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Joginder Singh Nov 2024
भीतर के प्रश्न
क्या अब हो गए हैं समाप्त?  
क्या इन प्रश्नों में निहित
जिज्ञासाओं को
मिले कोई संतुष्टिप्रद उत्तर ?
क्या वे हैं अब संतुष्ट ?


कभी-कभी
उत्तर
करने लगते हैं प्रश्न !
वे हमें
करने लगते हैं
निरुत्तर!

आज
कर रहें हैं
वे प्रश्न,
' भले आदमी,
तुम कब से हो मृत?
तुमने चिंतन करना
क्यों छोड़ दिया है ?
तुम तो अमृतकुंड की
तलाश में
सृष्टि कणों के
भीतर से निकले थे।
फिर आज क्यों
रुक गए?
अपनी यात्रा पर
आगे बढ़ो, यूं ही
रुक न रहो। '
३०/११/२००८.
ज़िन्दगी के बहाव में
आदमी कुछ भी न कर पाए
वह बस बहता चला जाए
आदमी ऐसे में क्या करे ?
क्या वह हाथ पांव मारना छोड़ दे ?
अपनी डोर परमात्मा की रज़ा पर छोड़ दे !
क्यों न वह संघर्ष करे !
विपरीत हालातों के
अनुकूल होने तक
वह धैर्य बनाए रखे।
दुर्दिन सदैव रहते नहीं।
बेशक ज़िन्दगी में
कुछ भी न हो रहा हो सही।
आदमी अपने आप को सकारात्मक
बनाए रखे  तो सही।
जीवन यात्रा में हरेक जीव
अपने गंतव्य तक पहुंचता है।
यह स्वयं का दृढ़ विश्वास ही है
जो जीवन के वृक्ष को सतत सींचता है।
कुछ भी सही न होने के बावजूद
आदमी जीवन धारा के साथ बहता चले,
वह निराशा और हताशा से बचता हुआ
खुद से संवाद रचाता हुआ
निरन्तर आगे बढ़ता रहे ,
ताकि गतिशीलता बनी रहे ,
जीवन में जड़ता बाधा न बन सके।
जब कुछ भी सही न हो !
तब भी आदमी हिम्मत और हौंसला बनाए रखे ,
वह स्वयं को निरन्तर चलायमान रखे।
चलते चलते दुर्गम रास्ते भी
आसान लगने लग जाते हैं।
गतिशील कदम मंजिल पर पहुँच ही जाते हैं।
२८/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
सच है!
जब जब
भीतर
ढेर सा दर्द
इक्ट्ठा होता है,
तब तब
जीवन की मरुभूमि में  
अचानक
एकदम अप्रत्याशित
कैक्टस उगता है।
जहां पर
रेत का समन्दर हो,
वहां कैक्टस का उगना।
अच्छा लगता है।

मुझे विदित नहीं था कि
ढेर सारा दुःख, दर्द
तुम्हारे भीतर भरा होगा।


और एक दिन
यह बाहर छलकेगा
कैक्टस के खिले फूल बनकर,
जो जीवन में रह जाएगा
ऊबड़-खाबड़ मरूभूमि का होकर।

यह कतई ठीक नहीं,
हम बिना लड़े और डटे
जीवन रण में
मरूभूमि में
जीवन बसर करने से
निसृत दर्दके आगे
घुटने टेक दें,  
मान लें  हार,यह नहीं हमें स्वीकार।


क्यों न हम!
इस दर्द को  
भूल जाने का
करें नाटक ।

और
कैक्टस सरीखे होकर
जीवन की बगिया में
फूल खिलाएं!
जीवन धारा के संग
आगे बढ़ते जाएं !!
थोड़ा सा
अपने अभावों को भूलकर
जी भरकर खिलखिलाएं!

सच है!
कैक्टस पर फूल भी खिलते हैं।
जीवन की मरूभूमि में
मुसाफ़िर
अपने दुःख,दर्द,तकलीफें
अंदर ही अंदर समेटे
सुदूर रेगिस्तान में
यात्राएं करते हैं
नखलिस्तान खोजने ‌के लिए।
जीवन में मृग मरीचिका और
अपनी तृष्णा, वितृष्णा को
शांत करने के लिए।
कैक्टस के खिले फूल
खोजने के निमित्त,
ताकि शांत रहे चित्त।
कैक्टस पर खिले फूल
मुरझाए कुम्हलाए मानव चित्त को
कर दिया करते हैं आह्लादित,
आनंदित, प्रफुल्लित, मुदित, हर्षित।
Joginder Singh Nov 2024
कभी-कभी
झूठ मजबूर होकर
बोला जाता है,
उसे कुफ्र की हद तक तोला जाता है।
और कोई जब
इसे सुनने, मानने से
कर देता इन्कार,
तब उस पर  दबाव बनाया जाता है,
शिकंजा कसा जाता है।

ऐसे में
बचाव का
झट  से   एकमात्र उपाय
झूठ का सहारा  नजर आता है ,
ऐसा होने पर,
झूठ डूबते का सहारा होता है।
आदमी
जान हथेली पर रखकर
बेहिसाब दबाव से जूझते हुए
जान लेता है
जीवन का सच!
विडंबना देखिए!!
यह सच
नख से शिखा तक
झूठ से होता है
पूर्णतः सराबोर,
चाहकर भी आप जिसका
ओर छोर पकड़ नहीं पाते ,
भले ही आप कितने रहे हों विचलित।
कभी-कभी
झूठ,सच से ज़्यादा
रसूख और असर रखता है,
जब वह प्राण रक्षक बनता है।
आदमी झूठ का असर महसूस करता है।
ऐसे दौर में
झूठ,सच पर हावी होकर
विवेक तक को धुंधला देता है।
आदमी गिरावट का हो जाता शिकार।

सोचता हूं ...
आजकल कभी कभी
आखिर क्या है आदमी के भीतर कमी?
अच्छा भला, कमाता खाता ,
आदमी क्यों नज़र से गिर जाता है?

रख रहा हूं ,
अपने आसपास का घटनाक्रम।
जब झूठ
सच को
पूर्णतः ढकता है,
आदमी भीतर तक थकता है
और तब  तब
अन्याय का साम्राज्य फलता-फूलता है।

आजकल
लोग लोभी होकर
बहुत कुछ नज़र अंदाज़ करते हैं,
अपने अन्त की पटकथा को निर्देशित करते हैं।
Joginder Singh Nov 2024
सूरज के उदय और अस्त के
अंतहीन चक्र के बीच
तितली
जिंदगी को
बना रही है आकर्षक।
यह
पुष्पों, लताओं, वृक्षों के
इर्द गिर्द फैली
सुगन्धित बयार के संग
उड़ती
भर रही है
निरन्तर
चेतन प्राणियों के घट भीतर
उत्साह,उमंग, तरंग
ताकि कोई असमय
ना जाए
जीवन के द्वंद्वों, अंतर्द्वंद्वों से हार
और कर दे समर्पण
जीवन रण में मरण वर कर।

तितली को
बेहतर ढंग से
समझा जा सकता है
उस जैसा बन कर।
जैसे ही जीवन को
जानने की चाहत
मन के भीतर जगे
तो आदमी डूबा दे
निज के पूर्वाग्रह को
धुर गहन समंदर अंदर
अपने को जीवन सरिता में
खपा दे,...अपनी सोच को
चिंतन के समन्दर सा
बना दे।


और खुद को
तितली सा उड़ना
और...
उड़ना भर ही
सिखा दे।

वह
अपने समानांतर
उड़ती तितली से
कल्पना के पंख उधार लेकर
अपने लक्ष्यों की ओर
पग बढ़ा दे।
चलते चलते
स्वयं को
इस हद तक थका दे, वह तितली से
प्रेरणा लेकर
अपने भीतर आगे बढ़ने,
जीवन रण में लड़ने,उड़ने का जुनून भर ले।
अपने अंदर प्रेरणा के दीप जगा ले।
जीवन बगिया में खुद को तितली सा बना ले।
Joginder Singh Nov 2024
उस्ताद जी,
माना कि आप अपने काम में व्यस्त रहते हो,
खूब मेहनत करते हो,
जीवन में मस्त रहते हो।
पर कभी कभी तो
अपने कस्टमर की
जली कटी सुनते हो।
आप कारसाज हो,
बड़ी बेकरारी से काम निपटाते हो,
काम बिगड़ जाने पर
सिर धुनते हो, पछताते हो।

ऐसा क्यों?
बड़े जल्दबाज हो।
क्षमा करना जी ।
मेरे उस्ताद हो।
मुआफ करना , चेला करने चला, गुस्ताखी जी।
अब नहीं देखी जाती,खाना  खराबी जी।
काम के दौरान आप बने न शराबी जी।
अब अपनी बात कहता हूं।
दिन रात गाली गलौज सुनता हूं।
कभी कभी तो बिना गलती किए पिटता हूं।
आप के साथ साथ मैं भी सिर धुनता हूं।
अंदर ही अंदर खुद को भुनता हूं।


सुनिए उस्ताद, कभी कभी खाद पानी देने में कंजूसी न करें,
वरना चेला...हाथ से गया समझो ,जी ।
कौन सुने ? ‌‌
रोज की खिच खिच,चील,पों जी।
आप के मेहरबान ने...आफर दिया है जी।

समय कम है उस्ताद
अब जलेबी की तरह
साफ़ साफ़ सीधी बात जी।


जल्दबाजी में न लिया करें
कोई फ़ैसला।
जो कर दे
जीभ का स्वाद कसैला।

हरदम  चेले चपटे  के नट बोल्ट न कसें।
वो भी इन्सान है,,....बेशक कांगड़ी पहलवान है।

सुनो, उस्ताद...
जल्दबाजी काम बिगाड़े
इससे तो जीती बाजी भी हार में बदल जाती है जी।
विजयोन्माद और खुमारी तक उतर जाती है।
उस्ताद साहब,
सौ बातों की एक बात...
जल्दबाजी होवे है अंधी दौड़ जी।
यदि धीमी शुरुआत कर ली जाए,
तो आदमी जीत लिया करता, हार के कगार पर पहुंची बाजी...!

आपका अपना बेटा
भौंदूंमल।
Joginder Singh Nov 2024
जाति के चश्मे से
देखोगे अगर तुम
आदमी को,
तो आदमियत से
दूर होते जाओगे !


विकास के नाम पर
चाहे अनचाहे ही
एक जंगल राज
खड़ा कर जाओगे!
बेशक पछताओगे!
खुद को कभी-कभी
मकड़जाल में जकड़ी
एक मकड़ी सरीखा
तुम खुद को पाओगे ।
अपनी नियति को कैद महसूस कर ,
तुम मतवातर अपनी भीतर ,
घुटन महसूस कर,तिलमिलाए देखे जाओगे।
तुम कब इस दुष्चक्र से
बाहर निकल कर आओगे?


ठीक है ,जाति तुम्हारी पहचान है।
कोई तुम्हें जाति में विचरने से नहीं रोकता ।
बेशक जाति पहचान रही है ,
परंपरावादी व्यवस्था की ।
आज जरूरत है ,
इस व्यवस्था में स्वच्छता लाने की ,
इसके गुणों व अच्छाइयों को, दिल से अपनाने की ।


यदि जाति के चश्मे से ना देखोगे आदमी को ।
सदैव साफ रखोगे नीयत तुम अपनी को ,
तो जाति तुम्हारी पहचान बनेगी ।
यह कभी विकास में बाधक न बनेगी ।
   ०८/०२/२०१७
Joginder Singh Nov 2024
" काटने दौड़ा घर
अचानक मेरे पीछे,
जब जिन्दगी बितानी पड़ी,
तुम्हारी अम्मा के हरि चरणों में
जा विराजने के बाद,उस भाग्यवान के बगैर।"


"यह सब अक्सर
बाबू जी दोहराया करते थे,
हमें देर तक समझाया करते थे,
वे रह रह कर के कहते थे,
"मिल जुल कर रहा करो।
छोटी छोटी बातों पर
कुत्ते बिल्ली सा न लड़ा करो ।"


एक दिन अचानक
बाबूजी भी अम्मा की राह चले गए।
अनजाने ही एकदम हमें बड़ा कर गए।
पर अफ़सोस...
हम आपस में लड़ते रहे,
घर के अंदर भी गुंडागर्दी करते रहे।
परस्पर एक दूसरे के अंदर
वहशत और हुड़दंग भरते रहे।


आप ही बताइए।
हम सभी कभी बड़े होंगे भी कि नहीं?
या बस जीवन भर मूर्ख बने रहेंगे!
बंदर बाँट के कारण लड़ते रहेंगे।
जीवन भर दुःख देते और दुखी करते रहेंगे।
ताउम्र दुःख, पीड़ा, तकलीफ़ सहेंगे!!
मगर समझौता नहीं करेंगे!
अहंकारी बने रहेंगे।

बस आप हमें समझाते रहें जी।
हमें अम्मा बापू की याद आती रहे।
हम उनके बगैर अधूरे हैं जी।
२०/०३/२००९.
Joginder Singh Dec 2024
अजी  जिन्दगी  का  किस्सा  है  अजीबोगरीब,
जैसे  जैसे  दर्द  बढ़ता है , यह आती  है करीब!

दास्तान  ए  जिन्दगी  को  सुलाने  के  लिए
कितनी  साज़िशें  रची  हैं ,  है  न  रकीब !

जिन्दगी  को  जानने  की  होड़  में  लगे  हैं लोग ,
जीतते  हारते  सब  बढ़े  हैं , अपने  अपने  नसीब ।

जिन्दगी  एक  अजब  शह  है , बना  देती  फ़कीर ,
इसमें  उलझा  क्यों   हैं  ? अरे ! सुन ज़रा ऱफ़ीक़ !

यह  वह  पहेली   है  ,  जो  सुलझती  नहीं   कभी ,
खुद  को  चेताना  चाहा ,पर  जेहन  समझता  नहीं।
२१/०६/२००७.
Joginder Singh Dec 2024
यह जीवन जितना दिखता है सरल ,
उतना ही है यह जटिल।
इसमें जीने की खातिर
चली जाती हैं चालें बड़ी कुटिलता से
ताकि जीवन धारा को सतत्
ज़ारी रखा जा सके।
इसे उपलब्धियों के साथ
आगे ही आगे बढ़ाया जा सके।

जिन्दगी की राह में
यदि अड़चनें आती हैं बार बार
तब भी आप धीरज और सब्र संतोष को
संघर्ष और सूझ बूझ से बनाए रखें।
अपने भीतर सुधार और परिष्कार की
गुंजाइश बनाते हुए
आगे बढ़ने के करते रहें प्रयास,
ताकि क़दम क़दम पर
जिन्दगी की राह हमें
उपहार स्वरूप कराती रहे
आशा और संभावना से जुड़े
समय समय पर
जीवन के सार्थक होने का अहसास।

जिंदगी की राह
मुश्किलों और दुश्वारियों से है भरी हुई,
इस पर चलते हुए
फिसले नहीं कि
सब कुछ तबाह
और नष्ट,
मिलने लगता कष्ट।

इस राह पर आगे बढ़ते हुए
हरएक को रहना चाहिए सतर्क ,
जिन्दगी को सलीके से जीने के लिए
गढ़ने ही पड़ते हैं अपने लिए अनूठे तर्क ,
इनके अभाव में हो सकती है इसकी राह गर्क।
जिन्दगी की राह को आसान करने के लिए दिन रात
करनी पड़ती है मेहनत
और तब कहीं जाकर सफलता मिल पाती है,
अन्यथा कभी कभी इस की राह में रूकावटें बढ़ जाती हैं,
और जिंदगी के तमाम उतार चढ़ावों के बावजूद
हासिल कुछ नहीं होता , आदमी हाथ मलते रह जाते हैं।
३०/१२/२०२४.
ज़िन्दगी के सफ़र में
बहुत से
उतार चढ़ाव आना
अनिवार्य है ,
पर क्या तुम्हें
ज़िन्दगी के सफ़र में
रपटीली सड़क पर
गड्ढे स्वीकार्य हैं ?
जो बाधित कर दें
तुम्हारी स्वाभाविक गति,
जीवन में होने वाली प्रगति।
अभी अभी
एक स्वाभिमानी
आटो चालक
कुशलनगर के
गुलज़ार बेग की बाबत पढ़ा है ,
जिन्होंने
प्रशासन के अधिकारियों से
सड़क सुरक्षा को
ध्यान में रखकर की थीं
शिकायतें कि
भर दो
क़दम क़दम पर
आने वाले सड़क के गड्ढे
ताकि अप्रत्याशित दुर्घटनाग्रस्त होने से
बचा जा सके।
परन्तु प्रशासन उदासीन बना रहा ,
उसने अपना अड़ियल रवैया न छोड़ा।
बल्कि फंड की कमी को
गड्ढे न भर सकने की वजह बताया।
इस पर
उन्होंने ठान लिया कि
अब वे कोई शिकायत नहीं करेंगे,
वह स्वयं ही सड़क के गड्ढे भरेंगे।
उस दिन से लेकर आज तक
अकेले अपने दम पर
उन्होंने साठ हजार से अधिक
सड़क के गड्ढे भर कर
जीवन को सुरक्षित किया है।
वह जिजीविषा की
बन गए हैं एक अद्भुत मिसाल।
अभी अभी पढ़ा है कि
गुलज़ार बेग साहब
रीयल लाइफ हीरो हैं।
सोचता हूं कि
यदि हमने उनसे कोई सीख न ली
तो हम सब जीरो हैं ,
आओ हम सार्थक जीवन वरें,
लोग क्या कहेंगे ?,
जैसी क्षुद्रता को नकारते हुए
जीवन पथ पर अग्रसर होने की ओर बढ़ें।
हम अपने भीतर की आवाज़ को सुनें।
उसके अनुसार कर्म करते हुए
अपने और आसपास के जीवन को सार्थक करें।
२७/०३/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
इन्तज़ार
देर तक करना पड़े
तो ज़िंदगी
लगने लगती पहाड़ !

इन्तज़ार
देर तक करना पड़े
तो ज़िंदगी
करने लगती चीर फाड़!!

सबकी ,
सर्वस्व की!
वर्चस्व की!!
चीरफाड़... ज़िन्दगी  में  हालात देखकर
की जानी चाहिए।
यह तो जिंदादिली से जी जानी चाहिए।
१०/०३/२०११.
हरेक को समझनी होगी
अपनी जिम्मेदारी।
हर पल करनी नहीं होगी
चालाकी और होशियारी।
यदि चाहते हैं सब,
जीवन पथ पर
आगे बढ़ना,
संघर्ष करना।
जीवन कभी नहीं रहा सरल,
बेशक इसमें बहुत कुछ दिख पड़ता है जटिल।
जिम्मेदारी का निर्वाह
जीवन के प्रवाह को गतिमान रखता है।
यह जीवन धारा को आगे बढ़ाने का कार्य करता है।
जिम्मेदार बनो।
इससे न टलो।
जवाबदेह बनो।
कर्मठ बनकर सम्पन्नता को
अपने जीवन में ले आओ।
दरिद्रता से छुटकारा पाने की करो कोशिश !
ताकि जीवन में बनी रहे गरिमा और कशिश !!
१६/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
जिस्म
सर्द मौसम में
तपती आग को
ढूंढना है चाहता।

जिस्म
गर्म मौसम में
बर्फ़ सरीखी
शीतलता है चाहता।

जिस्म
अपनी मियाद
पूरी होने पर
टूट कर बिखर है जाता।

नष्ट होने पर
उसे जलाओ या दफनाओ,
चील,गिद्ध, कौओं को खिलाओ।
क्या फ़र्क पड़ता है?
क्यों न उसे दान कर पुण्य कमाओ!
क्या फ़र्क पड़ता है?
जगत तो अपने रंग ढंग से
प्रगति पथ पर बढ़ता है ।
Joginder Singh Nov 2024
जिंदगी ने
मुझे अक्सर
क़दम क़दम पर
झिंझोड़ा है
यह कहकर,
"वक़त तो
अरबी घोड़ा है,
वह सब पर
सवार रहता है,
कोई विरला
उसे
समझ पाता है।
जो समझा,वह कामयाब
कहलाता है,और....
नासमझ उम्रभर
धक्के खाता है,
ज़ुल्म और ज़लालत सहता है।"


यह सुनना भर था कि
बग़ैर देर किए
बरबस मैं
जिन्दगी के साए को महसूस
वक़्त को
संबोधित करते हुए
अदना सी गुस्ताख़ी कर बैठा ,
"तुम भी बाकमाल हो,यही नहीं लाजवाब हो,
हरेक सवाल के जवाब हो ।"
वक़्त ने मुझे घूरा।
फिर अचानक न जाने मैं कह गया,
सितम ए वक़्त सह गया...!,
"तुम सदाबहार सी जिन्दगी के अद्भुत श्रृंगार हो।
यही नहीं तुम एक अरबी घोड़े की रफ्तार सरीखे
मतवातर भाग रहे हो ।तुम चाह कर भी रुक न पाओगे।जानते हो भली भांति कि रुके नहीं कि
धरा पर विनाश, विध्वंस हुआ समझो । "
महसूस कर रहा हूं कि वक़्त एक शहंशाह है ...
और वह एक दरिया सा सब के अंदर बह रहा है...
......

धरा पर वक़्त एक अरबी घोड़े सा भाग रहा है।
हर पल वो , अंतर्मन का आईना बना हुआ
सर्वस्व के भीतर झांक रहा है।

सब को खालीपन के रु ब रु करा रहा है।

११/८/२०२४
जीवन भरपूर आनंद से जीना
एक स्वप्न सरीखा बन जाता है लोगों के लिए
इसलिए बेहद ज़रूरी है कि
जिंदगी को जीया जाए
जिंदादिल बने रहकर
संघर्षों के बीच
बने रहकर
जिजीविषा सहित
हरेक उतार चढ़ाव के साथ
भीतर और बाहर से
तने रहकर ,
हरपल खिले रहकर ।
यह सब सीखना है
तो गुलाब का जीवन चक्र देखिए ,
इस के रूप ,रंग ,गंध,  मुरझाने ,धरा में मिल जाने की
प्रक्रिया को अपने अहसास में भरकर !
ताकि जीवन यात्रा कर सके
आदमी एकदम से निर्भय होकर !!
कहीं आदमी असमय न मुरझा जाए ,
अतः अपरिहार्य है
जिन्दगी जीनी चाहिए
बंदगी करते हुए !!
अपने तन और मन की गंदगी को
अच्छे से साफ करते हुए !!
सकारात्मकता और स्वच्छता से जुड़ते हुए !!
जीवन पथ पर अग्रसर होकर
सतत सार्थकता का वरण करते हुए !!
ज़िंदगी जीओ बन्दगी करते हुए !!
स्वयं को संतुलित रखते हुए!!
०५/०२/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
कभी-कभी ज़िंदगी
एक मेला कम
झमेला ज्यादा लगती है ,
जहां मौज मस्ती
बहुत मंहगी पड़ती है ।
कभी कभी
जीवन में
झमेला
झूम झूम झूमकर
झूमता हुआ
एक मदमस्त शराबी
बना हुआ
आन खड़ा होता है
और
यह अचानक
जीवन के
बहुरंगी मेले में
रंग में भंग
डाल देता है ,
चटख रंगों को
हाशिए में
पटक देता है ।

सचमुच ही!
ऐसे में
मन नितांत
क्लांत होकर
उदास होता है ,
भीतर कहीं गहरे तक
सन्न करता सा
सन्नाटा पसर जाता है ।
जीवन की सम्मोहकता का असर
मन के क्षितिज को
धुंधलाता जाता है ।

जीवन में
सुख, समृद्धि, सम्पन्नता का साया
कहीं पीछे छूटता जाता है ।
मन के भीतर
बेचैनी का ग्राफ
उतार-चढ़ाव भरा होकर
घटता, बढ़ता,बदलता
रहता है ।
आदमी
बोझ बने जीवन को
सहता चला जाता है ।


झूम झूम झूमता हुआ
झमेला
इस जीवन के मेले में
ठहराव लाकर
यथास्थिति का भ्रम
पैदा करता है।
यह मन के भीतर
संशय उत्पन्न कर
हृदय पुष्प को
धीरे-धीरे
मुरझाकर
कर देता है
जड़ मूल से नष्ट-भ्रष्ट ।

आदमी
जीवन धारा से कटकर
इस अद्भुत मेले को
झमेला मानने को
हो जाता है विवश !
फीकी पड़ती जाती
जीवन की कशिश !!
‌आदमी
अपने आप ही
जीवन में अकेला
पड़ता जाता है ।
जीवन यापन करना भी
उसे एक झमेला लगने लगता है ।
जीवन पल प्रतिपल
बोझिल लगने लग जाता है।
उसे सुख चैन नहीं मिल पाता है।

१२/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
आजतक
स्वयं से
की है प्रीत।
फलत:अब
हूँ भीतर तक
भयभीत।
चाहता हूँ,
करना
औरों से भी
निस्वार्थ प्रीत!
ताकि जीवन में
रह सकूँ सहज।
नित्य सीख सकूँ
कुछ नवीन,
बन सकूँ
प्रवीण
और स्वयं को
लूँ जीत।
रचूँ जीवन में
एक नई रीत।
न रहूँ कभी
भयभीत।
२/६/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
जिन्दगी
जी रहा है
वह भी
जो रहा सदैव
अभावग्रस्त
करता रहा
सतत् संघर्ष ।


जिन्दगी
जी रहा है
वह भी
जो रहा सदैव
खुशहाल।
पर रखा उसने
बहुतों को
फटेहाल!
लोभ , मद,मोह के
जाल में फंसा कर
किया बेहाल।



जिन्दगी
तुम भी रहे
हो जी,
अपने अभावों की
वज़ह से
मतवातर
रहते
हमेशा
खीझे हुए।
सोचो
ऐसा क्यों?
क्या
चेतना गई सो? ऐसा क्यों?
ऐसा क्यों ?
चेतना को
जागृत करो।
अपने जीवन लक्ष्य की
ओर बढ़ो।
१९/०२/२०१३.
अचानक
दादा को अपने पोते की
आठ पासपोर्ट साइज तस्वीरें
फटी हुई अवस्था में
मिल गईं थीं।
उन्हें यह सब अच्छा नहीं लगा
कि जिसे बड़े प्यार से,
भाव भीने दुलार से जीवन में
खेलाया और खिलाया हो ,
उसकी तस्वीरें
जीर्ण शीर्ण
लावारिस हालत में पड़ीं हों।
उन्हें यह सब पसंद नहीं था ,
सो उन्होंने अपने पुत्र को बुलाया।
एक पिता होने के कर्त्तव्य के बाबत समझाया
और तस्वीरों को जोड़ने का आदेश सुनाया।
फिर क्या था
पिता काम पर जुट गया
और उसने उन तस्वीरों को जोड़ने का
किया चुपके चुपके से प्रयास।
किसी हद तक
तस्वीरें ठीक ठाक जुड़ भी गईं।
उसने अपने पिता को दिखाया और कहा,
" अब ये काम में आने से रहीं ।
बेशक ये जुड़ गईं हैं,
फिर भी फटी होने की गवाही देती लगती हैं।"
यह सुन कर
दादा ने अपने पोते की बाबत कहा ,
"बेशक अब वह बड़ा हो गया है।
स्कूल के दौर की ये तस्वीरें
उसे बिना किसी काम की
और बेकार लगातीं हों।
फिर भी उसे इन्हें फाड़ना नहीं चाहिए था।
तस्वीरों में भी बीते समय की पहचान होती है।
ये जीवन के एक पड़ाव को इंगित करतीं हैं।
अतः इन्हें समय रहते संभाला जाना चाहिए ,
बेकार समझ फाड़ा नहीं जाना चाहिए।
अच्छा अब इन्हें एक मोटी पुस्तक के नीचे दबा दे ,
ताकि ये तस्वीरें ढंग से जुड़ सकें।"

पुत्र ने पिता की बात मान ली।
तस्वीरों को एक मोटी पुस्तक के नीचे दबा दिया।
पुत्र मन में सोच रहा था कि
दादा को मूल से ज़्यादा ब्याज से
प्यार हो जाता है।
वह भी इस हद तक कि
पोते की जीर्ण शीर्ण तस्वीर तक
दादा को आहत करती है।
उन्हें भविष्य की आहट भी
विचलित नहीं कर पाती
क्योंकि दादा अपना भावी जीवन
पोते के उज्ज्वल भविष्य के रूप में जीना चाहता है।
उन्हें भली भांति है विदित
कि प्रस्थान वेला अटल है
और युवा पीढ़ी का भविष्य निर्माण भी
अति महत्वपूर्ण है।

सबसे बढ़ कर जीवन का सच
एक समय बड़े बुजुर्ग
न जाने कब
बन जाते हैं सुरक्षा कवच !
यही नहीं
उनमें अनिष्ट की आशंका भी भर जाती है,
पर वे कहते कुछ नहीं ,
हालात अनुसार
जीवन के घटनाक्रम को
करते रहते हैं मतवातर सही।
यही उनकी दृष्टि में जीवन का लेखा जोखा।
बुजुर्गों की सोच को  
सब समझें
और दें जीने का मौका ;
न दें उन्हें भूल कर भी धोखा।
बहुत से बुजुर्गों को
वृद्धाश्रम में निर्वासित जीवन जीने को
बाध्य किया जाता है।
उनका सीधा सादा जीवन कष्ट साध्य बन जाता है।
किसी हद तक
जीर्ण शीर्ण तस्वीर की तरह!
इसे ठीक ठाक कर पटरी पर लाया जाना चाहिए।
जीवन को गंतव्य पथ पर
सलीके से बढ़ाया जाना चाहिए।
१३/०२/२०२५.
यह जीवन पथ
एक रंगमंच है , जहाँ
जहान तक को
किस्सा कहानी और कहानी का
विषय बनाकर
संवेदना को संप्रेषित करने के
मंतव्य से मन को हल्का करने में सक्षम खेल
नित्य प्रति दिन
हर पल ,
पलपल , हरेक क्षण
खेला जाता है ,
जहाँ पर
खेला हो जाता है !
जीव ठगा सा हतप्रभ
रह जाता है।
जीवन में
बेशक
कभी कभी
अच्छा होने का
नाटक करो
मगर कभी अच्छा होने का
प्रयास भी तो  किया करो
ताकि
दुनियावी झमेलों से
दूर रहकर,
जीवन के मंच पर
असमय
ठोकरें खाने से
बच सकें साधक ।
उनके जीवन में
किसी को
नीचा दिखाने के निमित्त
की गई हँसी ठिठोली
और हास परिहास
बनें न कभी भी बाधक।
सब जीव बन सकें
परम शक्ति के आराधक।
चेतना
समस्त सृष्टि में व्याप्त है ,
इसे जानने के प्रयासों के दौरान
भले ही
जीवन में  
कभी लगने लगे कि
अब सब समाप्ति के कगार पर है ,
मन में निराशा और हताशा भरती लगे ,
पर भूलो नहीं कि
जीवन में
कभी भी
कुछ भी समाप्त होता नहीं है,
बस पदार्थ अपनी अवस्था बदलता है।
कण कण में
जीवन नियंता और प्राणहंता
यहां वहां सब जगह
व्याप्त हैं।
फिर भी सोचो जरा कि
यह जीवन की अनुभूति  
भला हम से कभी
दूर रह पाएगी ?
बल्कि
यह जीवन के साथ भी
और बाद भी
चेतना बनकर
साथ रहेगी ,
जन्म जन्मांतर तक
हम सब को
कर्म चक्र से बांधें रखकर
समृद्ध करती रहेगी !
हमारा होना भी एक नाटक भर है ,
अतः इसे तन और मन से खेलो।
नाटक देखो ही नहीं , इसे जीयो भी ।
यहाँ सब कुशल अभिनेता हैं
और परम हम सब का निर्देशक!
और साथ ही दर्शक भी !
अपनी भूमिका को
निभाओ  दिल से!
जीवन को जीयो जी भर कर !
बेशक कभी कभी
नाटक भी करना पड़े
तो डरो कतई नहीं।
वर्तमान नाटक ही तो है !
अतीत यानिकि व्यतीत भी नाटक ही था!
आने वाले क्षण भी
नाटकीयता से भरपूर रहने वाले हैं !
भूल कर अपने समस्त डर !
निरन्तर आगे बढ़ना ही अब श्रेयस्कर है।
समय समर्थ है!
उसके सामने
कभी न कभी
गुप्त भेद भी प्रकट हो जाते हैं !!
अतः जीवन को भरपूर
नाटकीयता से जी लेना चाहिए।
कोई संकोच या बहानेबाजी से बचना चाहिए।
१३/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
मरने से पहले
आदमी
बाज़ दफा
हो जाता है विक्षिप्त
जीवन कथा
है अति संक्षिप्त!

२४/११/२००८.
संसार में कौन भला और कौन बुरा ?
यहाँ जीवन का ताना बाना,
संघर्षों के इर्द गिर्द
है गया बुना।
इस जीवन में
पल पल
जन्म मरण का
सिलसिला है चलता आया।
यहाँ कोई अपना नहीं,न ही पराया !
जीवन के संघर्षों में बना रहना चाहिए
हमसाया!
जिसकी सोहबत से
और मतवातर सहयोग से
आदमी जीवनधारा को
चलायमान कर पाया।
जीवन का ताना बाना बड़ा अलबेला है ,
यहाँ हार जीत,सुख दुःख भरे क्षण
आते और जाते रहते हैं !
जीवन के रंगमंच पर
सब सब अपनी भूमिका निभाते हैं,
सब अपने समय में
आगमन और प्रस्थान का खेल,खेल
समय के समन्दर में खो जाते हैं !
काल के गाल में समा जाते हैं !!
अनंत काल से
यह सिलसिला है चल रहा !
जीवन मरण का खेल
जादुई सम्मोहन से लिपटा
जीवन का ताना बना बुन रहा।
इस डगर पर हर कोई मतवातर चलकर
जन्म दर जनम स्वयं को परिमार्जित कर रहा।
२५/०३/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
जो कभी सोचा न था।
वो ही क्यों हो जाता है घटित?
आदमी ऐसे में क्या करे?
खुशी का इज़हार करे,
या फिर भीतर तनाव भरे ?
जो कभी सोचा भी न था,
वो भी मेरे पास मौजूद था।
फिर  भी  मैं  उदास  था ,
दिल का करार नदारद था।
आदमी मैं होशियार न था।
जीवन में बच्चा बना
खेल खेलता रहा।
खिलौने बटोरता रहा।
रूठ कर इन्हें तोड़ता रहा ।
कुछ खो जाने की कसक से
मतवातर रोता ही रहा।
साथ साथ सोचता भी रहा।
जो कभी सोचा न था।
वो सब मेरे साथ घटा।
मैं टुकड़ों में बंटता रहा।
ऐसा मेरे साथ क्यों हुआ ?
ऐसा सब के साथ क्यों ,
होता रहा है हर पल पल !
पास के आदमी दूर लगें!
दूर के आदमी एकदम पास!
जो कभी सोचा न था।
वो जीवन में घटता है।
यह आगे ही आगे बढ़ता है।
कभी न रुकने के लिए!
जी भर कर जीने के लिए!!
अब सब यहां
महत्वाकांक्षा लिए
भटक रहें हैं,
सुख को तरस रहे हैं।
जीवन बढ़ रहा है
अपनी गति से।
कोई विरला यहां काम
करता सहज मति से।
यही जीवन का बंधन है।
इससे छूटे नहीं कि लगे ,
सुन रहा कोई अनाम यहां
क्रंदन ही क्रंदन की कर्कश
ध्वनियां प्रतिध्वनियां पल ,पल।
कर रहीं बेचैन पल प्रति पल स्व को।
फिर भी जीवन बदल रहा है  प्रति पल ,
अपने रंग ढंग क्षण श्रण ,
धूप और छाया के संग खेल,खेल कर
यह क्षणिक व प्यार भरा जीवन
एक अनोखा बंधन ही तो है।
२८/१०/२००७.
Joginder Singh Dec 2024
पुत्र!

तुम्हारा  विकास

मेरे  सम्मुख  है   खास  ,

तुम   कल   तक   थे   बीज  ,

आज   बनने   को   हो   उद्यत  ,

एक   लम्बा   चौड़ा  ,   कद्दावर  ,

छायादार   ,   फलदार   वृक्ष   बनकर  ।

तुम   अपनी   व्यथा  -   कथा   कहो   ।

मैं   इसे   ध्यान   से   सुनूंगा   ।

बस   बीच  -  बीच   में

आवश्यकता   अनुसार   टिप्पणियां   करूंगा   ।

मैं   तुम्हारी   हैसियत   से   कतई   नहीं   डरूंगा  ।

तुम्हारा  ,

जनक  ।

२३/०६/२००५.
Joginder Singh Nov 2024
अचानक
उसने सोचा था कि
उसने बड़े प्रयासों के बाद
भीतर व्यापे
भय को
बड़ी मुश्किल से
भगाया था।

पर
एक भूल से
वो लौट
आया था!

फिर उसने
बड़ी देर तक
उसे दर बदर कर
भटकाया था!!

भयभीत
भय पर
कैसे पाएं काबू?
यह सभी को जीवन
सिखाना चाहता है,
पर
कोई विरला ही,
भय के झूले में
झूल झूल कर
सोया आत्मविश्वास
जगा पाता है।
खोया आत्मविश्वास
ढूंढ़ पाता है।

यही हे जीवन की सीख ।
यह जीने से मिलती है,
भीख मांगने से नहीं।
जीवन चाहता है
हर कोई स्वयं को सही करे।
अपने अंतर्मन को शुद्ध करे।
Joginder Singh Nov 2024
जीवन
जिस धरा पर टिका है,
उस पर जिन्दगी के तीन पड़ाव
धूप छांव बने हुए
निरन्तर आते और जाते रहते हैं।
फ़र्क बस इतना है कि
ये पड़ाव कभी भी अपने को नहीं दोहराते हैं।

उमर के ये तीन पड़ाव
जरूरी नहीं कि
सब को नसीब हों।
कुछ पहले,
कुछ पहले और दूसरे,
और कुछ सौभाग्यशाली
तीनों पड़ावों से गुज़र पाते हैं।

सच है
यह जरूरी नहीं कि
ये सभी की जिन्दगी में आएं
और जीवन धारा से जुड़ पाएं ।

लंबी उमर तक
धरा पर बने रहना,
जीवन धारा के संग बहना।
किसी किसी के हिस्से में आता है,
वरना यहां क्षणभंगुर जीवन निरन्तर बदलता है।
इस धरा पर
जीवन कहाँ से आया ?
शायद कहीं कायनात में
छिपे उस क्षण से ,
जिससे सृष्टि में
उल्का पिंड और विभिन्न तत्वों के
उत्पन्न होने की
शुरूआत हुई।

सुनता हूँ
इस धरा पर
उल्का पिंडों से
धरा पर
जीवन का आविर्भाव हुआ।

यह भी सुनता हूँ कि
दशावतार की गाथा में
जीवन यात्रा का
छिपा हुआ है उद्गम।
यह सोच बड़ी है सूक्ष्म।
जीवों की जीवन यात्रा में
निहित है
जीवन का मर्म !
इसे समझना और पल्लवित करना
जीवन के उद्गम से लेकर
विकसित होने तक
बना हुआ है जीव धर्म।
हरेक जीव अपने अस्तित्व को
बनाए रखने के लिए
संतति को बढ़ाता है,
जिससे जीवन धारा विकसित होती है,
जीवन यात्रा
उत्तरोत्तर अपने आप
सतत
पीढ़ी दर पीढ़ी
आगे बढ़ती है,
जीवों को
जीवन की सार्थकता की
अनुभूति होती है।

चुपचाप
जीवन की गति
पूर्णता को प्राप्त करती है,
जीवन यात्रा आगे बढ़ती है।
०८/०२/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
इस संसार में
आपको कुछ लोग
ऐसे मिलेंगे
जो कहेंगे कुछ ,
करेंगे कुछ और !
ऐसे ही लोग
जीवन को अपनी कथनी
और करनी में अंतर कर
बना देते हैं पूर्णतः तुच्छ।
उनकी बातों से लगेगा,
जीवन होना चाहिए
साफ़ सुथरा और स्वच्छ।
असल में स्वर्ग से भी अनुपम
यह जीव जगत और जीवन
बन गया है इस वज़ह से नर्क।
दोहरेपन और दोगलेपन ने ही
चहुं ओर सबका कर दिया है बेड़ा ग़र्क।
आज संबंध शिथिल पड़ गए हैं।
लगता है कि सब
इस स्थिति से थक गए हैं।
यह जीवन का वैचारिक मतभेद ही है,
जिसने जीवन में मनभेद
भीतर तक भर दिया है।
आदमी को बेबसी का दंश दिया है।
उसका दंभ कहीं गहरे तक
चूर चूर कर, चकनाचूर  कर दिया है।
इस सब ने मिलकर मनों में कड़वाहट भर दी है।
जीवन की राह में कांटों को  बिखेरकर
ज़िन्दगी जीना , दुश्वारियों से जूझने जैसी ,
दुष्कर और चुनौतीपूर्ण कर दी है।
ऐसी मनोदशा ने आदमी को
किंकर्तव्यविमूढ़ और अन्यमनस्क बना दिया है।
उसे दोहरी जिंदगी जीने और जिम्मेदारी ने विवश किया है।
जीवन विपर्यय ने आज आदमी की
आकांक्षाओं और स्वप्नों को तहस नहस व ध्वस्त किया है।
३१/१२/२०२४.
जूझने
" हमें
जीवन में  
ज़ोर आजमाइश नहीं
बल्कि
जिन्दगी की
समझाइश चाहिए ।"
सभी से
कहना चाहता है
आदमी का इर्द गिर्द
और आसपास ,
ताकि कोई बेवजह
जिन्दगी में न हो कभी जिब्ह ,
उसके परिजन न हों कभी उदास।
पर कोई इस सच को
सुनना और मानना नहीं चाहता।
सब अपने को सच्चा मानते हैं
और अपने पूर्वाग्रहों की खातिर
अड़े खड़े हैं, वे स्वयं को
जीवन से भी बड़ा मानते हैं।
और जीवन उनकी हठधर्मिता को
निहायत गैर ज़रूरी मानता है ,
इसलिए
कभी कभी वह
नाराज़गी के रुप में
अपनी भृकुटि तानता है ,
पर जल्दी ही
चुप कर जाता है।
उसे आदमी की
इस कमअक्ली पर तरस आता है।
पर कौन
उसकी व्यथा को
समझ पाता है ?
क्या जीवन कभी
हताश और निराश होता है ?
वह स्वत: आगे बढ़ जाता है।
जीवन धारा का रुकना मना है।
जीवन यात्रा रुकी तो समय तक ख़त्म !
इसे जीवन भली भांति समझता है,
अतः वह आगे ही आगे बढ़ता रहता है।
समय भी उसके साथ क़दम ताल करता हुआ
अपने पथ पर  सतत अग्रसर रहता है।
पत्नी
यदि अच्छी है
तो जोरू का गुलाम
बनने और कहलाने में
काहे का हर्ज़ है,
यह तो डरपोक और कुटिल
इंसानों के भीतर पैदा हुआ मर्ज़ है,
इस रोग से
जितना जल्दी बचा जाए,
उतना अच्छा है!
पत्नी सेवा करना
हर बहादुर पति का फ़र्ज़ है।
यह समझ
सुलझे इंसानों के धुर भीतर दर्ज़ है।
सचमुच जोरू का गुलाम
शांति प्रिय होता है,
बेशक
वह दोस्तों की
आँखों में
हरदम खटकता है।
वह आसानी से कहाँ भटकता है ?
उसका मन
पत्नी सेवा में ही
जो
अटकता है।
ख़ुशी ख़ुशी
जोरू का गुलाम बनिए ,
जीवन में खुशियों को वरिए।
22/03/2025.
Joginder Singh Dec 2024
ज़ंग
तबाही का मंज़र
पेश करती है।
यह
कायर के भीतर
खौफ पैदा करती है।
यह
बहुतों को
मौत की नींद सुलाती है।
कभी कभी
ज़ंग
अमन के नाम पर
इंसाफ़ पसन्दों को
रुलाती है।

यह
जब लंबी  
खींच जाती है,
तब यह
बहुतों को
देती है जीवन से मुक्ति।

और
सब से ‌बढ़कर
ज़ंग हथियारों को जंग
नहीं लगने देती,
बेशक
दुनिया बदरंग होकर
लगने लगती है
एकदम से
गई बीती ।

आजकल
ज़ंगें क्यों ‌हो
रही हैं?
कभी
सोच विचार किया है ‌आपने ?
जब हथियार नहीं बिकते ,
तब हथियारों के
सौदागरों की
साज़िश के तहत
मतभेदों और मनभेदों को
बढ़ाया जाता है।
व्यक्तियों, लोगों ,देशों को
परस्पर लड़वाया जाता है।

ज़ंगों ,युद्धों , लड़ाइयों से
देश दुनिया में
विकास के पहियों को
रुकवा कर
विनाश के पथ पर बढ़ाया जाता है।

आओ हम सब यह संकल्प करें
कि जीवन में
ज़ंग से करेंगे गुरेज
ताकि दुनिया और ज़िन्दगी को
रखा जा सके सही सलामत।
ज़ंग कभी न बन सके
तबाही की अलामत।
१८/०१/२०१७.
Joginder Singh Dec 2024
जंगल में मंगल अमंगल
परस्पर एक दूसरे से
गुत्थमगुत्था हुए
करते रहते हैं अठखेलियां।

वहां कैक्टस सरीखी वनस्पति भी है,
तो बांस जैसी लंबी घास भी,
विविधता से भरपूर वृक्ष, झाड़ झंखाड भी।
इन जंगलों में पाप पुण्य से इतर
जीव जगत के मध्य चलता रहता है संघर्ष।
जैसे अचानक कहीं फूल खिल जाए ,
और अप्रत्याशित रूप से
कोई जीवन बुझ जाए ,
यहां हवा के चलने  से
सूखे और मुरझाए पत्ते
मतवातर गिरते जाएं
और वह पगडंडियों को
धीरे-धीरे लें ढक।


अब शहर जंगल सा हो गया है ,
जहां जीवन तेजी से रहा है भाग
सब एक आपाधापी में खोए हैं ।
इसी शहर में कभी-कभी
कोई विरला व्यक्ति
बहुत धीमी गति से
चलता दिखाई देता है ।
मुझे वह आदमी
जंगल का रखवाला सा प्रतीत होता है।

कभी-कभी इस जंगल में
कोई बालक धीरे-धीरे
अपने ही अंदाज से चलता दिखाई देता है,
कभी धीरे, कभी तेज़,कभी रुक गया,कभी भाग गया।
उसे देख मन में आता है ख़्याल
कि क्या कभी यह  नन्हा सा फूल
इस शहरी जंगल की आपाधापी के बीच
ढंग से खेल पाएगा ,या असमय
नन्हे कंधों पर महत्वाकांक्षा की गठरी लादे जाने से
किसी पत्ते जैसा होकर नीचे तो नहीं गिर जाएगा?
वह किसी बेपरवाह के पैरों के नीचे तो नहीं दब जाएगा ?


जंगल अब शहर में गमलों तक गया है सिमट।
जैसे अच्छी खासी जिंदगी
जो कभी जंगल की खुली हवा में पली-बढ़ी थी।
गांव से शहर आने के बाद  
दफ्तर और घर तक तक सीमित होकर रह जाए।
वह वहीं घुट घुट कर एक दिन जगत से निपट जाए।

अच्छा रहेगा ,  दोस्त !
अपने भीतर के कपाट खोले जाएं ।
स्मृति के झरोखों को खोल कर
अपना विस्मृत हुआ जंगल, जानवर और पंछी
फिर से अपने आसपास खोजें जाएं ।

प्राकृतिक जंगल में
जहां
सब कुछ बंधन मुक्त रूप से  
होता है घटित ,
वहीं
शहरी जंगल में
सब कुछ बंधा बंधा सा,
सब कुछ घुटा घुटा सा
होता है घटित।

कमबख्त आदमी
कभी भी
शहरी जंगल में
सुखी नहीं रह पाता है ,
और  कभी सुख का सांस नहीं ले पाता है,
वह तो असमय
एक मुरझाया फूल बनकर रह जाता है
जो हर समय
अपनी बचपन के जंगलों के
ख्वाब लेता रहता है।
०६/१२/२०२४.
जंगल राज का ताज
जिसके पुरखों के सिर पर
कभी सजा था ,
उस वंश के
नौनिहाल के
मुखारविंद से
सुनने को मिले कि
राज में कानून व्यवस्था
चौपट है ।
यह सब कई बार अजीब सा
लगता है।
शुक्र है कि यह नहीं कहा गया ...
यह जंगलराज
राज के नसीब में
लिखा गया लगता है।
हर दौर में
व्यवस्था सुधार की और
बढ़ती है,परंतु कुटिलता
विकास को पटरी से
उतार दिया करती है।
ऐसे में सुशासन भी
कुशासन की प्रतीति
कराने लगता है !
यह आम आदमी के भीतर
डर पैदा कर देता है।
आदमी बदलाव के स्वप्न
देखने लगता है।
बदलाव हो भी जाता है ,
यह बदलाव बहुधा
जंगल राज लेकर आता है ,
इसका अहसास भी  बहुत देर बाद होता है ,
तब तक चमन लुटपिट चुका होता है,
जीवन का हरेक कोना
अस्त व्यस्त हो चुका होता है।
अच्छा है कि
नेतागण बयान देने से पहले
अपने गिरेबान में झांकें ,
और तत्पश्चात देश समाज और राज्य को
विकसित करने का बीड़ा उठाएं।
जीवन को सुख, समृद्धि और संपन्नता से भरपूर बनाएं।
जीवन को जंगल राज के गर्त में जाने से बचाएं।
१७/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
ज्ञान विज्ञान के पंख लगा कर।
हम बच्चे उड़ेंगे उन्मुक्त होकर।।
    उड़ान से पूर्व,  बंधु
    ‌ करनी पड़ती तैयारी,
   ताकि न पड़े चुकानी
   जीवन में कीमत भारी।
ज्ञान विज्ञान के पंख लगा कर।
हम बच्चे उड़ेंगे उन्मुक्त होकर।।
विद्यालय के प्रांगण में,
गुरुजन करते लक्ष्य स्पष्ट।
जीवन के समरांगन में,
ताकि श्रम न हो नष्ट।।
ज्ञान विज्ञान के पंख लगा कर।
हम बच्चे उड़ेंगे उन्मुक्त होकर।।
शिक्षा आधार जीवन का,
हम इसे नींव बनायेंगे।
यह उत्तम फल जीवन का
इसे जीवन बगिया में उगायेंगे।।
ज्ञान विज्ञान के पंख लगा कर।
हम बच्चे उड़ेंगे उन्मुक्त होकर।।
  विपदा देश पर कभी पड़ी,
  हम एकजुट होंगे सभी।
   मातृभूमि की रक्षा में,
   हम प्राण वार देंगे सभी।।
ज्ञान विज्ञान के पंख लगा कर।
हम बच्चे उड़ेंगे उन्मुक्त होकर।।
   ‌
वह कितना चतुर हैं!
झटपट झूठ
परोस कर
बात का रुख
बदल देता है ,
जड़ से समस्या को
खत्म करता है।
यह अलग बात है कि
झूठ को छिपाने की
एक और समस्या को
दे देता है
जन्म !
जो भीतर की
ऊर्जा को करती रहती है
धीरे धीरे कम !
किरदार को
कमजोर करती हुई ,
आदमी को
अंदर तक
इस हद तक
निर्मोही करती हुई
कि उसका वश चले
तो हरेक विरोधी को
जीते जी एक शव में
कर दे तब्दील !
उसे झंड़े की तरह लहरा दे !
उसे एक कंदील में बदल
झूठे सच्चे के स्वागतार्थ
तोरण बना लटका दे !
झूठा आदमी ख़तरनाक होता है।
वह हर पल सच्चे के कत्ल का गवाह
बनने के इरादे में मसरूफ रहता है
और दिन रात
न केवल साजिशें रचता है
बल्कि मतवातर
गड़बड़ियां करता है,
ताकि वह हड़बड़ी फैला सके ,
मौका मिलने पर
हर सच्चे और पक्के को
धमका सके ,
मिट्टी में मिला सके।

०४/०४/२०२५.
आदमी अपने अंतर्विरोधों से लड़े।
वह कभी तो
इनके खिलाफ़ खड़े होने का साहस जुटाए,
अन्यथा उसका जीवनाधार धीरे धीरे दरकता जाए।
इसे समझकर,
विषम परिस्थितियों में खुद को परखकर
जीवन के संघर्षों में जुटा जाता है,
हारी हुई बाज़ी को पलटा जाता है।
इतनी सी बात
यदि किसी की समझ में न आए,
तो क्या किया जा सकता है ?
ऐसे आदमी की बुद्धि पर तरस आता है।
जब आदमी को हार के बाद हार मिलती रहे,
तो उसे लगातार डराने लगता सन्नाटा है।
इस समय लग सकता है कि
कोई जीवन की राह में रुकावट बन आन खड़ा है,
जिसने यकायक स्तंभित करने वाला
झन्नाटेदार चांटा जड़ा है !!
गाल और अंतर्मन तक लाल हुआ है !!
मन के भीतर बवाल मचा है !!

आदमी को चाहिए कि
अब तो वह नैतिक साहस के साथ
जीवन में जूझने के निमित्त खड़ा हो
ताकि जीवन में पनप रहे
अंतर्विरोधों का सामना
वह कभी तो सतत् परिश्रम करते हुए करे,
कहीं यह न हो कि वह जीवन पर्यंत डरता रहे,
जीवन में कभी कुछ साहसिक और सार्थक न कर सके।
ऐसा मन को शांत रखना सीख कर सम्भव है।
इसकी खातिर शान्त चित्त होना अपरिहार्य है,
ताकि आदमी बेरोक टोक लक्ष्य सिद्धि कर सके,
वह जीवन की विषमताओं से मतवातर लड़ सके,
जीवन धारा के संग संघर्ष रत रहकर आगे बढ़ सके।
20/03/2025.
Joginder Singh Nov 2024
झुकी कंधों वाले आदमी से
आप न्याय की अपेक्षा रखते हैं,
सोचते हैं कि
वह कभी लड़ेगा न्याय की खातिर ,
वह बनेगा नहीं कभी शातिर ।
आप गलत सोचते हैं ,
अपने को क्यों नोचते हैं ?
कहीं वह शख़्स आप तो नहीं ?
श्रीमान जी,
आप अच्छी तरह जान लें ,
जीवन सत्य को पहचान लें ।

दुनिया का बोझ
झुके कंधों वाला आदमी
कभी उठा सकता नहीं,
वह जीवन  की राह को
कभी आसान बना सकता नहीं ।
अतः बेशक आप
झुके कंधे वाले आदमी को
ज़रूर ऊपर उठाइए ,
आप आदमी होने जैसी
मुद्रा को तोअपनाइए ।

फिर कैसे नहीं
आदमी
अन्याय और शोषण के
दुष्चक्र को रोक पाएगा ?

वह कैसे नहीं
झुके कंधे वाले आदमी की
व्यथा को
जड़ से मिटा पाएगा ?
बस आदमी के अंदर
हौंसला होना चाहिए ।
परंतु
झुके कंधों वाले आदमी को
कभी हिम्मत और हौंसला
नसीब होते नहीं ।
वे तो अर्जित करने पड़ते हैं
जीवन में लड़कर ,
निरंतर संघर्ष जारी रख कर ,
अपने भीतर जोश बनाए रखकर
लगातार विपदाओं से जूझ कर ,
न कि जीवन की कठिनाइयों से भाग कर ,
इसलिए आगे बढ़ाने की खातिर
सुख सुविधाओं को त्याग कर
कष्टों और पीड़ाओं को सहने के लिए
आदमी खुद को
भीतरी ही भीतर तैयार करें ,
ताकि झुके कंधों वाला आदमी होने से
न केवल खुद को
बचा सके ,
बल्कि
जीवन में कामयाबी को भी अपना सके।

अतः इस समय
तुम जीवन को
सुख , समृद्धि , संपन्नता, सौहार्दपूर्ण बनाने की सोचो ,
न कि जीवन को प्रलोभन की आग से जलाओ।
इसके लिए तुम निरंतर प्रयास करो,
अपने भीतर
चेतना का बोध जगाओ।

यदि आप कभी
झुके कंधों वाले आदमी को ग़ौर से देखें
तो वह यकीनन
आपके भीतर
सौंदर्य बोध नहीं जगा पाएगा ,
बल्कि
वह आपके भीतर
दुःख और करूणा का अहसास कराएगा ।

झुके कंधों वाले आदमी को देखकर
बेशक  भीतर
कुछ वितृष्णा और खीझ पैदा होती है।
यही नहीं
ऐसा आदमी
कई बार
उलझा पुलझा सा
आता है नज़र,
इसे देख जाने अनजाने
लग जाती है नज़र
अपनी उसको ,
और उसकी किसी दूसरे को।

सच तो यह है कि
झुके कंधों वाला आदमी
कभी भी
दुनिया को पसंद नहीं आता ।
कोई भी उससे जुड़ना नहीं चाहता।
भले ही वह कितना ही काबिल हो।

पता नहीं हम कब
जीवन को देखने का
अपना नज़रिया बदलेंगे ?
यदि ऐसा हो जाए
तो झुके कंधों वाला आदमी भी
सुख-चैन को प्राप्त कर पाए।
वरना वह जीवन भर भटकता ही जाए।
२१/११/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
अब
कभी कभी
झूठ
बोलने की
खुजली
सिर उठाने
लगी है।
जो सरासर
एक ठगी है।

अक्सर
सोचता हूँ,
कौन सा
झूठ कहूँ?
... कि बने न
भूले से कभी भी
झूठ की खुजली
अपमान की वज़ह।
होना न पड़े
बलि का बकरा बन
बेवजह
दिन दिहाड़े
झूठे दंभ का शिकार।
न ही किसी दुष्ट का
कोप भाजन
पड़े बनना
  और कहीं
लग न जाए
घर के सामने
कोई धरना।

अचानक
उठने लगता है
एक ख्याल,
मन में फितूर बन कर

अतः कहता हूँ...
चुपके से , खुद को ही,
एक नेता जी
जो थे अच्छे भले
मंहगाई के मारे
दिन दिहाड़े
चल बसे!
(बतौर झूठ!!)

आप सोचेंगे
एक बार जरूर
... कि नेता मंहगाई से
लाभ उठाते हैं,
वे भ्रष्टाचार के बूते
माया बटोर कर
मंहगाई को लगाते हैं पर!
फिर वे कैसे
मंहगाई की वज़ह से
चल बसे।

मैं झूठ बोलकर
अपनी खारिश
मिटाना चाहता था
कुछ इस तरह कि...
लाठी भी न टूटे,
भैंस भी बच जाए,
और चोर भी मर जाए।

इस ख्याल ने
रह रह कर सिर उठाया।
मैंने भी मंहगाई की आड़ ले
तथा कथित नेता जी को
जहन्नुम जा पहुंचाया।
कभी कभी
झूठ भी अच्छा लगता है
सच की तरह।
(है कि नहीं?)
बहुत से मंहगाई त्रस्त
जरूर चाहते होंगे कि...
आदमी झूठ तो बोले
मगर उसकी टांगें
छुटभैये नेता के
गुर्गों के हाथों न टूटें!
बल्कि मन को मिले
कैफ़ियत, खैरियत के झूले।


अब जब कभी भी
झूठ बोलने की खुजली
सिर उठाने लगती है,
मुझे बेशर्म मानस को
शिकार बनाने का
करने लगती है इशारा।
मैं खुद को काबू में करता हूँ।
मुझे भली भांति विदित है,
झूठ हमेशा मारक होता है,
भले वह युद्ध के मैदान में
किसी धर्मात्मा के मुखारविंद से निकला हो।
झूठ के बाद की ठोकरें
झूठे सच्चे को सहज ही
अकलबंद से अकलमंद बना देती हैं,
झूठ की खुजली पर लगाम लगा देती हैं।
Joginder Singh Dec 2024
झूठ बोलने से पहले
थोड़ा थूक गटक गया
तो क्या बुरा किया ?
कम से कम
मैं एक क्षण के लिए
सच को तो जिया।

यह अलग बात रही--
जिसके खिलाफ
अपने इस सच का
पैंतरा फैंका था ,
वह अपनी अक्लमंदी से बरी हुआ,
मुझे अक्लबंद सिद्ध कर विजयी रहा।


सच्ची झूठी इस दुनिया में
आते हैं बेहिसाब उतार चढ़ाव
आदमी रखे एक अहम हिसाब--
किस राह पर है समय का बहाव ?
जिसने यह सीख लिया
उसने जीवन की सार्थकता को समझ लिया।
उसने ही जीवन को भरपूर शिद्दत से जिया।
और इस जीवन घट में आनंद भर लिया।
१६/०६/२०१७.
Joginder Singh Dec 2024
यदि बोलोगे तुम झूठ,
बोलते ही रहोगे झूठ के बाद झूठ,
तुम एक दिन स्वयं को
एक झूठी दुनिया में गिरा पाओगे,
कभी ढंग से भी न पछता पाओगे,
शीघ्रातिशीघ्र
दुनिया से रुखसत कर जाओगे,
तब तुम कुछ भी हासिल नहीं कर पाओगे।
कुछ पाने के लिए
तुम मतवातर बोल रहे झूठ ,
क्यों बना रहे खुद को ही मूर्ख ?

जीवन में इतनी जल्दी
पीनी पड़ेगी ज़हर की घूट।
यह कभी सोचा नहीं था।
मुझ पर  मेरा दोस्त,
दुम कटा  कुत्ता
जो कभी भौंका तक न था,
अब लगता है कि वह भी
आज लगातार भौंक भौंक कर,
कर रहा है आगाह ,
अब और झूठ ना बोल ,
वरना हो जाएगा
इस जहान से  बिस्तर गोल ।
अब वह अपना सच बोलकर
मुझे काटने को रहता है उद्यत।

मुझे याद है
अच्छी तरह से ,
बचपन में एक दफा
झूठ बोलते पकड़े जाने पर
मिला था एक झन्नाटेदार चांटा ।

परंतु मैं बना रहा ढीठ!
और अब तो लगता है
कि मैंने ढीठपने की
लांघ दी हैं सब हदें।


अब मुझे तुम्हारा डांटना,
बार-बार आगाह करना,
नहीं  अखरता है ।
तुम्हारा यह कहा कि
यदि झूठ बोलूंगा,
तो काला कौआ भी भी बार-बार काटने से
करेगा गुरेज,
वह भी पीछे हट जाएगा,
सोचेगा, बार-बार काटूंगा,  
तो इस ढीठ पर होगा नहीं कोई  असर ।
मैं खुद को बेवजह  थकाऊंगा ।

आजकल
हरदम
मौत के क़दमों
की आहट,
मेरा पीछा नहीं छोड़ती।
कर देती है,
मेरी बोलती बंद।

वह घूरती आंखों से
मेरे भीतर बरपा रही है कहर,
मैं लगातार रहा हूं डर,
मेरे भीतर
सहम भर गया है।
जीवन कुछ रुक सा
गया है ।

अब आ रहा है याद
तुम्हारा कहा हुआ ,
" दोस्त,
झूठ बोलने से पहले
आईना देख लिया करो।
क्या पता कभी
आईने में सच देख लो ?
और झूठ से गुरेज कर लो !
झूठ के पीछे भागने से
तौबा कर लो।"

मैं  पछता रहा हूं।
जिंदगी की दौड़ में
पिछड़ता जा रहा हूं,
क्योंकि मेरे चरित्र पर
झूठा होने का ठप्पा लगा है।
सच! मुझे अपने ओछेपन की वज़ह से
जीवन में बड़ा भारी धक्का लगा है।
मेरा भविष्य भी अब हक्का-बक्का सा खड़ा है।
सोचता हूं,
मेरे साथ क्या हुआ है?
कोई भी मेरे साथ नहीं खड़ा है।
२९/०१/२०१५.
Joginder Singh Dec 2024
क़दम क़दम पर
झूठ बोलना
कोई अच्छी बात नहीं !
यह ग़लत को
सही ठहरा सकता नहीं !!
झूठ बोलने के बाद
सच को छिपाने के लिए
एक और झूठ बोल देना ,
नहीं हो सकता कतई सही ।

झूठ
जब पुरज़ोर
असर दिखाता है
तो जीता जागता आदमी तक ,
श्वास परश्वास ले रहा वृक्ष भी
हो जाता एक ठूंठ भर,
संवेदना जाती ठिठक ,
यह लगती  धीरे-धीरे मरने।

आदमी की आदमियत
इसे कभी नहीं पाती भूल
उसे क़दम दर क़दम बढ़ने के
बावजूद चुभने लगते शूल।
शीघ्रातिशीघ्र
घटित हो रहे ,
क्षण क्षण हो रहे , परिवर्तन
भीतर तक को , 
करते रहते ,कमज़ोर।
भीतर का बढ़ता शोर भी
रणभूमि में संघर्षरत
मानव को ,
चटा देते धूल।

दोस्त,
भूल कर भी न बोलो ,
स्व नियंत्रण खोकर
कभी भी  झूठ ,
ताकि कभी
अच्छी खासी ज़िंदगी का
यह हरा भरा वृक्ष
बन न जाए कहीं
असमय अकालग्रस्त होकर ठूंठ!
जीवन का अमृत
कहीं लगने लगे
ज़हर की घूट!!
झूठा दिखने से बच ,
ताकि  जीवन में जिंदादिली बची रहे,
और बचें रहें सब के अपने अपने सच !
२८/०१/२०१५.
Joginder Singh Dec 2024
संवाद
अंतर्मन से
जब हुआ ,
समस्त
विवाद भूल गया !
सचमुच !
मैं झूम उठा !!

२१/१२/२०१६.
परीक्षा सिर पर हो ,
अधूरी रह जाए तैयारी
यह स्वाभाविक है कि
अक्ल जाती मारी।
ऐसी नौबत क्यों आई ?
इस बाबत भी
कभी सोच मेरे भाई।
आदमी में
एक अवगुण है
टाल मटोल करने का।
यही अवगुण
यथा समय परिश्रम करने से
रोकता है
और परीक्षा सिर पर
आने पर
विचलित कर देता है।
आत्मविश्वास को तोड़
भीतर पछतावा भरता है।
अब क्या हो सकता है ?
अच्छा रहेगा
टाल मटोल की प्रवृत्ति पर
रोक लगाई जाए।
समय रहते
अपनी ऊर्जा और शक्ति
परीक्षा को ध्यान में रखकर
केन्द्रित की जाए।
हड़बड़ी और गड़बड़ी से
बचा जाए।
टाल मटोल करने से
सदैव बचा जाए
ताकि  परीक्षा ढंग से दे
सफल हो सकें !
चिंता को
स्वयं से दूर रख सकें !!
जीवन में आगे बढ़ सकें !!
०८/०५/२०२५.
आदमी को
मयस्सर होती रहे
ज़िन्दगी में
कामयाबी दर कामयाबी
बनी रहती भीतर
ठसक।
जैसे ही कामयाबी का
सिलसिला
कहीं पीछे छूटा ,
लगने लगता कि भाग्य भी
अचानक ही रूठा।
आदमी की
न चाहकर भी
टूट जाती ठसक।
भीतर ही भीतर
बढ़ती जाती कसक।
बेचैनी के बढ़ने से
झुंझलाहट बढ़ जाती !
ज़िन्दगी में उलझनें भी बढ़ने लगती !
ज़िन्दगी जी का जंजाल बन कर तड़पाने लगती !
ज़िन्दगी में भागदौड़ यकायक बढ़ जाती ,
आदमी एक अंतर्जाल में फंसता चला है जाता।
वह दिन हो या रात,
कभी भी सुकून का अहसास नहीं कर पाता।
०४/०५/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
कभी कभी
ठग तक को
ठेस पहुँचती है।
यही बात
ठग बाबू को
कचोटती है।
फिर भी
वह ठगने,
मनमानी करने से
आता नहीं बाज़।
वह नित्य नूतन ढंग से
ढूंढता है,वे तरीके कि
शिकार अपनी अनभिज्ञता से
हो जाएं हताश और  निराश,
आखिरकार हार मान कर,
जड़ से भूलें करना प्रतिकार!


ऐसी अवस्था में
यदि कोई साहस कर
ठग का करता है प्रतिकार।
शिकार ,होने लगता है जब,
जागरूक और सतर्क।
ऐसे में
शिकार के गिर कर
खड़े होने से ही
पहुंचती है ठग को ठेस।
और ऐसा होने पर
उसकी ठसक का गुब्बारा फूटता है,
ठग अकेले में फूट फूट कर रोता है,
वह अंदर ही अंदर खुद को कोसता है।
विडंबना है कि
वह कभी ठगी करना नहीं छोड़ता ।
कभी भी
ठगी करने का मौका
नहीं छोड़ता ।
ठग का पुरजोर विरोध ही
ठगी पर रोक लगा सकता है।
ठग को
सकते में ला सकता है।
यदि ऐसा हो जाए
तो क्या ठग
कभी
कोमा में जा सकता है?
शायद नहीं,पर
वह किसी हद तक खुद को
सुधारने की
कोशिश कर सकता है।
Joginder Singh Nov 2024
बाप   कैसा भी हो,
बच्चा   करता है उसे पर विश्वास
वह किसी भी हद तक जाकर
बिना झिझक देता है मन की बात बता।
एक झलक प्यारे पापा की देख
अपना दुख देता दक्षिण भुला ,
पापा के प्यार को अनुभूत कर
बहादुर देता है दिखला।



मां।   कैसी भी हो
बच्ची करती है उसे पर विश्वास
वह किसी भी हद तक जाकर
बिना झिझक देती है मन की बात बता ।
प्यारी मम्मी का स्पर्श कर महसूस
अपनी उदासी को  देती है भुला ।
अभाव तक को देती है बिसरा ।



परंतु
समय की आंधी के आगे
किसकी चल?
अचानक अप्रत्याशित आकर वह
छीन लेती है कभी
मां-बाप की ठंडी छाया बच्चों से ।


सच ! उसे समय
जीवन होता प्रतीत
क्रूर व हृदय विहीन बच्चों को !


समय की मरहम
सब कुछ देती है भूल बिसरा ,
जीवन के घेरों में  ,चलना देती सीखा ।




समय की चाल के साथ-साथ
बच्चे धीरे-धीरे होते जाते हैं बड़े
मैं ढूंढना शुरू कर देते हैं
ममत्व भरी मां की छाया ,
सघन घने वृक्ष सा ‌बाप का साया ,
आसपास के समाज में विचरते हुए,
पड़ोसी और पड़ोसिनों से सुख,
सुरक्षा के अहसास की आस !
पर बहुत कम दफा मिल पाता है,
अभाव ग्रस्त बच्चों को , समाज से,
बिछुड़ चुके बचपन का दुर्लभ प्यार ,
पर उन्हें हर दर से ही मिलता
कसक , घृणा और तिरस्कार।


यह जीवन का सत्य है,
और जीवन धारा का कथ्य है ।
बच्चा     बड़े होने तक भी ,
बच्ची      बड़ी होने पर भी ,
सतत्...बिना रुके...
अविराम...निरन्तर ... लगातार...
ढूंढ़ते रहते हैं -- बचपन से बिछुड़े  सुख !
पर... अक्सर... प्रायः...
सांझ से प्रातः काल तक
सपनों की दुनिया तक में
सतत् मिलते रहते हैं दुःख ही दुःख!
जीवन में हर पल बढ़ती ही जाती है
सुख ढूंढ़ पाने की भूख ।
पर ...
एक दिन
बच्चों के सिर से
ढल जाती है समय की धूप।
वे जिंदगी भर  
पड़ोसी पड़ोसिनों में खोये
रिश्तों को ढूंढ़ते रह जाते हैं, पर
मां की ममता
और पिता के सुरक्षित साये से
ये बच्चे  वंचित ही रहते है,
लगातार अकेलेपन के दंश सहते हैं।


कुदरत इनकी कसक को करना चाहती है दूर।
अतः वह एक स्वप्निल दुनिया में ले जाकर
करती रहती है इन बच्चों की कसक और तड़प को शांत।


उधर उनके दिवंगत मां बाप
बिछड़ने के बावजूद चाहते सदैव उनका भला।
सो वे स्मृतिलीन
आत्माएं
अपने बच्चों के सपनों में
बार-बार आकर देखतीं हैं संदेश कि
तुम अकेले नहीं हो, बच्चो!
हम सदैव तुम्हारे आजू बाजू रहती आईं हैं।
अतः डरने की ज़रूरत नहीं है ।
जीवन सदैव सतत रहता है चलायमान।
हमारे विश्राम लेने से मत होना कभी उदास।
समय-समय पर
तुम्हारी हताशा और निराशा को
करने समाप्त
हम तुम्हारे मार्गदर्शन के लिए
सदैव तुम्हारे सपनों में आती रहेंगी।
तुम्हें समय-समय पर संकटों से बचाती रहेंगी।


बच्चे बच्चे अपने मां-बाप को
स्वप्न की अवस्था में देखकर हो जाते पुलकित,
वे स्वयं को महसूसते सुरक्षित ।


बच्चो ,
ढलती धूप के साए भी
अंधेरा होने पर
जीव जगत के सोने पर
स्वप्न का हिस्सा बनकर
बच्चों को
तसल्ली व उत्साह देने के निमित्त
स्वपन में बिना कोई आवाज़ किए
आज उपस्थित होते हैं
बच्चों के सम्मुख
अनुभूति बनकर।


सच ! सचमुच ही!!
जीवन खिलखिलाता हुआ
बच्चों की नींद में
उन्हें स्वप्निल अवस्था में ले जाता हुआ
हो जाता है उपस्थित।
यह उनके मनों में
खिलती धूप का संदेश लेकर !
जीवन में उजास बनकर !
आशा के दीप बनकर !
प्यार के सूरज का उजास होकर!!
उनसे बतियाने लगता है,
मुझे लड़ दुलार करने लगता है।
सच ! ऐसे में...
सोए बच्चों के चेहरे पर
स्वत: जाती है मुस्कान तैर !
अभाव की कसक जाती धुल !!
दिवंगत मां-बाप के साए भी
लौट जाते अपने लोक में
संतुष्ट होकर। ब्रह्मलीन ।
यह सब घटनाक्रम ,देख और महसूस।
प्रकृति भी भर जाती सुख संतोष के अहसास से।
वह निरंतर देखा करती है
ऐसी अनगिनत कथा यात्राओं का बनना ,बिगड़ना
हमारे आसपास से।
वह कहती कुछ नहीं,
मैं देखना चाहती सबको सही।
२८/०९/२००८.
अपनी तकलीफ़ को
बता पाना नहीं है
कोई आसान काम।
सुख में खोया आदमी
नहीं दे सकता  
दूसरों के दुःख,दर्द, तकलीफ़ की
ओर ध्यान।
वह रहता अंतर्मगन।
वह आवागमन के झंझटों से दूर रहना चाहता है।
वह अपनी दुनिया में खोया रहता है,
उसका अंतर्मन अपने आप में तल्लीन रहता है।
छोटा बच्चा रोकर
अपनी तकलीफ़ बताता है।
किसान मजदूर धरना प्रदर्शन करने से
सरकार को अपनी तकलीफें बताना चाहते हैं।
और बहुत से लोग तकलीफ़ बताता तो दूर ,
वे संकुचा कर रह जाते हैं।
वे अपनी तकलीफ़ कह नहीं पाते हैं।
वे इस पीड़ा को सहते हुए
और ज्यादा जख्मी होते रहते हैं।
कहीं आप भी तो उन जैसे तो नहीं ?
आप मुखर बनिए।
जीवन में अपनी तकलीफ़ बताना सीखिए।
20/01/2025.
Joginder Singh Nov 2024
तकलीफें जब
सभी हदें लांघकर
आदमी को हताश और निराश कर देती हैं,
तब आदमी
बन जाता है पत्थर।
उसकी आंख के आंसू
सूख जाते हैं।
ऐसे में आदमी
हो जाता है
पत्थर दिल।

तकलीफें
उतनी ही दीजिए
जिसे आपका प्रिय जन
खुशी खुशी सह सके ।
अपनी ज़िन्दगी को
ढंग से जी सके।

कहीं तकलीफ़ का
आधिक्य
चेतना को
न कर दे
पत्थर
और
बाहर से
आदमी ज़िंदा दिखे
पर भीतर से जाए मर ।

२१/०२/२०१४.
कुछ हासिल न होने की सूरत में
आदमी की सूरत
बिगड़ जाती है ,
तन मन के भीतर
तड़प होने लगती है,
जो न केवल बेचैनी को बढ़ाती है ,
बल्कि भीतर तक
होने लगता है
अशांत,
जैसे शांत झील में
किसी ने
अचानक
कोई कंकर
भावावेश में आकर
दिया हो फैंक...!
यह सब उदासी के
बढ़ने का बनता है सबब ,
स्वतः प्रतिक्रिया वश
आदमी
उदासीन होता जाता है ,
वह जीवन में
आनंद लेने और देने से
करने लगता है गुरेज़ ,
ऐसा
अक्सर होने पर
वह थकान को
किया  करता है महसूस।
उसके भीतर
असंतुष्टि घर कर जाती है ,
यह अवस्था ही
तड़प बनकर
वजूद के आगे
एक सवाल खड़ा करती है,
उसे कटघरे में खड़ा कर
उद्वेलित किया करती है।

जिजीविषा से युक्त
आदमी  और उसकी मनोवृत्ति
हमेशा इस अज़ाब से
मुक्त
होना चाहते हैं।
उसे जीवन भर
निष्क्रिय रह कर तड़पना
और मतवातर
मरणासन्न होते चले जाने का दंश
झकझोरता है।
उसे कभी भी
तड़प तड़प कर
जीना नहीं मंजूर !
अतः
वह इस तड़पने की
जकड़न से
हर सूरत में
बचना चाहता है ,
वह सार्थक सोच से जुड़कर
सकारात्मक दिशा में
बढ़ना चाहता है।
वह अपनी संभावना को
टटोलना चाहता है।
वह अपनी सीरत को
सतत संघर्ष युक्त कर
बदलना चाहता है ,
ताकि वह जीवन पथ पर
निर्विघ्न बढ़ सके !
और एक दिन
वह स्वयं को पढ़ सके !
और वह भली भांति जान सके कि
आखिर  वह
जीवन धारा से
क्या अपेक्षा करता है ?
कौन है ,
जो उसे उपेक्षित
रखना चाहता है ?
और जो उसकी तड़प की
वज़ह बना है।
वह बस संघर्ष करना चाहता है ,
अपने भीतर
जिजीविषा की
उपस्थिति
और इसकी अनुभूति से  
उत्पन्न संवेदना को
जानना भर चाहता है।
वह तड़प, तड़प कर
अब जिन्दा नहीं रहना चाहता ,
वह जीवन यात्रा में
गंतव्य तक
यथाशीघ्र
पहुंचने का आकांक्षी है बस!
इससे पहले कि...
यह तड़प सर्वस्व कर ले हड़प।
वह दृढ़ निश्चय करके
अपने हालातों का
मूल्यांकन कर जीवन के
उज्ज्वल पक्षों पर
दृष्टिपात कर
अपना स्वतंत्र दृष्टिकोण
विकसित कर जीना चाहता है।
०७/०४/२०२५.
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