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कुछ सार्थक इस वरदान तुल्य जीवन में वरो।
यूं ही लक्ष्य हीन
नौका सा होकर
जीवन धारा में
बहते न  रहो ।
अरे! कभी तो
जीवन की नाव के
खेवैया बनने का प्रयास करो।
तुम बस अपने भीतर
स्वतंत्रता को खोजने की
दृढ़ संकल्प शक्ति भरो।
स्वयं पर भरोसा करो।
तुम स्व से संवाद रचाओ।
निजता का सम्मान करो।
अपने को जागृत करने के निमित्त सक्षम बनाओ।
स्वतंत्रता की अनुभूति
निज पर अंकुश लगाने पर होती है।
अपने जीवन की मूलभूल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए
दूसरों पर आश्रित रहने से
यह कभी नहीं प्राप्त  होती है।
स्वतंत्रता की अनुभूति
स्वयं को संतुलित और जागरूक रखने से ही होती है।
वरना मन के भीतर निरंतर
बंधनों से बंधे होने की कसक
परतंत्र होने की प्रतीति शूल बनकर चुभती है।
फिर जीवन धारा अपने को
स्वतंत्र पथ पर कैसे ले जा पाएगी ?
यह क़दम क़दम पर रुकावटों से
जूझती और संघर्ष करती रहेगी।
यह जीवन सिद्धि को कैसे वरेगी ?
जीवन धारा कैसे निर्बाध आगे बढ़ेगी ?
१०/०१/२०२५.
आदमी
अपने इर्द गिर्द के
घटना चक्र को
जानने के निमित्त
कभी कभी
हो जाता है व्यग्र और बेचैन।
भूल जाता है
सुख चैन।
हर पल इधर उधर
न जाने किधर किधर
भटकते रहते नैन।
यदि वह स्वयं की
अंतर्निहित
संभावनाओं को
जान ले ,
उसका जीवन
नया मोड़ ले ले।
आदमी
बस
सब कुछ भटकना छोड़ कर
खुद को जानने का
प्रयास करे !
ताकि जीवन में
सकारात्मक घटनाक्रम
उजास बन कर
पथ प्रदर्शित कर सके !
मन के भीतर से
अंधेरा छंट सके!!
२५/०२/२०२५.
सबसे मुश्किल है ,
सभी से बना कर रखना।
सबसे आसान है ,
समूह से दूर रखकर ,
खुद को अकेले करना।
सबसे महत्वपूर्ण है ,
लगातार पड़ते व्यवधानों के बावजूद
संवाद स्थापना की
दिशा में आगे बढ़ना।
इसके लिए
अपनी लड़ाई आप लड़ना।
इस सब से अपनी हार की
आशंका को निज से दूर रखना।
इन सब से अपरिहार्य है
जीवन में हरदम मुस्कुराते रहना ,
आलोचना और डांट को
खुशी खुशी सहने के लिए
अपने भीतर हिम्मत और साहस जुटाना।
डांट डपट आलोचना को
जीवन का भोजन समझते हुए
अपना हाजमा दुरुस्त बनाना।

इस जीवन में
सबसे मुश्किल है
खुद को बगैर लक्ष्य के
ज़िन्दा रख पाना।
सबसे आसान है
स्वयं को भूलकर
जीवन की आरामगाह में रहना,
निज को सुरक्षित रखना,
कुछ भी करने से बचना।
सबसे अपरिहार्य है
सबको अपनी मौजूदगी का
बराबर अहसास करवाते रहना।
अपने घर परिवार और समाज के हितों के रक्षार्थ
अपने सर्वस्व को समर्पित कर पाना।
अतः सबके लिए अपरिहार्य है
अपने भीतर की यात्रा करते हुए
सब्र के अमृत कलश को ढूंढते रहना।
असंतोष की अग्नि को
अपने तन और मन से दूर रख पाना,
ताकि आदमी भूल पाएं
जीवन में डरते हुए मरना,
इस अनमोल जीवन को व्यर्थ कर जाना।
इन सबसे महत्वपूर्ण है
सभी का सकारात्मक सोच को वर पाना।
२८/०५/२००५.
Joginder Singh Nov 2024
कभी कभी
अप्रत्याशित घट जाता है
आदमी इसकी वज़ह तक
जान नहीं पाता है,
वह संयम को खुद से अलहदा पाता है
फलत: वह खुद को बहस करने में
उलझाता रहता है,वह बंदी सा जकड़ा जाता है।

कभी कभी
अच्छे भले की अकल घास
चरने चली जाती है
और काम के बिगड़ते चले जाने,
भीतर तक तड़पने के बाद
उदासी
भीतर प्रवेश कर जाती है।
कभी कभी की चूक
हृदय की उमंग तरंग पर
प्रश्नचिन्ह अंकित कर जाती है ।
यही नहीं
अभिव्यक्ति तक
बाधित हो जाती है।
सुख और चैन की आकांक्षी
जिंदगी ढंग से
कुछ भी नहीं कर पाती है।
वह स्वयं को
निरीह और निराश,
मूक, एकदम जड़ से रुका पाती है।

कभी कभी
अचानक हुई चूक
खुद की बहुत बड़ी कमी
सरीखी नज़र आती है,
जो इंसान को
दर बदर कर, ठोकरें दे जाती है।
यही भटकन और ठोकरें
उसे एकदम
बाहर भीतर से
दयनीय और हास्यास्पद बनाती है।
फलत: अकल्पनीय अप्रत्याशित दुर्घटनाएं
सिलसिलेवार घटती जाती हैं।
   १६ /१०/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
अफवाह
जंगल की आग
सरीखी होती है ,
यह बड़ी तेज़ी से फैलती है
और कर देती है
सर्वस्व
स्वाहा,
तबाह और बर्बाद ।
यह कराती है
दंगा फ़साद।

आज
अफवाह का बाज़ार
गर्म है ,
गली गली, शहर शहर ,
गांव गांव
और देश प्रदेश तक
जंगल की आग बनकर
सब कुछ झुलसा रही है ।
अफवाह एक आंधी बनकर
चेतना पर छाती जा रही है ,
यह सब को झुलसा रही है।


इसमें फंसकर रह गया है
विकास और प्रगति का चक्र।
इसके कारण चल रहा है एक दुष्चक्र ,
देश दुनिया में अराजकता फैलाने का।


लोग बंद हुए पड़े हैं
घरों में ,
उनके मनों में सन्नाटा छाया है।
उन्होंने खुद पर
एक अघोषित कर्फ्यू लगाया हुआ है।
सभी का सुख-चैन कहीं खो गया है ।
यहां
हर कोई सहमा हुआ सा  है ।
हर किसी का भीतर बाहर ,तमतमाया हुआ सा है ।
अब हवाएं भी करने लगी हैं सवाल ...
यहां हुआ क्यों बवाल ? यहां हुआ क्यों बवाल ?
छोटों से लेकर बड़ों तक का
हुआ बुरा हाल ! !  हुआ बुरा हाल ! !
आज हर कोई घबराया हुआ क्यों है ?
क्या सबकी चेतना गई है सो ?
हर कोई यहां खोया हुआ  है क्यों ?

यहां चारों ओर
अफ़वाहों का हुआ बाज़ार गर्म है ।
इनकी वज़ह से
नफ़रत का धुआं
आदमी के मनों में भरता जा रहा है ।
यह हर किसी में घुटन भरता जा रहा है ।
इसके घेरे में हर कोई बड़ी तेज़ी से आ रहा है।
इस दमघोटू माहौल में हर कोई घबरा रहा है ।

पता नहीं क्यों ?
कौन ?
कहां कहां से?
कोई
मतवातर
अफ़वाहों के बूते
अविश्वास , आशंका, असहजता के
काले बादल फैलाता जा रहा है ।
सच यह है कि
आत्मीयता और आत्मविश्वास
मिट्टी में मिलते जा रहे हैं ।

आज अफ़वाहों का बाज़ार गर्म है।
कहां लुप्त हुए अब
मानव की सहृदयता और मर्म हैं ?
न बचे कहीं भी अब ,शर्म ,हया और धर्म हैं ।
०२/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
अब बेईमान बेनकाब कैसे होगा ?
इस बाबत हमें सोचना होगा।

लोग बस पैसा चाहते हैं,
इस भेड़ चाल को रोकना होगा।

देखा देखी खर्च बढ़ाए लोगों ने ,
इस आदत को अब छोड़ना होगा।

चालबाज आदर्श बना घूमता है ,
उसके मंसूबों को अब तोड़ना होगा।

झूठा अब तोहमतें  लगा रहा ,
उसे सच्चाई से जोड़ना होगा।

आतंक सैलाब में बदल गया ,
इसका बहाव अब मोड़ना होगा।

लोभ लालच अब हमें डरा रहा,
हमें सतयुग की ओर लौटना होगा।

सब मिल कर करें कुछ अनूठा,
हमें टूटे हुओं को जोड़ना होगा।
Joginder Singh Nov 2024
अदालत के भीतर बाहर
सच के हलफनामे के साथ
झूठ का पुलिंदा
बेशर्मी की हद तक
क़दम दर क़दम
किया गया नत्थी!
सच्चे ने देखा , महसूसा , इसे
पर धार ली चुप्पी।
ऐसे में,
अंधा और गूंगा बनना
कतई ठीक नहीं है जी।

यदि तुम इस बाबत चुप रहते हो,
तो इसके मायने हैं
तुम भीरू हो,
हरदम अन्याय सहने के पक्षधर बने हो।
इस दयनीय अवस्था में
झूठा सच्चे पर हावी हो जाता है।
न्यायालय भी क्या करे?
वह बाधित हो जाता है।
अब इस विकट स्थिति में
मजबूरी वश
सच्चे को झुकना पड़ता है।
बिना अपराध किए सज़ा काटनी पड़ती है।

क्या यही है सच्चे का हश्र और नियति ?
बड़ी विकट बनी हुई है परिस्थिति।
सोचता हूं कि अब हर पल की यह चुप्पी ठीक नहीं।
इससे तो बस चहुं ओर उल्टी गंगा ही बहेगी।
अब तुम अपनी आवाज़ को
बुलंद बनाने की कोशिशें तेज़ करो।
सच के पक्षधर बनो, भीतर तक साहसी बनो।
छद्म धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा उतार फेंको।
० ४/०८/२००९.
Joginder Singh Dec 2024
बस हमने अब तक
जीवन में विवाद ही किया है ,
ढंग से अपना जीवन कहां जिया है ?
यह अच्छा है और वह बुरा है !
छोटी-छोटी बातों पर ही ध्यान देकर
खूब हल्ला गुल्ला करते हुए
जीवन में व्यर्थ ही शोरगुल किया है।
समय आ गया है कि हम परस्पर सहयोग करते हुए
अपनी समझ को सतत् बढ़ाएं ।
जीवन धारा में निरुद्देश्य न बहे जाएं ,
बल्कि समय रहते अपने समस्त विवाद सुलझाएं।
आओ आज हम सब मिलकर जीवन से संवाद रचाएं।

अब तक बेशक हम अपने अपने दायरे में सिमटे हुए ,
एक बंधनों से बंधा , पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों से जकड़ा , जीवन जीने को ही मान रहे थे , जीवन यापन का तरीका।
इस जड़ता ने हम सबको कहीं का नहीं है छोड़ा।

अर्से से हम भटक रहे हैं, उठा-पटक करते हुए ,
करते रहे हैं सामाजिक ताने-बाने को नष्ट-भ्रष्ट अब तक।

आओ हम सब स्वयं पर अंकुश लगाएं।
समस्त विवादों को छोड़, परस्पर  संवाद रचाएं।
जीवन धारा में  कर्मठता का समावेश करते हुए ‌,
स्वयं को सार्थक जीवन की गरिमा का अहसास कराएं।
२७/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
अब तो बस!
यादों में
खंडहर रह गए।
हम हो बेबस
जिन्दगी में
लूटे, पीटे, ठगे रह गए।
छोटे छोटे गुनाह
करते हुए
वक़्त के
हर सितम को सह गए।

पर...
अब सहन नहीं होता
खड़े खड़े
और
धराशाई गिरे पड़े होने के
बावजूद
हर ऐरा गेरा घड़ी दो घड़ी में
हमें आईना दिखलाए,
शर्मिंदगी का अहसास कराए,
मन के भीतर गहरे उतर नश्तर चुभोए
तो कैसे न कोई तिलमिलाए !
अब तो यह चाहत
भीतर हमारे पल रही है,
जैसे जैसे यह जिंदगी सिमट रही है
कि कोई ऐसा मिले जिंदगी में,
जो हमें सही डगर ले जाए।
बेशक वह
रही सही श्वासों की पूंजी के आगे
विरामचिन्ह,प्रश्नचिन्ह,विस्मयादि बोधक चिन्ह लगा दे ।
बस यह चाहत है,
वह मन के भीतर
जीने ,मरने,लड़ने,भटकने,तड़पने का उन्माद जगा दे।
९/६/२०१६.
Joginder Singh Nov 2024
आज कल
इंसान होना बहुत मुश्किल है  
क्यों कि
उसके सामने
मुश्किलें बढ़ाने वाला कल है।
सो, यदि इंसान कहलाना चाहते हो
तो यह भी समझ लो,
तेज भागते समय को
अच्छे से समझ लो।

क्रोध करने से पहले
आदमी के पास
सच सुनने का जिगरा होना चाहिए
और साथ ही
उस के पास
झूठ को झुठलाने का  
हुनर होना चाहिए।

कभी कभार
दिल की जुस्तजू को पीछे रख
खुद से गुफ्तगू करते हुए
दिल को बहलाने का भी
हुनर होना चाहिए।
यदा कदा दिल
बहलाते रहना चाहिए।
उसे हल्के हल्के
मुस्कराते रहना चाहिए।




अब तो
मुस्करा प्यारे
तुझे जीवन भर
अपनों से सम्मान मिलेगा,
जिससे स्वत:
जीवन धारा में निखार दिखेगा।
देश और समाज को
स्वस्थ,साधन, सम्पन्न
संसार मिलेगा।
मुस्करा प्यारे मुस्करा।
अपनी मंजिल की ओर कदम बढ़ा।
१६/०७/२०२२
मन में कोई बात
कहने से रह जाए
तो होती है
कहीं गहरे तक
परेशानी।
कौन करता है
एक आध को छोड़कर
मनमानी ?
असल में है यह
नादानी।
इस दुनिया जहान में
बहुत से हिम्मती
सच का पक्ष
सबके समक्ष
रखने की खातिर
दे दिया करते हैं
अपना बलिदान।
अभी अभी सुनी है
हृदय विदारक
एक ख़बर कि
सच के पुरोधाओं को
पड़ोसी देश में
किया जा रहा है
प्रताड़ित।

यह सुन कर मैं सुन्न रह गया।
अभिव्यक्ति की आज़ादी का पक्षधर
आज चुप क्यों रह गया ?
शायद ज़िन्दगी सबको प्यारी है।
पर यह भी है एक कड़वा सच कि
बिना अभिव्यक्ति की आज़ादी के
सर्वस्व
बन जाया करता
भिखारी है।
यह सब चहुं ओर फैली
अराजकता
क्या व्यक्ति और क्या देश दुनिया
सब पर पड़ जाया करती भारी है।
अभिव्यक्ति की आज़ादी पर बंदिशें लगाना
आजकल बनती जा रही
देश दुनिया भर में व्याप्त
एक असाध्य बीमारी है।
१५/०१/२०२५.
आज गुड़िया
पहली बार जा रही है
गुरु की नगरी
अमृतसर
वहां वह अपने साथियों के साथ
भगत पूर्ण सिंह की
कर्मस्थली जाएगी।
अपने भीतर
वंचितों , शोषितों , अपाहिजों के
प्रति करुणा और सद्भावना की
अमृत बूंदें लेकर आएगी ,
अपने भीतर संवेदना का
अमृत संचार लेकर आएगी।

पहली बार
जब मैं दरबार साहिब गया था
तो मुझे वहां दिव्य अनुभूति हुई थी।
उम्मीद है कि
गुड़िया वहां से दिव्य दृष्टि लेकर आएगी ,
सच्चा इंसान बनकर
अपना जीवन सेवा कार्यों में लगाएगी।

वहीं जालियां वाला बाग भी है
देश की आज़ादी में
एक विलक्षण घटना का साक्षी।
एक देशभक्तों का वध स्थल
जिसने देश समाज और दुनिया को
दिया था झकझोर !
और फिर जल्दी आई थी
आज़ादी की भोर !

वहीं पास ही है
दुर्ग्याना मंदिर
जहां बहता है
आस्था का सैलाब
जिससे जीवन में
आ सकता है ठहराव
आदमी समय के बहाव को
महसूस कर
जीवन में
आगे बढ़ने का निश्चय कर
बना सकता है स्वयं को
समाजोपयोगी और निडर।

गुड़िया
आज अभी अभी गई है
पावन नगरी
अमृतसर।
उम्मीद है कि
वह जीवन के लिए
वहां से
उपयोगी
जीवन दृष्टि संचित करके आएगी,
अपने जीवन को सार्थकता से
जोड़ पाएगी ,
स्वयं को सकारात्मक बनाएगी।
२०/०२/२०२५.
लुच्चे को अच्छी लगती है
अय्याशी।
यह वह राह है
जहां आदमी क्या औरत
सीख ही जाता
करना बदमाशी।
आज कल गलत रास्ते पर
लोग
देखा-देखी
चल पड़ते हैं ,
बिन आई मौत को
जाने अनजाने
चुन लेते हैं ,
अचानक
गर्त में गिर पड़ते हैं ,
किरदार को
भूल कर
अपने भीतर का
अमन चैन गंवा दिया करते हैं।
वे दिन रात नंगे होने से ,
भेद खुलने से
हरदम डरते हैं।
नहीं पता उन्हें कि
कुछ लोग मुखौटा पहने हुए
उन्हें नचाते हैं ,
उन्हें भरमाते हैं।
वे सहानुभूति की आड़ में
चुपचाप हर पल शोषण कर जाते हैं।
अच्छा है
जीवन में
कभी कभी
बेहयाई की चादर ओढ़ लो
ताकि जीवन भर
कठपुतली न बने रहो
और
देर तक शोषित व वंचित न बने रहो।
कम से कम अपना जीवन
अपनी शर्तों पर जी सको।
यूं ही पग पग पर न डरो।
कभी तो बहादुरी से जीओ।
दोस्त ,
यदि संभव हो तो
अय्याशी से बचो ,
अपनी संभावना को न डसो
क्यों कि
आदमी को
एक अवगुण भी
अर्श से
गिरा देता है ,
उसकी हस्ती को
फर्श पर पहुंचा देता है।
यह नाम ,पहचान ,वजूद को
मिट्टी में मिला देता है।


०६/०५/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
कभी
किसी
चिड़िया को
चिड़चिड़ाते
देखा है?
नहीं तो!
फिर तो तुम
दिल से चहका करो।
कभी बहका न करो।
ओ चिड़चिड़े! ओए...चि...डे...
भीतर कुछ कुढ़न हुई ,
जैसे अचानक चुभे सूई ।

अचानक
घर के आंगन में
एक चिड़िया कीट खाती हुई
दिख पड़ी।
लगा मुझे कि वह
मुझसे कह रही है,..
'अरे चिड़चिड़े !चहक जरा।
चहकने से , जीवन रहता, महक भरा।
एकदम चहल पहल भरा।'

यह सब मेरा भ्रम था।
शायद मन के भीतर से
कोई चिड़िया चहक उठी थी।
मेरी उदासीनता कुछ खत्म हुई थी ।
मैंने अपने मन की आवाज जो सुन ली थी ।

मैंने अपनी आंखें खोलीं।
घर के आंगन में धूप खिली थी।
वह चिड़िया किसी कल्पना लोक में चली गई थी।

१९/०६/२०१८.
Joginder Singh Nov 2024
झूठ बोलने वाला,
मुझे कतई भाता नहीं ।
ऐसा व्यक्ति मुझे विद्रूप लगता रहा है।
उससे बात करना तो दूर,
उसकी उपस्थिति तक को मैंने
बड़ी मुश्किल से सहा है।

उसका चलना ,फिरना ,नाचना,भागना।
उसकी सद्भावना या दुर्भावना ।
सब कुछ ही तो
मेरे भीतर
गुस्सा जगाती रही हैं।

आज अचानक एहसास हुआ,
कई दिनों से वह
नज़र नहीं आया !
इतना सोचना था कि
वह झट से मेरे सामने
हंसता ,मुस्कुराता, खिलखिलाता आ गया।
मुझ से बोला वह,
"अरे चुटकुले! आईना देख ।
मैं चेहरा हूं तेरा।
मुझसे कब तक नज़र चुरायेगा?
मुझे कदम-कदम पर
अनदेखा करता जाएगा।
झूठ बोलना आजकल ज़रूरी है
आज बना है यह युग धर्म,
कि चोरी सीनाज़ोरी करने वाले
जीवन में आगे बढ़ते हैं!
सत्यवादी तो बस यहां!
दिन-रात भूखे मरते हैं!
सो तू भी झूठ बोला कर,
जी भरकर कुफ्र तोला कर।"

मुझे अपना नामकरण अच्छा लगा था।
आईने को देख मेरा चेहरा खिल उठा था।
आईना भी मुझे इंगित कर बोल उठा था,
"अरे चुटकुले! अपना चेहरा देख।
रोनी सूरत ना बनाया कर।
खुद को कभी चुटकुला ना बनाया कर।
कभी-कभी तो अपना जी बहलाया कर।
किसी में कमियां ना ढूंढा कर,
बल्कि उनकी खूबियों को ढूंढ कर,
सराहा  कर।
उनसे ईर्ष्या भूल कर भी न किया कर।
कभी तो खुलकर जीया कर।
तब तू नहीं लगेगा जोकर।"
यह सब सुनकर मुझे अच्छा लगा।
मैंने खुद को हल्का-फुल्का महसूस किया।
Joginder Singh Nov 2024
अर्थ
शब्द की परछाई भर नहीं
आत्मा भी है
जो विचार सूत्र से जुड़
अनमोल मोती बनती है!
ये
दिन रात
दृश्य अदृश्य से परे जाकर
मनो मस्तिष्क में
हलचलें पैदा करते हैं,
ये मन के भीतर उतर
सूरज की सी रोशनी और ऊर्जा भरते हैं।


अर्थ
कभी अनर्थ नहीं करता!
बेशक यह मुहावरा बन
अर्थ का अनर्थ कर दे!
यह अपना और दूसरों का
जीना व्यर्थ नहीं करता!!
बल्कि यह सदैव
गिरते को उठाता है,
प्रेरक बन आगे बढ़ाने का
कारक बनता है।
इसलिए
मित्रवर!
अर्थ का सत्कार करो।
निरर्थक शब्दों के प्रयोग से
अर्थ की संप्रेषक
ध्वनियों का तिरस्कार न करो।
अर्थ
शब्द ब्रह्म की आत्मा है ,
अर्थानुसंधान सृष्टि की साधना है ,
सर्वोपरि ये सर्वोत्तम का सृजक है।
ये ही मृत्यु और जीवन से
परे की प्रार्थनाएं निर्मित करते हैं।

तुम अर्थ में निहित
विविध रंगों और तरंगों को पहचानो तो सही,
स्वयं को अर्थानुसंधान के पथ का
अलबेला यात्री पाओगे।
अपने भीतर के प्राण स्पर्श करते हुए
परिवर्तित प्रतिस्पर्धी के रूप में पहचान बनाओगे।
अभी अभी
मोबाइल पर
मैसेज आया कि
आप की प्लान की
वैधता आज समाप्त होनेवाली है।
कृपया रिचार्ज करें।
इसे पढ़ा और सोचा मैंने
कि अवैध की वैधता क्या ?
और करवट बदल कर
मैं सो गया।
अपनी सोच में खो गया !
इस मोबाइल की लत ने
सारी प्राइवेसी छीन ली है।
मेरे डाटा की जानकारी
कहां कहां नहीं पड़ी है ?
कब क्या करता है?
किस किस से चैटिंग करता है ?
किसी ज्योतिषी को
बेशक पता न हो ,
पर सर्विस प्रोवाइडर
सब कुछ जानता है।
मेरा अब कुछ अब खुला है।
अब जो कुछ देखा मैंने,
उसे आधार बना कर
पाठ्य सामग्री मिलती है।
मेरी मर्जी भी अब
घर बाहर कभी कभी चलती है।
आजकल क्या दुनिया
इसी ढर्रे पर आगे बढ़ती है ?
सारी दुनिया ठगी गई लगती है !
निजता ढूंढे नहीं मिलती है !!
११/०४/२०२५.
किसी की शक्ति
यदि छीन जाए
तो वह क्या करे ?
वह बस मतवातर डरे !
ऐसा ही कुछ
पड़ोसी देश के साथ हुआ है।
वह बाहर भीतर तक हिल गया है।

खोखला करता है
बहुत ज़्यादा ढकोसला।
वह भी क्या करे ?
भीतर बचा नहीं हौंसला।
अशक्त किस पर हो आसक्त ?
वह आतंक को दे रहा है बढ़ावा,
इस आस उम्मीद के साथ
ज़ोर आजमाइश करने से
बढ़ जाए उसको मिलने वाला चढ़ावा
वह एक लुटेरा देश है।
धर्म के नाम पर वह अलग हुआ,
कुछ खास तरक्की नहीं कर सका।
यही उसके अंदर का क्लेश है।
अशक्त देश किस पर हो आसक्त ?
क्या धर्म पर या फिर ठीक उल्टा आतंकी मंसूबों पर ?
वह कोई फ़ैसला नहीं कर पा रहा।
इसी वज़ह से खोखला देश
हिम्मत और हौंसला छोड़
आतंक और विघटनकारी ताकतों को
दे रहा मतवातर बढ़ावा।
वह भीतर ही भीतर विभक्त होने की राह पर है।
आज वह हार की कगार पर है।
०५/०५/२०२५.
इस दुनिया का
सब से खतरनाक मनुष्य
अशिष्ट व्यक्ति होता है,

जो अपने व्यवहार से
आम आदमी और ख़ास आदमी तक को
कर देता है शर्मिन्दा।
वह अचानक
सामने वाले की इज्ज़त
अपने असभ्य व्यवहार से
कर देता है तार तार!
सभ्यता का लबादा उतार देता है।
अपने मतलब की जिन्दगी जीता है।

अभी अभी
मेरे शहर के बाईस बी सेक्टर के
भीड़ भरे बाज़ार में
एक शख़्श
अपने दोनों हाथों में
एक तख्ती उठाए
रक्तदान के लिए प्रेरित करते हुए
घर घर गली गली घूमते देखा गया है।
उसकी तख्ती पर लिखा है,
" रक्त दानी विशिष्ट व्यक्ति होता है,
जो प्राण रक्षक होता है।"
यह देख कर मुझे अशिष्ट व्यक्ति का
आ गया है ध्यान !
जो कभी भूले से भी नहीं दे सकता
किसी जरूरतमंद को प्राण दान !
बल्कि वह अपने अहम् की खातिर
बन जाता है शातिर
और हर सकता है
छोटी-छोटी बात के लिए प्राण।

इसलिए मुझे लगता है कि
अशिष्ट व्यवहार करने वाला
न केवल असभ्य बल्कि वह
होता है सबसे ख़तरनाक
जो जीवन में कभी कभी
न केवल अपनी नाक कटा सकता है,
यदि उसका वश चले
तो वह अच्छे भले व्यक्ति को
मौत के घाट उतरवा सकता है।
अशिष्ट व्यक्ति से समय रहते किनारा कीजिए!
खुद को जीवनदान दीजिए !!
०६/०३/२०२५.
चारों तरफ
अफरातफरी है।
लोग
प्रलोभन का होकर
शिकार ,
अनाधिकार
स्वयं को
सच्चा साबित
करने का कर
रहें हैं प्रयास।

अनायास
हमारे बीच
अश्लीलता
विवाद का मुद्दा
बन कर
अपनी उपस्थिति का
अहसास कराती है,
यह अप्रत्यक्ष तौर पर
समाज को
आईना दिखाती है।

हमारे आसपास
और मनों में
क्या कुछ अवांछित
घट रहा है ,
हमें विभाजित
कर रहा है।

कोई कुछ नहीं जानता।
यदि जानता भी तो कुछ भी नहीं कहता
क्योंकि
अश्लील कहे जाने का डर
भीतर ही भीतर
सताने लगता ,
जो सृजित हुआ है
उसे मिटाने को
बाध्य करता।

इर्द गिर्द
आसपास फैल
चुका है
मानसिक प्रदूषण
इस हद तक कि
पग पग पर  
साधारण जीवन स्थिति को भी
अश्लीलता के दायरे में
लाए जाने का खतरा
है बढ़ता जा रहा।
सवाल यह है कि
अश्लील क्या है ?
जो मन पर
एक साथ चोट करे ,
मन को गुदगुदाए और लुभाए ,
अंतरात्मा को भड़काए ,
इसके आकर्षण में
आदमी लगातार
फंसता जाए ,
उससे पीछा न छुड़ा पाए ,
अश्लीलता है।
यह टीका टिप्पणी,
गाली गलौज ,
अभद्र इशारे ,
नग्नता और बगैर नग्नता के
अपना स्थान बना लेती है ,
हमारी जागरूकता का
उपहास उड़ा देती है ,
अकल पर पर्दा डाल देती है।
यह अश्लीलता अच्छे भले को
महामूर्ख बन देती है,
आदमी को माफी मांगने ,
दंडित होने के लिए
न्यायालय की पहुँच में
ले जाती है।
कितना अच्छा हो ,
यदि आदमी के पास
मन को पढ़ने की सामर्थ्य होती
तब अश्लीलता इतनी तबाही मचाने में
असफल रहती ,
जितनी आजकल यह
अराजकता फैला रही है,
अच्छी भली जिंदगियां
इसकी जद में आकर
उत्पात मचाने को
आतुर नज़र आ रही हैं।
सच तो यह है कि
अश्लीलता हमारी सोच में
यदि जिन्दा है
तो इसका कारण
हमारे सोचने और जीवनयापन का तरीका है,
यदि हम प्रेमालाप, अपने यौन व्यवहार पर
नियंत्रण करना सीख जाएं
तो अश्लीलता
हमारे मन-मस्तिष्क में
कोई जगह न बना पाए ,
यह सृजन से जुड़
हमारी चेतना का कायाकल्प कर जाए।

अश्लीलता
आदमी के व्यवहार में
जिंदा रहती है,
आदमी
सभ्यता का मुखौटा
यदि शिष्टाचार वश ओढ़ना सीख ले ,
अश्लीलता विवादित न रह
गौण और नगण्य रह जाती है,
यह समाप्त प्रायः हो जाती है।
यह भी सच है कि
कभी कभी
यह हम सब पर हावी हो जाती है,
और हमारी चेतना को
शर्मसार कर जाती है,
हमें खुद की दृष्टि में
विदूषक सरीखा
और नितांत बौना बना देती है,
हमारी बौद्धिकता के सम्मुख
प्रश्नचिह्न अंकित कर देती है।
अश्लीलता
कभी कभी
हमें दमित और कुंठित सिद्ध करती है ,
यह मानव के चेहरे पर
अप्रत्याशित रूप से
तमाचा जड़ती है।
यह आदमी के जीवन में
तमाशा खड़ा कर देती है ,
उसे मुखौटा विहीन कर देती है,
यह बनी बनाई इज़्ज़त को
तार तार कर दिया करती है।
10/02/2025.
जब आप किसी के
ख़िलाफ़  कुछ कहने का
साहस जुटाने की
ज़ुर्रत करते हैं ,
आप जाने अनजाने
कितने ही
जाने पहचाने और अनजाने चेहरों को
अपना विरोधी बना लेते हैं !
जिन्हें आजकल लोग
दुश्मन समझने की भूल करते हैं !
आज दोस्त बनाने और दुश्मन कहलाने का
किस के पास है समय ?
यदि कभी समय मिल ही जाए
तो क्यों न आदमी इसे अपने
निज के विकास में लगाए ?
वह क्यों किसी से उलझने में
अपनी ऊर्जा को लगाए ?
वह निज से संवाद रचा कर
मन में शान्ति ढूंढने का
करना चाहे उपाय।
आज देखा जाए तो अश्लील कुछ भी नहीं !
क्योंकि आज एक छोटे से बच्चे के हाथ में
मोबाइल फोन दे दिया जाता है ,
ताकि बच्चा रोए न !
मां बाप की आज़ादी में
भूल कर दखल दे न !
जाने अनजाने अश्लीलता बच्चे के अवचेतन में
छाप छोड़ जाती है।
जबकि बच्चे को ढंग से
अच्छे बुरे का विवेक सम्मत फ़र्क करना नहीं आता।

आजकल
इंटरनेट का उपयोग बढ़ गया है,
इसका इस्तेमाल करते हुए
यदि भूल से भी
कुछ गलत टाइप हो जाए
तो कभी कभी अवांछित
आंखों के सामने
चित्र कथा सरीखा मनोरंजक लगकर
अश्लीलता का चस्का लगा देता है ,
जीवन के सम्मुख एक प्रश्नचिह्न लगा देता है।
आज सच को कहना भी अश्लील हो गया है !
झूठ तो खैर अश्लीलता से भी बढ़कर है।
हम अश्लीलता को तिल का ताड़ न बनाएं,
बल्कि अपने मन पर नियंत्रण करना खुद को सिखाएं।
यदि आदमी के पास मन को पढ़ने का हुनर आ जाए ,
तो यकीनन अश्लीलता भी शर्मा जाए ।
भाई भाई के बीच नफ़रत और वैमनस्य भर जाए ।
रामकथा के उपासक भी
महाभारत का हिस्सा बनते नज़र आएं।
क्यों न हम सब सनातन की शरण में जाएं।
वात्स्यायन ऋषि के आदर्शों के अनुरूप
समाज को आगे बढ़ाएं।
हमारा प्राचीन समाज कुंठा मुक्त था।
यह तो स्वार्थी आक्रमणकारियों का दुष्चक्र था,
जिसने असंख्य असमानता की
पौषक कुरीतियों को जन्म दिया,
जिसने हमारा विवेक हर लिया ,
हमें मानवता की राह से भटकने पर विवश कर दिया।
सांस्कृतिक एकता पर
जाति भेद को उभार कर
दीन हीन अपाहिज कर दिया।
अच्छे भले आदमियों और नारियों को
चिंतनहीन कर दिया ,
चिंतामय कर दिया।
सब तनाव में हैं।
आपसी मन मुटाव से
कमज़ोर और शक्तिहीन हो गए हैं।
आंतरिक शक्ति के स्रोत
अश्लीलता ने सुखा दिए हैं,
सब अश्लीलता के खिलाफ़
फ़तवा देने को तैयार बैठे हैं,
बेशक खुद इस समस्या से ग्रस्त हों।
सब भीतर बाहर से डर हुए हैं।
कोई उनका सच न जान ले !
उनकी पहचान को अचानक लील ले !!

अश्लीलता के खिलाफ़
सब को होना चाहिए।
इस बाबत सभी को
जागरूक किया जाना चाहिए।
ताकि
यह जीवन को न डसे !
बल्कि
यह अनुशासित होकर सृजन का पथ बने !!
२८/०२/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
जब तक खग
नभचर बना रहेगा
और
स्वयं के लिए
उड़ने की ललक को
अपने भीतर
ज़िन्दा रखेगा ,
तब तक ही
वह आजीवन  
संभावना के गगन में
स्वच्छंदता से उड़ान भरता रहेगा।
जैसे ही
वह अपने भीतर
उड़ने की चाहत को
जगाना भूलेगा ,
वैसे ही वह
अचानक
जाएगा थक
और
किसी षड्यंत्र का
हो जाएगा शिकार ,
वह खुद को
एक खुली कैद में
करेगा महसूस
और एक परकटे
परिन्दे सा होकर
भूलेगा चहकना ,
कभी
भूले से चहकेगा भी ,
तो अनजाने ही
अपने भीतर
भर लेगा दर्द ,
एकदम भीतर तक
होकर बर्फ़
रह जाएगा उदासीन।

वह धीरे धीरे
दिख पड़ेगा मरणासन्न ,
यही नहीं
वह इस जीवन में
असमय अकालग्रस्त होकर
कर जाएगा प्रस्थान।

क्या
तुम अब भी
उसे
किसी दरिन्दे
या फिर
किसी बहेलिए के
जाल में फंसते हुए
देखना चाहते हो ?
उसकी अस्मिता को ,
आज़ाद रहकर
निज की संभावना को तलाशते
नहीं ‌देखना चाहते हो ?

०४/०८/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
आज
देश नियंता पर
लगा रहा है कोई आरोप
तानाशाह होने का ।

उसे नहीं है पता ,
देश दुनिया संक्रमण काल से गुजर रही ।
बदमाश
सदाशयता पर हावी
होना चाहते हैं ,
उसे
घर की दासी समझते हैं ।
देश की बागडोर संभालना,
नहीं कोई है सरल काम,
इसकी राह में
मुश्किलें आती हैं तमाम ,
अगर उनसे ना सुलझा जाए,
तो अपूर्ण रह जाते सारे काम।
मुझे कभी-कभी
अपना पिता भी एक तानाशाह
जैसा लगता है ।
पर नहीं है वह एक तानाशाह ,
इस सच को हर कोई जानता है !
जानबूझकर अपनी अकड़ दिखाता है !!
जनता में सत्ताधारी की गलत छवि बनाता है।
संविधान खतरे में है ,जैसी बातें कहकर
जनता जनार्दन को मूर्ख बनाता है ।
क्या ऐसा करना
विपक्षी नेता को
सत्ता का सिंहासन दिला पाता है ?
बल्कि
ऐसा करने वाला
देश को गर्त में  पहुंचाता है।
वह आरोप लगाने से पहले
अपने  गिरेबान में झांके ।
तत्पश्चात
सत्ता के नेतृत्व कर्ता को
तानाशाह  कहे ,
अपनी तानाशाही पर नियंत्रण करे।

आज असली तानाशाह
आरोप लगाने वाले हैं।
क्या ऐसा कर के
वे सत्ता के नटवरलाल
बनना चाहते हैं ?
मुझे बताओ।
आज मुझे बताओ।
असली तानाशाह कौन?
सत्ता पर काबिज व्यक्ति
या फिर आरोप लगाने वाला,
एक झूठा  नारेटिव सेट करने वाला ?
मुझे बताओ। मुझे बताओ ।मुझे बताओ।
असली तानाशाह कौन ?
यदि इसका उत्तर पास है आपके,
शीघ्रता से मुझे बताओ।
अन्यथा गूंगे बहरे हो जाओ।
अब और नहीं
जीवन को उलझाओ।
Joginder Singh Nov 2024
गर्मी में ठंड का अहसास
और
ठंड में गर्मी का अहसास
सुखद होता है,
जीवन में विपर्यय
सदैव आनंददायक होता है।

ठीक
कभी कभी
गर्मी में तेज गर्मी का अहसास
भीतर तक को जला देता है,
यह किसी हद तक
आदमी को रुला देता है।
देता है पहले उमस,
फिर पसीने पसीने होने का अहसास,
जिंदगी एकदम बेकार लगती है,
सब कुछ छोड़ भाग जाने की बातें
दिमाग में न चाहकर भी कर जातीं हैं घर,
आदमी पलायन
करना चाहता है,
यह कहां आसानी से हो पाता है,
वह निरंतर दुविधा में रहता है।
कुछ ऐसे ही
ठंड में ठंडक का अहसास
भीतर की समस्त ऊष्मा और ऊर्जा सोख
आदमी को कठोर और निर्दय बना देता है,
इस अवस्था में भी
आदमी
घर परिवार से पलायन करना चाहता है,
वह अकेला और दुखी रहता है,
मन में अशांति के आगमन को देख
धुर अंदर तक भयभीत रहता है।
उसका यह अहसास कैसे बदले?
आओ, हम करें इस के लिए प्रयास।
संशोधन, सहिष्णुता,साहस,नैतिकता,सकारात्मकता से
आदमी के भीतर बदलते मौसमों को
विकास और संतुलित जीवन दृष्टि के अनुकूल बनाएं।
क्यों उसे बार बार थका कर
जीवन में पलायनवादी बनाएं?

ठंड में गर्मी का अहसास,
गर्मी में ठंड का अहसास,
भरता है जीवों के भीतर सुख।
इसके विपरीत घटित होने पर
मन के भीतर दुःख उपजता है ।
यह सब उमर घटाता है,
इसका अहसास आदमी को
बहुत बाद में होता है।
सोचता है रह रह कर, भावों में बह बह कर
कि अब पछताए क्या होत ,जब चिड़िया चुग गईं खेत।
Joginder Singh Nov 2024
प्रिया!

मैं
तुम्हारे
मन के भावों को चुराकर,
तुम्हारे
कहने से पहले,
तुम्हारे
सम्मुख व्यक्त करना चाहता हूँ।
..... ताकि
तुम्हारी
मुखाकृति पर
होने वाले प्रतिक्षण  
भाव परिवर्तन को
पढ़ सकूँ ,
तुम्हें  हतप्रभ
कर सकूँ ।

तुम्हारे भीतर
उतर सकूँ ।
तुम्हारी और अपनी खातिर ही
बेदर्द ,  बेरहम दुनिया से
लड़ सकूँ ।


तुम्हारा ,
अहसास चोर !!

८/६/२०१६..
अहं जरूरी है
मगर
इतना भी
जरूरी नहीं कि
वह सही को
करने लगे
मटिया मेट।
अहंकार भरा मन
कभी न कभी
आदमी को
औंधे मुंह गिरा देता है ,
वह भटकने के लिए
कभी भी कर सकता है बाध्य।
फिलहाल इसे कर लो साध्य
ताकि गंतव्य तक
बिना किसी बाधा के
पहुंच सको ,
जीवन धारा के
अंग संग बह सको।
जीवन में
उतार चढ़ाव और कष्टों को
चंचल मन के भीतर
संयम भर कर सह सको।
अहंकार भरे मन पर काबू
सहिष्णु बन कर पाया जाता है ,
सतत प्रयास करते हुए
निज को
जीवन रण में
विजयी बनाया जाता है ,
जीवन को उत्कृष्टता का
संस्पर्श कराया जाता है ,
इसे सकारात्मक और सार्थक दिशा देकर
सुख समृद्धि और सम्पन्नता
भरपूर बनाया जा सकता है।
अंहकार भरा मन
किसी काम का नहीं ,
बल्कि इसे
विनम्रता से
जीवन में आगे बढ़ने की
दो सीख
ताकि यह सके रीत ,
खुद को खाली कर
रख सके स्वयं को ठीक।
वरना पतन निश्चित है !
जीवन में भय का आगमन
कर ही देगा
एक दिन
सर्वस्व को असुरक्षित।
फिर कैसे रख पाएंगे हम सब
संस्कृति व संस्कारों को
संरक्षित और संवर्धित?
२१/०४/२०२५.
मेरा पुत्र
जो है पूरा देसी
पर नाम है जिसका
अंग्रेज सिंह।
कुछ समय पहले
ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जाने की
थी जिसकी ख्वाइश!
बहुत सारा धन कमाने का
था जिसका ख्वाब!
घर पर अपने ही ढंग से रहता था ।
जिस का रहन सहन
उसके मां बाप को तनिक नहीं भाता था।
आजकल थोड़ा अक्लमंद बन गया है।

जब से अमेरिका से
मेरे भारतीय भाई लोग
डोनाल्ड ट्रंप की
अमेरिका फर्स्ट की
नीति की वज़ह से
भारत वापसी को हुए हैं
मजबूर !
जो अच्छे मज़दूर और
कामयाब व्यापारी बनने की
योग्यता रखते हैं !
उम्मीद है
वे अब सही राह चलेंगे ,
भारत की तरक्की के लिए
दिन रात उद्यम करेंगे !
भारत को
भारत प्रथम की नीति पर
चलने की राह दिखा कर
फिर से
सुख , समृद्धि और संपन्नता की
ओर ले जाने का प्रयास करेंगे।

अंग्रेज सिंह
अब भारत में रहकर
अपना काम धंधा जमाना चाहता है,
वह ज़माने के पीछे न भाग
अपना दिमाग लगा
जीवन में
कुछ करना चाहता है ,
मेहनत कर के कुछ निखरना चाहता है।

अपने अंग्रेज सिंह के
दादा स्वदेश सिंह
अब उसे कहते हैं कि
अंग्रेज !तुम इतना धन संचित करो
कि डोनाल्ड ट्रंप के देश ही नहीं ,
दुनिया भर के देशों में
टूरिस्ट बन सैर सपाटा करो।
उनकी आर्थिकता को अपने ढंग से बढ़ाओ।
यह नहीं कि विदेश से शर्मिंदा हो कर
अपने देश में लौट के आओ।
बल्कि अपने साथ
एक विदेशी नौकर
मेहनत मशक्कत करने के लिए
लेकर आओ।
भारत का आदर और सम्मान
फिर से बढ़ाओ।
२०/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
अब अक्सर
भीतर का चोर
रह रहकर
चोरी को उकसाता है,
शॉर्टकट की राह से
सफलता के स्वप्न दिखाता है
पर...
विगत का अनुभव
रोशन होकर
ईमानदार बनाता है।
वह
चोरी चोरी
चुपके चुपके
हेरा फेरी के नुकसान गिनाता है!
अनुशासित जीवन से जोड़ पता है!!



भीतर का चोर
अपना सा मुंह लेकर रह जाता है।
बावजूद इसके
वह शोर मचाता है ,
देर तक चीखता चिल्लाता है।
अंतर् का चोर
भीतर की शांति भंग करना चाहता है।
जब उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है,
तब वह थक हार कर सो जाता है।
अच्छा है वह सोया रहे,
भीतर का चिराग जलता रहे ,
जीवन अपनी रफ्तार से आगे बढ़ता रहे!
बाहर भीतर चिंतन व्यापा रहे!
मन के भीतर सदैव शांति बनी रहे!
अंतर्मन में शुचिता बनी रहे!!
अंतर्मन का चोर सदैव असफल रहे।
Joginder Singh Nov 2024
शक की परिधि में आना
नहीं है कोई अच्छी बात,
यह तो स्वयं पर
करना है आघात।

अतः जीवन में
आत्महंता व्यवहार
कभी भी न करो,
अपने मन को काबू में करो।
अपने क्रिया कलापों को
शुचिता केन्द्रित बनाओ।
अपने नैतिकता विरोधी
व्यहवार को छोड़ दो।
खुद को संदिग्ध होने से बचाओ।
शक की परिधि में आने से खुद को रोको।
एक संयमित जीवन जीने का आगाज़ करो।

तुम सब अपना जीवन
कीचड़ में पले बढ़े
पुष्पित पल्लवित हुए
कमल पुष्प सा व्यतीत करो।

आज के प्रलोभन भरपूर
जीवन में शुचिता को अपनाओ।
यह मन को शुद्ध बनाती है।
यह व्यक्ति को प्रबुद्ध कर
मन के भीतर कमल खिला कर
जीवन को
जीवन्त और आकर्षण भरपूर
बनाती है,
यह शुचिता
व्यक्ति के भीतर
सकारात्मकता के बहुरंगी पुष्पों को
खिलाती है।

मित्र प्यारे,
तुम अपने भीतर
शुचिता के कमल खिलाओ। ताकि तुम स्वत:
जीवन को साधन संपन्नता का
उपहार दे पाओ ।
जीवन में
लक्ष्य सिद्धि तक
सुगमता और सहजता से
पहुंच पाओ।

दोस्त,
तुम अपने भीतर
शुचिता के कमल खिलाओ।
अंतर्मन में परम की अनुभूति कर पाओ।
  २८/११/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
बहुत बार
नौकर होने का आतंक
जाने अनजाने
चेतन पर छाया है ,
जिसने अंदर बाहर
रह रहकर तड़पाया है ।

बहुत बार
अब और अधिक समय
नौकरी न करने के ख़्याल ने ,
नौकर जोकर न होने की ज़िद्द ने
दिल के भीतर
अपना सिर उठाया है ,
इस चाहत ने
एक अवांछित अतिथि सरीखा होकर
भीतर मेरे बवाल मचाया है ,
मुझे भीतर मतवातर चलने वाले
कोहराम के रूबरू कराया है।


कभी-कभी कोई
अंतर्घट का वासी
उदासी तोड़ने के निमित्त
पूछता है धीरे से ,
इतना धीरे से ,
कि न  लगे भनक ,
तुम्हारे भीतर
क्या गोलमाल चल रहा है?
क्यों चल रहा है?
कब से चल रहा है?

वह मेरे अंतर्घट का वासी
कभी-कभी
ज़हर सने तीर
मेरे सीने को निशाना रख
छोड़ता है।
और कभी-कभी वह
प्रश्नों का सिलसिला ज़ारी रखते हुए ,
अंतर्मन के भीतर
ढेर सारे प्रश्न उत्पन्न कर
मेरी थाह  लेने की ग़र्ज से
मुझे टटोलना शुरू कर देता है ,
मेरे भीतर वितृष्णा पैदा कर देता है ।


मेरे शुभचिंतक मुझे  अक्सर ‌कहते हैं ।
चुपचाप नौकरी करते रहो।
बाहर बेरोजगारों की लाइन देखते हो।
एक आदर्श नौकरी के लिए लोग मारे मारे घूमते हैं।
तुम किस्मत वाले हो कि नौकरी तुम्हें मिली है ।

उनका मानना है कि
दुनिया का सबसे आसान काम है,
नौकरी करना, नौकर बनना।
किसी के निर्देश अनुसार चलना।
फिर तुम ही क्यों चाहते हो?
... हवा के ख़िलाफ़ चलना ।

दिन दिहाड़े , मंडी के इस दौर में
नौकरी छोड़ने की  सोचना ,
बिल्कुल है ,
एक महापाप करना।

जरूर तेरे अंदर कुछ खोट है ,
पड़ी नहीं अभी तक तुझ पर
समय की चोट है, जरूर ,जरूर, तुम्हारे अंदर खोट है ।
अच्छी खासी नौकरी मिली हुई है न!
बच्चू नौकरी छोड़ेगा तो मारा मारा फिरेगा ।
किसकी मां को मौसी कहेगा ।
तुम अपने आप को समझते क्या हो?

यह तो गनीमत है कि  नौकरी
एक बेवकूफ प्रेमिका सी
तुमसे चिपकी हुई है।
बच्चू! यह है तो
तुम्हारे घर की चूल्हा चक्की
चल रही है ,
वरना अपने आसपास देख,
दुनिया भूख ,बेरोजगारी ,गरीबी से मर रही है ।

याद रख,
जिस दिन नौकरी ने
तुम्हें झटका दे दिया,
समझो जिंदगी का आधार
तुमने घुप अंधेरे में फेंक दिया।
तुम सारी उम्र पछताते नज़र आओगे।
एक बार यह छूट गई तो उम्र भर पछताओगे।
पता नहीं कब, तुम्हारे दिमाग तक
कभी रोशनी की किरण पहुंच पाएगी।

यदि तुमने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी,
तो तुम्हारी कीमत आधी भी न रह जाएगी ।
यह जो तुम्हारी आदर्शवादी सोच है न ,
तुम्हें कहीं का भी नहीं छोड़ेगी।
न रहोगे घर के , न घाट के।
कैसे रहोगे ठाठ से ?
फिर गुजारा चलाओगे बंदर बांट से ।


इतनी सारी डांट डपट
मुझे सहन करनी पड़ी थी।
सच! यह मेरे लिए दुःख की घड़ी थी।
मेरी यह चाहत धूल में मिली पड़ी थी।

मेरे अंतर्मन ने भी मुझे डांट लगाई।
उसने कहा,"अरे नासमझ! अपनी बढ़ती उम्र का
कुछ तो ख्याल कर,
बेवजह तू बवाल न कर।
नौकरी छोड़ने की सोच कर,
तूं भर लेगा अपने अंदर डर।
मारा  मारा फिरेगा डगर डगर।
अपनी नहीं तो
घरवाली और बच्चों की फ़िक्र कर ।

तुमसे तो
चिलचिलाती तेज धूप में
माल असबाब से भरी रिक्शा,
और उसे पर लदी सवारियां तक
ढंग से खींचीं न जाएगी।
यह पेट में जो हवा भर रखी है,
सारी पंचर होकर
बाहर निकल जाएगी।
फिर तुम्हें शूं शूं शूं  शू शूंशूंश...!!!
जैसी आवाज ही सुनाई देगी ,
तुम्हारी सारी फूंक निकल जाएगी।
हूं !बड़ा आया है नौकरी छोड़ने वाला !
बात करता है नौकरी छोड़ने की !
गुलामी से निजात पाने की!!
हर समय यह याद रखना ,....
चालीस साल
पार करने के बाद
ढलती शाम के दौर में
शरीर कमज़ोर हो जाता है
और कभी-कभी तो
यह ज़वाब देने लगता है।
इस उम्र में यदि काम धंधा छूट जाए,
तो बड़ी मुश्किल होती है।
एक अदद नौकरी पाने के लिए
पसीने छूट जाते हैं।


यह सच है कि
बाज़ दफा
अब भी कभी-कभी
एक दौरा सा उठता है
और ज्यादा देर तक
नौकरी न करने का ख़्याल
पागलपन, सिरफ़िरेपन की हद तक
सिर उठाता है ।
पर अलबेला अंतर्घट का वासी वह
कर देता है करना शुरू,
रह रहकर, कुछ उलझे सुलझे सवाल ।
वह इन सवालों को
तब तक लगातार दोहराता है,
जब तक मैं मान न लूं उससे हार ।
यही सवाल
मां-बाप जिंदा थे,
तो बड़े प्यार और लिहाज़ से
मुझसे पूछा करते थे।
वे नहीं रहे तो अब
मेरे भीतर रहने वाला,
अंतर्घट का वासी
आजकल पूछने लगा है।
सच पूछो तो, मुझे यह कहने में हिचक नहीं कि
उसके सामने
मेरा जोश और होश
ठंड पड़ जाता है,
ललाट पर पसीना आ जाता है।
अतः अपनी हार मानकर
मैं चुप कर जाता हूं।
अपना सा मुंह लेकर रह जाता हूं ।


मुझे अपना अंत आ गया लगता है ,
अंतस तक
दिशाहीन और भयभीत करता सा लगता है।

सच है...
कई बार
आप बाह्य तौर पर
नज़र आते हैं
निडर व आज़ाद
पर
आप अदृश्य रस्सियों से
बंधे होते हैं ,
आप कुछ नया नहीं
कर पाते हैं,
बस !अंदर बाहर तिलमिलाते हैं ,
आपके डर अट्टहास करते जाते हैं।
हमारे यहां
अज्ञान के अंधेरे को
बदतर
अंधा करने वाला
माना जाता है।
फिर भी
कितने लोग अपने भीतर
झांककर
उजास की
अनुभूति कर पाते हैं ?
बल्कि वे जीवन में
मतवातर
भटकते रहते हैं।
अचानक रोशनी जाने से
मैं अपने आस पास को ढंग से
देख नहीं पाया था,
फलत: मेरा सिर
दीवार से जा टकराया था।
कुछ समय तक
मैं लड़खड़ाया था,
बड़ी मुश्किल से
ख़ुद को संभाल पाया था।
बस इस छोटी सी चूक से
मुझे अंधेरा अंधा कर देता है ,
जैसा खयाल मनो मस्तिष्क में
कौंध गया था।
इस पल मैं सचमुच
चौंक गया था।
यह सच है कि
घुप अंधेरा सच में
आदमी की देखने की सामर्थ्य को
कम कर देता है।
वह अंधा होकर
अज्ञान की दीवार से
टकरा जाता है।
इस टकरा जाने पर
उठे दर्द से
वह चौकन्ना भी हो जाता है।
वह संभलने की कोशिश कर पाता है।
यकीनन एक दिन वह
गिरकर संभलना सीख जाता है।
वह अथक परिश्रम के बूते आगे बढ़ पाता है।
०७/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
स्वेच्छा से
किया गया कर्म
हमें कर्मठ बनाकर
धर्म की अनुभूति
कराता है ,
अन्यथा
जबरन थोपा गया कार्य
हमारे जीवन के भीतर
ऊब और उदासीनता
पैदा कर
हमारी सोच को
बोझिल व थकाऊ
बनाकर भटकने के लिए
बाध्य करता है।

स्वेच्छा से
किया गया कार्य
हमें शुचिता के मार्ग का
अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित
करता है और यह हमें
जीवन पथ पर
उत्तरोत्तर
स्वच्छ मानसिकता का
धारणी बनाता है ,
हमें पवित्रता की निरंतर
अनुभूति कराता है ,
अन्यथा
जबरन थोपा गया कार्य
हमें अस्वाभाविकता का दंश देकर
पलायनवादी और महत्वाकांक्षी सोच
अपनाने को बाध्य कर
रसविहीन और हृदयहीनता को
बनाए रखता है।

आओ
आज
हम स्वाभाविकता को चुनें
ताकि जीवन में
कभी परेशान होकर
हताशा और निराशा में जकड़े जाकर
अपना सिर न धुनें ।
हम सदैव अपनी अन्तश्चेतना की ही सुनें।
अपनी अंतर्दृष्टि को
प्रखर करते हुए
जीवन पथ पर आगे बढ़ें।
हम सदैव कर्मठता का ही वरण करें।
२५/१२/२०२४.
जीव के भीतर
जीवन के प्रति
बना रहना चाहिए आकर्षण
ताकि जीवन के रंगों को देखने की
उत्कंठा
जीव , जीव के भीतर
स्पष्टता और संवेदना के
अहसासों को भरती रहे ,
उन्हें लक्ष्य सिद्धि के लिए
प्रेरित करती रहे ,
मन में उमंग तरंग बनी रहे।

कभी अचानक
जीवन में
अस्पष्टता का
हुआ प्रवेश कि
समझो
जीवन की गति पर
लग गया विराम।
देर तक
रुके रहने से
जीवन में
मिलती है असफलता ,
जो सतत चुभती है ,
असहज करती है ,
व्यथित करती है ,
व्यवहार में उग्रता भर देती है।
यह जिन्दगी को कष्टदायक कर देती है।

अक्सर
यह आदमी को
असमय थका देती है ,
उसे झट से बूढ़ा बना देती है।

यह सब न केवल
जीवन में रूकावटें पैदा करती है ,
बल्कि यह जिन्दगी में
निराशा और हताशा भर कर
समस्त उत्साह और उमंग को
लेती है छीन ,
भीतर का संबल
आत्मबल होता जाता क्षीण।
आदमी धीरे धीरे होने लगता समाप्त।
वह अचानक छोड़ देता करने प्रयास।
फलत: वह जीवन की दौड़ में से हो जाता बाहर ,
वह बिना लड़े ही जाता , जीवन रण को हार।
यही नहीं वह भीतर तक हो जाता भयभीत
कि पता नहीं किस क्षण
अब उड़ने लगेगा उसका उपहास !
यही सोच कर वह होने लगता उदास !!
जीवन का आकर्षण महज एक तिलिस्म लगने लगता !
धीरे धीरे निरर्थकता बोध से जनित
जीवन में अपकर्षण बढ़ने है लगता !!
११/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
हार की कगार पर
खड़े रहकर भी
जो जीत के स्वप्न ले!
ऐसा नेता
देश तुम्हें मिले !

हर पल सार्थकता से जुड़ा रहे,
ऐसा बंधु
सभी को मिले!
जिसकी उपस्थिति से
तन मन खिले!

०१/१२/२००८.
आज असंतोष की आग
हर किसी के भीतर
धधक रही है।
यह आग
दावानल सी होकर
निरन्तर बढ़ती जा रही है
और सुख समृद्धि और संपन्नता को
झुलसाती जा रही है।
यह कभी रुकेगी भी कि नहीं ?
इस बाबत कुछ कहा नहीं जा सकता ;
आदमी का लोभ,लालच, प्रलोभन
सतत दिन प्रति दिन बढ़ रहा है,
फलत: आदमी असंतोष की आग में
झुलसता जा रहा है।
वह इस अग्नि दहन से कैसे बचे ?
उसे कुछ समझ नहीं आ रहा है।
उसके भीतर अस्पष्टता का बादल घना होता जा रहा है।
यह कभी बरसेगा नहीं , यह भ्रम उत्पन्न करता जा रहा है।
असंतोष जनित आग निरन्तर रही धधक।
पता नहीं यह कब अचानक उठे एकदम भड़क ?
कुछ कहा नहीं जा सकता ।
इससे आत्म संयम से ही है बचा जा सकता।
और कोई रास्ता सूझ नहीं रहा।
मनो मस्तिष्क में इस आग से उत्पन्न धुंधलका
अस्पष्टता की हद तक बढ़ता जा रहा।
इस आग की तपिश से हरेक है घबरा रहा।
१६/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
आईना
जो दीवार से सटा था ,
अर्से से उपेक्षित सा टंगा था ।
जिस पर धूल मिट्टी पड़ती रही ,
संगी दीवार से पपड़ियां उतरती रहीं ।
आजकल बेहद उदासीन है ,
उसका भीतर अब हुआ गमगीन है ।
बेशक आसपास उसका बेहिसाब रंगीन है ।

आज बीते समय की याद में खोया है।


रूप
जो मनोहारी था,
मंत्र मुग्ध करता था ।
जो था कभी
सचमुच
आकर्षण से भरा हुआ,
अब हुआ फीका और मटमैला सा ।
Joginder Singh Dec 2024
अब
सबसे ख़तरनाक आदमी
सच बोलने वाला
हो गया है
और
झूठ का दामन
पकड़कर
आगे बढ़ने वाला
आदर्श
हो गया है।

क्या करें लो
आजकल
ज़मीर
कहीं भागकर
गहरी नींद में
सो गया है
और
सच्चा
झूठों की भीड़ में
खो गया है।

आजकल
सच्चा मानुष
अपने भीतर
मतवातर
डर भरता
रहता है ,
जबकि
झुके मानुष की
सोहबत से
सुख मिलता है।

आजकल
भले ही
आदमी को
अपने साथी की
हकीकत
अच्छे से
पता हो ,
उसके जीवन में
पास रहने से
सुरक्षित होने का
आश्वासन भरा
अहसास
बना रहता है।

बेशक
जीवन मतवातर
समय की चक्की में
पिसता सा लगे
और
आदमी सबकी
निगाहों से
खुद को छुपाते हुए
अंदर ही अंदर
सिसकियां भरता रहे ,
वह चाहकर भी
झूठे का दामन
कभी छोड़ेगा नहीं!
जीवन का पल्लू
कभी झाड़ेगा नहीं!
वह उसे बीच
मझधार
छोड़कर
कभी भागेगा नहीं!

आजकल
यही अहसास बहुत है
जीवन को अच्छे से
जीने के लिए।
कभी-कभी पीने,
खुलकर हंसने के लिए।
बेशक हरेक हंसी के बाद
खुद को ठगने का अहसास
चेतना पर हावी हो जाए।
फलत:
आजकल
आदमी सतत्
झूठे के संग
घिसटता रहता है!
उसके जीवन से
चुपके चुपके से
सच का आधार
खिसकता रहता है!!
वह जीवन में
उत्तरोत्तर अकेला
पड़ता जाता है।
आजकल हर कोई
सच्चे को तिरस्कृत कर
झूठे से प्रीत रचाना
चाहता है क्योंकि जीवन
भावनाओं में बहकर
कब ढंग से चलता है ?
स्वार्थ का वृक्ष ही
अब ज़्यादा फलता-फूलता है।
आदमी आजकल
अल्पकालिक लाभ
अधिक देखता है,
भले ही बहुत जल्दी
जीवन में पछताना पड़े।
सबसे अपना मुंह छिपाना पड़े।
२८/१२/२०२४.
आजकल
लोग अपने पास
नगदी नहीं रखते।
वे अदायगी आन लाइन करते हैं।
क्या इससे जेबकतरों का धंधा
मंदा नहीं पड़ गया होगा ?
जेब खाली
तो कहां से बजेगी ताली ?
इस बाबत
एक पिता ने
अपनी पुत्री से प्रश्न किया।
तत्काल उत्तर मिला ,
" अरे पापा! अब चोर भी
हाइटेक हो गए हैं।
वे चोरी के नए नए ढंग खोजते हैं।
अब साइबर ठगी का जमाना है।
अतः सब को संभल कर रहना है।"
यह सब सुनकर पिता दंग रह गया।
वह सोचता रह गया कि
जमाना अब
देखते ही देखते
बहुत आगे तक बह गया है।
दक़ियानूसी का मारा
आदमी भी अब
यकायक
अचम्भित,
ठगा हुआ सा रह गया है।
आज का आदमी
समय की धारा में
तीव्र गति से
आगे बढ़ने को उद्यत है।
समय की दौड़ में
पीछे रह गया
मानुष अत्यंत व्यग्र है !
वह अत्याधिक उग्र है !!
०२/०५/२०२५.
बचपन में
मां थपकी दे दे कर
बुला देती थी
निंदिया रानी को ,
देने सुख और आराम।
अब मां रही नहीं,
वे काल के प्रवाह में बह गईं।
अब बुढ़ापे में
निंदिया रानी
अक्सर झपकी बन
रह रह कर देती है सुला,
किसी हद तक
अवसाद देती है मिटा।
अब निंदिया रानी
लगने लगी है मां,
जो देने लगती है
सुख और आराम की छाया!
जिससे हो जाती है ऊर्जित
जीवन की भाग दौड़ में थकी काया !!
अब निंदिया रानी बन गई है मां!
जो सुकून भरी थपकी दे दे कर ,
मां की याद दिलाने लगती है,
सच में मां के बगैर
जिन्दगी आधी अधूरी सी लगती है।
अब निंदिया रानी अक्सर
कुंठा और तनाव से दिलाने निजात
मीठी मीठी झपकी की दे देती है सौगात।
आजकल निंदिया रानी मां सी बन कर
जीवन यात्रा में सुख की प्रतीति कराती है,
यह आदमी को बुढ़ापे में
असमय बीमार होने से बचाया करती है।
०४/०३/२०२५.
कलयुग है ,
आजकल भाई
आपस में
छोटी छोटी बातों पर
लड़ पड़ते हैं ,
वे मरने मारने पर
उतारू हो जाते हैं !
काला उर्फ़ सुरिंदर ने
दो दिन पहले
बातों बातों में कहा था कि
जो भाई शादी से पहले
एक दूसरे की रक्षा में
गैरो से लड़ने को रहते हैं तैयार !
वही भाई समय आने पर
एक दूसरे को मारने पर
हो जाते हैं आमादा,
एक दूसरे के पर्दे उतार
शर्मसार कर देते हैं।
अब रामायण काल नहीं रहा !
लक्ष्मण सा भाई विरला ही मिलता है।
बल्कि भाई भाई का ख़ून कर
बन जाया करता है क़ातिल।

अभी यह सब सुने महज दो दिन हुए हैं कि
इसे प्रत्यक्ष घटित होते
अख़बार के माध्यम से जान भी लिया।
अख़बार में एक खबर सुर्खी बन छपी है ,
" ढाबे पर ट्रक चालक ने शराब के नशे में
बड़े भाई को पीट पीटकर मार डाला..."

सनातन में "रामायण " में
आदर्श भाइयों के बारे में
उनके परस्पर प्रेम और सौहार्दपूर्ण
जीवन बाबत दर्शाया गया है।
वहीं "महाभारत" में
कौरवों और पांडवों के बीच
भाइयों भाइयों में होने वाले
विवाद और संवाद की बाबत
विस्तार से कथा के रूप में
बताया गया है,
आदमी की समझ को
बढ़ाने की खातिर
एक मंच सजाया गया है।

मैं इस बाबत सोचता हूँ
तो आता है ख्याल।
आज कथनी और करनी के अंतर ने ,
रिश्तों में स्वार्थ के हावी होने ने
भाई को भाई का वैरी बना दिया है।
स्वार्थ के रिश्तों ने
रामायण के आदर्श भाइयों को
महाभारत करने के लिए उकसाया है।
पता नहीं कहाँ भाई भाई का प्यार जा छुपाया है ?
आदर्श परिवार को भटकाव के रास्ते पर दिया है छोड़ !
पता नहीं कब तक भाई
अपने रिश्ते को एक जुट रख पाएंगे !
या फिर वे भेड़चाल का शिकार होकर
आपस में लड़ कर समाप्त हो जाएंगे !!
आज भाईचारा बचाना बेहद ज़रूरी है ,
ताकि समाज बचा रहे !
देश स्वाभिमान से आगे बढ़ सके !!
०४/०३/२०२५.
कल की तरह
आज का दिन भी
बीत गया ,
बहुत कुछ भीतर भरा था
पर वह भी
लापरवाही के छेद की
वज़ह से
रीत गया।
अब पूर्णतः खाली हूँ ,
सो अपनी बात रख रहा हूँ।

कल
मैं घर पर ही रहा ,
बाहर चलने वाली
ठंडी हवाओं से डरता रहा।
सारा दिन अख़बार,
टेलीविजन,मोबाइल ,
बिस्तर या फिर चाय के
आसरे बीत गया।
फिर भी मैं रीता ही रहा।
देश, समाज, परिवार पर
बोझ बना रहा।

आज दफ़्तर में
कुछ ज़रूरी काम था,
सो घर से समय पर निकला
और ...
दफ़्तर छोड़ आगे निकल गया
जहां एक मित्र से मिलना हुआ
उसने हृदय विदारक ख़बर सुनाई।
मेरे गाँव का एक पुलिसकर्मी
नशे में डूबे बड़े घर के बिगड़ैल बच्चों की
लापरवाही का शिकार हो गया।
वह नाके पर डयूटी दे रहा था।
उसने कार में सवार लड़कों को
रुकने का इशारा किया ही था कि
वे लड़के उसे रौंदते हुए
कार भगा कर ले गए।
पता नहीं वे क्यों डर गए ?
घबराहट में वे अनर्थ कर गए।
फलत: वह बुरी तरह से घायल हुआ।
पहले उसे रूपनगर के राजकीय हस्पताल ले जाया गया ।
उसके बाद उन्हें चंडीगढ़ स्थित पीजीआई में
दाखिल करवाया गया।
जहां ऑपरेशन होने के बावजूद
उन्हें बचाया न जा सका।

आज उनका अंतिम संस्कार है।
यह सब कुछ जानकर
मैं उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुआ।
बड़ा हृदय विदारक माहौल था।
एक संभ्रांत परिवार का कमाऊ सदस्य
अराजक तत्वों की भेंट चढ़ गया ।
परिवार पर अचानक दुःख का पहाड़ टूट पड़ा।

शाम सात बजे घर पहुंचा
तो मैं थोड़ा उदास और निराश था।
जिस सहृदय आदमी की विनम्रता को
सब कल तक सराहते थे ,
वह आज अचानक मानवीय क्रूरता का
बन गया था शिकार।
वह जन रक्षक था
पर अराजकता के कारण
खुद को बचा नहीं पाया।
वह दुर्घटना ग्रस्त होकर
जीवन में संघर्ष करते करते
चिर निद्रा में सो गया।
एक संवेदनशील व्यक्ति
काल के भंवर में खो गया।

मोबाइल पर उनके दाह संस्कार की बाबत
एक वीडियो डाली गई थी,
जिसमें अंतिम अरदास से लेकर
पुलिस कर्मियों के सैल्यूट करने,
सलामी देने की प्रक्रिया दर्शाई गई थी।

पुलिस के जवान
जब तब
चौबीसों घंटे
कभी भी
कहीं भी
अपनी डयूटी ढंग से निभाते हैं
तब भी वे
असुरक्षित क्यों होते जाते हैं ?
असमय
वे हिंसा का शिकार बन जाते हैं।
इस संबंध में
सभी को सोचना होगा।

इस समय मैं
कल और आज के दिन के बारे में
विचार कर रहा हूँ ,
आदमी अपने को हर पल व्यस्त रखे
तो ही अच्छा ,
वरना सुस्ती में
दिन कुछ खो जाने का अहसास कराता है।
आदमी के जीवन का एक और दिन
काल की भेंट चढ़ जाता है।
आदमी के हाथ पल्ले कुछ नहीं पड़ता है।
उसका जीवन पछतावे में बीतने लगता है।
आदमी कर्मठता की राह चले तो दिन भी अच्छे भले लगें।
वह कल ,आज और कल का भरपूर आनंद ले।
ताकि जीवन में सुख समृद्धि का अहसास
तन और मन को प्रफुल्लित करता रहे।
२३/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
वेदों, गीता, रामायण, महाभारत की
सृजन स्थली
भारतवर्ष
अब
आज के भागम भाग वाले
काल खंड में
महाभारत का स्वरूप भर
प्रतीत होता है।
हर कहीं छोटे बड़े
खंडित स्वरूपों में महाभारत
देश
और दुनिया में मंचित की
जा रही है।
लगता है महाभारत का युद्ध
अभी तक
जारी है।
यहां वहां चारों ओर
अंधकार फैला हुआ है।
छल प्रपंच के मध्य
यहां हर कोई
एक दूसरे को मार रहा है।
यहां हर कोई धीमी मौत मर रहा है।
अर्जुन सरीखा,जो लड़ने में सक्षम है,
जीवन की युद्धभूमि से भाग रहा है।
यहां हर कोई पार्थ की प्रतीक्षा कर रहा है।
इस सब के बावजूद
हर कोई अपना अपना युद्ध लड़ रहा है।
१५/११/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
आज का आदमी
दौड़ धूप में उलझ
कल और कल के बीच
फंसा हुआ सा
लगा रहा है
अस्तित्व अपने पर ग्रहण।


आज की दुनिया में
नाकामयाब को
लगता है
हर कोई एक जालसाज़!
कुटिल व दग़ाबाज़!!


वज़ह....
आज के आदमी की
धड़कन ,
कलयुग के दौर में
हो चुकी है
एक भटकन भर,
पल पल आज आदमी रहा मर।


आज आदमी
अपने आप में
एक मशीन हो गया है।
'कल' युग में उसका
सुख, चैन,करार
सर्वस्व
भेड़ चाल के कारण
कहीं खो गया है।


ख़ुद को न समझ पाना
उसके सम्मुख
आज
एक  संगीन जुर्म सा
हो गया है।


जिस दिन
वह समय की नदिया की
कल  कल से
खुद को जोड़ेगा,
वह  उस दिन
दुर्दिनों के दौर में भी
सुख,सुविधा, ऐश्वर्य को भोगेगा।
फिर कभी
नहीं
वह लोभ लालच का
शिकार होकर ,
अधिक देर तक
अंधी दौड़ का
अनुसरण कर भागेगा।
आज समाज में
असंतोष की आग
दावानल बनी हुई
सब कुछ भस्मित करती
जा रही है ,
उसके मूल्य
दिनोदिन
अवमूल्यन की राह
बढ़ चले हैं,
सब भोग विलास की राह पर
चल पड़े हैं।
सभी के भीतर
डर,आक्रोश, सनसनी
उत्पन्न होती जा रही है ,
हर वर्ग में तनातनी
बढ़ती जा रही है।
ऐसे समय में
समाज क्या करे ?
वह अपने नागरिकों में
कैसे सार्थक सोच विकसित करे ?
वह किन से
सुख समृद्धि और संपन्नता की आस करे
ताकि उसका मूलभूत ढांचा
सकारात्मकता को
बरकरार रख सके ,
इसमें दरारें न आ सकें।
इसमें और अधिक बिखराव न हो।
कहीं कोई गुप्त तनाव न हो ,
जिससे विघटन की रफ्तार कम हो सके ,
समाज में मूल्य चेतना बची रह सके।

आज समाज
क्यों न स्वयं को
पुनर्संगठित करे !
समाज
निज को
समयोचित बनाकर
अपने विभिन्न वर्गों में
असंतोष की ज्वाला को
नियंत्रण में रखने के लिए
निर्मित कर सके कुछ सार्थक उपाय !
वह समायोजन की और बढ़े !
इसके साथ ही वह अंतर्विरोधों से भी लड़े !!
ताकि सब साम्य भाव को अनुभूत कर सकें !!
२३/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
कम दाम में
बादाम खाने हों
तो बंदा चतुर होना चाहिए।

अधिक दाम दे कर
धक्के खाने हों
तो बंदा अति चतुर होना चाहिए।

एक बात कहूं
बंदा,जो सुन ले, सभी की
करे अपनी मर्ज़ी की ।
वह कतई न ढूंढना चाहे
किसी में ‌कोई भी कमी पेशी।
ऐसा इन्सान
न केवल सम्मान पाता है,
सभी से हंसी-मजाक कर पाता है,
बल्कि सभी की कसौटी पर खरा उतरता है।
ऐसा शख्स आज़ाद परिंदे सरीखा होता है,
जिससे दोस्ती का चाहवान हर कोई होता है।
ऐसा आदमी न केवल भाई की कमी हरता है,
बल्कि उसकी सोहबत से हर कोई खुशी वरता है।
मित्र वर! एक पते की बात कहूं,
वह शख्स मुझे तुम्हारे   जैसा लगता है।


दोस्त,
आज़ाद परिंदों की सोहबत कर
ताकि मिट सकें बेवजह के डर ।
कतई न अपनी आज़ादी
किसी आततायी के पास गिरवी रख ,
ताकि तुम अपनी मंजिल की तरफ़ बेख़ौफ़ सको बढ़ ।

१०/०६/२०१६.
तुम्हारे साए में
तुम्हारे आने से
परम सुख मिलता है , अतिथि !
हमारा सौभाग्य है कि
आपके चरण अरविंद इस घर में पड़े ।
तुम्हारे आने से इस घर का कण कण
खिल उठा है।
मन परम आनंद से भर गया है।
इस घर परिवार का
हरेक सदस्य पुलकित और आनंदित हो गया है ।

जब आपका मन करे
आप ख़ुशी ख़ुशी यहाँ
आओ अतिथि !
हम सब के भीतर
जोश और उत्साह भर जाओ।
तुम हम सब के सम्मुख
एक देव ऋषि से कम नहीं हो ,बंधु !
हम सब "अतिथि देवो भव: "के बीज मंत्र को
तन मन से शिरोधार्य कर
जीवन को सार्थक करना चाहते हैं , अतिथि !
तुम्हारे दर्शन से ही
हम प्रभु दर्शन की कर पाते हैं अनुभूति,
हे प्रभु तुल्य अतिथि !!

एक बार आप सब
मेरे देश और समाज में
अतिथि बनकर पधारो जी।
आप आत्मीयता से
इस देश और समाज के कण कण को
सुवासित कर जाओ।
आपकी मौजूदगी और भाव वात्सल्य के
जादू से
यह जीवन और संसार
रमणीय बन सका है, हे अतिथि!
आपके आने से ,
आतिथ्य सुख की कृपा बरसाने से ,
इस सेवक की प्रसन्नता और सम्पन्नता
निरंतर बढ़ी है।
जीवन की यह अविस्मरणीय निधि है।
आप बार बार आओ, अतिथि।
आप की प्रसन्नता से ही
यहां सुख समृद्धि आती है।
वरना जिंदगी अपने रंग और ढंग से
अपने गंतव्य पथ पर बढ़ रही है।
यह सभी को अग्रसर कर रही है।
२५/०८/२००५.
Joginder Singh Dec 2024
आतंक
आग सा बनकर
बाहर ही नहीं
भीतर भी बसता है ,
बशर्ते
आप उसे  
समय रहते
सकें पकड़
ताकि
शांति के
तमाम रास्ते
सदैव खुले रहें ।

आतंक
हमेशा
एक अप्रत्याशित
घटनाक्रम बनकर
जन गण में
भय और उत्तेजना भरकर
दिखाता रहा है
अपनी मौजूदगी का असर ।

पर
जीवन का
एक सच यह भी है कि
समय पर लिए गए निर्णय ,
किया गया
मानवीय जिजीविषा की खातिर संघर्ष ,
शासन-प्रशासन
और जनसाधारण का विवेक
आतंकी गतिविधियों को
कर देते हैं बेअसर ,
बल्कि
ये आतंकित करने वाले
दुस्साहसिक दुष्कृत्यों को
निरुत्साहित करने में रहते हैं सफल।
ये न केवल जीवन धारा में
अवरोध उत्पन्न करने से रोकते हैं,
अपितु विकास के पहियों को
सार्थक दिशा में मोड़ते हैं।
अंततः
कर्मठता के बल पर
आतंक के बदरंगों को
और ज्यादा फैलने से रोकते हैं।


दोस्त,
अब आतंक से मुक्ति की बाबत सोच ,
इससे तो कतई न डरा कर
बस समय समय पर
अपने भीतर व्याप्त उपद्रवी की
खबर जरूर नियमित अंतराल पर ले लिया कर ,
ताकि जीवन के इर्द-गिर्द
विष वृक्ष जमा न सकें
कभी भी अपनी जड़ों को ।

और
किसी आंधी तूफ़ान के बगैर
मानसजात को
सुरक्षा का अहसास कराने वाला
जीवन का वटवृक्ष
हम सब का संबल बना रहे ,
यह टिका रहे , कभी न उखड़े !
न ही कभी कोई
दुनिया भर का
गांव ,शहर , कस्बा,देश , विदेश उजड़े।
न ही किसी को
निर्वासित होकर
अपना घर बार छोड़ने को
बाधित होना पड़े ।
१६/०६/२००७.
Joginder Singh Nov 2024
वो पति परमेश्वर
क्रोधाग्नि से चालित होकर,
अपना विवेक खोकर
अपनी अर्धांगिनी को  
छोटी छोटी बातों पर
प्रताड़ित करता है।

कभी कभी वह
शांति ढूंढने के लिए
जंगल,पहाड़,शहर, गांव,
जहां मन किया,उधर के लिए
घर से निकल पड़ता है
और भटक कर घर वापिस आ जाता है।

कल अचानक वह
क्रोध में अंधा हुआ
अनियंत्रित होकर
अपनी गर्भवती पत्नी पर
हमला कर बैठा,
उससे मारपीट कर,
अपशब्दों से अपमानित
करने की भूल कर बैठा।

वह अब पछता रहा है।
रूठी हुई धर्म पत्नी को
मना रहा है,साथ ही
माफ़ी भी माँग रहा है।
क्या वह आतंकी नहीं ?
वह घरेलू आतंक को समझे सही।
इस आतंक को समय रहते रोके भी।
०१/१२/२००८.
Joginder Singh Dec 2024
जब से
सच ने अपना
बयान दिया है ,
तब से
दुनिया भर का रंग ढंग
बदल गया है ,
और ज्ञान का दायरा
सतत् बढ़ा है।

अभी अभी
मुझे हुआ है अहसास
कि यह सुविधा भोगी दुनिया
निपट अकेली रह गई है,
उसकी अकड़
समय के साथ बह गई है ।

मुझे हो चुका है बोध
कि दुनिया बाहर से कुछ ओर ,
भीतर से कुछ ओर ।
बाहर से जो देता है दिखाई ,
वह कभी कभी होता है निरा झूठ !
भीतर से जो देता है सुनाई
वह ही होता है सही और सौ फीसदी सच !!

पर
आजकल आदमी
चमक दमक के पीछे भाग रहा है ,
आत्मा को मारकर
धन और वैभव के आगे
नाच रहा है।

जब से
एक दिन
चुपके से
सच ने
अपनी जड़ों से जुड़कर
जीवन में आगे बढ़
यथार्थ को अनुभूत करने की बात कही है,
तब से मैं
खुद को एक बंधन से
बंधा पा रहा हूं ,
मैंने अपनी भूलें
और गलतियां सही की हैं ।

आजकल
मैं कशमकश में हूं ,
कुछ-कुछ असमंजस में पड़ा हुआ हूं ।

बात
यदि सच की मानूं ,
तो आगे दिख पड़ता है
एक अंधेरे से भरा कुंआ,
जिसमें कूद पड़ने का ख़्याल तक
जान देता है सुखा !
और
यदि
झूठ के भीतर रहकर
सुख समृद्धि संपन्नता का वरण करूं
तो दिख पड़ती खाई ,
जिसमें कूदने से लगता है भय
निस्संदेह इसका ख्याल आने तक से
होने लगती है घबराहट
पास आने लगती है मौत की परछाई !!
और जीवन पीछे छूटने की
आहट भी देने लगती है सुनाई !!

मन में कुछ साहस जुटा कर
कभी कभार सोचता हूं --
बात नहीं बनेगी क्रंदन से ,
जान बचेगी केवल आत्म मंथन से
सो अब सर्वप्रथम
स्वयं का
सच से नाता जोड़ना होगा।
इसके साथ ही
झूठ से निज अस्तित्व को
अलगाना होगा।
ताकि
जीवन में
प्रकाश और परछाई का खेल
निरंतर चलता रहे।
आत्म बोध भी समय को
अपने भीतर समाहित करना हुआ
चिरंतन चिंतन के संग
जीवन पथ पर अग्रसर होता रहे।
३०/०६/२००७.
Joginder Singh Nov 2024
"दंभ से भरा मानस
नरक ही तो भोगता है, ... । "
इसका अहसास
दंभी होने पर ही हुआ।
वरना इससे पहले मैं
नासमझी से भरा
जीवन को समझता फिरा
महज़ एक जुआ।
अब मानता हूँ,
"जब जब हार मिली,
तब तब आत्मविश्वास की चूल हिली ।"
  १७/१०/२०२४
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