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Joginder Singh Dec 2024
बेशक
कोयल सुरीला कूकती है।
मुझे गाने को उकसाती है।

मैं भी मूर्ख हूं ।
बहकाई में जल्दी आ जाता हूं।
सो कुछ गाता हूं,...
कांव! कांव!! कांव!!!
तारों की छांव में
मैं मैना अंडे ढूंढता हूं।  
कांव! कांव!! कांव !!!
लगाऊं मैं दांव!
कांव!कांव!!  कांव!!!
(घर के) श्रोताओं को
मेरा बेसुरापन अखरता है।
इसे बखूबी समझता हूं।
पर क्या करूं?
आदत से मजबूर हूं।
उनके टोकने पर
सकपका जाता हूं।
कभी कभी यह भी सोचता हूं कि
काश ! मैं कोयल सा कूक पाऊं।
वह कितना अच्छा गाती है।
मन को बड़ा लुभाती है ।
वह कभी कभार
कौए को ,
उस  को खुद के जानने बूझने के बावजूद
मूर्ख बना जाती है।


यह बात नहीं कि
कोयल
कौए की चाहत को
न समझती हो,
पर
यह सच है कि
वसंत ऋतु में
कौवा यदि
कोयल से
गाने की करेगा होड़
तो कोयल के साथ-साथ
दुनिया भी हंसेंगी तो सही ।

वह यदि तानसेन बनना चाहेगा,
तो खिल्ली तो उड़ेगी ही।
कौआ मूर्ख बनेगा सही।

आप मुझे बताना जरूर।
कोयल कौए को बूद्धू बना कर
क्या सोचती होगी?
और
कौआ कैसा महसूसता होगा,
भद्दे तरीके से
पिट जाने के बाद ?
क्या कोयल भी
कभी कहती होगी, 'आया स्वाद।'

बेशक
कोयल सुरीला गाती है।
कभी-कभी कौवे को गाने के लिए उकसाती है।
बेचारा कौवा मान भी जाता है।
ऐसा करके वह मुंह की खाता है।
कौआ इसे खुले मन से स्वीकारता भी है।
कौआ हमेशा छला जाता है।
भले ही गाना गाने की बात हो
या फिर
कौए के द्वारा
अपने घौंसले में
किसी और के अंडे सेने
जैसा काम हो।
भले यह लगे
हमें एक मजाक हो।
है यह कुदरत में घटने वाला
एक स्वाभाविक क्रिया कलाप ही।
हर बार ग़लती करने के बाद
करनी पड़ती अपनी गलती स्वीकार जी।
माननी पड़ती अपनी हार जी।
१६/०७/२००८.
अन्याय
तन मन में आग
लगाता रहा है ,
यह भीतर को
फूंकता ही नहीं ,
बल्कि आदमी को
हद से ज़्यादा
बीमार और लाचार
बना देता है ,
यह थका देता है।
अन्याय
ज़ोर ज़बरदस्ती
जबरन झुकने के लिए
बाध्य करने वाला
धक्का है ,
यह वह थपेड़ा है,
जिसने यकायक
आदमी को
भीतर तक तोड़ा है।
इसका विरोध
हर सूरत में
होना ही चाहिए।
अन्याय से मुक्ति के लिए
कोई जन आन्दोलन होना ही चाहिए।
कौन सहेगा अन्याय अब
और अधिक देर तक
इस बाबत सब को
समय रहते विरोध की खातिर
खड़ा होना ही चाहिए।
कोई भी व्यक्ति
इसका शिकार नहीं बनना चाहिए।
बस इस की खातिर
सब को स्वयं को
जागरूक बनाना होगा ,
विरोध करने का बीड़ा उठाना होगा ,
समय बार बार नहीं देता
समाज से अन्याय और शोषण जैसी
गन्दगी साफ़ करने का मौका।
अब भी विरोध का सुर
बुलन्द न किया
तो यह निश्चित है
कि भविष्य
अनिश्चित काल तक
धूमिल बना रहेगा,
इसके साथ ही
मिलता रहेगा
सब को क़दम क़दम पर धोखा।
अन्याय का विरोध करना
सब का फ़र्ज़ है ,
विरोध से पीछे हटना और डरना
बन चुका है अब मर्ज़
समाज में।
आज अन्याय को कौन सहे ?
क्यों अब सब
देर तक मौन रहें ?
क्यों न सब
विरोध और प्रतिरोध के
सुर मुखर करें ?
वे अन्याय और शोषण की
ख़िलाफत करें ।
०६/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
सार  सार  को  ग्रहण  करने वाला !
सब  से  सच ,  सच  कहने  वाला !
होता  नहीं  कतई मूर्ख  कभी  भी  !
झूठे   का   साथ  ‌निभाने  ‌‌वाला   !
छल  कपट , मक्कारी करने  वाला !
पहुंचाता पल पल  निरीहों  को  दुःख !
बना  देता   है  ‌ ‌‌ज़िंदगी ‌ ‌को  नरक  !
तुम  ही  बतलाओ  आज ‌, बंधुवर  !
एक  झूठ  को  हवा   देता   है   और
दूसरा  सच  को  बचाकर  रखता  है ।
तुम  अब ‌ किसका  समर्थन  करोगे  ?
क्या  फिर  से   भेड़  चाल  चलोगे  ?
क्या इंसानियत  को  शर्मसार  करोगे ?
क्या  तुम   प्रश्नचिह्न    लगा  पाओगे ?
तुम जीवन के इस चक्रव्यूह से बच जाओगे?
  ०४/०८/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
शोषण के विरुद्ध
खड़े होने का साहस
कोई विरला ही
कर पाता है ,
अन्याय से जूझने का माद्दा
अपनी भीतर
जगा पाता है ।


तुम अज्ञानता वश
उसके खिलाफ़ हो जाओ ,
यह शोभता नहीं ।
ऐसे तो शोषण रुकेगा नहीं ।


शोषण न करो , न होने दो ।
अन्याय दोहन से लड़ने को ,
आक्रोश के बीजों को भीतर उगने दो ।
क्या पता कोई वटवृक्ष
तुम्हारा संबल बन जाए !
तुम्हें भरा पूरा होने का अहसास करा जाए !
दिग्भ्रम से बाहर निकाल तुम्हें नूतन दिशा दे जाए !!

२१/१०/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
दोस्त!
अपने भीतर की
नफ़रत का नाश कर,  
उल्फत के जज़्बात
अपने भीतर भरा कर ,
अपनी वासना से न डरा कर,
देशऔर दुनिया के सपनों को,
सतत् मेहनत और लगन से
साकार किया कर ।


ऐसा कुछ कहती हैं,
देश के अंदर
और
सरहद पार
रहने वाले बाशिंदों के
दिलों  से निकली
सदा।
समय पाकर
जो बनतीं जातीं
अवाम की दुआएं।
ऐसा
हमने समझ लिया है
इस दुनिया में रहकर,
समय की हवाओं के
संग बहकर।

फिर क्यों न हम
अपने और परायों को
कुछ जोश भरे,कुछ होश भरे
रास्तों पर
आगे बढ़ना सिखलाएं ,
उन्हें मंज़िल तक लेकर जाएं ।

९/५/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
यह सच है
क्रांति की प्रतीक्षा में,
पूरा जीवन
रीत जाता है,
पर क्रांति नहीं होती।
आंतरिक जुड़ाव
खुशी से जुड़ा
जीवन का शाश्वत सच है ।
क्रांति की प्रतीक्षा में
आदमी कभी कभार
ओढ़ लेता है
खामोशी और अनाभिव्यक्ति का
सुरक्षा कवच।
जीवन में
नहीं दिखना चाहता वह
हताश ,निराश ,बीमार।
पर वह
अपने अंतर्विरोधों से
कभी  बच नहीं पाता है
क्योंकि हर आदमी के पास
सदैव होता है
अपना एक सच ,
जो बनता है एक सुरक्षा कवच
और
संकट के समय
जिसे ओढ़कर
आदमी जीवन संघर्ष करता है,
और क्रांति से पहले की
आपातकालीन परिस्थितियों में
सुरक्षित रह पाता है।
क्रांति का जीवन सत्य से जुड़ता
एक अनुपम ,अद्भुत नाता है।
क्रांति की प्रतीक्षा करना सबको भाता है।
Joginder Singh Dec 2024
इस बार
लगभग दो महीने तक
हुई नहीं थी बारिश
सोचा था आनेवाला मौसम पता नहीं
कैसा रहने वाला है ?
शायद सर्दियों का लुत्फ़
और क्रिसमस का जश्न फीका रहने वाला है।

परन्तु
प्रभु इच्छा
इंसान के मनमाफ़िक रही
क्रिसमस की पूर्वसंध्या पर
अच्छी खासी खुशियों का आगमन लाने वाली
प्रचुर मात्रा में बर्फबारी हुई
क्रिसमस और नए साल के आगाज़ से पूर्व ही
तन,मन और जोशोखरोश से
क्रिसमस की तैयारी
सकारात्मक सोच के साथ की।

मन के भीतर रहने वाला
घर भर को खुशियों की सौगात देकर जाने वाला
सांता क्लॉस  आप सभी को खुशामदीद कहता है ,
वह आने वाले सालों में
आपकी ख्वाइशों को पूर्ण करने का अनुरोध प्रभु से करता है।
आप भी जीसस के आगमन पर्व पर
विश्व शांति और सौहार्दपूर्ण सहृदयता के लिए कीजिए
मंगल कामनाएं!
ऐसा आज आपका प्रिय भजन गाता हुआ
सांता क्लॉस चाहता है।
वह आपके जीवन के हरेक पड़ाव पर
सफलता हासिल करने का आकांक्षी है।

२५/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
' मर ना शीघ्र ,
जीवन वन में घूम ।' ,
जीवन , जीव से , यह सब
पल प्रतिपल कहता है ।

जीवात्मा
जीवन से बेख़बर
शनै : शनै :
रीतती रहती है ।
यथाशीघ्र
जीवन स्वप्न
बीत जाता है ।
जीव अपने उद्गम को
कहां लौट पाता है ?
वह स्वप्निलावस्था में खो जाता है।

०३/१०/२०२४.
हरेक क्षेत्र में
हरेक जगह एक मसखरा मौजूद है
जो ढूंढना चाहता
अपना वजूद है
वह कोई भी हो सकता है
कोई ‌मसखरा
या फिर
कोई तानाशाह
जो चाहे बस यही
सब करें उसकी वाह! वाह!
अराजकता की डोर से बंधे
तमाम मसखरे और तानाशाह
लगने लगे हैं आज के दौर के शहंशाह!
जिन्हें देखकर
तमाशबीन भीड़
भरने को बाध्य होगी
आह और कराह!
शहंशाह को सुन पड़ेगी
यह आह भरी कराहने की आवाजें
वाह! वाह!! ...के स्वर से युक्त
करतल ध्वनियों में बदलती हुईं !
तानाशाह के
अहंकार को पल्लवित पुष्पित करती हुईं !!
०१/०४/२०२५.
आज साल शुरू हुए
लगभग इकहत्तर दिन हुए हैं
और नई कार लिए
छियासठ दिन।
अभी अभी अचानक
कार की हैड लाइट के पास
पड़ गई है नज़र।
वहां दिख गई है
एक खरोंच।
मेरे तन और मन पर
अनचाहे पड़ गई है
एक और नई खरोंच ।
जैसे अचानक देह पर
लग गई हो किरच
और वहां पर
रक्त की बूंदें
लगने लगी हो रिसने।
भीतर कुछ लगा हो सिसकने।
यह कैसा बर्ताव है
कि आदमी निर्जीव वस्तुओं पर
खरोंच लगने पर लगता है सिसकने
और किसी हद तक तड़पने ?
वह अपने जीवन में
जाने अनजाने
कितने ही संवेदनशील मुद्दों पर
असहिष्णु होकर
अपने इर्द-गिर्द रहते
प्राणियों पर कर देता है आघात।
सचमुच ! वह अंधा बना रहता ,
उसे आता नहीं नज़र
कुछ भी अपने आसपास !
यदि अचानक निर्जीव पदार्थ और सजीव देह पर
उसे खरोंच दिख जाए तो वह हो जाता है उदास।
क्या आदमी के बहुत से क्रियाकलाप
होते नहीं एकदम बकवास और बेकार ?
१२/०३/२०२५.
उम्र जैसे जैसे बढ़ी
मुझे ऊंचा सुनने लगा है ।
जब कोई कुछ कहता है,
मैं ठीक से सुन पाता नहीं।
कोई मुझे इसका कराता है
चुपके चुपके से अहसास।
मैं पास होकर भी हो जाता हूं दूर।
यह सब मुझे खलता है।
वैसे बहुत कुछ है
जो मुझे अच्छा नहीं लगता।
पर खुद को समझाता हूं
जीवन कमियों के साथ
है आगे मतवातर बढ़ता।
इस में नहीं होना चाहिए
कोई डर और खदशा।
०१/०३/२०२५.
भोजन भट्ट
खा गया चटपटे खाद्य पदार्थ !
ले ले कर स्वाद
झटपट !
अब ले रहा है
नींद में झूट्टे
और थोड़ी थोड़ी देर के बाद
बदल रहा है करवट,
रेल सफर के दौरान।
चेहरा उसका बता रहा
वह ज़िन्दगी के सफर में भी है
संतुष्ट !
आदमी जिसे
भोजन से मिल जाए
परम संतुष्टि !
हे ईश्वर!
ऐसे देव तुल्य पुरुष पर
बनाए रखना
सर्वदा सर्वदा
अपनी कृपा दृष्टि !
देश दुनिया के बाशिंदों को
दिलाते रहना हमेशा
खाद्य संतुष्टि !
हम जैसे प्राणी भी
श्रद्धापूर्वक करते रहें
ईश्वरीय चेतना की स्तुति
ताकि सभी संतुष्ट जन
जीवन यात्रा के दौरान
अनुभूत कर सकें
दिव्यता से परिपूर्ण
अनुभूति !
वे खोज सकें
मार्ग दर्शक विभूति !!
२७/०२/२०२५.
युद्ध से
पहले
देर तक  
खामोशी बनी रहे।
यहाँ तक कि
हवा भी न बहे।
बस हर पल
यह लगे कि
कुछ निर्णायक होने वाला है।
अन्याय का साम्राज्य
शीघ्र ध्वस्त होने वाला है।
उसे मुक्ति से पहले
चिंतन मनन करने दो।
शायद युद्ध रुक जाए।
देश दुनिया और समाज संभल पाएं।
वरना महाविनाश सुनिश्चित है।
अनिश्चितता के बादल छाएंगे
और ये दिशा भ्रम की
प्रतीति कराए
बिना नहीं रहेंगे।
ठीक
कुछ इसी क्षण
खामोशी टूटेगी
और युद्ध का आगाज़ होगा ,
भीतर सहम भर चुका होगा ,
आदमी बेरहम बन रहा होगा धीरे धीरे।
वह युद्ध का शंखनाद
सुनने को व्यग्र हो रहा होगा।
अस्त व्यस्तता और अराजकता के माहौल में
सन्नाटा
सब के भीतर  पसर कर
वह भी युद्ध से पहले
जी भर कर सो लेना चाहता है।
फिर पता नहीं !
कब सुकून  मिले ?
मिलेगा भी कि नहीं ?
भयंकर पीड़ा
और विनाश
युद्ध से पूर्व ही
सर्वनाश होने की
प्रतीति कराने को हैं व्यग्र।
हर कोई उग्र दिख पड़ता है ।
पता नहीं यह विनाशकारी युद्ध कब रुकेगा ?
युद्ध से पूर्व की ख़ामोशी
सभी से कहना चाहती है
परन्तु सब युद्ध के उन्माद में डूबे हैं।
कौन उसकी सुने ?
वैसे भी ख़ामोशी से संवाद रचा पाना
कतई आसान नहीं।
युद्ध की आहट
सन्न करने वाला सन्नाटा
या कोई बुद्ध ही समझ पाता है।
किसी हद तक संयम रख पाता है।
०१/०५/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
निठल्ले बैठे रह कर
हम कहां पहुंचेंगे ?
अपने भीतर व्याप्त विचारों को  
कब साकार करेंगे?
आज
सुख का पौधा
सूख गया है,
अहंकार जनित गर्मी ने
दिया है उसे सुखा।
आज का मानस
आता है नज़र
तन,मन,धन से भूखा!
कैसे नहीं उसकी जीवन बगिया में पड़ेगा सूखा?
आज दिख रहा वह,लालच के दरिया में बह रहा।
बाहर भीतर से मुरझाया हुआ, सूखा, कुमलहाया सा।

सुन मेरे भाई!
लोभ लालच की प्रवृति ने
नैसर्गिक सुख तुम से छीन लिए हैं ,
आज सब असमंजस में पड़े हुए हैं।

चेतना
सुख का वह बीज है ,
जो मनुष्य को जीवन्त बनाए रखती है।
मनुष्यता का परचम लहराए रखती है।

यह बने हमारी आस्था का केंद्र।
यह सुख की चाहत सब में भर,
करे सभी को संचालित
नहीं जानते कि सुखी रहने की चाहत,से ही
मनुष्य की क्रियाएं,प्रतिक्रियाएं, कामनाएं होती हैं चालित।
लेने परीक्षा तुम्हारी
वासना के कांटे
सुख की राह में बिछाए गए हैं।
भांति भांति के लोभ, लालच दे कर
लोग यहां भरमाए  गए हैं।
नहीं है अच्छी बात,
चेतना को विस्मृति के गर्त में पहुंचा कर,
पहचान छिपाना
और अच्छी भली राह से भटक जाना ।

अच्छा रहेगा, अब
शनै:शनै:
अपनी लोलुपता को घटाना,
धीरे धीरे
अपनी अहंकार जनित
जिद को जड़ से मिटाना।
जिससे रोक लग सके
मनुष्य की  अपनी जड़ें भूलने की प्रवृत्ति पर।

बहुत जरूरी है कि
मनुष्य वृक्ष होने से पहले ही
अपना मूल पहचाने,
वह अपनी जड़ों को जाने।

यही सार्थक रहेगा कि आज मानव
विचारों की कंकरियों के ढेर के मध्य
अपनी जीवंतता से साक्षात्कार  कर पाए।
बच्चे
हरेक स्थिति में
ढूंढ़ लेते हैं
अपने लिए ,
कोई न कोई
अद्भुत खेल !

यदि तुम भी
कभी वयस्कता भूल
बच्चे बन पाओ ,
अपना मूल ढूंढ पाओ ,
तो अपने आप
कम होते जाएंगे
कहीं न पहुँचने की
मनोस्थिति से
उत्पन्न शूल।
जीवन यात्रा
स्वाभाविक गति से
आगे बढ़ेगी।
चेतना भी
जीवन में उतार चढ़ावों को
सहजता से स्वीकार करेगी।
मन के भीतर
सब्र और संतोष की
गूँज सुन पड़ेगी।
कभी कहीं कोई कमी
नहीं खलेगी।

बच्चों के
अलबेले खेल से
सीख लेकर
हम चिंता तनाव कम
कर सकते हैं,
अपने इर्द गिर्द और भीतर से
खुशियाँ तलाश सकते हैं ,
जीवन को खुशहाल कर सकते हैं।
१६/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
सन २०२३और २०२४ के दौर में राजनीति
नित्य नूतन खेल ,खेल रही है।  
मेरे शब्दकोश में एक नया शब्द " खेला" शामिल हुआ है। समसामयिक परिदृश्य में राजनीति करने वाले सभी दल
उठा पटक के खेल में मशगूल हैं।
सन २००५ में
लिखे शब्द उद्धृत कर रहा हूँ....,
"इन दिनों
एक अजब खेल खेलता हूँ...
जिन्हें/ मैं/दिल से/चाहता नहीं ,
उनके संग/सुबह और शाम
जिंदगी की गाड़ी ठेलता हूँ!
अपनी बाट मेल ता हूँ।"

आप ही बतलाइए
२००५ से लेकर २०२४ में क्या परिवर्तन हुआ है ?
या बस / व्यक्ति,परिवार,समाज और राजनीति में/
नर्तन ही हुआ है ।
उम्मीद है ,यह सब ज़ारी रहने वाला है।
याद रखें,अच्छा समय आने वाला है।
Joginder Singh Nov 2024
न कर अब
अधिक देर तक
निज को झकझोरती
स्व से ज़ोर आजमाइश।
पता नहीं कब
सपने धूल में मिल जाएं?
अचानक
दम तोड़ दे
सुख से सनी,
रंगों से रंगी,
जीवन की रंगीनियों से सजीं ,
अन्तर्मन से जुड़ीं
ख्वाहिशें।


जीवन अनिश्चित है
सो अब न कर
अपने आप से ज़ोर आजमाइश।
नियंत्रित रहेगा तो ही
पूरी होंगी एक एक करके ख्वाहिशें।
इन ख्वाहिशों और ख्वाबों की खातिर
न बना खुद को,
अब और अधिक शातिर ।
कभी तो बाज आ, स्व नियंत्रण की जद में आ जा।
ज़्यादा हील हुज्जत न कर, खुद को काबू में किया कर।
यह जीवन अपनी शर्तों पर, अपने ढंग से जीया कर।
Joginder Singh Dec 2024
आज
किस से
रखूं आस कि
भूख लगने पर
वह डालेगा घास
मेरे सम्मुख ही नहीं
समय आने पर
खुद के सम्मुख भी...?

सुना है --
सच्चाई छिपती नहीं !
ज़िंदगी डरती नहीं !!

वह सतत अस्तित्व में रहेगी
भले ही मोहरे जाएं बदल !
समय के महारथी तक जाएं पिट !
बेबसी के आलम में
वे हाथ मलते आएं नज़र !
वे पांव पटकते जाएं ग़र्क !!

आज
किस से
रखूं आस कि
प्यास लगने पर
रखेगा कोई मेरे सम्मुख पानी
मेरे आगे ही नहीं ,
खुद के आगे भी...?

देखा महसूसा है --
असंतुष्टि के दौर में
तृप्ति कभी मिलती नहीं ,
तृषा कभी मिटती नहीं ,
तृष्णा कभी संतुष्ट होगी नहीं !
आदमी
खुद को कभी तो
समझे ज़रूर
ताकि तोड़ सके
अपने दुश्मन का गुरूर
आदमी का दुश्मन कोई ग़ैर नहीं
खुद उसका हमसाया है ,
यह भी समय की माया है।
.........
क्यों कि
हम तुम
बने रहते ,  मनचले होकर  , गधे हैं !
जब तक कोई हम पर
चाबुक फटकारता नहीं ,
भला हम सब कभी सधे हैं !
क़दम क़दम पर जिद्दी बनकर
रहते अड़े  और खड़े हैं
कभी न बदलने की ज़िद्द का दंभ पाले हुए।

०२/०८/२००७.
बेहयाई
बेशक मन को ठेस
पहुंचाए
परन्तु
यह समाज में
व्याप्त
गन्दगी और बदबू
जितनी खतरनाक नहीं।
पहले इस की सफ़ाई पर
ध्यान देंगे,
फिर बेहयाई पर
किसी हद तक
रोक लगाएंगे।
तन ,मन,धन की शुचिता
पर अपनी ऊर्जा और ध्यान केंद्रित
करने का प्रयास करेंगे।
अपने को संयमित कर
जीवन शैली को संतुलित कर
मानवीय गरिमा का वरण करेंगे ,
जीवन यात्रा को सार्थक करेंगे
ताकि सब स्व से जुड़ सकें !
आत्मानुसंधान करते हुए आगे बढ़ सकें !!
०६/०५/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
देश दुनिया में से
ग़रीबी
तब तक
नहीं हटेगी ,
जब तक
खुद मुफलिसी से
जूझने वाले
नहीं चाहेंगे ।
वे अपने भीतर
इससे लड़ने का साहस नहीं
जुटायेंगे ।
तभी देश दुनिया
ग़रीबी उन्मूलन अभियान
चला पायेंगे।
वैसे हमारे समय का
कड़वा सच है कि
यदि देश दुनिया में ग़रीबी न रहेगी
तो बहुत से
तथाकथित सभ्य समाजों में
खलबली मच जाएगी ,
उनकी तमाम गतिविधियों पर
रोक लग जाएगी।
सच कहूं तो
दुनिया
जो सरहदों में बंटी हुई है
वह एकीकृत होती नज़र आयेगी।
सब लोगों में
आत्मिक विकास एवं आंतरिक शांति की
ललक बढ़ जाएगी।
देश दुनिया सुख समृद्धि संपन्नता सौहार्दपूर्ण माहौल में
अपने को जागृत करती हुई नजर आएंगी।
ज़ंग की चाहत और आकांक्षा पर
पूर्ण रूपेण रोक लग जाएगी।
यह असम्भव दिवास्वप्न नहीं,
इस ग़रीबी उन्मूलन की दिशा में
सभी एक एक करके बढ़ें तो सही।
२९/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
मुफलिसी के दौर में
ज़िंदगी को
हंसते हंसते हुए जीना
हरदम मुस्कुराते रहना
छोटी छोटी बातों पर
खिलखिलाते हुए
मन को बहलाना
चौड़ा कर देता है सीना ।
ऐसे संघर्षों में
सकारात्मकता के साथ
जीवन को सार्थक दिशा में
आगे ही आगे बढ़ाना
जिजीविषा को दिखाता है।

आदमी का
उधड़ी पतलून को
सीकर पहनना,
फटी कमीज़ में
समय को काट लेना ,
मांग मांगकर
अपना पेट भर लेना,
मजदूरी मिले तो चंद दिनों के लिए
खुशी खुशी दिहाड़ियों को करना,
लैंप पोस्ट की रोशनी में
इधर-उधर से रद्दी हो चुके
अख़बार के पन्नों को जिज्ञासा से पढ़ना ,
उसके भीतर व्यापी जिजीविषा को दर्शाता है।

फिर क्यों अख़बार में
कभी कभी
आदमी के आत्मघात करने,
हत्या, लूटपाट, चोरी, बलात्कारी बनने
जैसी नकारात्मक खबरें
पढ़ने को मिलती हैं ?

आओ ,
आज हम अपने भीतर झांक कर
स्वयं और आसपास के हालात का
करें विश्लेषण
ताकि जीवन में
नकारात्मकता को
रोका जा सके,
जीवन धारा को स्वाभाविक परिणति तक
पहुंचाया जा सके,
उसे सकारात्मक सोच से जोड़कर
आगे बढ़ने को आतुर
मानवीय जिजीविषा से सज्जित किया जा सके।
यह जीवन प्राकृतिक रूप से गतिमान रह सकें ,
इसे अराजकता के दंश से बचाया जा सके।
२६/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
आजकल  
ठंड का ज़ोर है
और
काया होती जा रही
कमज़ोर है।

मैं सर्दी में
गर्मी की बाबत
सोच रहा हूँ ।
हीट कनवर्टर
दे रहा है गर्म हवा की सौगात!
यही गर्म हवा
गर्मी में
देती है तन और मन को झुलसा।
उस समय सोचता था
गर्मी ले ले जल्दी से विदा ,
सर्दी आए तो बस इस लू से राहत मिले,
धूल और मिट्टी घट्टे से छुटकारा मिले।

अब सर्दी का मौसम है,
दिन में धूप का मज़ा है
और रात की ठिठुरन देती लगती अब  सज़ा है।
धुंध का आगाज़ जब होता है,
पहले पहल सब कुछ अच्छा लगता है,
फिर यकायक
उदासी मन पर
छा जाती है,
यह अपना घर
देह में बनाती जाती है।
गर्मी के इंतजार में
सर्दी बीतने की चाहत मन में बढ़ जाती है।

मुझे गर्म हवाओं का है इंतज़ार
मैं मिराज देखना चाहता हूँ ,
जब तपती सड़क
दूर कहीं
पानी होने की प्रतीति कराती है,
पास जाने पर  
पानी से दूरी  बढ़ती जाती है।
अपने हिस्से तो
बस
मृगतृष्णा ही आती है।
यह जीवन
इच्छाओं की
मृग मरीचिका से
जूझते जूझते रहा है बीत ।
मन के भीतर बढ़ती जा रही है खीझ।

१४/१२/२०२४.
बेशक
आपकी निगाह
कितनी ही
पाक साफ़ हों ,
जाने अनजाने ही सही
यकायक
यदि कोई गुनाह
हो ही जाए तो
यक़ीनन
मन और तन में
तनाव
मतवातर बढ़ता जाता है ,
इस गुनाहगार होने का वज़न
ज़िन्दगी को असंतुलित
करता जाता है।
सच
बोलने से पहले
अपने आप को तोलने से
गुनाह करने के अहसास से
झुके
मन के पलड़े को
संतुलित
करता जाता है।
यह जिंदगी
बगैर मकसद
एकदम बेकार है।
कर्म करना ,
फल की चिंता न करना
जीवन को सार्थकता की ओर
ले जाता है ,
यह निरर्थकता के
अहसास
और गुनाहगार
बनने से भी बचाता है।
ऐसा जीवन ही
हमें जीवन सत्य से
सतत जोड़ता जाता है ,
जीवन पथ को
निष्कंटक बनाता है।
गुनाह का लगातार अहसास
आदमी को
भटकाता रहा है ,
यह मन पर वज़न बढ़ा कर
आत्मविश्वास को
खंडित कर देता है ,
आदमी को
अपरोक्ष ही
दंडित कर देता है।
इस अहसास का शिकार
न केवल कुंठित हो जाता है
बल्कि वह बाहर भीतर तक
कमजोर पड़कर
जीवन रण में हारता जाता है।
१९/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
गुनाह
जाने अनजाने हो जाए
तो आदमी करे क्या?
मन पर
बोझ पड़ जाए
तो आदमी करे क्या?
वो पगला जाए क्या??

आदमी
आदमियत का परिचय दे ।
अपने गुनाह
स्वीकार लें
तो ही अच्छा!
समय रहते
अपने आप को संभाल ले,
तो ही अच्छा!
गुनाह
आदमी को
रहने नहीं देते सच्चा।

यह ठीक नहीं
आदमी गुनाह करे
और चिकना घड़ा बन जाए ।
वह कतई न पछताए
बल्कि चोरी सीनाज़ोरी पर उतर आए
तो भी बुरा,
आदमी
बना रहता ताउम्र अधूरा।
अरे भाई!
तुम बेशक गुनाहगार हो,
पर मेरे दोस्त हो।
मित्र वर, सुनो एक अर्ज़
हम भूले न अपने फ़र्ज़
आजकल भूले जा रहे दायित्व
इनको निभाया जाना चाहिए।
सो समय रहते
हम गलती सुधार लें।

सुन, संभलना सीख
यह जीवन नहीं कोई भीख

यह मौका है बंदगी का,
यह अवसर है दरिंदगी से
निजात पाने का ।
परम के आगे शीश नवाने का।
आओ, प्रार्थना कर लें।
जाने अनजाने जो गुनाह हुए हैं हम से ,
उनके लिए आज प्रायश्चित कर लें ।
अपने सीने के अंदर दबे पड़े बोझ को हल्का कर लें।
   ९/६/२०१६.

Written by
Joginder Singh Nov 2024
वक़्त से पहले
गुनाहगार
कब जागते हैं?
वे तो निरंतर
जुर्म करने,
मुजरिम बनने की खातिर
दिन रात शातिर बने से भागते हैं।

वक़्त आने पर
वे सुधरते हैं,
नेक राह पर
चलने की खातिर
पल पल तड़पते हैं!

कभी कभी
अपने गुनाहों के साए से
लड़ते हैं,
अकेले में सिसकते हैं।

पर वक़्त
उनकी ज़बान पर
ताला जड़
उन्हें गूंगे बनाए रखता है।
सच सुनने की ताकत से
मरहूम रखकर
उन्हें बहरा करता है।

वक़्त आने पर,
सच है...
वे भीतर तक
खुद को
बदल पाते हैं

अक्सर
वे स्वयं को
अविश्वास से
घिरा पाते हैं।
वे पल पल पछताते हैं,
वे दिन रात एक कर के
पाक दामन शख़्स ढूंढते हैं,
जो उन्हें  मुआफ़ करवा सके,
दिल के चिरागों को
रोशन कर सकें,
जीवन के सफ़र में
साथ साथ चल सकें।
आखिरकार
खुद और खुदा पर यक़ीन करना
उनके भीतर आत्मविश्ववास भरता है
जो क़यामत तक  
उनके भीतर जीवन ऊर्जा
बनाए रखता है,
उन्हें जिंदा रखता है,
ताकि वे जी भर कर पछता सकें!
वे खुद को कुंदन बना सकें !!

२१/०४/२००९
Joginder Singh Nov 2024
गुप्त
देर
तक

गुप्त न रहेगा!
यह नियति है !!
विचित्र स्थिति है!
वह सहजता से  
होता है प्रकट
अपनी संभावना को खोकर।


गुप्त
भेद खुल जाने पर
हो जाता है
लुप्त!
न!न! असलियत यह है कि
वह
अपने भेदों को
मतवातर छुपाता आया है
आज अचानक भेद खुलने से
उसका हुआ है अवसान।  
सारे भेद हुए प्रकट यकायक।
भीतर तक शर्मसार!!
अस्तित्व झिंझोड़ा गया!!लगा दंश!!
कोई अंत की सुई चुभोकर,
कर गया बेचैन।
जगा गया गहरी नींद से,
और स्वयं सो गया गहरी  नींद में।
वह मेरा प्रतिबिंब आज अचानक खो गया है ,
जिसे गुप्त के अवसान के
नाम से नई पहचान दे दी तुमने
जाने अनजाने ही सही,हे मेरे मन!
तुम्हें मेरा सर्वस्व समर्पण।! ,हे मेरे प्यारे , न्यारे मन!
Joginder Singh Nov 2024
'खुद को क्या संज्ञा दूं ?
खुद को क्या सजा दूं ?'
कभी-कभी यह सब सोचता हूं ,
रह जाता हूं भीतर तक गुमसुम ।
स्वत: स्व  से पूछता  हूं,
"मैं?... गुमशुदा या ग़म जुदा?"


ज़िंदगी मुखातिब हो कहती तब
कम दर कदम मंजिल को वर ,
निरंतर आगे अपने पथ पर बढ़ ।
अब ना रहना कभी गुमसुम ।
ऐसे रहे तो रह जाएंगी  राहें थम।
ऐसा क्या था पास तुम्हारे ?
जिसके छिटकने से फिरते मारे मारे ।
जिसके  खो जाने के डर से तुम चुप हो ।
भूल क्यों गए अपने भीतर की अंतर्धुन ?


जिंदगी करने लगेगी मुझे कई सवाल।
यह कभी सोचा तक न था ।
यह धीरे-धीरे भर देगी मेरे भीतर बवाल ।
इस बाबत तो बिल्कुल ही न सोचा था।
और संजीदा होकर सोचता हूं ,
तो होता हूं हतप्रभ और भौंचक्का।


खुद को क्या संज्ञा दू ?
क्या सजा दूं बेखबर रहने की ?
अब मतवातर  सुन पड़ती है ,
बेचैन करती अपनी गुमशुदगी की सदा ।
जिसे महसूस कर , छोड़ देता हूं और ज्यादा भटकना।
चुपचाप स्वयं की बाबत सोचता हुआ घर लौट आता हूं ।
जीवन संघर्षों में खुद को
बहादुर बनाने का साहस जुटाऊंगा।
मन ही मन यह वायदा स्वयं से करता हूं ‌।

०२/०१/२००९.
अभी अभी
मोबाइल सन्देश से
पता चला है कि
देश भर में
नवीनतम आंकड़ों के अनुसार  
पहले की तुलना में,
गुरबत में आई है कमी।
कोविड से लड़ने में देश रहा है सफल।
उसका सुफल है देश भर में
ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वालों
की संख्या दिन-प्रतिदिन घट रही है,
फलत: गुरबत में कमी दे
रही है दिखाई ।
आम आदमी की समझ और
जागरूकता
अब तेजी से बढ़ रही है।
अर्थव्यवस्था भी
अब तेजी पकड़ती जा रही है।
ग़रीबों के उत्थान हेतु
सरकार आमजन और सम्पन्न वर्ग के मध्य
एक सेतु की भूमिका निभा रही है।

देश दुनिया और समाज में
कोई कमी न रहे,
देश दुनिया
संसार भर में फैले
भ्रष्टाचार के पोषकों से बचें।
फिर कैसे नहीं लोग
गुरबत छोड़ कर
सुख समृद्धि और सम्पन्नता को वरें ?
इस बाबत हम-सब
सकारात्मक सोच को अपनाकर आगे बढ़ें।
०३/०१/२०२५.
आदमी के इर्द गिर्द
जब अव्यवस्था फैली हो
और उसने विकास को
लिया हो जड़ से जकड़।
हर पल दम घुट रहा हो
तब आदमी के भीतर
गुस्सा भरना जायज़ है ।
उसे प्रताड़ित करना
एकदम नाजायज़ है।

देश अति तीव्र गति से
सुधार चाहता है ,
इस दिशा में
संकीर्ण सोच और स्वार्थ
बन जाते बहुत बड़ी बाधाएं हैं,
जिन्हें लट्ठ से ही साधा जा सकता है।

नाजायज़ खर्चे
अराजकता को
बढ़ावा देते हैं ,
ये विकास कार्यों को
रोक देते हैं।
अर्थ व्यवस्था की
श्वास को
रोकने का
काम करते हैं ,
ये व्यर्थ के अनाप शनाप ख़र्चे
न केवल देश को  
मृत प्रायः करते हैं ,
बल्कि
ये देश को निर्धन करते हैं।
ये देश दुनिया को निर्धन रखने का
दुष्चक्र रचते हैं ,
इसे रोकने का
प्रयास किया जाना चाहिए ,
ताकि देश
विपन्नावस्था से
बच सके ,
आर्थिक दृष्टि से
मजबूती हासिल कर सके।


देश हर हाल में
सुख सुविधा, संपन्नता और समृद्धि को बढ़ाए
इसके लिए सब यथा शक्ति प्रयास करें ,
अन्यथा जीवन नरक तुल्य लगने लगेगा
इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
बस इस डर से
आम और ख़ास आदमी का
गुस्सा करना एकदम जायज़ है,
इस सच से आँखें मूंदे रहना ठीक नहीं।
समय रहते नहीं चेतना , सोए रहना नाजायज है।

अव्यवस्था और अराजकता
अब किसी को बरदाश्त नहीं।
इससे पहले की गुस्सा विस्फोटक बने ,
सब समय रहते अपने में सुधार करें
ताकि देश और समाज पतन के गड्ढे में गिरने से बच सकें।
सब गुस्सा छोड़ शांत मना होकर जीवन पथ पर बढ़ सकें।
१७/०२/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
इन दिनों
चुप हूं।
जुबान अपना कर्म
भूल गई है।
उसको
नानाविध व्यंजन खाने ,
और खाकर चटखारे लगाने की
लग गई है लत!
फलत:
बद  से बद्तर
होती चली गई है हालत !!

इन दिनों
जुबान दिन रात
भूखी रहती है।
वह सोती है तो
भोजन के सपने देखती है ,
भजन को गई है भूल।

पता नहीं ,
कब चुभेगा उसे कोई शूल ?
कि वह लौटे, ढूंढ़ने अपना मूल।

इन दिनों
चुप हूं ।
चूंकि जुबान के हाथों
बिक चुका हूं ,
इसलिए
भीतर तक गूंगा हूं ।

०६/०३/२००८.
दविंदर ने
एक दिन अचानक
पहले पहल
शिवालिक की नीम पहाड़ी इलाके में
भ्रमण करते हुए
दिखाया था एक कीड़ा
जो गोबर को गोल गोल कर
रहा था धकेल।
आज उस का एक चित्र देखा।
उस की बाबत लिखा था कि
यह गोबर की गंध से
होता है आकर्षित
और इसे गोलाकार में
लपेटता हुआ
अपने बिल में ले जाने को
होता है उद्यत
पर गोबर की गेंद नुमा यह गोला
आकार में बिल के छेद से बन
जाता है कुछ थोड़ा सा बड़ा
वह इसे बिल में धकेलने की करता है कोशिशें
पर अंत में थक हार कर
अपनी बिल में घुस जाता है।
इस घटनाक्रम की तुलना
आदमी की अंतरप्रवृत्ति से की गई थी।
इस पर मुझे दविंदर का ध्यान आया था ।
मैंने भी खुद को गोबर की गंध से आकर्षित हुए
कीट की तरह जीवन को बिताया था
और अंततः मैं एक दिन सेवा निवृत्त हो घर लौट आया था
पर मैं ढंग से अपने इकट्ठे किए गोबर के गोले अर्थात् संचित सामान को सहेज नहीं पाया था।
मैं खाली हाथ लौट पाया था
जस का तस गोबरैला बना हुआ सा।
२०/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
कैसे कहूं तुमसे ? , दोस्त!
अब कुछ याद नहीं रहता।
याद दिलाने पर
भीतर
बुढ़ाते जाने का अहसास
सर्प दंश सा होकर
अंतर्मन को छलनी है कर जाता!!


अजब विडंबना है!
निज पर चोट करते
भीतरी कमियों को इंगित करते
कटु कसैले मर्म भेदी शब्द
कभी भुला नहीं पाया।
भले ही यह अहसास
कभी-कभी रुला है जाता।


सोचता हूं ...
स्मृति विस्मृति के संग
जीवन के बियावान जंगल में
भटकते जाना
आदमी की है
एक विडंबना भर ।

आदमी भी क्या करें?
जीवन यात्रा के दौरान
पीछे छूट जाते बचपन के घर ,
वर्तमान के ठिकाने
तो लगते हैं सराय भर !
भले ही हम सब
अपनी सुविधा की खातिर
इन्हें  कहें घर।

२९/१०/२००९.
इस धरा पर
जीवन धारा का
बह निकलना
अपने आप में
लगता है एक करिश्मा।
मैं भी कभी
चमत्कार में
विश्वास नहीं करता था,
मुझे कार्य कारण संबंध खोजना,
और फिर इस सब की बाबत
अपनी धारणा बनाना अच्छा लगता है।
पिछले कुछ अर्से से
देश दुनिया में
असंभव प्रायः को
जीवन में घटित होते देखता हूँ
तो लगता है ,
कहीं निकट ही
चमत्कार घट रहा है,
जो न केवल विस्मित कर रहा है,
बल्कि सोच को भी बदल रहा है,
जिससे सब कुछ बदलाव की ओर बढ़ता लग रहा है।
जीवन यात्रा में चमत्कार घटित होता महसूस हो रहा है।
असंभव का संभावना में बदल कर
दृश्यमान होना चमत्कार ही तो है
जो बुद्धि पर पड़े पर्दे को हटाकर
कभी कभी  परम की जादुई उपस्थिति का
अहसास करा देता है।
चेतना को जगा देता है।
आदमी की सुप्त चेतना का
अचानक अनुभूति बनकर
अपनी प्रतीति कराना
एक चमत्कार से कम नहीं ,
जो आदमी को रख पाता है संतुलित और सही।
जीवन और मरण के घटनाक्रम का
सतत अस्तित्वमान होना ,
आदमी का दुरूह परिस्थितियों में
जिजीविषा के बूते बचे रहना
किसी चमत्कार से कम नहीं।
अनास्था के विप्लव कारी दौर में
आस्था का बना रहना भी
किसी करिश्मे से कम नहीं है जी ,
जो जीवन में जिजीविषा का आभास कराता है,
मृत प्रायः को जीवन देने का चमत्कार कर जाता है।
०६/०४/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
जीवन में
कुछ लोग बिना परिश्रम किए
चर्चित रहना चाहते हैं ।
वे बगैर किए धरे
सुर्ख़ियों में बने रहना चाहते हैं।
भला ऐसा घटित होता है कभी।

उनकी चाहत को
महसूस कर
कभी कभी सोचता हूं कि आजकल
भाड़े के टट्टू
क्यों बनते जा रहे हैं निखट्टू ?
ये दिहाड़ियां करते हुए
कभी कभार
अधिक दिहाड़ी मिलने पर
झट से पाला बदल लेते हैं।
अपने निखट्टूपन को
एक अवसर में बदल जाते हैं।
जिसका काम होता है प्रभावित ,
उसे भीतर तक चिड़चिड़ा बना देते हैं।

उन्हें जब कोई
क्रोध में आकर
भाड़े का टट्टू कहता है ,
तो उनमें बेहिसाब गुस्सा
भर जाता है।
वे तिलमिलाए हुए
उत्पात करने पर
उतारू हो जाते हैं।
वे भाड़े के टट्टू नहीं
बल्कि
टैटू की तरह
दिखाई देना चाहते हैं।
सभी के बीच
अपनी पैठ बनाना चाहते हैं ।
वे हमेशा चर्चाओं में
बने रहना चाहते हैं।
वे इसी चाहत के वशीभूत होकर
जीवन भर भटकते रहते हैं।
आखिरकार थक-हारकर
शीशे की तरह
चकनाचूर होते जाते हैं।

१२/०१/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
चापलूस
कभी भी चले हुए
कारतूस नहीं होते।
जब वे चलते हैं
तो बड़ी तबाही करते हैं ।

यह यक़ीन जानिए।
वे जिसकी की जी हजूरी करते हैं,
उसे ही सब से पहले चलता करते हैं।
चापलूस से बचिए।
अपना काम संभल कर कीजिए।
मेहनतकश को प्रोत्साहित जरूर कीजिए।
उसे समुचित मेहनताना दीजिए।


जो कुछ आप काम करते हैं।
जिनके दम पर आप आगे बढ़ें हैं।
नाम और दाम कमाते हैं।
वह सारा काम कोल्हू के बैल करते हैं,
दिन रात अविराम मेहनत करते हैं।

चापलूस उनकी राह में रोड़े अटकाते हैं,
मौका मिलने पर निंदा चुगली कर उन्हें भगाते हैं।

आप बेशक चापलूसी करने वाले से खुश रहते हैं।
आप यह भी जानते हैं, वह जिंदा बम भी हैं,
पिस्तौल भी हैं और कारतूस भी।
वे चल भी जाते हैं और चलवा भी देते हैं।
आप कभी एक बम , पिस्तौल,कारतूस में बदल जाते हैं।
अपने वफादार को नुक्सान पहुंचा देते हैं,
इसे आप भी नहीं जान पाते।

आप चापलूसों से बच सकें तो बचिए।
कम से कम खुद को तो न एक कठपुतली बनाएं।

हो सके तो चापलूस की जासूसी करवाएं।
उसके खतरनाक मनसूबों से खुद को समय रहते बचाएं।
चापलूस सब को खुश रखते हैं,
बेशक बढ़िया कारगुज़ारी तो कोहलू के बैल ही कर पाते हैं।

निर्णय आप को करना है।
इन बमों ,पिस्तौलों और कारतूसों का क्या करना है ?
ये चापलूस बड़े शातिर और ख़तरनाक हैं।....
...और साथ अव्वल दर्जे के नाकाबिल,नाबरदाश्त, नालायक जी...वे जी,जी, करने वाले उस्ताद भी।
ये उस्तरे से होते हैं,
देखते ही देखते अपने काम को अंजाम दे देते हैं।
ये बड़ों बड़ों को औंधे मुंह गिरा देते हैं जी ।
आजकल
चापलूसी काम नहीं करती।
इस बाबत
आप क्या सोचते हैं ?
ज़रा खुल कर अपनी बात कहिए।
चापलूसी या खुशामद से
जल्दी दाल नहीं गलती।
इससे तो मायूसी हाथ आती है।
आदमी की परेशानी उल्टे बढ़ जाती है।

आज शत्रु के
सिर पर
यदि कोई
छत्र रखना चाहे ,
उसे मान सम्मान की
प्रतीति कराना चाहे
तो क्या यह
संभावना बन
सकती है ?
क्या वह आसानी से
उल्लू बन सकता है ?
कहीं वह तुम्हें ही न छका दे।
चुपके चुपके चोरी चोरी
मिट्टी में न मिला दे।
मन कहता है कि
पहले तो शत्रुता ही न करो,
अगर कोई गलतफहमी की वज़ह से
शत्रु बन ही जाता है
तो सर्वप्रथम उसकी गफलत दूर करने के
भरसक प्रयास करो।
फिर भी बात न बने
तो अपने क़दम पीछे खींच लो।
अपने जीवन को साधना पथ की ओर बढ़ाओ।
सुपात्र को शत्रु से निपटने के लिए
काम पर लगाओ ,
वह किसी भी तरह से
शत्रु से निपट लेगा।
साम ,दाम , दण्ड, भेद से
दुश्मन को अपने पाले में कर ही लेगा।
सुपात्र को सुपारी देने से
यदि कार्य होता है सिद्ध
तो सुपारी दे ही देनी चाहिए।
बस उसे युक्तिपूर्वक काम करने की
हिदायत दे दी जानी चाहिए,
ताकि लाठी भी न टूटे
और काम भी हो जाए।
०८/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
जिंदगी को
चाहने वाले
कभी
जल्दी नहीं करते,
वे तो बस
अपने भीतर
मतवातर
तब तक
सब्र को हैं भरते,
सदा जोश और मस्ती में
हैं हर पल रहते
जब तक
बाहर
कुछ छलक न जाए !

अचानक
आंखों से
कुछ निकल कर
बाहर न आ जाए!

तन मन को नम कर जाए!!
  २५/०४/२०२०
Joginder Singh Nov 2024
कितने चाँद
तुम
ढूंढना
चाहते हो
जीवन के
आकाश में ?
तुम रखो याद
जीने की खातिर
एक चाँद ही काफ़ी है ,
सूरज की तरह
जो मन मन्दिर के भीतर
प्रेम जगाए,
रह रह कर झाँके
जीवन कथा को बाँचे।
और साथ ही
जीवन को
ख़ुशी के मोतियों से
जड़कर
इस हद तक
बाँधे,
कोई भी
जीवन रण से
न भागे।
१०/०१/२००९.
कभी चिकन
खाने वाला नेक भी होगा
ऐसा कभी सोचा नहीं।
अर्से से चर्चा में है
उत्तर पूर्वी हिस्से को
मुख्य भूमि से अलगाने के निमित्त
चूज़े की गर्दन पर
आक्रमण करवाया जाए।
देश की अस्मिता को दबाया जाए।
यही नहीं
विस्तृत बांग्ला देश का सपना भी
अब कुछ विघटनकारी ताकतों द्वारा देखा जा रहा है।
उत्तर पूर्वी भू भाग को आतंक की चपेट में
लाने के प्रयास भी हो रहे हैं।
म्यांमार के विद्रोहियों को भी उकसाया जा रहा है।
क्यों न भारत भी
बांग्ला देश को
उसकी ही जुबान में
उत्तर दे।
उन्हें संदेश मिठाई खाने को विवश करे ।
ताकि  खुद भी
वह चिकन नैक बनने की संभावना से बचे।
वह अकारण शांतिप्रिय देश के
आत्म सम्मान से खिलवाड़ न करे।
किसी देश को खंडित करने के मंसूबों से गुरेज़ करे ।
03/05/2025.
Joginder Singh Dec 2024
मुझ में
कोई कमी है
तो मुझे बता ,
यूं ही
दुनिया के आगे
गा गा कर ,
ढोल पीट पीट कर
मुझे न सता ।

चुगलखोर!
हिम्मत है तो!
बीच मैदान आ !
अब अधिक बातें  न बना।
अपनी खूबियों और कमियों सहित
दो दो हाथ करके दिखा ,
ताकि बचे रह सकें
हम सब के हित !
हम रह सकें सुरक्षित!!
१७/०१/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
चुनाव जनतंत्र का आधार है।
इसमें होना चाहिए सुधार है।
जिन्हें देश से प्यार है,
वह इसमें बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते।
आज चुनाव का जनतंत्र में,
है कोई विकल्प नहीं ।
इसमें ना हो धांधली ,
यह हमारा संकल्प नहीं।
दोस्तों ,चुनाव हमें चुनना सिखाता है।
देश प्रेम की मजबूती दिखलाता है।
चुनो ,चुनो, चुनो ,सही प्रतिनिधि चुनो।
कभी ईमानदार नेता चुनने से ना डरो ।
यदि कोई चुनाव में झूठ ,मकर, फ़रेबी करता है,
उसके खिलाफ धरना प्रदर्शन करो।
कभी भी अपना मत देने से पीछे ना हटो ।
Joginder Singh Nov 2024
चेतना
कभी नहीं कहती
किसी से
कभी भी
कि ढूंढों,
सभी में कमी।
बल्कि वह तो कमियों को  
दूर करती है,
भीतर और बाहर से
दृढ़ करती है।

चेतना ने
कभी न कहा,
  "चेत ना। "
वह तो हर पल
कहती रहती है,
" रहो चेतन,
ताकि तन रहे
हर पल प्रसन्न।"

सुनो,
सदैव जीवन से निकली
जीवंतता की
ध्वनियों को।

खोजो,
अपनी अन्तश्चेतना की
ध्वनियों को,
ताकि हर पल
चेतना के संग
महसूस कर सको,
आगे बढ़ सको,
जीवन धारा से
निकलीं उमंग भरी
तरंगों को,पल पल,
जीवन धारा की कल कल को
सुनकर
तुम निकल पड़ो
साधना के पथ पर
जीव मर्म,युग धर्म
आत्मसात कर
अंतर्द्वंद्वों से दूर रह
स्वयं को तटस्थ कर
महसूस करो
अंतर्ध्वनियों को,  
चेतना की उपस्थिति को।

अब सब कुछ
भूल भाल कर
ढूंढ लो निज की विकास स्थली।
शक्ति तुम्हारे भीतर वास कर रही।
उस की महता को जानो।
सनातन की महिमा का गुणगान करो।
अपने भीतर को  गेरूआ से रंग दो।
नाचो,खूब नाचो।
अपने भीतर को
अनायास
उजास से भर दो।
साथ ही
जीवन के रंगों से
होली खेलकर
अपनी मातृभूमि को
शक्ति से सज्जित कर दो।
ताकि जीवन बदरंग न लगे!
हर रंग जीवन धारा में फबे!!

१७/०७/२०१६.
Joginder Singh Dec 2024
मुस्कराते चेहरे पर
रह रह कर
टिक जाती है नज़र
पर
चेहरे के 'चेहरे' पर
जब सचमुच पड़ती नज़र,
तब हक़ीक़तन
उड़ती चेहरे की मुस्कान!
खोने लगती पहचान !!
मुख पर परेशानी की
लकीरें दिखने लगतीं ।
खूबसूरती बदसूरती में
बदलती है जाती ।
यह मन मस्तिष्क को
बदस्तूर बेंधने लगती।
पल प्रतिपल
ऐसी मनोदशा में
नींद में सेंध लगने लगती !
रातें बेचैनी भरी जाग कर कटतीं!!
दिन में रह रह कर नींद आने लगती!!!
काम करने की कुशलता भी है घटती जाती।
२१/१२/२०१६.
Joginder Singh Dec 2024
वैसे तो चेहरा
अपने आप में
होता है आदमी की पहचान।
पर चेहरा विहीन दुनिया के
मायाजाल में उलझते हुए ,
आज का आदमी है
इस हद तक चाहवान
कि मिले उसे इसी जीवन में
उसकी अपनी खोई हुई पहचान।

जब मन में व्याप्त हो जाएं
अमन के रंग और ढंग,
तब तन की पहचान
चेहरा क्यों रहना चाहेगा बदरंग ?
यह प्रेम के रंग में रंगा हुआ
क्यों नहीं इन्द्रधनुष सरीखा होना चाहेगा ?
वह कैसे नहीं ?
स्वाभाविक तौर पर
प्रियतम की स्वप्निल
उपस्थिति को
इसी लौकिक जीवन में
साकार करते हुए,
तन और मन से
प्रफुल्लित होकर,
नाच नाच कर
अपनी दीवानगी को
अभिव्यक्त करना चाहेगा !
वह खुद को पाक-साफ रखने का
कारण बनना चाहेगा !!
कोई उसे
इसे सिद्ध करने का
मौका तो दे दे,
और धोखा तो कतई न दे।
तभी चेहरा अपनी चिर आकांक्षित
पहचान को खोज पाएगा।
क्या स्वार्थ का पुतला बना
आज का आदमी इसे समझ पाएगा ?
१४/१०/२००६.
Joginder Singh Nov 2024
ज़िंदगी के सफर में
ठोकर लग गई,फलत: चोट लगी।
बेहिसाब दर्द है,रोओ मत,
जीवन धारा के भंवर में
स्वयं को खोओ मत।
ठोकरें और चोटें
जीवन जीने की सीख देती हैं।
जीवन की बहती धारा को बदल देती हैं।
बस! ये तो प्यार, विश्वास,हमदर्दी की मरहम मांगतीं हैं।
जो चोर है
वही करता शोर है,
इस दुनिया में
अत्याचार घनघोर है!
साहस दिखाने का
जब समय आता है,
अपना चोर भाई!
पीछे हट जाता है।
शायद तभी
वह शातिर कहलाता है।
अचानक
भीतर से एक आवाज़ आई
सच को उजागर करती हुई,
"पर ,कभी कभी
सेर को सवा सेर
टकरा जाता है।
वह चुपके से
चकमा दे जाता है,
अच्छे भले को
बेवकूफ़ बना जाता है।"
बेचारा चोर भाई !
मन ही मन में
दुखियाता रहता है,
वह कहां सुखी रह पाता है ?
एक दिन वह चुप ही हो जाता है।
वह शोर करना भूल जाता है।
जब समय आता है,
तब वह वही शोर करने से
बाज़ नहीं आता है।
इसमें ही उसे लुत्फ़ और मज़ा आता है।
वह इसी रंग ढंग से ज़िन्दगी जी कर
टाटा बाय बाय कर जाता है।
उसके जाने के बाद सन्नाटा भी
कुछ उदास हुआ सा पसर जाता है।
वह भी चोर के शोर मचाने का
इंतज़ार करने लग जाता है
कि कोई आए और जीवन को करे साकार।
वह भरपूर जिंदगी जीते हुए
लौटाए
जिन्दगी को
चोरी की हुई
जिंदगी की
लूटी हुई बहार ,
जीवन में लेकर आए
सहज रहकर करना सुधार
और निर्मित करना जीवनाधार।



०२/०३/२०२५.
चोरी करना
नहीं है कोई आसान काम।
यह नहीं कि
कोई चीज़ देखी और चोरी कर ली।
चोरी के लिए जुगत लड़ानी पड़ती है ,
कभी कभी
चोरी और सीनाज़ोरी की नौबत भी
आ जाती है।
इसके लिए
हर ढंग और तरीका अपनाना पड़ता है ,
यही नहीं
घोर अपमान तक सहना पड़ता है।
फिर जाकर
चोरी की वारदात
सफल हो पाती है ,
कभी कभी तो जान भी
सूखती लगती है,
सच में
चोरी करते हुए
कभी कभी तो
उलझन भी होती है।

आज चोरी के क्षेत्र में
बहुत ज़्यादा
प्रतिस्पर्धा हो गई है ,
इसलिए हर पल
चौकस और चौकन्ना
रहना पड़ता है,
तब कहीं जाकर
सफलता होती है मयस्सर।
कभी कभी इसमें रह जाती है कौर कसर ,
मन के भीतर पनपने लगता है डर।
आज चोर को शिकायत है कि
अब बड़े बड़े लोग भी इसमें उतर रहे हैं ,
अपनी किस्मत आजमा रहे हैं।
वे नए नए हथकंडे आजमा रहे हैं।
चोर की भी अपनी एक नैतिकता होती है ,
वे इस पर खरा नहीं उतर पा रहे हैं।
चोरी करने वाले कभी कभी बेवज़ह पकड़े जा रहे हैं,
बस शक की गुंजाइश की वज़ह से !
बेवज़ह की ज़ोर आजमाइश की वज़ह से !
सभी चोर इस बाबत सतर्क हो जाएं !
कभी भी आसानी से पकड़ में न आएं !!
१७/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
देवों को,देवियों को,
छप्पन भोग लगाने का
जीवन के मन मंदिर में
रहा है चलन।
उसका वश चले
तो वह फास्ट फूड को भी
इसमें कर ले शामिल।
वह खुद को नास्तिक कहता है,यही नहीं अराजक भी।
वह जन संवेदना को नकार
बना बैठा है एहसासों का कातिल।
जो दुनिया भर पर कब्जा करना चाहता है।
भविष्य का तानाशाह होना चाहता है।
वह कोई और नहीं, तुम्हारे ही नहीं, सब में मौजूद
घना अज्ञान का अंधेरा है।
इससे छुटकारा पा लोगे
तो ही होगा ज्ञान का सूरज उदित।
मन भी रह पाएगा मुदित।
आदमी के लिए
छप्पन भोग
फास्ट फूड से छुटकारा पा लेना है।
देखिए,कैसे नहीं ,उसकी सेहत सुधरती?
Joginder Singh Nov 2024
अचानक
एकदम से
अप्रत्याशित
चेतन ने आगाह किया
और मुझसे कहा,
" अरे! क्या कर रहे हो?
खुद से क्यों डर रहे हो?
इधर उधर दौड़ धूप कर
छिद्रान्वेषण भर कर रहे हो।
अपना जीवन क्यों जाया कर रहे हो?"
बस तब से मैं बदल गया।
मुझे एक लक्ष्य स्व सुधार का मिल गया।
आओ मिल बैठ कर
अपने समस्त
मनभेद और मतभेद
दूर कर लें।
जीवन में
खुशियों को
भर लें।
वरना जड़ता हमें
लड़ाई की ओर
लेकर जाती रहेगी।
हमें मतवातर
कमज़ोर बनाती रहेगी।
फिर कैसे होगा सुधार ?
आओ सर्वप्रथम
हम जड़ता पर करें प्रहार
ताकि हम जागृत हो सकें ,
एक रहकर जीना सीख सकें।
हम जागरूक बनें ,
जड़ता और निष्क्रियता से लड़ें।
सब समय रहते अवरोध दूर करें।
सब निज की जड़ता से डरें
और समय रहते उसका नाश करें।
सब अपने भीतर
सतत सुधार कर
जड़ता पर प्रहार करें !
स्वयं को चेतना युक्त करें !!
२२/०४/२०२५.
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