक्षेप से बचना होगा।
मित्र राष्ट्र और शत्रु राष्ट्र को
द्विपक्षीय संवाद से
अपना पक्ष
एक दूसरे के सम्मुख
रखना होगा।
तीसरे की कुटिलता से
स्वयं को बचाना होगा।
वरना धोखा मिलता रहेगा।
सरमायेदार अपना घर भरता रहेगा।
देश दुनिया और समाज पिछड़ता रहेगा।
आम आदमी सिसकता रहेगा।
११/०५/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
अगर तुम्हें
इंसाफ़ चाहिए
तो लड़ने का ,
अन्याय से
बेझिझक
जा भिड़ने का
कलेजा चाहिए ।
मुझे नहीं लगता
कि यह तुम में है ।
फिर तुम
किस मुंह से
इंसाफ़ मांगती हो ?
अपने भीतर
क्यों नहीं झांकते हो ?
क्यों किसी इंसाफ़ पसंद
फ़रिश्ते की राह ताकते हो ?
तुम सच की  
राह साफ़ करो।
जिससे सभी को
इंसाफ़ मयस्सर हो।
दोस्त , इस हक़ीक़त के
रू-ब-रू  हो तो सही।
सोचो , तुम किसी
फ़रिश्ते से यक़ीनन कम नहीं।

१७/०१/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
औपचारिकता
लेती है जब
सर्प सी होकर
डस।
आदमी का
अपने आसपास पर
नहीं
चलता कोई
वश।

तुम
अनौपचारिकता को
धारण कर,
उससे
अकेले में
संवाद रचा कर,
आदमी की
समसामयिक
चुप्पी  को तोड़ो।
उसे
जिंदगी के
रोमांच से
जोड़ो ।

तुम
जोड़ो
उसे जीवन से
ताकि
वह भी
निर्मल
जल धारा सा
होकर बहे ,
नाकि
अब और अधिक
अकेला रहे
और
अजनबियत का
अज़ाब सहे।

१०/०१/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
कहीं गहरे तक
उदास हूँ ,
भीतर अंधेरा
पसरा है।
तुम चुपके से
एक दिया
देह देहरी पर
रख ही दो।
मन भीतर
उजास भरो ।
मैल धोकर
निर्मल करो।
कभी कभार
दो सहला।
जीवन को
दो सजा।
जीवंतता का
दो अहसास।
अब बस सब
तुम्हें रहे देख।
कनखी से देखो,
बेशक रहो चुप।
तुम बस सबब बनो,
नाराज़ ज़रा न हो।
मुक्त नदी सी बहो,
भीतरी उदासी हरो।
यह सब मन कहे,
अब अन्याय कौन सहे?
जो जीवन तुम्हारे अंदर,
मुक्त नदी बनने को कहे।

२५/११/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
हाल
न पूछो ,
हालात की
बाबत सोचो ।

धमकी दी नहीं ,
धमाका हुआ बस समझो ।
अब हालात हुए
वश से बाहर।
चुपचाप न रहो ,
हाथ पर हाथ रख कर
न बैठे रहो।
अब और अन्याय न सहो।
कुछ करो , कुछ तो करो ।
अब दंगाइयों पर
सख़्त कार्रवाई करो।

न करो चौकन्ना
घर में रह  रहे  
भीतरघात कर रहे  
आंतरिक शत्रुओं को
अब सबक सिखाना चाहिए।
उन पर अंकुश लगना चाहिए।

हर कार्रवाई के बाद
नेतृत्व को
मौन धारण करना चाहिए,
हालात सुधरने तक।

धमकी  न  दो ,
धमाके सुना दो ।
हो सके तो बग़ैर डरे ,
उन्हें गहरी नींद सुला दो ।
उन्हें मिट्टी में मिला दो ।
अब सही समय है कि
जीवन की खिड़की से
तमाम पर्दें हटा दिए जाएं ।
अपने तमाम मतभेद भूला दिए जाएं ।

अपने और गैरों के बीच से
सभी पर्दों को हटा दिया जाए ।
गफलतों और गलतफहमियों को
जड़ से ख़त्म कर दिया जाए ।
जीवन में पारदर्शिता लाई जाए ।
  २६/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
तुम
शब्द साधना करो जरूर
शब्द
जब अनमने मन से
मुखारविंद से  निकलें,
तब लगने लगें
वे अपशब्द ।
कैसे करें वे
मन के भावों को
सटीकता से व्यक्त ।
आदमी अपनी संवेदना को अब कैसे बचाए?
वह भटकता हुआ, थका हारा, हताश नज़र आए।

शब्द
आदमी की अस्मिता को
अभिव्यक्त कर पाएं!
काश !
वे अपना जादू
चेतना पर कर जाएं!!
इसलिए
आदमी
शब्द की संप्रेषणीयता  के लिए
कभी तो ढूंढे
अपनी मानसिकता के अनुरूप
कोई नया उपाय।
यह बहुत जरूरी है कि
अब आदमी अपने मन  की बात
सहजता से कह पाए।
वरना चिंता और तनाव
मन के भीतर पैदा होते जायें।

सच के लिए
आज क्यों न सब
शब्द साधना को साधकर
अपने जीवन की राह चुनें।

अपनी बात कहते हुए
हम करें अपने शब्दों का सावधानी से चयन
कि ये न लगें अपशब्द।
ये मन की हरेक उमंग तरंग को
करें सहजता से अभिव्यक्त ।
मानव के भीतर रहते
झूठ को भी बेपर्दा करें ,
और करें सच को उद्घाटित,
ताकि जीवन में शब्द साधक
सच की उदात्तता को
अनुभूति का अंश बनाकर
आगे बढ़ सकें ।

सभी शब्द साधना करें जरूर
परंतु अपने अहंकार को छोड़कर ,
ताकि शब्दों पर अवलंबित
मानव इसी जीवन धारा में
जीवन के सच से रचा सके अपने संवाद।
भूल सके भीतर का समस्त विस्माद,वाद विवाद।
मिल सके जीवन को एक नया मोड़,
और मानव आगे बढ़े
निज के भीतर व्यापे अवगुण छोड़।


आदमी शब्द साधना जरूर करें
ताकि वह रोजमर्रा के अनुभवों को
जीवन की सघन अनुभूति में बदल सके।
वह अपने बिखराव को समेट
निज को उर्जित कर सके !
जीवन पथ पर निष्कंटक बढ़ सके !!

अतः ज़रूरी है मानव के लिए
जैसे-जैसे वह जीवन यात्रा में आगे बढ़ता जाए ।
धीरे-धीरे अपनी समस्त  कमियों को छोड़ता जाए ।
वह अपने जीवन में खूबियां को भरता जाए ।
अपनी लक्ष्य सिद्धि के लिए
शब्दों के संगीत से जुड़ता जाए।


दोस्त,
समय को समझने हेतु,
अपनी को बना लो एक सेतु
शब्दों और अर्थों में संतुलन बनाकर
शब्द साधना करते हुए
अभिव्यक्ति की खातिर
उजास को ढूंढों।


यदि व्यक्ति ने
खुद को जानना और पहचानना है
तो वह अपना जीवन
शब्द साधना को  करें समर्पित।

शब्द साधना करो जरूर !
इससे मिटता मन का गुरूर!!

आज
मानव के भीतर रहते
चंचल मन ने
मनुष्यों को ख़ूब भटकाया है ,
उसे लावारिस   बनाया है ,
उसे अनमनेपन के गड्ढों में ले जा डूबोया है।
उसके भीतर का साथी रहा शब्द,
आजकल गहरी नींद जा सोया है।

आज
मनुज को
इस गहरी नींद से
जगाना ज़रूरी है ।

शब्द साधना करके
मानव की
इस गहरी नींद को
तोड़ना अपरिहार्य है,
क्या यह सच तुम्हें
स्वीकार्य है ?
अतः शब्द साधना करना अपरिहार्य है।
जीवन की सार्थकता के लिए
यह निहायत जरूरी है ।
२१/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
उम्मीद है
इस बार तुम
हंगामा नहीं करोगे,
सरे राह
अपने और गैरों को नंगा नहीं करोगे।


उम्मीद है
इस बार तुम
नई रोशनी का
दिल से स्वागत करोगे,
अपनों और गैरों को
नूतनता के रू-ब-रू कराकर
नाउम्मीदी से
मुरझाए चेहरों में
ताजगी भरोगे!
उनमें प्रसन्नता भरी चमक लाओगे!!


उम्मीद है
इस बार तुम
बेवजह ड्रामा नहीं करोगे,
बल्कि एक नया मील पत्थर
सदैव की भांति
परिश्रम करते हुए खड़ा करोगे!


उम्मीद है
इस बार तुम
सच से नहीं डरोगे,
बल्कि
असफलता को भी मात दे सकोगे !
कामयाबी के लिए झूठ बोलने से बचोगे !

२४/११/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
ठीकरा
असफलता का
किसी और की तरफ़ उछाल दूं ,
अपना दामन झाड़ लूं ।

यह कतई ठीक नहीं ,
यह तो अपने को ठगना है ,
अपने को नष्ट करना है ।

अच्छा रहेगा,
सच से ही प्यार करूं ,
झूठ बोलकर जीवन न बेकार करूं ,
फिर मैं अपना और
दूसरों का
जीना क्यों दुश्वार करूं ?

ठीकरा
असफलता का
फोडूंगा न किसी पर ,
उस पर मिथ्या आरोप लगा ।
बल्कि
करूंगा निरंतर सार्थक प्रयास
और  करूंगा प्राप्त एक दिन
इसी जीवन में सफलता का दामन
खुले मन से,
बगैर किसी झिझक के।

अब स्वयं को
और ज्यादा न करूंगा शर्मिंदा ,
बनूंगा ख़ुदा का बंदा,
न कि कोई अंधा दरिंदा ।

इतना तो खुद्दार हूं,
संघर्ष पथ पर चलने की खातिर
द्वार तुम्हारे पर खड़ा तैयार हूं ।

तुम तो साथ दोगे न ?
दोस्ती का हाथ ,
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ ,
आगे बढ़ाओगे ना !!

०१/१०/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
जीवन युद्ध
है एक सतत संघर्ष,
इसमें उत्कर्ष भी है,
तो अपकर्ष भी।
अनमोल मोती सा
उत्कृष्ट निष्कर्ष भी।

यदि
आप चाहते हैं कि
जीवन युद्ध रहे ज़ारी।
यह तानाशाह के हाथों में
बने न नासूर सी बीमारी।
...
बनना होगा
भीतर तक निष्पक्ष।
करना होगा
भीतर बाहर संघर्ष।
आप
काले दिन झेलने की
करें प्राण, प्रण से तैयारी।
....और हाँ,खुद को
सच केवल सच
कहने, सुनने के लिए
करें तैयार।
जीवन मोह सहर्ष दें त्याग।
२६/०१/२०१०
यदि आपके मन में भरा हो गुब्बार,
व्यवस्था को लेकर
तो बग़ैर देरी किए
तंज़ कसने शुरू करो
सब पर
बिना कोई संकोच किए !
मगर ध्यान रहे।
जो भी तंज़ कसो,
जिस पर भी तंज़ कसो,
पूरे रंग में आकर
दिल से कसो !
ताकि मन में बस चुके गुब्बार
तनाव की वज़ह न बनें
और कहीं
अच्छाइयों की बाबत भी
नहीं ,नहीं ,कहते कहते,
और करते करते,
कुंठा के बोझ को सहते सहते,
अहंकार का गुब्बारा फट कर
सब कुछ को नेस्तनाबूद न कर दे,
समस्त प्रगति और विकास को
सिरे से बर्बाद न कर दे,
इसलिए तंज़ कसना ज़रूरी है,
यह गरीब गुरबे मानस की मज़बूरी है।
अतः तंज़ जी भर कर कसो,
अपने भीतर के तनावों को समय रहते हरो।
यही जीवन की बेहतरी के लिए मुफीद रहेगा।
कौन यहां अजनबियत से भरी पूरी दुनिया में घुटन सहे ?
क्यों न खुल कर, सब यहां ,तंज़ कसते हुए, जीवन यात्रा पूरी करें ?
२३/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
मूल्य विघटन के
दौर में
नहीं चाहते लोग जागना ,
वे डरते हैं
तो बस
भीतरी शोर से।

बाह्य शोर
भले ही उन्हें
पगला दे!
बहरा बना दे!!
ध्वनि प्रदूषण में
वे सतत इज़ाफ़ा करते हैं।
बिन आई मौत का
आलिंगन करते हैं।
पर नहीं चेताते,
न ही स्वयं जागते,
सहज ही
वे बने
रहते घाघ जी!
मूल्य विघटन के
दौर में
बुराई और खलनायकों का
बढ़ रहा है दबदबा और प्रभाव,
और...
सच, अच्छाई और सज्जनों का
खटक रहा है अभाव।
लोग
डर, भय और कानून
जड़ से भूले हैं,
आदमियत के पहरेदार तक
अब बन बैठे
लंगड़े लूले हैं।
कहीं गहरे तक पंगु!
वे लटक रहे हवा में
बने हुए हैं त्रिशंकु!!
अब
कहना पड़ रहा है
जनता जनार्दन की बाबत,
अभी नहीं जगे तो
शीघ्र आ जाएगी सबकी शामत।
लोग /अब लगने लगे हैं/ त्रिशंकु सरीखे,
जो खाते फिरते
बेशर्मी से धक्के!
घर,बाहर, बाजारों में!!
त्रिशंकु सरीखे लोग
कैसे मनाए अब ?
आदमियत की मृत्यु का शोक!
जड़ विहीन, एकदम संवेदना रहित होंगे
उन्हें  हो गया है विश्व व्यापी रोग!!
   १६/०२/२०१०.
Joginder Singh Dec 2024
अच्छा खासा आदमी था,
रास्ता भटक गया।
बहुत देर बाद
मुंह में निवाला पाया था ,
गले में अटक गया ।

थोड़ी तकलीफ़ हुई ,
कुछ देर खांसी हुई ,
फिर सब कुछ शांत हुआ,
अच्छा खासा आदमी परेशान हुआ।
समय बीतते बीतते
थोड़ा पानी पीने के बाद
अटका निवाला
पेट के भीतर ले जाने में सक्षम हुआ ,
तब कहीं जाकर कुछ आराम मिला।
अपनी भटकन
और छाती में जकड़न से  
थोड़ी राहत मिली,
दर्द कुछ कम हुआ,
धीरे-धीरे
मन शांत हुआ, तन को भी सुख मिला।
अपनी खाने पीने की जल्दबाजी से
पहले पहल लगा कि
अब जीवन में पूर्ण विराम लगा,
जैसे मदारी का खेल  
खनखनाते सिक्कों को पाने के साथ बंद हुआ।


अच्छा खासा आदमी था
ज़िंदगी को जुआ समझ कर  खेल गया।
मुझ कुछ पल के लिए
जीवन रुक गया सा लगा,
अपनी हार को स्वीकार करना पड़ा,
इस बेबसी के अहसास के साथ
बहुत देर बाद
निवाला निगला गया था।

अपनी बर्बादी के इस मंजर को देख और महसूस कर
निवाला गले में अटका रह गया था।
सच! उस पल थूक गटक गया था ,
पर ठीक अगले ही पल
भीतर मेरे
शर्मिंदगी का अहसास
भरा गया था।
बाल बाल बचने का अहसास
भीतर एक कीड़े सा कुलबुला रहा था।
मैं बड़ी देर तक अशांत रहा था।
१६/०६/२००७.
Joginder Singh Nov 2024
जनाब
यहां थूकिए मत।

थू!थू! थूक ना!
जीवन में
आपात काल आ चुका है।
अगर
किसी ने देख लिया
आफत आ जाएगी ।
जान बचानी
मुश्किल हो जाएगी।
जुर्माना तो देना ही होगा,
बल्कि हवालात की
सैर भी करनी पड़ सकती है।
जीवन में मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
अच्छा होगा
भूल कर भी न थूक।
यह बन सकती है एक
सुरक्षा, स्वास्थ्य संबंधी चूक।
१४/०५/२०२०.क
कोरोना काल के भयभीत करने वाले काल खंड को ध्यान में रखते हुए कविता को पढ़ा जाए।
सब एक दौड़ में
ले रहे हैं हिस्सा।
कौन किस से आगे जा पाए ?
इसका ढूंढें कैसे उपाय ?
इसकी बाबत सोच सोच कर
बहुत से लोग
भुला बैठे अपना सुख चैन।
चिंता और तनाव से
चिता की राह पर
असमय चल पड़े हैं,
क्या वे स्वयं को नहीं छल रहे हैं ?
यही बनती है अक्सर आदमी की हार की वज़ह।
ढूंढे से भी नहीं मिल पाती इस हारने के दंश की दवा।
ऊपर से दिन रात चलने वाली
एक दूसरे से आगे निकलने , हराने , विजेता कहलाने की होड़ ,
आदमी को सतत् बीमार कर रही है।
आधी से ज्यादा लोगों की आर्थिकता पर
यह व्यर्थ की दौड़ धूप और भागम भाग
चोट कर रही है।
इसकी मरहम भी समय पर नहीं मिल रही है।
यह सारी गतिविधि
आदमी को बेदम करती जा रही है।
दम बचा रहा तो ही हैं हम !
बस ! इस छोटी सी बात को समझ लें हम !
तब ही सब अस्तित्व की लड़ाई जीत पाएंगे हम !
वरना निरंतर हारने की मनोदशा में जाकर हम !
कब तक अपने को सुरक्षित रख पाएंगे हम ?
फिर तो जीवन में
बढ़ता ही जाएगा
कहीं न पहुँचने की टीस से उत्पन्न गम।
इस समस्या की बाबत
ठंडे दिल से सोचो ।
पागलपन की दौड़ से
समय रहते  ख़ुद को बाहर निकालो।
ख़ुद को  
अनियंत्रित हो जाने से रोको।
०७/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
दर्पण
दर्प न  जाने।
वह तो
समर्पण को
सर्वोपरि माने ।

जिस क्षण
दंभी की छवि
उस पर आने विराजे,
उस पल
वह दरक जाये ,
उसके भीतर से
आह निकलती जाये।
उसका दुःख
कोई विरला ही जान पाये।

२०/०८/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
हे दर्पणकार! कुछ ऐसा कर।
दर्प का दर्पण टूट जाए।
अज्ञान से पीछा छूट जाए।
सृजन की ललक भीतर जगे।
हे दर्पणकार!कोई ऐसा
दर्पण निर्मित कर दो जी,
कि भीतर का सच सामने आ जाए।
यह सब को दिख जाए जी।

हे दर्पणकार!
कोई ऐसा दर्पण
दिखला दो जी।
जो
आसपास फैले आतंक से
मुक्ति दिलवा दे जी ।

हे दर्पणकार!
अपने दर्पण को
कोई आत्मीयता से
ओतप्रोत छुअन दो
कि यह जादुई होकर
बिगड़ों के रंग ढंग बदल दे,
उनके अवगुण कुचल दे ,
ताकि कर न सकें वे अल छल।
उनका अंतःकरण हो जाए निर्मल।

हे दर्पणकार!
तोड़ो इसी क्षण
दर्प का दर्पण ,
ताकि हो सके  
किसी उज्ज्वल चेतना से साक्षात्कार ,
और हो सके
जन जन की अंतर्पीड़ा का अंत,
इसके साथ ही
अहम् का विसर्जन भी।
सब सच से नाता जोड़ सकें,
जीवन नैया को
परम चेतना की ओर मोड़ सकें।
८/६/२०१६
Joginder Singh Nov 2024
मेरे भीतर गहरे
उतर रही है
मौत से जन्मीं
दहशत।

दुनिया में फैली
क़त्ल ओ' ग़ैरत देख
चेतना
मेरी हुई सन्न!
व्याप गया है
मेरे इर्द-गिर्द सन्नाटा!


लगता है
कोई अदृश्य हाथ
मारेगा मेरे मुंह पर
झट से सन्न करता हुआ
ज़ोर से झापड़ ।

कोई और मुझे
खौफ़जदा करने के लिए
मेरे इर्द-गिर्द
मचाएगा उत्पात।

और कोई उपद्रवी
हाथ में दहशत की तलवार लिए
झट से मेरा सिर कलम कर देगा।
मेरे भीतर की
समस्त चेतना को,
संवेदना से अलग करने के निमित्त
वह हत्यारा मुझे मार कर
मेरी देह से नेह का नाता तोड़ जाएगा।
झट से सिर और धड़ को अलग कर जाएगा ।

सच! उस समय आसपास सन्नाटा पसर जाएगा।
सब के भीतर समय
एक खौफनाक खंज़र बनकर
दहशत का मंज़र भरता जाएगा ।
सच्चे और झूठे का पता
किसे चल पाएगा ?
एक और आदमी अपना सफ़र पूरा कर जाएगा ।
कुछ अर्से बाद वह यादों में ही जिंदा रह पाएगा।

कोई उसे याद करेगा, यह भी जरूरी नहीं।
बिना लड़े मरना,कतई उसे मंजूर नहीं ।
सो खुद को लड़ने के लिए तैयार करो।
  १०/०५/२०२०.
घर और परिवार में
न हो कभी क्लेश
इसलिए
वे दोनों
उम्र बढ़ने के साथ साथ
एक दूसरे को
ठेस
पहुंचाने की
पुरानी आदत को
रहे हैं
धीरे धीरे छोड़।
यह उनके जीवन में
आया है एक नया मोड़।

आजकल
दोनों मनमानियाँ
करना
पूर्णरूपेण गए हैं भूल।
बस
दोनों तन्हा रहते हैं,
चुप रहकर
अपना दुखड़ा कहते हैं !
कभी कभी
आमना सामना होने पर
मुस्करा कर रह जाते हैं !!

उनके दाम्पत्य जीवन में
हर क्षण बढ़ रही है समझ ,
वे छोड़ चुके हैं करना बहस।

वे परस्पर
घर तोड़ने की बजाय
चुप रहना पसंद करते हैं ,
शायद इसे ही
समझौता कहते हैं ,
वे पीड़ाओं से घिरे
फिर भी
एक दूसरे की
दिनचर्या को देखने भर को
बुढ़ापे का सुख मानते हैं।

उनकी संवेदना और सहृदयता
दिन पर दिन रही है बढ़।
जीवन में मतवातर
आगे बढ़ने और हवा में उड़ने की ललक
थोड़ी सी गई है रुक।
वे अब अपने में ठहराव देख रहे हैं।
अपने अपने घेरे में सिमट कर रह गए हैं।

घर और परिवार में अब न बढ़े क्लेश
इसलिए अब वे हरदम चुप रहते हैं।
पहले वे बातूनी थे,
पर अब उनके परिचित
उन्हें गूंगा कहते हैं।
वे यह सुन कर, अब जलते भुनते नहीं,
बहरे बन कर रह जाते हैं !
कहीं गहरे तक
अपने आप में डूब जाते हैं !!
वे डांटते नहीं, डांट खाना सीख चुके हैं !!
फलत: खुद को सुखी मानते हैं।
और इसे जीवन में सही मानते भी हैं
ताकि जीवन में वजूद बचा रहे ,
जीवन अपनी गति से आगे बढ़ता रहे।
२९/०४/२००५.
Joginder Singh Nov 2024
सुना है,
स्पर्श की भी
अपनी एक स्मृति होती है
जो अवचेतन का हिस्सा बन जाती है।
यदि
दिव्य की अनुभूति
करना चाहते हो तो प्रार्थना करो
पांच तत्वों के सुमेल के लिए !
भीतर के उजास के लिए !
दिव्यता के प्रकाश के लिए!
इस के लिए
संभावना खोजने के प्रयास करो।
हो सके तो दुर्भावना से बचो।
दिव्यता से साक्षात्कार कर पाने के लिए।
वैसे...
धरा पर भटकाव बहुत हैं
पर सब निरर्थक
सार्थक है तो केवल
नैतिकता,
जिस पर हावी होना चाहती अनैतिकता।


दिव्यता का संस्पर्श
हमें साहसी बनाता है।

अन्यथा हम पीड़ित बने रहेंगे।
इस बाबत आप क्या कहेंगे?
Joginder Singh Nov 2024
दीन ओ धर्म के नाम पर
जब अवाम को
बरगलाया जाता है,
तब क्या ईश्वर को
भुलाया नहीं जाता है?

दीन ओ धर्म
तब तक बचा रहेगा ,
जब तक आदमी का किरदार
सच्चा बना रहेगा ।

दीन ओ धर्म
तभी तक असरकारी है,
जब तक आदमी की
आंखों में
शर्म ओ हया के
जज़्बात जिंदा रहते हैं,
अन्यथा लोग हेराफेरी,
चोरी सीनाज़ोरी में
संलिप्त रहते हैं,
अंहकारी बने रहते हैं,
जो धर्म और कर्म को
दिखावा ही नहीं,
बल्कि छलावा तक मानते हैं।
ऐसे लोग
धर्म की रक्षा के नाम पर
देश, समाज, दुनिया को बांटते हैं,
नफ़रत फैला कर
अपनी दुकान चलाते हैं,
भोले भाले और भले आदमी
उनके झांसे में आकर
बेमौत मारे जाते हैं।
Joginder Singh Nov 2024
सबके भीतर से
बेहतर बहे,
इस के लिए
हर कोई
न केवल दुआ करे,
बल्कि
प्रयास भी करे ,
.....
ताकि
जीवन जीवंत लगे,
जिंदगी
बेहतरी की ओर बढ़े।

हर कोई
दुआ दिल से करे,
न कि खुद और गैरों को छले
ताकि
यह दुनिया
प्यार और विश्वास की
सुरक्षा छतरी बने ।

सब के भीतर से
सच का मोती बहे ,
सब सहिष्णु बनें।
आओ! आज कुछ नया करें।
आशा और विश्वास के संग
जीवन के नित्य नूतन क्षितिज छूएं।
सब सहिष्णु बने।
अब तो सभी पर यह सुरक्षा छतरी तने।
८/६/२०१६.
अनंत काल से
दुनिया का नक्शा
राजनीतिक हलचलों की
वज़ह से
बदला गया है
पर जमीन और समन्दर
दिशाएं कौन बदल पाया है ?
कोई सम्राट और विश्व विजेता तक !
सब उन्माद और अभिमान के कारण भटके हुए हैं।
इतिहास की पुस्तकों में अटके हुए हैं।

आज मुझे
अपनी बिटिया के लिए
चार्ट पर
दुनिया का नक्शा
बनाना पड़ा।
मैं उलझ कर रह गया।
दुनिया का नक्शा
मुझे बहुत कुछ कह गया।

देश, समन्दर और जमीन,
नदियां, झीलें, झरने ,
पहाड़, मैदान, मरूस्थल, पठार
सब नक्शे में दर्शाए जाते हैं,
कागज़ के ऊपर बनाए और मिटाए जाते हैं,
मज़ा तो तब है
जब उनकी निर्मिति को
दिल से समझा जाए,
उन्हें बचाया जाए।
उन्हें देखने के लिए  
देश और दुनिया भर में घूमा जाए।
ऐसा चुपके-चुपके
दुनिया के नक्शे ने  
मुझसे गुज़ारिश की ,
मैंने भी मौन रहकर
दुनिया घूमने और मतभेद भुलाने की
आंकाक्षा अपने भीतर भरी,
और चुपचाप
अहसास की दुनिया में बह गया।
सच! दुनिया का नक्शा
मुझसे बरबस संवाद रचा गया।
संवेदना को बचाने के लिए
मूक याचना कर गया।
मुझे चेतन कर गया।
०७/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
अभी
सपनों की स्याही
उत्तरी भी न थी
कि खुल गई नींद ।


फिर क्या था
चाहकर भी
जल्दी सो न पाया ,
मैं खुद को
जागने वालों ,
जगाने वाले दोस्तों की
सोहबत में पाया ।
सच !  जीवन का लुत्फ़ आया ।
अपने इस जीवन को
एक सपन राग सा पाया ।
अपने इर्द गिर्द की
दुनिया को
मायाजाल में  उलझते पाया ।

वैसे दुनिया
यदि जाग रही हो
तो उतार देती है
जल्दी ही
सपनों की खुमारी से स्याही !
चहुं ओर दिखने लगती तबाही !!

दुनिया जगाती रहे तो...
कर देती है हमें सतर्क ,
फिर उसके आगे नहीं चलते कुतर्क ।
यह दुनिया तर्क वितर्क से चालित है ।
वह सपने लेने वालों को
ज़िंदगी की हक़ीक़त के
रूबरू कराती है ।
दुनिया सभी में
कुछ करने की जुस्तजू जगाती है ।
वह आदमी को, आदमी बनाती है ।
उसमें संघर्ष की खातिर जोश भर जाती है।
यही नहीं दुनिया कभी-कभी
आदमी के सपनों में रंग भर जाती है ।

१२/०२/२०१७.
ज़िन्दगी में
दुराव छिपाव का
सिलसिला
बहुत पुराना है ,
यदि ये न हो तो
ज़िन्दगी
नीरस हो जाती है ,
सरसता
गायब हो जाती है।

ज़िन्दगी में
भूल कर भी न बनिए
कभी खुली किताब ,
यह खुलापन
कभी कभी किसी को
बेशक
अच्छा लगे ,
पर पीठ पीछे
ख़ूब भद्द पीटे।
अतः दुराव छिपाव
अत्यंत ज़रूरी है ,
इसे
जानने के
चक्कर में पड़कर
जीवन यात्रा में
रोमांच बना रहता है ,
आदमी  क्या औरत तक
जीवन में
परस्पर
एक दूसरे से
नोक झोंक
करते रहते हैं।
वे अक्सर
दुराव छिपाव रख कर
रोमांचित होते रहते हैं।
यदि देव योग से
कभी भेद खुल जाए
तो बहाने बनाने पड़ जाते हैं।
१२/०४/२०२५..
Joginder Singh Nov 2024
स्वप्न जगाती
दुनिया में बंद दुस्वप्न
पता नहीं
कब
ओढ़ेंगे कफन ?



मुझे भली भांति है विदित
दुस्वप्नों के भीतर
छिपे रहते हैं हमारे अच्छे बुरे रहस्य।
इन सपनों के माध्यम से
हम अपना विश्लेषण करते हैं,
क्योंकि सपने हमारे आंतरिक सच का दर्पण होते हैं।


मुझे चहुं और
मृतकों के फिर से जिंदा होने
उनकी  श्वासोच्छवास का
हो रहा है मतवातर अहसास।
मेरे मृत्यु को प्राप्त हो चुके मित्र संबंधी
वापस लौट आए हैं
और वे मेरे इर्द-गिर्द जमघट लगाए हैं।
वे मेरे भीतर चुपचाप ,धीरे-धीरे डर भर रहे हैं।
मैं डर रहा हूं और वह मेरे ऊपर हंस रहे हैं।



अचानक मेरी जाग खुल जाती है,
धीरे-धीरे अपनी आंखें खोल,देखता हूं आसपास ।
अब मैं खुद को सुरक्षित महसूस कर रहा हूं।
अपने तमाम डर किसी ताबूत में चुपचाप भर रहा हूं।


हां ,यकीनन
मुझे अपने तमाम डर
करने होंगे कहीं गहरे दफन
ताकि कर सकूं मैं निर्मित
रंग-बिरंगे , सम्मोहन से भरपूर
वर वसन, वस्त्र
और उन्हें दुस्वप्नों पर ओढ़ा सकूं।


इन दुस्वप्नों को
बार बार देखने के बावजूद
मन में चाहत भरी है
इन्हें देखते रहने की,
बार-बार डरते, सहमते रहने की।



चाहता हूं कि
स्वप्न जगती इस अद्भुत दुनिया में
सतत नित्य नूतन
सपनों का सतत आगमन देख सकूं
और समय के समंदर की लहरों पर
आशाओं के दीप तैरा सकूं।



मैं जानता हूं यह भली भांति !
दुस्वप्न फैलाते हैं मन के भीतर अशांति और भ्रम।
फिर भी इस दुनिया में भ्रमण करने का हूं चाहवान।
दुस्वप्न सदैव, रहस्यमई,डर भरपूर
दुनिया की प्रतीति कराते हैं।
चाहे इन पर कितना ही छिड़क दो
संभावनाओं का सुगंधित इत्र।!
ये जीवन की विचित्रताओं का अहसास बनकर लुभाते हैं।



काश! मैं होऊं इतना सक्षम!
मैं इन दुस्वप्नों से लड़ सकूं।
उनसे लड़ते हुए आगे बढ़ सकूं।

१६/०२/२००९.
आज
दूध  
पता नहीं
मन में चल रही
उधेड़ बुन से
या फिर वैसे ही
लापरवाही से
उबालते समय
बर्तन से बाहर निकल गया ,
यह डांट डपट की
वज़ह बन गया कि
घर में कोई
कब दूध की क़दर करेगा ?
एक समय था जब दूध को तरस जाते थे और
अब घोर लापरवाही !
आज भी आधी आबादी दूध को तरसती है।
और यहां फ़र्श को दूध पिलाया जा रहा है।

पत्नी श्री से कहा कि
घर में
आई नवागंतुक
जूनियर ब्लैकी को
दूध दे दो ,
बेचारी भूखी लगती है ।
वह ऊपर गईं
और फिसल गईं।
दूध का कटोरा
नीचे गिरा ,
दूध फ़र्श पर फैला,
डांट डपट का
एक और बहाना गढ़ा गया।
जैसे सिर मुंडाते ही ओले पड़ें !
न चाहकर भी तीखी बातें सुननी पड़ें !!

सोचता हूँ...
यह रह रह कर दूध का गिरना
किसी मुसीबत आने की अलामत तो नहीं ?
क्यों न समय रहते खुद को कर लूँ सही !
आजकल
मन में सतत उधेड़ बुन लगी रहती है,
फल स्वरूप
एकाग्रता में कमी आ गई है।
दूध उबलने रखूं तो पूरा ध्यान होना चाहिए
दूध के बर्तन पर
ताकि दूध  बर्तन से उबालते समय बाहर निकले नहीं।
वैसे भी दूध हम चुरा कर पीते हैं !
कुदरत ने जिन के लिए दूध का प्रबंध किया है ,
हम इससे उन्हें वंचित कर
बाज़ार के हवाले कर देते हैं।
और हाँ, मंडी में नकली दूध भी आ गया है,
आदमी की नीयत पर प्रश्नचिह्न लगाने के निमित्त।
फिर इस दौर में आदमी
कैसे रखे स्वयं को प्रसन्न चित्त ?
दूध का अचानक बर्तन से बाहर निकलना
आदमी के मन में ठहराव नहीं रहा , को दर्शाता भर है।
वहम और भ्रम ने आदमी को
कहीं का नहीं छोड़ा , यह सच है।
इसमें कहीं कोई शक की गुंजाइश नहीं है।
२३/०१/२०२५.
देखते देखते
जीवन के रंगमंच पर
बदल जाता है
परिदृश्य।
जीवन
जो कभी लगता है
एक परिकथा जैसा,
इसमें
स्वार्थ का दैत्य
कब कर लेता है
प्रवेश,
ख़ास भी आम
लगने लग जाता है,
देखते देखते
मधुमास पतझड़ में
तब्दील हो जाता है,
जीव में भय भर जाता है।
वह मृत्य के
इंतज़ार में
धीरे धीरे गर्क हो जाता है।
अब तो बस
स्वप्नावस्था में
वसंत आगमन का
ख्याल आता है।
देखते देखते ही
जीवन बीत जाता है,
नव आगंतुकों के स्वागतार्थ
यह जीवन का
अलबेला रंगमंच
खाली करना पड़ जाता है,
प्रस्थानवेला का समय
देखते देखते आन खड़ा होता है
जीवन के द्वार पर
यह जीवन का दरबार
बिखर जाता है।
कल कोई नया राजा
अपना दरबार लगाएगा,
जीवन का परिदृश्य
चित्रपट्ट की
चलती फिरती तस्वीरों के संग
फिर से एक नई कहानी दोहराएगा।
इसका आनंद और लुत्फ़
कोई तीसरा उठाएगा।
समय ऐसे ही बीतता जाएगा।
वह सरपट सरपट दौड़ रहा है।
इसके साथ साथ ही वह
जीवन से मोह छोड़ने को कह रहा है।
२४/०२/२०२५.
देश !
तुम सतर्क रहना।
युद्ध विराम
विनम्रता से
तो कर लिया स्वीकार।
देखना कहीं हो न जाए
तुम्हारी स्वायत्तता पर प्रहार।
कहीं छिन न जाए
आम क्या खास के अधिकार।

वे शातिराना तरीके से
तुम्हें दबाव में रखकर
समझौते के लिए
कर दें बाध्य।
यदि ऐसी स्थिति आए
तो देखना देश !
युद्ध है एकमात्र उपाय !
कोई कभी भी
तुम्हारे पुत्रों और पुत्रियों को
कायर न कह पाय ।

तुम्हारी स्वायत्तता और अस्मिता के लिए
हम मर मिटने के लिए तैयार हैं ।
हम जानते हैं भली भांति
तुम्हारा जीवन दर्शन कि  
समस्त विश्व एक परिवार है ।
वे इस शाश्वत सत्य को
समझें तो सही ।
हम शांति चाहते हैं ,
युद्ध के माध्यम से।
शांति ,
समझौता करके मिले ,
यह देशवासियों को स्वीकार्य नहीं।

१०/०५/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
दैत्यों से अकेली
लड़ सकती है देवी ।
उसे न समझो कमज़ोर।
जब सभी ओर से
दैत्य उस पर
अपनी क्रूरता
प्रदर्शित करते से
टूट पड़ें ,
तब क्या वह बिना संघर्ष किए
आत्मसमपर्ण  कर दे ?
आप ही बताइए
क्या वह अबला कहलाती रहे ?
अन्याय सहती रहे ?
भीतर तक भयभीत रहे ?
दैत्यों की ताकत से
थर थर थर्राहट लिए
रहे कांपती ... थर थर
बाहर भीतर तक जाए डर ।
और समर्पण कर दे
निज अस्तित्व को
अत्याचारियों के सम्मुख ।
वह भी तो स्वाभिमानिनी है !
अपने हित अहित के बारे में
कर सकती है सोच विचार ,
चिंतन मनन और मंथन तक।
वह कर ले अपनी जीवन धारा को मैली !
कलंकित कर ले अपना उज्ज्वल वर्तमान!
फिर कैसे रह पाएगा सुरक्षित आत्म सम्मान ?

वह अबला नहीं है।
भीरू मानसिकता ने
उसे वर्जनाओं की बेड़ियों में जकड़
कमज़ोर दिखाने की साजिशें रची हैं।
आज वह
अपने इर्द गिर्द व्याप्त
दैत्यों को
समाप्त करने में है
सक्षम और समर्थ।
बिना संघर्ष जीवनयापन करना व्यर्थ !
इसलिए वे
सतत जीवन में
कर रही हैं
संघर्ष ,
जीवन में कई कई मोर्चों पर जूझती हुईं ।
वे चाहतीं हैं जीवन में उत्कर्ष!!
वे सिद्ध करना चाहतीं हैं  स्वयं को उत्कृष्ट!!
उनकी जीवन दृष्टि है आज स्पष्ट!!
भले ही यह क्षणिक जीवन जाए बिखर ।
यह क्षण भंगुर तन और मन भी
चल पड़े बिखराव की राह पर !

देवी का आदिकालीन संघर्ष
सदैव चलता रहता है सतत!
बगैर परवाह किए विघ्न और बाधाओं के!
प्रगति पथ पर बढ़ते जीवनोत्कर्ष के दौर में ,
रक्त बीज सरीखे दैत्यों का
जन्मते रहना
एकदम प्राकृतिक ,
सहज स्वाभाविक है।
यह दैवीय संघर्ष युग युग से जारी है।
१६/०६/२००७.
Joginder Singh Nov 2024
आज सड़क पर
जीवन के रंग मंच पर
जिंदाबाद मुर्दाबाद की नारेबाजी
सुनकर लगता है,
अब कर रही है
जांबाज़ों की फ़ौज ,
अपने ही देश के
ठगों, डाकुओं, लुटेरों के ख़िलाफ़ ,
अपनी आखिरी जंग
लड़ने की तैयारी।

पर
मन में एक आशंका है,
भीतर तक
डर लगता है ,
कहीं सत्ता के बाजीगरों
और देश के गद्दारों का
आपस में  न हो जाए गठजोड़ ।

और और देश में होने लगे
व्यापक स्तर पर तोड़-फोड़।
कहीं चोर रास्ते से हुई उठा पटक
कर न दे विफल ,
हकों की खातिर होने वाली
जन संघर्षों और जन क्रान्ति को।
कहीं
सुनने न पड़ें
ये शब्द  कि...,
' जांबाज़ों ने जीती बाज़ी,
आंतरिक कलह ,
क्लेश की वज़ह से
आखिरी पड़ाव में
पहुंच कर हारी।'

देश मेरे , यह कैसी लाचारी है?
जनता ने आज
जीती बाजी हारी है ।
इस जनतंत्र में बेशक जनता कभी-कभी
जनता जनार्दन कहलाती है, ... लोकतंत्र की रीढ़ !
पर आज जनता 'अलोक तंत्र' का होकर शिकार ,
रही है अपनी अपनी जिंदगी को किसी तरह से घसीट।
अब जनता दे रही है  दिखाई, एकदम निरीह और असहाय।
महानगर की सड़कों पर भटकती,
लूट खसोट , बलात्कार, अन्याय से पीड़ित ,
एक पगली  सी होकर , शोषण का शिकार।

देश उठो, अपना विरोध दर्ज करो ।
समय रहते अपने फ़र्ज़ पूरे करो।
ना कि निष्क्रिय रहकर, एक मर्ज  सरीखे दिखो।
अपने ही घर में निर्वासित जिंदगी बिता रहे
अपने  नागरिकों के भीतर
नई उमंग तरंग, उत्साह, जोश , जिजीविषा भरो।
उन्हें संघर्षों और क्रांति पथ पर
आगे बढ़ने हेतु तैयार करो।  
  २६/११/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
देश तुम सोए हो गहरी नींद में ,
लुटेरे लूट रहे हैं तुम्हारा वैभव हाकिमों के वेश में ।

सत्ता बनी आज विपदा ,
रही जनसाधारण को सता,जनादेश जैसे भावावेगों से।

देश तुम जागो ,सोए क्यों हो ?
निद्रा सुख में खोये खोये से क्यों हो ?

उठो देश,धधक उठो आग होकर ,
बोल उठो, देश,आज युग-धर्म की आवाज़ होकर ।

देश उठो, वंचितों में जोश भरो,
शोषितों पीड़ितों की बेचारगी कुछ तो कम करो ।
Joginder Singh Dec 2024
देह से नेह है मुझे
यह चाहे गाना अब  देह का राग
भीतर भर भर कर  
संवेदना
करना चाहे यह संस्पर्श अनुभूतियों के
समंदर का ।
हाल बताना चाहे मन के अंदर उठी
लहरों का ।
यह सच है कि
इससे
नेह है मुझे
पर मैं इसे स्वस्थ
नहीं रख पाया हूँ।
जिंदगी में भटकता आया हूँ।

जब यह
अपनी पीड़ा
नहीं सह पाती है तो बीमार
हो जाती है ,
तब मेरे भीतर चिंता
और उदासी भर जाती है।

इससे पहले कि
यह लाइलाज़ और
पूर्ण रूपेण से हो
रुग्ण
मुझे हर संभावित करना चाहिए
इसे स्वस्थ रखने के प्रयास।
पूरी तरह से
इसके साथ रचाना चाहिए
संवाद।
इससे खुलकर करनी चाहिए
बात।
इसकी देह में भरना चाहिए
आकर्षण।
आलस्य त्याग कर
नियमित रूप से
करना चाहिए
व्यायाम।
ताकि यह अकाल मृत्यु से
सके बच।
यह खोज सके
देहाकर्षण के आयाम।
दे सके अशांत, आक्रांत,
आत्म को भीतर तक ,
गहरे शांत करने
के निमित्त
दीर्घ चुम्बन!
हों सकें समाप्त
इसके भीतर की सुप्त
इच्छाओं से निर्मित
रह रह कर होने वाले
कम्पन
और निखर सके तनाव रहित होकर
देह के भीतर के वासी का मन।

देह की राग गाने की इच्छा की
पूर्ति भी हो जाए,
इसके साथ साथ
भीतर इसके उमंग तरंग भर जाए ।

आज ज़रूरी है
यह
तन और मन की जुगलबंदी से
राग,ताल, लय के संग
जीवन के राग गाए,
ज़रा सा भी न झिझके
अपना अंतर्मन खोल खोल भीतर इकठ्ठा हुआ
सारा तनाव बहा दे ।
करे यह दिल से
नर्तन!
छूम छन छन...छिन्न...छन्ना छन ...छ।...न...!!

देह से नेह है मुझे
पर...मैं...
इसे मुक्त नहीं कर पाया हूँ ।
इससे मुक्त नहीं हो पाया हूँ।
शायद
देह का राग
मुझ में
भर दे विराग ,
जगा दे
दिलोदिमाग को
रोशन करता हुआ
कोई चिराग़।
और इस की रोशनी में
देह अपने समस्त नेह के साथ
गा सके देह का सम्मोहक
तन और मन के भीतर से प्रतिध्वनित
रागिनी के मनमोहक रंग ढंग से
सज्जित
मनोरम राग
और जो मिटाए
देह के समस्त विषाद ।
कर सके तन और मन से संवाद।

१७/०१/२००६.
देह क्या है
एक आकार ,
पंच तत्वों से
निर्मित
एक पुतला भर !
या फिर कुछ ज़्यादा !!
चेतन की देह में उपस्थिति भर!!
देह के भीतर व्यापा चेतन
कहां से मन को नियंत्रित कर पाता है ?
इस बाबत सोचते पर
आदमी मूक रह जाता है।
वह अपनी देह से नेह के जुड़े होने की
जब जब अनुभूति करता है,
वह अचंभित होता हुआ
तब तब अपनी काया के भीतर
विराट की उपस्थिति को समझ पाता है।
वह बस इस अहसास भर से  
स्वयं को उर्जित पाता है
और अपनी संभावना को टटोल जाता है।
इससे पहले कि वह
आकर्षण के पाश में बंध कर
अपनी जीवन धारा को चलायमान रखने के निमित्त
दैहिक निमंत्रण की बाबत सोचना शुरू करे ,
वह स्वयं को दैहिक और मानसिक रूप से दृढ़ करे ,
और हां, वह दैहिक नियंत्रण के लिए
जी भर कर यौगिक क्रियाएं और व्यायाम करे
ताकि उसकी आस्था
जीवनदायिनी
चेतना के प्रति अक्षुण्ण बनी रहे।
यह जीवन में उतार चढ़ाव के समय भी
संतुलित दृष्टिकोण से पल्लवित और पोषित होती रहे,
जीवन धारा को आगे बढ़ाने में सक्षम बनी रहे।
जीवन पथ पर आगे बढ़ने के दौरान
कहीं कोई कमी न रहे ,
बल्कि  इस देह में
ऊर्जा बनी रहे।

देह के निमंत्रण को स्वीकार करने से पूर्व
आदमी का देह पर नियंत्रण बना रहे,
ताकि सफलता मतवातर मिले।
यह जिंदगी सदैव महकती रहे।
यह खुशबू बिखेरती रहे।
यह अपने सार्थक होने की
प्रतीति करा सके।
१९/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
देह से नेह कर ,
मगर
इस राह में
ख़तरे बहुत हैं !!
यह
कुछ कुछ
मन के परिंदे के
पंख कुतरने जैसा है,
वह उड़ने के दिवास्वप्न ले जरूर,
मगर
परवाज़ पर
पाबंदी लगा दी जाए।

इसलिए
देह से नेह करने पर
नियंत्रण
व्यक्ति के लिए
बेहद ज़रूरी है।
हाँ,यह भी एक सच है
कि देह से नेह रखने पर
उल्लासमय हो जाता है जीवन,
वह
बाहर भीतर से
होता जाता है दृढ़
इस हद तक
कि यदि तमाम सरहदें तोड़ कर
बह निकले
जज़्बात की नदी
तो कर सकता है वह
निर्मित
उस दशा में
अटल रह,
जीवन रण में
जूझने में सक्षम तट बंध
भले ही
देह में नेह रहना चाहे
निर्बंधन !
यानिकि
सर्वथा सर्वथा बन्धन मुक्त!!


देह से नेह
अपनी सोच की सीमा में रह कर,कर।
ताकि झेलना न पड़ें संताप!
करना न पड़े पल प्रति पल प्रलाप!!

वैसे
सच यह है...
यह सब घटित हुआ नहीं, कि तत्काल
मानस अदृश्य बन्धन में बंधता जाता है।
वह
आज़ादी,सुख की सांस लेना तक भूल जाता है।
काल का कपाल उस की चेतना पर हावी होता जाता है।

इसलिए
मनोज और रति का जीवन प्रसंग
हमें अपनी दिनचर्या में
बसाए रखना अपरिहार्य हो जाता है।
नियंत्रित जीवन
देह से नेह में चटक रंग भरता है !
रंगीले चटकीले रंगों से ही यौवन निखरता है!!
   १७/११/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
सरे राह
जब कभी भी
किसी की इज़्ज़त
नीलाम होने को होती है ,
तो उसकी देह और घर की देहरी से
निकलती हैं आहें कराहें ।

इसे
शायद ही कोई
सुन पाता है !
इज़्ज़त की नीलामी को
रोक पाता है !!


दोस्त ,
अपने कुकर्मों से
निजात पा ,
सत्कर्मों की राह पर
ख़ुद को लेकर जा
ताकि
अपना घर
नीलाम होने से सके बच
और
जीवन की खुशियों को
कोई
सके न डस ।

दोस्त!
सुन संभल जा ,
खुद और अस्मिता को
नीलाम होने से बचा।  

२१/०२/२०१४.
दोस्त ,
अंधेरे से डरना ,
अंधेरे में जीना और मरना
अब भाता नहीं है।
मुझे रोशनी चाहिए।
शुभ कर्मों की चांदनी चाहिए।

अब मैं
अंधेरे और उजाले में
ज़िंदगी के रंगों को देखता हूं।
धूप और छाया से सजे
ज़िंदगी के दरख्त को सींचता हूं।

बगैर रोशनी के
खोये हुए
स्मृति चिन्हों को ढूंढ़ना
आजकल मेरा प्रिय कर्म है!
रोशनी के संग
सुकून खोजना धर्म है।
अंधेरे और उजाले के
घेरे में रहकर
जीवन चिंतन करते हुए
सतत् आगे बढ़ना ही
अब बना जीवन का मर्म है।
यह जीव का कर्म है।
जीवंतता का धर्म है।

वैसे तो अंधेरे से डरना
कोई अच्छी बात नहीं है,
परन्तु यह भी सच है कि
आदमी कभी कभी
रोशनी से भी डरने लगता है।
आदमी कहीं भी मरे ,
रोशनी में या अंधेरे में,
बस वह निकल जाए
डर के शिकंजे में से।
मरने वाले रोशनी के
होते हुए भी अंधेरे में खो जाते हैं,
शलभ की तरह नियति पाते हैं।
इससे पहले कि
जीवन ढोने जैसा लगने लगे ,
हम आत्मचिंतन करते हुए
जीवन के पथ पर
अपने तमाम डरों पर
जीत हासिल करते हुए ‌बढ़ें।
अपने भीतर जीवन ऊर्जा भर लें।
२२/०९/२००५.
Joginder Singh Nov 2024
अर्से के बाद
मिला एक दोस्त
पूछ बैठा मेरा हाल-चाल!


इससे पहले कि
कोई माकूल जवाब देता,
दोस्त कह बैठा,
लगता है,
सेहत तुम्हारी का
है बुरा हाल।

मैंने उम्र के सिर
चुपके से ठीकरा फोड़ा !
पर , भीतर पैदा हो गया एक कीड़ा !
जो भीतर ही भीतर
खाए जा रहा है।


अब मैं बोलता हूं थोड़ा ,
ज्यादा बोला तो बरसाऊंगा कोड़ा ,
अपने पर और अपनों पर ,
मन में रहते सपनों पर ,
कोई सच बोल कर
कतर  देता है पर ,इस कदर ,
भटकता फिरता हूं  होकर दर-बदर ।

अब तो मुझे
दोस्तों तक से
लगने लगा है डर ,
कहना चाहता हूं
ज़माने भर की हवाओं से
दे दो सबको यह पैग़ाम ,यह ख़बर।
मिलने जरूर आएं,
पर भूल कर भी
कह न दें कोई कड़वा सच
कि लगे काट दिए हैं किसी ने पर ,
अब प्रवास भरनी हो जाएगी मुश्किल।

वे खुशी से आएं,
जीवन में हौसला और
हिम्मत भरकर जाएं।
दिल में कुछ करने की
उमंग तरंग जगाएं ।
साला
कोल्हू का बैल
खेल गया खेल !
नियत समय पर
आने की कहकर
हो गया रफूचक्कर !!
आने दो
बनाता हूँ उसे घनचक्कर!
यह सब एक दिन
कोल्हू के बैल के
मालिक ने यह सब सोचा था।
पर कोल्हू का बैल
बड़ी सफ़ाई से
खुद को बचा गया था।
आज वह अपने मालिक को
वक़्त की गति को पूर्णतः
गया है समझ
कि विश्व गया है बदल
अतः उसे भी अब बदलना होगा।
जैसे की तैसे वाली नीति पर चलना होगा।
अब वह मालिक को सबक
सिखाना चाहता है
और मालिक से सीख लेने की बजाय
मालिक को भीख और
अनूठी सीख देना चाहता है।

आज मिस्टर बैल तो
आगे बढ़ा ही है, उसका मालिक भी
अभूतपूर्व गति से गया है बढ़ !
वह कोल्हू के बैल से और सख्ती से लेता है काम।

कोल्हू का बैल
सोचता रहता है अक्सर कि
क्या खरगोश और कछुए की दौड़ में
आज कछुआ जीत भी पाएगा ?
साले खरगोश ने तो
अब तक अपनी यश कथा
पढ़ी ही नहीं होगी,
बल्कि उस दुर्घटना से
जीवन सीख भी ले ली होगी कि
दौड़ में रुके नहीं कि गए काम से !
फिर तो ज़िन्दगी भर रोते रहना आराम से !!
यह सोच वह मुस्कराया और जुट गया
अपने काम में जी जान से।
उसे भी जीवन की दौड़ में
पीछे नहीं रहना है।
समय के बहाव में बहना है।
१४/११/१९९६.
Joginder Singh Nov 2024
दंगा
दंग नहीं
तंग करता है,
यह मन की शांति को
भंग करता है।
दंगाई
बेशक  
अक्ल पर पर्दा पड़ने से
जीवन के रंगों को
न केवल
काला करता है ,
बल्कि वह खुद को
एक कटघरे में खड़ा करता है।

उसकी अस्मिता पर
लग जाता है प्रश्नचिह्न।
दंगे के बाद
भीतर उठे प्रश्न भी मन को
कोयले सरीखा
एक दम स्याह काला
कर देते हैं
कि वहां उजाला पहुंचना
नामुमकिन हो जाता है,
फिर दंगाई
कैसे उज्ज्वल हो सकता है ?
वो तो
समाज के चेहरे पर
स्याही पोतने का काम करता है।
उसके कृत्यों से  
उसका हमसफ़र भी घबराता है।
वह धीरे-धीरे
दंगाई से कटता जाता है।
बेशक वह लोक दिखावे की वज़ह से
साथ निभाता लगे।

दंगा
मानव के चेहरे से
नक़ाब उतार देता है
और असलियत का अहसास कराता है।
दंगाई न केवल नफ़रत फैलाता है,
बल्कि उसकी वज़ह से
आसपास कराहता सुन पड़ता है।

इस कर्कश
कराहने के पीछे-पीछे
विकास के विनाश का
आगमन होता है ,
इसे दंगाई कहां
समझ पाता है?
यह भी सच है कि
दंगा
सुरक्षा तंत्र में सेंध लगाता है।
दंगा
अराजकता फैलाने की
ग़र्ज से प्रायोजित होता है।
इसके साथ ही
यह
समाज का असली चेहरा दिखाता है
और आडंबरकारी व्यवस्था की  
असलियत को
जग ज़ाहिर कर देता है।

भीड़ तंत्र का  
अहसास है दंगा,
जो यदा-कदा व्यक्ति और समाज के
डाले परदे उतार देता है ,साथ ही नक़ाब भी।
यह देर तक
इर्द-गिर्द  बेबसी की दुर्गन्ध बनाये रखता है ,
सोई हुई चेतना को जगाये रखता है।
Joginder Singh Nov 2024
कभी
देश में फैला था
एक दंगा।
अर्से बाद हुआ
खुलासा ,
जिससे
नेतृत्व हुआ
नंगा।
सोचता हूँ,
अब
क्या होगा?
नेतृत्व
खुद को
बचा पाएगा
या कुछ
अप्रत्याशित
घट जाएगा।
क्या
समाज
जातियों में
बंट जाएगा?
३/६/२०२०
Joginder Singh Nov 2024
गंगा प्रसाद
अक्सर सोचता है,
आज
अपना गंगा प्रसाद,
रह रह कर यह सोचता है
कि दंगा फसाद  
और नफरत से फैली आग,
दोनों के मूल में
छिपा रहता है विवाद ।
यह विवाद
संवाद में बदलना चाहिए ।
अपना गंगा प्रसाद
इस बाबत सोचता है ।
विवाद
हों ही न!
ऐसा होना चाहिए
जन गण का प्रयास!
दंगा फसाद
नहीं होता अनायास
इसके पीछे होता है
धीरे-धीरे बढ़ता असंतोष
और अविश्वास।
या फिर
सत्य को झूठलाने ,
जनता को बहकाने की खातिर
रची गई साजिश!
जो कर देती
कभी-कभी
व्यक्ति देश समाज को अपाहिज ।
दंगे फसाद के पीछे
कौन सक्रिय  रहता है ?
इस बाबत सोचते सोचते
गंगा प्रसाद सरीखा आदमी
कभी-कभी
निष्क्रिय हो जाता है।
नकारात्मक सोच का शिकार होकर
आज का आदमी
अपने पैरों पर
कुल्हाड़ी मार लेता है ।
११/८/२०२०.
Joginder Singh Dec 2024
न्याय प्रसाद
और
अन्याय प्रसाद
के बीच जारी है द्वंद्व ।

न्याय प्रसाद
सबका भला चाहता है ,
वह सत्य का बनना  
चाहता है पैरोकार ,
ताकि मिटे जीवन में से
अत्याचार , अनाचार, दुराचार।

अन्याय प्रसाद
सतत् बढ़ाना चाहता है
जीवन के हरेक क्षेत्र में
अपना रसूख और असर।
वह साम ,दाम ,दंड , भेद के बलबूते
अपना दबदबा रखना चाहता है क़ायम ।

इधर न्यायालय में
न्याय प्रसाद
अन्याय प्रसाद से पूरी ताकत से
लड़ रहा है ,
उधर जीवन में
अन्याय प्रसाद
न्याय प्रसाद का विरोध
डटकर कर रहा है।
आम आदमी क्या खास आदमी तक
इन दोनों की
आपसी खींचतान के बीच
पिस रहा है,
घिस घिसकर मर रहा है।
जैसे चलती चक्की में गेहूं के साथ
घुन भी पिस रही हो ।
१२/०१/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
कोई
बरसात के मौसम की तरह
बिना वज़ह
मुझ पर
बरस गया।
सच! मैं सहानुभूति को
तरस गया,
यह मिलनी नहीं थी।
सो मैं खुद को समझा गया,
यहाँ अपनी लड़ाई
अपने भीतर की आग़ धधकाए रख कर
लड़नी पड़ती है।

अचानक
कोई देख लेने की बात कर
मुझे टेलीफ़ोन पर
धमकी दे गया।
मैं..... बकरे सा
ममिया कर रह गया,
जुर्म ओ सितम सह गया।
कुछ पल बाद
होश में आने के बाद
धमकी की याद आने के बाद
एक सिसकी भीतर से निकली।
उस पल खुद को असहाय महसूस किया।

जब तब यह धमकी
मेरी अंतर्ध्वनियों पर
रह रह हावी होती गई,
भीतर की बेचैनी बढ़ती गई।

समझो बस!
मेरा सर्वस्व आग बबूला हो गया।

मैंने उसे ताड़ना चाहा,
मैने उसे तोड़ना चाहा।
मन में एक ख्याल
समय समंदर में से
एक बुलबुले सा उभरा,
...अरे भले मानस !
तुम सोचो जरा,
तुम उससे कितना ही लड़ो।
उसे तोड़ो या ताड़ना दो।
टूटोगे तुम ही।
बल्कि वह अपनी बेशर्म हँसी से
तुम्हे ही रुलाएगा और करेगा प्रताड़ित
अतः खुद पर रोक लगाओ।
इस धमकी को भूल ही जाओ।
अपने सुकून को अब और न आग लगाओ।
वो जो तुम्हारे विरोध पर उतारू है,
सिरे का बाजारू है।
तुम उसे अपशब्द कह भी दोगे ,तो भी क्या होगा?
वो खुद को डिस्टर्ब महसूस कर
ज़्यादा से ज़्यादा पाव या अधिया पी लेगा।
कुछ गालियां देकर
कुछ पल साक्षात नरक में जी लेगा।

तुम रात भर सो नहीं पाओगे।
अगले दिन काम पर
उनींदापन झेलते हुए, बेआरामी में
खुद को धंसा पाओगे।

यह सब घटनाक्रम
मुझे अकलमंद बना गया।

एक पल सोचा मैंने...
अच्छा रहेगा
मैं उसे नजरअंदाज करूँ।
खुद से उसे न छेड़ने का समझौता करूँ ।
यूं ही हर पल घुट घुट कर न मरूं ।
क्यों न मैं
उस जैसी काइयां मानस जात से
परहेज़ करूँ।
२७/०७/२०१०.
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